Published on Dec 06, 2022 Updated 0 Hours ago

वाणिज्यिक उद्यमों या अन्य सरकारी स्वामित्व वाले उद्यमों को भारतीय अंतरिक्ष प्रक्षेपण वाहन प्रौद्योगिकी क्षेत्र में काम करने का मौका दिए जाने पर यह इस क्षेत्र की क्षमताओं को बढ़ाने में सहायक साबित हो सकता है.

GSLV Mk III: भारतीय सैन्य और नागरिक उद्यम पर अधिक ध्यान देना बेहद ज़रूरी है

21 अक्टूबर, 2022 को ब्रॉडबैंड इंटरनेट सेवाओं की व्यवस्था के लिए समर्पित जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल मार्क-III (GSLV Mk III) के सहयोग से 36 वनवेब उपग्रह लॉन्च किए गए थे. इस लॉन्च से पूरे भारत में उत्साह का संचार हो गया है. हालांकि, नवीनतम जीएसएलवी एमके-III जीएसएलवी मिशन की वजह से इस तरह के हर्षोल्लास का माहौल संचारित होने का कोई ठोस कारण नहीं है. सबसे पहली बात तो यह है कि जीएसएलवी एमके-III के सहयोग से वनवेब अंतरिक्ष उपकरण अर्थात पेलोड को लगभग 600 किलोमीटर पर एक गोलाकार लो अर्थ ऑर्बिट (एलईओ) के अंतिम चरण में आईएसआरओ अर्थात इसरो क्रायोजेनिक इंजन का उपयोग करके प्रक्षेपित अर्थात लॉन्च करना और अंत:क्षेपण अर्थात इंजेक्शन करना एक छोटी सी उपलब्धि ही है. दूसरी बात यह है कि यह जीएसएलवी एमके-III का केवल तीसरा सफल प्रक्षेपण है. अब इसे लॉन्च व्हीकल मार्क-3 (एलवीएम-3) कहा जाता है, जिसने चंद्रयान-2 लूनर अर्थात चंद्र मिशन के हिस्से के रूप में पहले लगभग 4 टन अंतरिक्ष उपकरण अर्थात पेलोड को तथा इससे पहले भी 2017 में जीएसएटी-19 उपग्रह को जीटीओ में सफलतापूर्वक प्रक्षेपित अर्थात लॉन्च किया था. इसरो के एमएमवी-3 के लिए इससे बड़ी परीक्षा न केवल एलईओ तक सफल प्रक्षेपण करना है, बल्कि संचार उपग्रहों को भी जियो ट्रांसफर ऑर्बिट (जीटीओ) तक अधिक सफलतापूर्वक लॉन्च को पूरा करना होगा. भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी के सामने इस आवश्यकता को पूरा करना प्रमुख चुनौती है. इसरो ने अब तक ज्यादातर जीएसएलवी के 10 लॉन्च किए हैं, जो निश्चित रूप से एलवीएम-3 से अलग लॉन्च वाहन होता है. जीएसएलवी के संदर्भ में भारत के प्रयासों का रिकॉर्ड बहुत ही खराब है. उत्तरार्ध में किए गए 14 प्रक्षेपणों में से चार में असफलता हाथ लगी थी, जबकि 10 सफल प्रक्षेपणों में से पहले दो मुख्य रूप से प्रयोगात्मक उपग्रह पेलोड ले जाने वाली विकासात्मक उड़ानें ही थीं. इन विकासात्मक प्रक्षेपणों में से पहला 21 साल पहले हुआ था, लेकिन इसरो को अभी तक इस लॉन्च तकनीक में पूरी दृढ़ता से महारत हासिल नहीं हुई है.

इसरो के एमएमवी-3 के लिए इससे बड़ी परीक्षा न केवल एलईओ तक सफल प्रक्षेपण करना है, बल्कि संचार उपग्रहों को भी जियो ट्रांसफर ऑर्बिट (जीटीओ) तक अधिक सफलतापूर्वक लॉन्च को पूरा करना होगा. भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी के सामने इस आवश्यकता को पूरा करना प्रमुख चुनौती है.

जीएसएलवी के विकास में, विशेष रूप से इसके क्रायोजेनिक ऊपरी चरण में, इसके पेलोड लॉन्च की क्षमताओं में इसरो अब तक इंक्रीमेंटल अर्थात वृद्धि संबंधी सुधार के साथ आगे बढ़ा है. वर्षों के निवेश के बावजूद प्रक्षेपण अर्थात लॉन्च वाहन अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में ही है. और यह लगातार सफलता के साथ पृथ्वी की उच्च कक्षा में भारी अंतरिक्ष उपकरण अर्थात पेलोड ले जाने और अंत:क्षेपण अर्थात इंजेक्ट करने की क्षमता से अभी भी काफी दूर है. भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी के पास बड़े उपग्रह पेलोड को लॉन्च करने के लिए फ्रांस निर्मित एरियन हेवी-लिफ्ट रॉकेट मौजूद है, जो भारत की जरूरतों को अच्छी तरह से पूरा कर रहा है. ऐसे में जीएसएलवी क्षमता विकसित करने की अत्यावश्यकता को छूट दी जा सकती है. हालांकि, फ्रांसीसी भारी अंतरिक्ष प्रक्षेपण यान पर निर्भरता भारत की रक्षा, नागरिक और वाणिज्यिक आवश्यकताओं को दीर्घकालीन समय में पूरा करने में काम नहीं आ सकते और न ही यह भारत की प्रमुख अंतरिक्ष एजेंसी की आकांक्षाओं को पूरा करते हैं.  क्योंकि भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी के पास भविष्य के लिए चंद्रमा तक मानव रहित और मानवयुक्त मिशन के साथ ही गहरे अंतरिक्ष मिशन की भी योजना तैयार हैं.

जीएसएलवी से जुड़ी धीमी प्रगति

पृथ्वी की उच्च कक्षाओं में कई टन वाले भारी पेलोड को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित करना सेना के लिए लाभकारी रहता है. इसका ताजा उदाहरण स्पेसएक्स के फाल्कन हेवी रॉकेट को कहा जा सकता है. भारत के संदर्भ में फाल्कन हेवी रॉकेट की बात तो छोड़िए, इसरो के लिए तो चीनी लांग मार्च लॉन्च वाहन की बराबरी करना भी बहुत मुश्किल साबित हुआ हैं. भारत की तुलना में, चीन की लांग मार्च श्रृंखला जियोसिंक्रोनस लॉन्च व्हीकल का अधिक तेजी से विकास, इस क्षेत्र में चीनी प्रगति का एक साफ दिखाई देने वाला प्रदर्शन और उदाहरण कहा जा सकता है. पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) ने 1970 में अपना पहला उपग्रह प्रक्षेपण करने के बाद अप्रैल 1984 में अपना पहला जियोस्टेशनरी अर्थात भूस्थैतिक उपग्रह लॉन्च करने के लिए लगभग 14 साल का समय लिया. और उसके बाद से वह जीटीओ में कई भारी उपग्रह लॉन्च कर चुका है. इसका एक कारण भारतीय अंतरिक्ष प्रक्षेपण उद्योग के भीतर प्रतिस्पर्धा का अभाव भी है. यह अभाव भारत में उभरते अंतरिक्ष स्टार्ट-अप इकोसिस्टम के उदय के बावजूद मौजूद है. मसलन इस इकोसिस्टम के तहत ही विक्रम-एस नामक एक उप-कक्षीय रॉकेट के नवीनतम प्रक्षेपण को देखा जा सकता है. जिसमें हैदराबाद स्थित अंतरिक्ष स्टार्ट-अप स्काईरूट ने पेलोड को लो इनक्लिनेशन अर्थात कम झुकाव वाले ऑर्बिट में इसरो के श्रीहरिकोटा स्पेसपोर्ट से डाला था. इस बात ने यह स्पष्ट रूप से उजागर कर दिया है कि एक स्वतंत्र जीएसएलवी क्षमता विकसित करने में लंबा वक्त ले लिया गया है. राष्ट्रीय सुरक्षा या रक्षा उपग्रहों को मज़बूती से लॉन्च करने में सक्षम एक स्वतंत्र जियोसिंक्रोनस लॉन्च क्षमता की मौजूदगी ज़रूरत पड़ने पर बड़े पेलोड को डिस्पैच करने में लचीलापन और गति उपलब्ध करवाती है. अंतरिक्ष क्षेत्र में भारतीय अंतरिक्ष प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी की क्षमताओं को बढ़ाने में निजी उद्यमों की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए. अंतरिक्ष क्षेत्र में वाणिज्यिक उद्यम को दुनिया भर में मान्यता प्राप्त है. भारत को भी अमेरिका की 2022 की राष्ट्रीय रक्षा रणनीति के रूप में अनुकरण करने की कोशिश करनी चाहिए. इसमें कहा गया है कि :‘‘हम प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में निजी क्षेत्र के साथ सहयोग बढ़ाएंगे, विशेषत: वाणिज्यिक अंतरिक्ष उद्योग के निजी क्षेत्र के साथ, ताकि हम निजी क्षेत्र की तकनीकी प्रगति और उद्यमशीलता की भावना का अपनी नई क्षमताओं को सक्षम करने के लिए लाभ उठा सकें.’’

भारत के संदर्भ में फाल्कन हेवी रॉकेट की बात तो छोड़िए, इसरो के लिए तो चीनी लांग मार्च लॉन्च वाहन की बराबरी करना भी बहुत मुश्किल साबित हुआ हैं. भारत की तुलना में, चीन की लांग मार्च श्रृंखला जियोसिंक्रोनस लॉन्च व्हीकल का अधिक तेजी से विकास, इस क्षेत्र में चीनी प्रगति का एक साफ दिखाई देने वाला प्रदर्शन और उदाहरण कहा जा सकता है

चीन से कितने दूर

भारतीय निजी क्षेत्र के उत्साह का लाभ उठाने का काम भारत में अभी भी आरंभिक अवस्था में ही है. लॉन्च वाहन विकास के क्षेत्र में भले ही हम प्रतिस्पर्धा के महत्व को खारिज करते हैं, लेकिन चीनी अंतरिक्ष कार्यक्रम के मुकाबले में इसरो का जीएसएलवी को लेकर विकास से जुड़ा प्रयास बेहद धीमा रहा है. अंतरिक्ष प्रक्षेपण वाहनों के लांग मार्च (एलएम) फैमिली को भी तो आखिरकार, चीन एयरोस्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी कॉरपोरेशन (सीएएससी) द्वारा ही विकसित और संचालित किया जाता है. यह एक सरकार के स्वामित्व वाला उद्यम है. ऐसे में इसरो को क्यों प्रतिस्पर्धा के लिए एक्सपोज्ड अर्थात उजागर किया जाना चाहिए? शायद हम यह भूल जाते हैं कि चीनी प्रक्षेपण यान कार्यक्रम में भी प्रतिस्पर्धा है. उदाहरण के लिए, शंघाई एकेडमी ऑफ स्पेसफ्लाइट टेक्नोलॉजी (एसएएसटी) और चाइना एकेडमी लॉन्च व्हीकल टेक्नोलॉजी (सीएएलटी) दोनों  ही अंतरिक्ष रॉकेटों की एलएम श्रृंखला का उत्पादन करने के लिए एक-दूसरे के साथ होड़ में जुटे हुए हैं. एसएएसटी तथा सीएएलटी दोनों ही चाइना एयरोस्पेस एंड साइंस टेक्नोलॉजी कॉरपोरेशन (सीएएससी) का ही हिस्सा हैं और सीएएससी, पीआरसी का प्राथमिक अंतरिक्ष कॉन्ट्रैक्टर याने प्रमुख एजेंसी है. हालांकि, इसरो भी सरकार के स्वामित्व वाला उद्यम है और भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए अंतरिक्ष प्रक्षेपण वाहन प्रौद्योगिकी का प्राथमिक विकासकर्ता है. ऐसा होने के बावजूद, यह अपने चीनी समकक्ष की बराबरी करने या उसका अनुकरण करने में कामयाब नहीं हुआ है, क्योंकि इसे किसी अन्य सरकारी स्वामित्व वाले अंतरिक्ष अनुसंधान और विकास (आर एंड डी) या निर्माण इकाई से प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़ता. और यही बात इसके भारी लॉन्च वाहन कार्यक्रम को ओपन एंडेड यानि बिना किसी निश्चित नियम या तरीके का बना रही है. भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा 4-5 टन श्रेणी और उससे अधिक के पेलोड को लॉन्च करने और जियो ट्रांसफर ऑर्बिट (जीटीओ) में अंत:क्षेपण अर्थात इंजेक्ट करने के लिए तैयार भारी लॉन्च वाहनों का ग्लेशियल डेवलपमेंट ट्रैजेक्टरी अर्थात धीमी विकास प्रक्षेपपथ या प्रक्षेपवक्र, भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम में एक खामी अथवा दरार बनी हुई है. एक ओर जहां चीन अपने एलएम 5 के साथ जीटीओ में 14,000 किलोग्राम का पेलोड रख सकता है और रख भी चूका है. वहीं एलएम 5 बी के सहयोग से पीआरसी अपने इंटरप्लेनेटरी मिशन तियानवेन-1 और चांगई 5 लूनर सैम्पल रिटर्न मिशन को अंजाम तक पहुंचाने में सफल रहा है. 

राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा अनिवार्यता से परे जाकर इसरो को अपने चंद्र और मंगल मिशनों के साथ-साथ दीर्घकालिक गहरे अंतरिक्ष मिशनों के लिए शक्तिशाली रॉकेट्स की आवश्यकता होगी. ऐसे में इनका विकास और अधिक जरूरी हो जाता है.

राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा अनिवार्यता से परे जाकर इसरो को अपने चंद्र और मंगल मिशनों के साथ-साथ दीर्घकालिक गहरे अंतरिक्ष मिशनों के लिए शक्तिशाली रॉकेट्स की आवश्यकता होगी. ऐसे में इनका विकास और अधिक जरूरी हो जाता है.

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