Author : Annapurna Mitra

Published on Sep 09, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत के औद्योगिक सेक्टर के विकास को देखते हुए देश के जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लक्ष्य से स्वच्छ ऊर्जा की नियमित और स्थिर आपूर्ति ज़रूरी होगी.

ग्रीन ट्रांज़िशन या हरित परिवर्तन के लिये ज़रूरत है इन भौतिक आवश्यकतों के पूरा होने की

कम कार्बन उत्सर्जन वाले विनिर्माण (manufacturing) की तरफ बढ़ने के लिए पर्याप्त और भरोसे वाली नवीकरणीय (renewable) ऊर्जा की आपूर्ति की ज़रूरत पड़ेगी. जिस तरह से पवन और सौर ऊर्जा उत्पादन की लागत में कमी आ रही है, उसको देखते हुए ये दोनों ज्य़ादा प्रतियोगी ऊर्जा स्रोत बनते जा रहे हैं. हालांकि, नवीन ऊर्जा स्रोतों के तेज़ी से विकास ने भारत में दो चुनौतियां पेश की है.

पहला, भारत की ऊर्जा सुरक्षा अब सौर और पवन ऊर्जा के बुनियादी ढांचे के लिए एक विविध आपूर्ति चेन बनाने के साथ-साथ घरेलू निर्माण में वृद्धि (जैसा कि अध्याय 4 में वर्णित है) पर निर्भर करेगी. दूसरा, स्वच्छ ऊर्जा और विनिर्माण की ओर बढ़ने के दबाव की ज़रूरत ने तेज़ी से उद्योगों के लिए ज़रूरी इनपुट और कच्चे माल में बदलाव लाया है. उदाहरण के लिए दुर्लभ पदार्थ (Rare earths). केवल एक दशक पहले तक भारतीय विनिर्माण में इन चीजों का इस्तेमाल नहीं किया जाता था. अब इनका इस्तेमाल अधिकतर हरित प्रौद्योगिकी में किया जाएगा. उदाहरण के लिए सौर ऊर्जा से जुड़े उपकरणों में भारत की आयात निर्भरता तेज़ी से बढ़ी है और यह मौजूदा समय में 92 फ़ीसदी से अधिक है. फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) के एक अध्ययन में कहा गया है कि सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिए ज़रूरी दोनों चीज़ों- कच्चे माल और मशीनरी का भारतीय कंपनियां आयात करती हैं जिससे उत्पादन और इवेंट्री लागत दोनों बढ़ जाते हैं.[1]  बैटरी के स्टोरेज के लिए लिथियम और कोबाल्ट की ज़रूरत पड़ेगी, लेकिन इन चीजों की वैश्विक मांग तेज़ी से बढ़ रही है. 2050 तक दोनों की मांग में क्रमशः 488 और 460 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है. इसी तरह अधिकतर ऊर्जा उत्पादन और स्टोरेज प्रौद्योगिकी में एल्यूमीनियम का इस्तेमाल किया जाता है और 2050 तक दो डिग्री सेल्सियस वैश्विक जलवायु लक्ष्य को हासिल करने के लिए हर साल करीब 60 लाख टन एल्यूमीनियम की ज़रूरत पड़ने का अनुमान है.[2]

सौर ऊर्जा से जुड़े उपकरणों में भारत की आयात निर्भरता तेज़ी से बढ़ी है और यह मौजूदा समय में 92 फ़ीसदी से अधिक है. फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (फिक्की) के एक अध्ययन में कहा गया है कि सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिए ज़रूरी दोनों चीज़ों- कच्चे माल और मशीनरी का भारतीय कंपनियां आयात करती हैं जिससे उत्पादन और इवेंट्री लागत दोनों बढ़ जाते हैं

इस अध्याय में स्वच्छ ऊर्जा की ओर भारतीय अर्थव्यवस्था के बढ़ने के दौरान ऊर्जा सुरक्षा को लेकर पैदा होने वाले जोख़िम की चर्चा होगी. जैसा कि अध्याय चार में घरेलू स्तर पर सौर और पवन उपकरणों के निर्माण को बढ़ावा देने पर फोकस किया गया था, इस अध्याय में ऊर्जा रूपांतरण (energy transition) के लिए ज़रूरी आवश्यक पदार्थों की आपूर्ति सुनिश्चित करने पर ध्यान दिया गया है. पहले उदाहरण में स्वच्छ ऊर्जा लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ज़रूरी पदार्थों की नियमित ऑडिट की ज़रूरत पड़ेगी. कच्चे माल की आपूर्ति का प्रबंध करने के लिए वैश्विक गठबंधन और निवेश की ज़रूरत पड़ेगी. इसके साथ ही घरेलू उद्योगों के साथ जुड़ाव (engagement) बनाना पड़ेगा, ताकि निर्बाध (downstream) आपूर्ति चेन का निर्माण किया जा सके. दरअसल, ऐसा इसलिए करना पड़ेगा क्योंकि भारत इन कच्चे मालों की घरेलू स्तर पर व्यवस्था करने में सक्षम नहीं है. अंत में जैसे-जैसे ऊर्जा रूपांतरण आगे बढ़ेगा तो मौजूदा स्थापित इंफ्रास्ट्रक्चर तेज़ी से पुराने पड़ने शुरू हो जाएंगे. ऐसे में उन प्रौद्योगिकियों में निवेश करना होगा जिससे कि इस्तेमाल किए जा चुके पदार्थों की रिसाइक्लिंग और उन्हें फिर से इस्तेमाल किया जा सके. इससे भविष्य की आपूर्ति को सुनिश्चित किया जा सकेगा और कच्चे माल को निचोड़ने की ज़रूरत कम होगी.

हरित रूपांतरण के लिए ज़रूरी पदार्थ

चित्र1 में कम कार्बन प्रौद्योगिकी में इस्तेमाल होने वाले खनिज पदार्थों के बारे में बताया गया है. उदाहरण के लिए सौर ऊर्जा के उत्पादन में व्यापक स्तर पर एल्युमीनियम, तांबा और निकेल का इस्तेमाल किया जाता है. इसलिए ऊर्जा मिश्रण के बावजूद अगले कुछ दशकों तक इन पदार्थों की मांग काफ़ी अधिक रहने वाली है.[3] इस तथ्य को देखते हुए अहम औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं ने एल्युमीनियम को एक रणनीतिक सेक्टर घोषित कर दिया है (देखें चित्र 2). इसके उलट नियोडायमियम (Neodymium) का इस्तेमाल केवल पवन ऊर्जा के उत्पादन में किया जाता है, लेकिन यह एक मैगनेटिक रेयर अर्थ (magnetic rare earth) यानी दुर्भल चुंबकीय पदार्थ है, जिसका इस्तेमाल कई तरह के इलेक्ट्रिक वाहनों के साथ इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में किया जाता है. अनुमान लगाया जा रहा है कि 2030 तक मैगनेटिक रेयर अर्थ का बाजार पांच गुना बढ़ जाएगा, जबकि नियोडायमियम की आपूर्ति में ज़रूरत की तुलना में 48 हजार टन की कमी रह जाएगी.[4]

सरकार कंपनियों को प्रोत्साहित कर रही है कि वे बैटरी निर्माण के संयंत्र लगाएं, तब भी इसमें 40-50 फ़ीसदी तक कच्चे माल आयात करने पड़ेंगे. अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति में व्यवधान अक्सर स्थानीय उद्योग को प्रभावित करता है. 

अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने 2020 के एक अध्ययन में यह बताया है कि स्वच्छ ऊर्जा की मांग बढ़ने के साथ ही ऊर्जा का भू-राजनीतिक जोख़िम बढ़ेगा. क्योंकि अहम कच्चे माल का भंडारण भौगोलिक रूप से अधिक केंद्रित है.[5] रिफाइनरी का काम भी बेहद केंद्रित है. चीन का 50-70 फ़ीसदी लिथियम और कोबाल्ट वैल्यू चेन पर कब्जा है. इतना ही नहीं वह 90 फ़ीसदी दुर्लभ खनिज पदार्थों की प्रोसेसिंग करता है. इसलिए नियामक और राजनीतिक बदलाव का ऊर्जा सुरक्षा पर अहम असर पड़ेगा. दुर्भाग्यवश, भारत में घरेलू स्तर पर इन दुर्लभ कच्चे मालों की कमी है. विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि 2030 तक इन दुर्लभ खनिज पदार्थों की आपूर्ति का जोख़िम चिंताजनक स्थिति में पहुंच जाएगा. ये दुर्लभ खनिज पदार्थ अधिकतर हरित प्रौद्योगिकी के लिए बेहद अहम हैं.[6] इसके अलावा, भारत ने इनमें से कई क्षेत्रों में टेक्नोलॉजी और रिफाइनरी क्षमता में पर्याप्त निवेश नहीं किया है.

 

 

भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए भू-राजनीतिक जोख़िम

भारत हमेशा से अपनी ऊर्जा सुरक्षा के लिए आयात पर निर्भर रहा है. इसकी कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस की 80 फ़ीसदी आपूर्ति विदेश से आती है. वैसे, भारत एक उचित विविध आपूर्ति चेन बनाए रखने में सफ़ल रहा है. हालांकि, हरित ऊर्जा की ओर बढ़ने से चीन पर आयात निर्भरता का संकेंद्रण होगा, जो वर्ष 2019 में अहम सेक्टरों के लिए आयात का 70 फ़ीसदी था. (देखें चित्र 3).

नोट: सोलर सेल और मॉड्यूल्स, विंड टर्बाइन्स, परमानेंट मैग्नेट्स, दुर्लभ खनिज पदार्थ, लिथियम आयन बैटरीज, कच्चे तेल और तरल प्राकृतिक गैस का अप्रैल-दिसंबर 2019 के बीच मिलियन अमेरिकी डॉलर में देशवार आयात. गणना: लेखक का अपना. डेटा स्रोत: वाणिज्य विभाग का ट्रेडस्टेट डेटा बेस.

एक अहम संसाधन के लिए किसी एक देश पर इतनी अधिक निर्भरता अपने आप में जोख़िम भरा है. इस मामले में हरित ऊर्जा से जुड़े उपकरणों के विनिर्माण (green manufacturing) के लिए ज़रूरी कच्चे माल की वैश्विक आपूर्ति पर चीन के नियंत्रण से जोख़िम और बढ़ गया है. पहले भी चीन ने इन पदार्थों पर निर्यात प्रतिबंध लगा चुका है. वह ऐसा अपने राजनीतिक विवाद में लाभ उठाने के लिए करता है. वर्ष 2010 में उसने जापान के साथ ऐसा ही किया था. वर्ष 2020 में चीन की सरकार ने एक नए कानून का प्रस्ताव रखा, जिसके तहत सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर रणनीतिक पदार्थों के निर्यात पर रोक लगाने का अधिकार मिल सकेगा.[8] अन्य देशों ने भी प्रतिबंधित निर्यात नीतियों को अपनाया है. उदाहरण के लिए इंडोनेशिया ने 2020 में निकेल का निर्यात प्रतिबंधित कर दिया था.[9] इसी तरह कांगो ने 2018 में नई खनन नीति लागू की, जिसके तहत कोबाल्ट पर राजस्व को तीन गुना बढ़ा दिया गया. इस तरह लक्षित उपभोक्ता (end-user) तक पहुंचते-पहुंचते इसके दाम काफी बढ़ गए.[10]

इन पदार्थों की आपूर्ति चेन में बाधा से औद्योगिक उत्पादन की व्यवहार्यता (viability) ही प्रभावित हो सकती है. ऐसे में कंपनियां अपनी फैक्ट्रियों के लिए जगह तय करने में स्वच्छ ऊर्जा के लिए आपूर्ति और परिवहन के विकल्प पर गंभीरता से विचार कर रही हैं. इसके अलावा उत्सर्जन कम करने के लिए ज़रूरी भविष्य के विनिर्माण उद्योगों को खासतौर पर बिजली प्रवाह (electric mobility) और ऊर्जा भंडारण के लिए बड़ी मात्रा में बैटरियों, सेमिकंडक्टर्स और स्थाई मैगनेट्स की ज़रूरत पड़ेगी, जिनका भारत घरेलू स्तर पर उत्पादन नहीं करता है. हालांकि, सरकार कंपनियों को प्रोत्साहित कर रही है कि वे बैटरी निर्माण के संयंत्र लगाएं, तब भी इसमें 40-50 फ़ीसदी तक कच्चे माल आयात करने पड़ेंगे.[11] अंतरराष्ट्रीय आपूर्ति में व्यवधान अक्सर स्थानीय उद्योग को प्रभावित करता है. उदाहरण के लिए जनवरी 2021 में मीडिया में ऐसी रिपोर्ट आई कि चीन, जापान, यूरोपीय संघ और अमेरिका में ऑटो निर्माताओं को सेमिकंडक्टर्स की कमी के कारण इलेक्ट्रिक वाहनों के उत्पादन में कटौती करनी पड़ी.[12] इसलिए ऊर्जा सुरक्षा को बनाए रखने के क्रम में भारत को ज़रूरी चीजों के लिए मजबूत आपूर्ति चेन विकसित करना पड़ेगा.

आपूर्ति जोख़िम का प्रबंधन

अहम खनिज पदार्थों का ऑडिट करवाएं

आपूर्ति जोख़िम के प्रबंधन की दिशा में पहला कदम भारत के हरित रूपांतरण के लिए ज़रूरी अहम तत्वों का ऑडिट करवाना है. 2016 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग ने एक ऐसा ही विश्लेषण करवाया था, लेकिन इसे किसी भी रूप में ग्रीन ट्रांजिशन के लिए भारत की ज़रूरतों से नहीं जोड़ा गया था. तेज़ी से बदलती प्रौद्योगिकी को देखते हुए इसे भी नियमित रूप से अपडेट करते रहने की ज़रूरत है, ताकि विभिन्न पदार्थों के इस्तेमाल की बदलती तीव्रता और विकल्प की पहचान की जा सके.

उदाहरण के लिए यूरोपीय संघ हर तीन साल पर ऐसा ऑडिट करवाता है. इस तरह इसकी सूची में ऐसे पदार्थों की संख्या एक दशक के भीतर दोगुनी हो गई है. इनके यहां 2011 में ऐसे 14 पदार्थ शामिल थे जबकि 2020 में ऐसे 30 पदार्थ हैं.[13] इसके अलावा यूरोपीय आयोग, ईयू 2050 जलवायु तटस्थ परिदृश्य के आधार पर बढ़ती प्रौद्योगिकी के लिए ज़रूरी पदार्थों का आकलन करता है.[14] इसी आधार पर इन सेक्टरों के लिए 2030 और 2050 में पदार्थों की मांग को लेकर एक नज़रिया पेश करता है. इसी तरह ऑस्ट्रेलिया ने 2017 में रक्षा और हाईटेक क्षेत्र के लिए 15 अहम पदार्थों[15] की पहचान की और वह इनमें से प्रत्येक के लिए प्रोजेक्ट विकसित करने का काम कर रहा है. उधर, अमेरिका ने अपने स्तर पर 2020 में अहम पदार्थों की आपूर्ति को लेकर ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ की घोषणा कर दी और अब सरकार खदानों के विकास में तेज़ी लाने पर ज़ोर दे रही है.[16]

अंतरराष्ट्रीय गठबंधन और रणनीतिक निवेश का इस्तेमाल

सुरक्षित आपूर्ति श्रृंखला बनाने के लिए कई देश इन कच्चे माल के इंतज़ाम (extraction), प्रसंस्करण (processing) और विकास (developing) क्षमता के निर्माण के लिए गठबंधन में शामिल हो रहे हैं. यूरोपीय रॉ मैटेरियल एलायंस (European Raw Materials Alliance) औद्योगिक इकाईयों को समर्थन देने के लिए अहम कच्चे माल तक भरोसेमंद और टिकाऊ पहुंच बनाने के लिए सदस्य देशों के साथ काम करता है.[17] फिलहाल वे ‘परमानेंट मैगनेट’ पर ज़ोर दे रहे हैं, जो पवन ऊर्जा और भंडारण व्यवस्था के लिए अहम है. अहम क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने के लिए वे रॉ मैटेरियल्स इंवेस्टमेंट प्लेटफॉर्म (Raw Materials Investment Platform, RMIP) यानी आरएमआईपी स्थापित कर रहे हैं, ताकि निवेशक और निवेशी दोनों को एक मंच पर लाया जा सके और इन परियोजनाओं को विकसित करने के लिए यूरोप के भीतर और बाहर दोनों जगहों पर यूरोपीय संघ की फंडिग का उपयोग किया जा सके. रूस ने वैश्विक दुर्लभ पदार्थ उत्पादन में अपनी भागीदारी मौजूदा 1.3 फ़ीसदी से बढ़ाकर 2030 तक 10 फ़ीसदी करने के लिए निवेशकों के लिए खनन टैक्स में कटौती और सस्ता लोन दे रहा है.[18]

अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ने रणनीतिक खनिज पदार्थों और उच्च प्रदर्शन वाले धातु (high performance metals) के उत्खनन (extraction), प्रोसेसिंग और शोध के लिए 2018 में एक गठबंधन बनाया था.[19] वर्ष 2019 में अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, पेरू और बोत्सवाना ने स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकी के लिए ज़रूरी पदार्थों की मांग को पूरा करने के लिए एनर्जी रिसोर्स गवर्नेंस इनेशिएटिव (Energy Resource Governance Initiative) की स्थापना की थी. वे इन धातुओं के इंतजाम, इन परियोजनाओं में निवेश लाने और टिकाऊ सप्लाई चेन की स्थापना में संसाधन संपन्न देशों को शामिल करना चाहते हैं.[20] अमेरिका भी इन सेक्टर्स में रणनीतिक निवेश का दायरा और संभावना बढ़ा रहा है. वर्ष 2019 में स्थापित अमेरिकी इंटरनेशनल विकास वित्त निगम (The US International Development Finance Corporation), चीन के विदेशी निवेश का एक विकल्प प्रदान करता है. चीन ने पहले ही दुनिया भर में 800 से अधिक परियोजनाओं में निवेश कर रखा है.[21] अहम आपूर्ति चेन का विविधीकरण और इस क्षेत्र में निवेश एक प्राथमिकता वाला क्षेत्र है. इसी क्रम में निकेल और कोबाल्ट के लिए ब्राजील की एक खनन परियोजना में इंग्लैंड की एक कंपनी के साथ साझेदारी में निवेश किया गया है.[22]

चीन ने पहले ही दुनिया भर में 800 से अधिक परियोजनाओं में निवेश कर रखा है. अहम आपूर्ति चेन का विविधीकरण और इस क्षेत्र में निवेश एक प्राथमिकता वाला क्षेत्र है. इसी क्रम में निकेल और कोबाल्ट के लिए ब्राजील की एक खनन परियोजना में इंग्लैंड की एक कंपनी के साथ साझेदारी में निवेश किया गया है

अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया की साझेदारी ने निवेश के लिए 5.7 अरब डॉलर की परियोजनाओं की पहचान कर ली है.[23] इस सेक्टर में पूंजी की लागत को कम करने के लिए अमेरिकी कांग्रेस ने 2020 में दोनों पार्टियों की सहमति वाले (bipartisan legislation) कानून लागू किया, जिससे कि इन पदार्थों के खनन, फिर से प्राप्त करने (reclaiming) और पुनर्चक्रण (recycling) में लगी कंपनियों को टैक्स में छूट दी जा सके.[24]

भारत सरकार ने अपनी तरफ ने इस सेक्टर में सरकारी एकाधिकार बना रखा है और उसने प्रभावी तरीके से अपने संसाधनों का दोहन नहीं किया है. देश के भीतर दुर्लभ पदार्थों का खनन इंडिय रेयर अर्थ लिमिटेड (केएबीआईएल यानी काबिल) करती है. यह एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी है और इसका मुख्य फोकस परमाणु ऊर्जा पैदा करने के लिए कच्चे माल पर होता है.[25] भारत में हल्के दुर्लभ पदार्थों का भंडार है लेकिन इन्हें निकालने और रिफाइन करने के लिए टेक्नोलॉजी और इंफ्रास्ट्रक्चर अभी विकसित करना है. जो खनिज पदार्थ देश के भीतर उपलब्ध नहीं हैं उनके लिए भारत 2019 में खनिज विदेश इंडिया लिमिटेड नाम से एक सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बनाई. इस कंपनी का काम विदेश में रणनीतिक रूप से अहम खनिजों के अधिग्रहण, अन्वेषण और प्रसंस्करण करना है. इसके लिए लिथियम और कोबाल्ट को प्राथमिकता वाले क्षेत्र के तौर पर पहचान की गई है.[26] वर्ष 2020 में काबिल ने ऑस्ट्रेलिया, बोलिविया और अर्जेंटीना के साथ सहमति पत्र (एमओयू) पर हस्ताक्षर किये.[27]

भारत सरकार की ओर से हाल ही में घोषित नीति और 2021 के बजट भाषण के साथ-साथ (KABIL) काबिल[28] के बारे में चल रही चर्चाओं से संकेत मिलता है कि इस क्षेत्र में आयात के विकल्प खोजने और आत्म निर्भरता पर फोकस किया जा रहा है. इन सप्लाई चेन की जटिलता के साथ तेज़ी से बदलती प्रौद्योगिकी को देखते हुए भारत को वैश्विक सप्लाई चेन से अपनी कंपनियों को जोड़ने से इतर सोचना चाहिए. उदाहरण के लिए मौजूदा अमेरिकी और यूरोपीय संघ के गठबंधन में शामिल होने से विविध सप्लाई चेन के साथ-साथ नई प्रौद्योगिकी और निवेश अवसरों तक तक पहुंच हो सकती है.

सप्लाई चेन और दुर्लभ खनिजों के विकल्प के लिए उद्योग के साथ काम करें

औद्योगिक रणनीति का ध्यान विनिर्माण क्षमता के साथ सप्लाई चेन के विकास में सहयोग पर होना चाहिए. भारत सरकार पहले ही बेहद व्यापक विनिर्माण सुविधाओं के निर्माण, चार्जिंग स्टेशन, सोलर फोटोवोल्टक (पीवी) सेल और लिथियम-आयन बैटरी के ज़रिए इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) के उत्पादन को बढ़ाने की योजना बना रही है. इसने मांग बढ़ाने और 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों की हिस्सेदारी 30 फ़ीसदी करने के लिए इन पर वित्तीय प्रोत्साहन दे रही है.[29] इस लक्ष्य को पाने के लिए उद्योगों के साथ नियमित बातचीत की ज़रूरत पड़ेगी, तभी एक बेहतर संयोजित औद्योगिक नीति तैयार की जा सकेगी. उदाहरण के लिए इंडोनेशिया को देखते हैं. इसने एक ईवी सप्लाई चेन (खनने से अंतिम उत्पाद तक) बनाने के लिए एक बहु-वर्षीय योजना शुरू की है.[30] यह चेन 2020 में निकेल के खदान के अधिग्रहण से शुरू होता है. सरकार ने 2021 में दुनिया के सबसे बड़े लिथियम आयन बैटरी के उत्पादकों के साथ समझौते किए. अंत में वे दक्षिण कोरिया की बहुराष्ट्रीय वाहन निर्माता कंपनी हुंदई के साथ क्षेत्र में एक ईवी निर्माण हब बनाने के लिए काम कर रहे हैं. ईयू रॉ मैटेरियल अलायंस, नियामकीय और वित्तीय बाधाओं को दूर करने के लिए कंपनियों के साथ काम करता है.[31]

सरकार ने 2021 में दुनिया के सबसे बड़े लिथियम आयन बैटरी के उत्पादकों के साथ समझौते किए. अंत में वे दक्षिण कोरिया की बहुराष्ट्रीय वाहन निर्माता कंपनी हुंदई के साथ क्षेत्र में एक ईवी निर्माण हब बनाने के लिए काम कर रहे हैं. ईयू रॉ मैटेरियल अलायंस, नियामकीय और वित्तीय बाधाओं को दूर करने के लिए कंपनियों के साथ काम करता है.

भारत में रेयर अर्थ लिमिटेड ने देश के भीतर खनन को प्रोत्साहित करने और अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान में निर्यात के लिए जापान की टोयोटा के साथ एक एमओयू पर हस्ताक्षर किए हैं.[32] ऐसे समझौते भारतीय कंपनियों को निष्कर्षण प्रक्रिया (extraction processes) तक सीमित करते हैं जबकि रिफाइनरी प्रक्रिया जिसका ज्य़ादा महत्व है, उसे विदेश में किया जाता है. सप्लाई चेन को और आगे बढ़ाने के लिए इन साझेदारियों को घरेलू विनिर्माण कंपनियों तक विस्तारित करना चाहिए. इसके साथ सरकार की भूमिका निवेश और प्रौद्योगिकी अधिग्रहण की प्रक्रिया में सहायक की होनी चाहिए.[33]

निवेश के अवसरों के रूप में पुनर्चक्रण और पुन: उपयोग

कुछ ही सालों के भीतर मौजूदा हरित प्रौद्योगिकी और इंफ्रास्ट्रक्चर पुराने होने लगेंगे. यूएन इनोवेशन नेटवर्क ने कहा है कि सौर ऊर्जा क्षेत्र में उत्पन्न ई-कचरा मौजूदा समय में पैदा हो रहे कुल ई-कचरा का केवल 0.1 फ़ीसदी है.[34] लेकिन 2050 तक यह 78 मिलियन मीट्रिक टन तक पहुंच जाएगा.[35] ई-कचरे के पुनर्चक्रण के मामले में भारत की स्थिति सबसे खराब है. यहां केवल एक फ़ीसदी ई-कचरे को इकट्ठा और उनका पुनर्चक्रण किया जाता है.[36]

इसी तरह, सौर पैनल जैसे नवीकरणीय ऊर्जा उपकरण आमतौर पर 20 से 25 साल तक चलते हैं. इसके साथ ही इस प्रौद्योगिकी के शुरू होने के वक्त लगाए गए सौर पैनलों के इसी दशक में काम बंद कर देने की संभावना है. जैसा कि भारत अपनी ऊर्जा स्रोतों में सौर ऊर्जा को प्राथमिकता दे रहा है. ऐसे में पुनर्चक्रण की दिशा में शुरुआत से यह सुनिश्चित करना होगा कि लंबे समय में सौर उद्योग टिकाऊ बना रहे. ऐसे में भारत के पास पुनर्चक्रण उद्योग में निवेश कर भविष्य की सप्लाई सुनिश्चित करने और पुनर्चक्र (recycled) किए गए खनिजों के लिए एक सहायक बाजार बनाने की क्षमता है. पुनर्चक्रण की प्रक्रिया खनन की तुलना में कम प्रदूषण पैदा करने वाली है. उदाहरण के लिए विश्व बैंक ने अनुमान लगाया है कि एल्यूमीनियम के स्रोत पर निर्भर रहते हुए पुनर्चक्रण के जरिए एल्यूमीनियम के इस्तेमाल से पैदा ग्लोबल वार्मिंग को 8.7 से 30.5 फ़ीसदी के बीच तक कम किया जा सकता है.[38]

भारत सरकार ने ई-कचरे के पुनर्चक्रण की ज़रूरत को स्वीकार किया है. अगर इसे प्रभावी तरीके से किया जाए तो कोबाल्ट, निकेल, लिथियम और नियोडायमियम का पुनर्चक्रण के बाद इस्तेमाल किया जा सकता है. फरवरी 2020 में ड्रॉफ्ट बैटरी वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स को जारी किया गया.[39] इसमें निर्माताओं पर इस्तेमाल की गई बैटरी को इकट्ठा करने और उन्हें पंजीकृत पुनर्चक्रण यूनिट तक भेजने की जिम्मेदारी डाली गई है. इसके साथ ही उनको राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के समक्ष अपनी वार्षिक बिक्री और वापसी (buyback) की रिपोर्ट दाखिल करनी होती है. ये नियम विस्तारित उत्पादक जिम्मेदारी (ईपीआर) के सिद्धांत पर आधारित हैं. इस तहत नियमों के लागू होने के सात वर्षों के भीतर उत्पन्न होने वाले कचरे के 70 प्रतिशत को शामिल करने का प्रस्ताव है. (देखे चित्र 5).

भारत में ईपीआर का अनुभव मिलाजुला रहा है. गुप्ता और सहाय (2019) ने वर्ष 2001 से 2019 के बीच ईपीआर के सिद्धांत पर आधारित चार अलग-अलग कचरा प्रबंधन नियमों के प्रभाव का विश्लेषण किया और पाया कि ये नियम इच्छित परिणाम हासिल करने में विफल रहे हैं.[40] ये कानून औपचारिक रूप से री-साइक्लिंग सुविधा केंद्र स्थापित करने के प्रेरक रहे हैं. इस समय भारत में 312 मान्यता प्राप्त रिसाइक्लिंग सेंटर हैं जिनकी क्षमता सालाना 800 किलो टन कचरा ट्रीटमेंट की है. हालांकि, औपचारिक री-साइक्लिंग क्षमता का अब पूरा इस्तेमाल नहीं होता क्योंकि अब भी कचरे के अधिकतर हिस्से का निष्तारण अनौपचारिक सेक्टर करता है, उसके पास कचरों को इकट्ठा करने की क्षमता है.[41],[42] इतना ही नहीं उच्च नियामकीय बोझ और अपर्याप्त समय की वजह से इन नियमों का क्रियान्वयन भी कठिन है.[43]

इन सेक्टरों में पुनर्चक्रण को बढ़ाने के लिए आगे अनौपचारिक सेक्टर को औपचारिक पुनर्चक्रण यूनिट्स से जोड़ने की जरूर होगी. ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) के शोध से पता चलता है कि अनौपचारिक सेक्टर द्वारा कचरों का निष्तारण खतरनाक और प्रदूषण फैलाने वाला होता है.[44] एक व्यवहार्य समाधान यह हो सकता है कि अनौपचारिक क्षेत्र को कचरा एकट्ठा करने के लिए मौद्रिक प्रोत्साहन दिया जाए और फिर पुनर्चक्रण प्रक्रिया शुरू करने के लिए औपचारिक सुविधाओं का उपयोग किया जाए.[45]

एक व्यवहार्य समाधान यह हो सकता है कि अनौपचारिक क्षेत्र को कचरा एकट्ठा करने के लिए मौद्रिक प्रोत्साहन दिया जाए और फिर पुनर्चक्रण प्रक्रिया शुरू करने के लिए औपचारिक सुविधाओं का उपयोग किया जाए

हालांकि, धातु के लिए भारत के पास कोई संगठित पुनर्चक्रण उद्योग नहीं है. केवल 25 फ़ीसदी धातु का पुनर्चक्रण किया जाता है, वह भी अधिकतर अनौपचारिक सेक्टर में.[46] नीति आयोग ने धातु के पुनर्चक्रण में कई तरह की समस्याओं की पहचान की है. ख़ासतौर पर एल्यूमिनियम के लिए. इसमें कलेक्शन इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी, पुरानी प्रौद्योगिकी, खराब क्वालिटी कंट्रोल और उच्च स्तर के प्रदूषण जैसी समस्याएं हैं.[47] धातुओं और सामग्रियों के पुनर्चक्रण के लिए उपयुक्त विधायी, प्रशासनिक और संस्थागत ढांचे को स्थापित करने के लिए एक व्यापक नीति की आवश्यकता होगी.

निष्कर्ष

जैसे-जैसे भारत का औद्योगिक सेक्टर बढ़ रहा है वैसे-वैसे देश के जलवायु लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा की नियमित और स्थायी सप्लाई की व्यवस्था करना आवश्यक होता जा रहा है. कंपनियां पहले ही अपनी फैक्ट्रियों के लिए जगह तय करते समय स्वच्छ ऊर्जा की आपूर्ति और परिवहन के विकल्प के बारे में सोचने लगी हैं. हालांकि, स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ने से ऊर्जा सुरक्षा के लिए नई तरह की चुनौतियां पैदा हुई है, क्योंकि स्वच्छ ऊर्जा सुविधाओं की स्थापना के लिए ज़रूरी पदार्थों की आपूर्ति भौगोलिक रूप से केंद्रित है. ऐसे में भारत को स्वच्छ ऊर्जा लक्ष्यों के लिए ज़रूरी पदार्थों की एक गंभीर सूची (inventory) बनाने की ज़रूरत है और इस मांग को पूरा करने के लिए घरेलू क्षमता के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय गठबंधन को बढ़ाने की ज़रूरत है.


Endnotes

[1] “FICCI Solar Energy Task Force Report on Securing the Supply Chain for Solar in India”.

[2] Kirsten Hund et al., “The Mineral Intensity of the Clean Energy Transition,” n.d., 112.

[3] Hund et al.

[4] “Adamas: ‘Unfathomable’ Rare Earth Demand Growth Awaits Post-2030,” Green Car Congress.

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