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कोविड के दौरान अपने प्यारों को गंवाने का दुख संभाल पाने में अक्षमता ने मानसिक स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र में ख़ामियों को दूर करने की ज़रूरत उजागर की है.
कोविड-19 महामारी: ‘अपनों को खोने के दुख और अवसाद से उपजा सामाजिक अलगाव और अपराध-बोध’
ओमिक्रॉन वेरिएंट के चलते कोविड-19 के मामलों में आ रहे उछाल के साथ, रिसर्च बताती है कि यह वेरिएंट डेल्टा वेरिएंट से कम घातक है. डेल्टा के मुक़ाबले अस्पताल में भर्ती होने की आशंका 40 फ़ीसद कम है. मगर, भारत में दूसरी लहर के असर की हमारे ज़ेहन पर गहरी छाप है. दुनिया में 54 लाख मौतों, और अकेले भारत में 5 लाख मौतों के नतीजतन, इस महामारी ने दुख़ से अछूता रह पाना नामुमकिन बना दिया. दुनिया की आबादी का बड़ा हिस्सा किसी न किसी हद तक निजी, आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक नुक़सान से गुज़र रहा है. ज्य़ादातर ध्यान वायरस को क़ाबू करने में रहा है, लेकिन सतह के नीचे जो खदबदा रहा था, वह है नुक़सान से जुड़े हमारे अनुभवों में स्तब्धकारी बदलाव.
दुनिया में 54 लाख मौतों, और अकेले भारत में 5 लाख मौतों के नतीजतन, इस महामारी ने दुख़ से अछूता रह पाना नामुमकिन बना दिया. दुनिया की आबादी का बड़ा हिस्सा किसी न किसी हद तक निजी, आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक नुक़सान से गुज़र रहा है.
कोविड-19 के दौरान मौतों के इर्द-गिर्द की परिस्थितयां नुक़सान से एक सार्थक तरीक़े से उबर पाने को चुनौतीपूर्ण बनाती हैं. परिवार के लिए अस्पताल जाने की कोई संभावना नहीं होने के कारण मरीज़ों के अपने आख़िरी दिन अकेले में काटने से लेकर अंतिम संस्कार तक से वंचित रह जाने तक. कुल मिलाकर, ये चीज़ें उस जटिल दुख (complicated grief) विकसित करने के कारकों की तरह काम करती हैं जो एक बाधित दुख चक्र (disrupted grief cycle) से पैदा होता है. सामान्य स्थितियों में, अपनों को खोने का दुख़ सह रहे तक़रीबन 7 फ़ीसद लोग अनसुलझा ग़म (unresolved bereavement) और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी दूसरी समस्याएं भुगत रहे होते हैं, जिसकी वजह अलविदा नहीं बोल पाना, अत्यधिक अपराधबोध, और सामजिक संबल का अभाव होते हैं. महामारी के प्रकोप के बाद यह आंकड़ा बढ़ने के आसार हैं. इसका संकेत एक रिसर्च से मिलता है जिसमें आइसीयू में गुज़र जानेवाले मरीज़ों के रिश्तेदारों का आकलन किया गया. उनमें से 52 फ़ीसद लोगों में जटिल दुख़ के लक्षणों की पहचान की गयी.
जटिल दुख़ का नतीजा अक्सर अवसाद, अपराधबोध, और गुस्से के रूप में सामने आता है, जिसके सामंजस्य या मनोचिकित्सकीय विकार (adjustment or psychiatric disorder) में बदल जाने की आशंका रहती है. इतना ही नहीं, कोविड-19 ट्रॉमा से उपजे सर्वाइवर्स गिल्ट (किसी बीमारी या घटना में ख़ुद बच जाने, लेकिन दूसरों के न बच पाने से उपजा अपराधबोध) की परिघटना उन व्यक्तियों में कई गुना बढ़ गयी है जो कोविड के चलते किसी अपने को खोने का ग़म उठा रहे हैं. यह उन्हें नकारात्मक संज्ञान धारण करने और प्रियजनों को गंवाने के लिए ख़ुद को दोषी ठहराने की ओर ले गया है. तकलीफ़ों और मौतों की संख्या को रोकने में राज्य की अक्षमता ने, ख़ासकर भारत में, प्रियजनों के विछोह से जुड़े अंदरूनी गुस्से और इनकार भाव (denial) को और बढ़ा दिया है.
कोविड-19 ट्रॉमा से उपजे सर्वाइवर्स गिल्ट (किसी बीमारी या घटना में ख़ुद बच जाने, लेकिन दूसरों के न बच पाने से उपजा अपराधबोध) की परिघटना उन व्यक्तियों में कई गुना बढ़ गयी है जो कोविड के चलते किसी अपने को खोने का ग़म उठा रहे हैं.
शोक से उबरने में मदद के लिए प्रणालियां बना पाने की बुनियाद शोकग्रस्त व्यक्तियों को समझना है. इसलिए, मृत्यु के बाद के कर्मकांडों के महत्व को शोक मनाने की सांस्कृतिक एवं धार्मिक प्रणालियों के रूप में समझना अनिवार्य हो जाता है. वे शोक-संतप्त को सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संबल प्रदान करते हैं और मृतक के लिए प्यार व सम्मान जताने का मौक़ा उपलब्ध कराते हैं. कर्मकांड और अनुष्ठान दुख़भोग की प्रक्रिया को निर्देशित करते हैं. इस क्रम में वे नुक़सान को वास्तविक और अंतिम बनाते हैं, सामाजिक संबल नेटवर्क के इकट्ठा होने का मौक़ा देते हैं और परिवार/मित्रों को यह सुविधा प्रदान करते हैं कि वे मृतक के बारे में अपनी भावनाएं साझा कर सकें. महामारी से जुड़े सुरक्षा उपायों ने इन प्रक्रियाओं को बाधित किया है. इसने अपनों को खोनेवालों को दीर्घकालिक दुख (chronic grief) की चपेट में आने के ख़तरे के साथ छोड़ दिया है, जो उन्हें भावनात्मक रूप से और ज्याद अलग-थलग कर सकता है.
संक्रमण के डर से सुरक्षा उपायों का मतलब है कि शोक मनानेवाले भौतिक सुकून देनेवाली अभिव्यक्तियों से वंचित रह जाते हैं- वे मृतक को छू नहीं सकते और अपने प्रियजन की मौत के बाद सामाजिक जुटान नहीं कर सकते. अंतत:, उन्हें ऐसा लग सकता है कि वे अपने प्रिय को उस ढंग से विदाई नहीं दे सके जैसा उसने चाहा रहा होगा. यह बात अक्सर उनके अपराधबोध को और बढ़ाती है.
कर्मकांड और अनुष्ठान दुख़भोग की प्रक्रिया को निर्देशित करते हैं. इस क्रम में वे नुक़सान को वास्तविक और अंतिम बनाते हैं, सामाजिक संबल नेटवर्क के इकट्ठा होने का मौक़ा देते हैं और परिवार/मित्रों को यह सुविधा प्रदान करते हैं कि वे मृतक के बारे में अपनी भावनाएं साझा कर सकें.
आगे भी जारी सामाजिक अलगाव (social isolation) आधारित वैश्विक सार्वजनिक नीतियों के साथ, यह शोक-संतप्त व्यक्तियों में अनसुलझे या जटिल दुख़ में बदल जाता है. नैदानिक रूप से, इसकी पहचान इन लक्षणों की मौजूदगी से की जाती है:
अनसुलझा दुख समय के साथ बिना किसी बड़े बदलाव के जस-का-तस रहता है. इसलिए, यह इसकी पहचान होने पर सक्रिय हस्तक्षेप की ज़रूरत की ओर इशारा करता है. अक्सर इसकी सही पहचान नहीं हो पाती है, जो लंबे और तरह-तरह के चिकित्सकीय परामर्शों की ओर ले जाता है. इसके उपचार में शामिल है कि मरीज़ों को उनके नुक़सान के बारे में बात करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए और एक सामान्य दुख़ प्रतिक्रिया से गुज़रने के लिए उनका मार्गदर्शन किया जाए.
जीवन जीने के हमारे सामान्य ढांचे में व्यवधान और सामाजिक दूरी ने स्वतंत्रता और रिश्तों को नुक़सान पहुंचाया है. दुख़ की अभिव्यक्तियां आबादी के विभिन्न हिस्सों में अनोखी हैं, जिसका अध्ययन भारत जैसे सामाजिक-आर्थिक रूप से विविधतापूर्ण देश में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है. इसकी पहचान करने और इस पर ध्यान देने में विफलता से under-detection (वास्तविक से कम मामलों की पहचान होना) की स्थिति बन सकती है, जो मनोवैज्ञानिक सहरुग्णता (psychological co-morbidity) को बढ़ा कर, और किसी के जीवन की गुणवत्ता को गंभीर रूप से क्षति पहुंचा सकती है.
मौत के आंकड़ों की बार-बार रिपोर्टिंग ने कोविड-19 से जुड़ी मौतों को लेकर आबादी के रवैये को असंवेदनशील बना दिया है. स्क्रीन पर मौत के आंकड़ों के साथ, बहुत से व्यक्ति यह एहसास करने में नाकाम हो गये हैं कि हर वृद्धि एक वास्तविक इंसानी ज़िंदगी का नुक़सान है, न कि ख़बर में बतायी गयी बस एक संख्या.
नये वेरिएंट्स में कम मृत्यु दर के साथ, हम ओमिकॉन वेरिएंट को समायोजित करते समय नीतियों में बदलाव लाने के बारे में डेल्टा लहर से सीख सकते हैं. मौत के आंकड़ों की बार-बार रिपोर्टिंग ने कोविड-19 से जुड़ी मौतों को लेकर आबादी के रवैये को असंवेदनशील बना दिया है. स्क्रीन पर मौत के आंकड़ों के साथ, बहुत से व्यक्ति यह एहसास करने में नाकाम हो गये हैं कि हर वृद्धि एक वास्तविक इंसानी ज़िंदगी का नुक़सान है, न कि ख़बर में बतायी गयी बस एक संख्या.
दूसरी तरफ़, बार-बार रिपोर्ट किये जानेवाले मौत के आंकड़ों के साथ ‘उम्र’ और ‘पुरानी बीमारियों’ का हवाला यह दिखाता है कि ये मौतें होनी ही थीं और एक हद तक ये स्वीकार्य हैं. भले ही ऐसा आम लोगों को आश्वस्त करने के इरादे से किया जाता है, लेकिन यही उसी उम्र के और उन्हीं पुरानी बीमारियों से गुज़र रहे लोगों को ज्य़ादा असुरक्षित और फ़ालतू होने का एहसास कराता है. वैश्विक भू-राजनीतिक दायरे में आरोप-प्रत्यारोप, डर, और संदेह का नकारात्मक माहौल बन गया है, जिसका नतीजा अलग चलने की नीतियों और लोगों के बीच स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों में विश्वास के अभाव के रूप में सामने आ रहा है.
कुल मिलाकर ये परस्थितियां इशारा करती हैं कि नयी दशाओं के साथ बेहतर सामंजस्य के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में बदलाव की ज़रूरत है. लोग सामूहिक दुख महसूस कर रहे हैं, इसलिए मांग भी सामूहिक कार्रवाई की है. मानसिक स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं ने टेली-कंसल्टेशन को अपनाना और उसकी ओर शिफ्ट होना शुरू कर दिया है, जिसकी अपनी चुनौतियां हैं. मरीज़ की अशाब्दिक भाव-भंगिमाओं को पकड़ पाने में अक्षमता, मौत जैसे संवदेनशील विषय के साथ पेश आते समय शारीरिक और भावनात्मक दूरी, रोगोपचारी रिश्ते (therapeutic relationship) में बाधा के रूप में मौजूद हैं. इसके अलावा, अपने घर में रहकर थेरेपी लेते समय निजता और गोपनीयता बनाये रखना मुश्किल हो जाता है.
नयी परिस्थितियों ने कुछ सेवाओं को ऑनलाइन मुहैया कराने की ज़रूरत पैदा की है, जो स्वास्थ्य देखभाल के ढांचे में कौशल विकास और नये प्रशिक्षण कार्यक्रमों को आवश्यक बना रहा है.
महामारी ने मानसिक स्वास्थ्य के बोझ को उजागर कर दिया है, जो उन समाजों में उत्पन्न होता है जहां दुख को कलंक की तरह देखा जाता है, सामाजिक अलगाव और डिजिटल दुनिया में डूबे रहना बहुत व्यापक है, तथा दुख से उबरने और परस्पर संबल के सामूहिक ढांचे कमज़ोर पड़ रहे हैं.
आज की इस ज़रूरत को पहचानते हुए, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (MoHFW) ने देश में मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की कमी दूर करने के उद्देश्य से, Centres of Excellence in Mental Health की स्थापना के लिए बजट बढ़ाकर 36.96 करोड़ रुपये प्रति केंद्र तक कर दिया है. जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (DMHP) को भी वित्तीय मदद दी गयी है. अब इसका विस्तार देश के 692 जिलों तक हो रहा है. इसके अलावा, मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, पीएमएसएसवाई, राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम, आयुष्मान भारत, पीएम-जय जैसी सामान्य स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं के साथ एकीकृत किया जा रहा है. इतना ही नहीं, तीन केंद्रीय संस्थानों निमहांस (बेंगलुरू), लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलोई क्षेत्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान (असम), और केंद्रीय मनश्चिकित्सा संस्थान (सीआईपी, रांची) को वित्तीय मदद मुहैया करायी गयी है.
कई क्षेत्रों तक विस्तृत एक सर्वांगीण प्रतिक्रिया में लोक मनो-शिक्षा, दुख से जुड़े कलंक में कमी लाना, मानसिक स्वास्थ्य संसाधनों तक पहुंच बढ़ाना, ऐसे मामलों को सक्रियतापूर्वक खोजना और मानसिक स्वास्थ्य वर्कफोर्स के विस्तार की ओर एक क़दम बढ़ाना शामिल होना ही चाहिए.
बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य चिंताओं के निवारण के लिए, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा मार्च 2020 में राष्ट्रीय कार्य बल (National Task Force) शुरू किया गया. यह तकलीफ़ से गुज़र रहे व्यक्तियों को मनोवैज्ञानिक हेल्पलाइन सेवा उपलब्ध कराने के लिए है. टास्क फोर्स के तहत रुझान देखने को मिले कि मदद के लिए ज्यादातर फोन बेचैनी, उदासी, नींद न आने, डर, आशंका वगैरह से संबंधित होते हैं, और इसके पीछे कोई पुराना दुख़ होने की बात एक भरोसा बन जाने के बाद ही सामने आयी. इसमें टेलीफोनिक काउंसेलिंग के कई सेशन लगते हैं, जिसके साथ डिजिटल परामर्श की सीमाओं और पहुंच हासिल होने के मुद्दे हैं. लिहाज़ा, क्या यह काफ़ी है? DMHP का विस्तार और कामकाज पूरे देश में एक जैसा नहीं है. इसके साथ कई समस्याएं हैं, जैसे राज्यों द्वारा फंड का पूरा इस्तेमाल नहीं करना, केंद्र में प्रशासनिक बाधाएं और उत्साह की कमी. इसके अलावा, ज़िम्मेदारियों में विखंडन और विभाग के भीतर तथा दूसरे विभागों के साथ ख़राब समन्वय ने इसे ख़राब ढंग से लागू किया है और इसके प्रदर्शन को ख़राब किया है.
कई क्षेत्रों तक विस्तृत एक सर्वांगीण प्रतिक्रिया में लोक मनो-शिक्षा, दुख से जुड़े कलंक में कमी लाना, मानसिक स्वास्थ्य संसाधनों तक पहुंच बढ़ाना, ऐसे मामलों को सक्रियतापूर्वक खोजना और मानसिक स्वास्थ्य वर्कफोर्स के विस्तार की ओर एक क़दम बढ़ाना शामिल होना ही चाहिए. रिसर्च लगातार दिखाती है कि बिना प्रणालीगत या ढांचागत बदलाव के, मानसिक स्वास्थ्य देखभाल सेवाएं सामाजिक हानि के क्षतिकारी प्रभावों को उलट पाने में अपर्याप्त साबित होंगी. महामारी द्वारा पैदा की गयी सामूहिक दुख की नयी चुनौती से सर्वाधिक संवदेनशीलता के पालन के साथ निपटा जाना चाहिए और नीति परिवर्तन को आगे बढ़ाने के लिए इस काम में अग्रणी मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों को लाया जाना चाहिए.
लेखक ओआरएफ़ में रिसर्च इंटर्न हैं।
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