Published on Feb 13, 2020 Updated 0 Hours ago

किसी भी अर्थव्यवस्था को सरकार से ये अपेक्षा होती है कि वो उद्यमिता के नए विचारों को उत्प्रेरित करे, ताकि अगर उनसे कारोबारियों में आक्रामकता न भी आए, तो कम से कम जनता के हित में धनार्जन हो सके.

आम बजट 2020: हाथ से छूटे एक और मौक़े की मिसाल

मध्यम वर्ग कुछ पैसे बचाने की जुगत करेगा. बैंक में जमा करने वाले थोड़ा सुरक्षित महसूस करेंगे. निजीकरण के हामियों को बाज़ार में एक नए खिलाड़ी का सामना करना होगा. लेकिन, कुछ बड़े-बड़े बयानों को छोड़ दें, तो 2020 का आम बजट उम्मीदें पूरी करने में नाकाम रहा है. ऐसा होना पहले से ही तय था, इसमें कोई दो राय नहीं. ऐसे में, अगर कोई बजट की वजह से निराश है, तो साफ़ है कि न तो वो अर्थव्यवस्था से आ रहे आर्थिक संकेतों को पढ़ पा रहा है. और न ही इससे निपटने के लिए सरकार के इशारों को समझ पाया है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पास कुछ करने के लिए बहुत ज़्यादा गुंजाईश नहीं थी. निर्मला सीतारमण के बजट से ये बात स्पष्ट होती है कि उनके पास कितनी कम गुंजाईश थी.

एक वाक्य में कहें, तो: 2020 का आम बजट एक और अवसर को बर्बाद करने की मिसाल है.

कोई भी विश्लेषक, जिस का दिमाग़ ठिकाने हो, उसने ये उम्मीद नहीं की थी कि निर्मला सीतारमण का दूसरा बजट कुछ ऐसे ज़मीनी उपायों के एलान वाला होगा, जिससे अर्थव्यवस्था को नई धार और रफ़्तार मिलेगी. लेकिन, प्रेरणादायक आर्थिक सर्वे के बाद हमें ये उम्मीद थी कि सरकार संपन्नता बढ़ाने के लिए सिर्फ़ कामचलाऊ बयानबाज़ी के दायरे से आगे बढ़ेगी. आर्थिक सर्वे को 31 जनवरी 2020 को संसद के पटल पर रखा गया था. ये एक ऐसा दस्तावेज़ है, जिसके आधार पर कोई क़दम तो नहीं उठाया जाता. लेकिन, किसी भी सरकार की रीति और नीति को समझने में आर्थिक सर्वे की बहुत अहमियत होती है.

आज के दौर में कारोबार करने की राह में आने वाली बाधाएं दूर करना आर्थिक तरक़्क़ी पर होने वाली परिचर्चा का अहम हिस्सा हैं. आज जब आर्थिक विकास की रफ़्तार लगातार धीमी हो रही है. तो, ऐसे माहौल में अगर बजट में कारोबार करने की राह की अड़चनें दूर करने के एलान भले न शामिल किए जा सके हों, कम से कम सरकार को ये संकेत तो देना चाहिए था कि वो आर्थिक सुधारों की नीयत रखती है. आज वित्त क्षेत्र से लेकर मैन्यूफैक्चरिंग, बुनियादी ढांचे के सेक्टर से लेकर रियल स्टेट तक, अर्थव्यवस्था का हर मोर्चा मुश्किल में है. ऐसे में बजट के माध्यम से सरकार को उद्यमियों की राह में खड़े संकटों को दूर करने का इरादा तो जताना चाहिए था.

किसी भी अर्थव्यवस्था को सरकार से ये अपेक्षा होती है कि वो उद्यमिता के नए विचारों को उत्प्रेरित करे, ताकि अगर उनसे कारोबारियों में आक्रामकता न भी आए, तो कम से कम जनता के हित में संपत्ति का निर्माण तो हो सके.

इसके बजाय, सरकार ने वही पुरानी रीति चलाई. उसी  पुरानी राजनीतिक बयानबाज़ी पर ज़ोर रखा. इसी वजह से आज के भारत की अपेक्षाओं को कृषि, सिंचाई और ग्रामीण विकास से परिभाषित किया जाता है. जन कल्याण, पानी और शौचालय, तालीम और हुनर का ज़िक्र होता है. अपने नागरिकों का ख़याल रखने वाला समाज महिलाओं और बच्चों पर ख़ास तवज्जो देता है. सामाजिक कल्याण, संस्कृति और पर्यटन के साथ पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन की बातें. वहीं, आर्थिक विकास का मतलब केवल उद्योग, वाणिज्य, निवेश, बुनियादी ढांचे का विकास और नई अर्थव्यवस्था यानी डिजिटल इकॉनमी. इन सब में से केवल आख़िरी में ही अर्थव्यवस्था का रुख़ मोड़ पाने की क्षमता है.

किसी भी अर्थव्यवस्था को सरकार से ये अपेक्षा होती है कि वो उद्यमिता के नए विचारों को उत्प्रेरित करे, ताकि अगर उनसे कारोबारियों में आक्रामकता न भी आए, तो कम से कम जनता के हित में संपत्ति का निर्माण तो हो सके. इस तरीक़े में उद्योगपति नई कंपनियां बनाते हैं. नौकरियों के अवसर पैदा करते हैं और टैक्स अदा करते हैं, जिससे संपत्ति का पुनर्वितरण होता है. भारतीय उद्यमियों के लिए तो सरकार से अपेक्षाओं का पैमाना तो और भी कम है. भारतीय उद्यमी तो बस ये चाहते हैं कि कारोबार की राह में खड़ी होने वाली प्रशासनिक बाधाएं दूर हों. क़ानून और नियमों की दीवारें गिरें. टैक्स और दूसरी जानकारियां देने में रियायत मिले.

ये सुधार आम बजट के दायरे से बाहर आते हैं. ऐसे में वित्त मंत्री सीतारमण ने इन्हें बजट से अलग रख कर अच्छा ही किया. इस बजट के माध्यम से सरकार ने निवेश क्लियरेंस प्रकोष्ठ के गठन की घोषणा की है. यानी कारोबार को बढ़ावा देने के लिए एक और संस्था की स्थापना. लेकिन, अगर हम पुरानी संस्थाओं के काम-काज को ध्यान में रखें, तो इस नई संस्था से न तो नए मौक़े पैदा होंगे, न ही कारोबार की राह में आने वाली अड़चनें दूर होंगी. इस इन्वेस्टमेंट क्लियरेंस सेल से कोई बाधा दूर नहीं होगी. बल्कि होगा ये कि अफ़सरशाही की एक नई परत ज़रूर व्यवस्था पर चढ़ जाएगी. ठीक उसी तरह जैसे बजट में पांच नए स्मार्ट सिटी बनाने का वादा किया गया है. वित्त मंत्री को उम्मीद है कि वो इसके लिए राज्यों के साथ मिल कर काम कर सकेंगी, ताकि नए स्मार्ट शहर बसाए जा सकें. लेकिन, अगर हम 100 स्मार्ट सिटी के पुराने वादे की असलियत को देखें, तो इन नए पांच स्मार्ट शहरों की स्थापना में शक की पूरी गुंजाईश दिखती है.

अगर हम बुनियादी ढांचे के विकास की बात करें तो, एक बार फिर 10 लाख करोड़ के निवेश का चुग्गा हमारी तरफ़ उछाला गया है. बजट के इस वादे में एक सकारात्मक बात ये है कि इस में इस संख्या के बारे में विस्तार से बताया गया है. जैसे कि किस तरह से हाइवे के विकास की रफ़्तार तेज़ की जाएगी. रेलवे के 27 हज़ार किलोमीटर ट्रैक का विद्युतीकरण होगा. और कई शहरों में उपनगरीय रेल सेवाएं शुरू की जाएंगी. साथ ही जल परिवहन को बढ़ावा दिया जाएगा. इन नए एलानों के लिए नए जुमले की ज़रूरत थी. तो इस साल ये जुमले कुछ इस तरह से हैं- न्यू इकॉनमी, जिस में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस होगा, इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स होगा, थ्री डी प्रिटिंग होगी, ड्रोन का ज़िक्र है, डीएनए डेटा स्टोरेज, क्वांटम कंप्यूटिंग और डेटा पार्क हैं. इन नए जुमलों के पीछे उन्हीं लोगों का दिमाग़ है, जो पहले से देश की नीतियां बनाते आए हैं.

एक विचार जो इस बजट के माध्यम से आगे बढ़ाया गया है, वो है कि सरकार जीवन बीमा निगम में अपनी हिस्सेदारी का एक भाग बेचेगी. इसके लिए आईपीओ लाया जाएगा. सरकार के विनिवेश के इस क़दम के चार परिणाम होंगे. पहला तो ये कि इससे सरकार के ख़ज़ाने में पैसे आएंगे. दूसरी बात ये कि इससे शेयर बाज़ार में कंपनियों की लिस्टिंग में वज़न आएगा. तीसरी बात ये कि सेंसेक्स में दाख़िल हो कर एलआईसी इस शेयर बाज़ार की बनावट और वज़न में परिवर्तन करेगी. और चौथी बात ये कि इससे जीवन बीमा निगम नाम के कभी न सुधरने को राज़ी नहीं होने वाले ख़याल में परिवर्तन आएगा.

इसका मतलब साफ़ है. हम ये कह सकते हैं कि मौजूदा सरकार की ही तरह वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण भी नीति निर्माण के मोर्चे पर 20वीं सदी के विचारों की क़ैद में हैं. जिसके बुनियादी उसूल हैं- निर्देश, नियंत्रण और दबाव डालना. इसके बजाय  उनको चाहिए कि वो भारत के नीति निर्माण के तौर-तरीक़ों को 21वीं सदी की तरफ़ ले जाएं. जिसके बुनियादी सिद्धांत कुछ इस तरह हैं- सरल, असलदार. और आसानी से भुगतान और जमा करना

आख़िर में, प्रत्यक्ष करों के परिवर्तन के मामले में निर्मला सीतारमण ने वही किया है, जिसका सुझाव हमने पहले दिया था. यानी इनकम टैक्स की दरें घटाना और जो रियायतें दी जा रही हैं उन्हें ख़त्म करना. ठीक वैसा ही, जैसा वित्त मंत्री ने सितंबर 2019 में बड़े उद्योगपतियों के लिए किया था. इसके अलावा टैक्स स्लैब की संख्या जो पिछले बजट में चार थीं. उन्हें पहले बढ़ा कर पांच कर दिया गया. और 2020 के बजट में इन्हें बढ़ा कर आठ कर दिया गया है. इसके माध्यम से वित्त मंत्री हमें बताना चाहती हैं कि वो टैक्स से जुड़े नियमों और इनके अनुपालन को सरल बनाने के बजाय इनमें पेचीदगी को तरज़ीह देती हैं. एक तरह से वित्त मंत्री ने जीएसटी की पेचीदगियों को उठा कर व्यक्तिगत कर जमा करने वालों पर मढ़ दिया है.

इफैक्टिव टैक स्लैब एफ़्टर बजट 2020

कर योग्य आय कर दर अधिभार
0.0 से 2.5 शून्य शून्य
2.5 से 5.0 5% शून्य
5.0 से 7.5 10% शून्य
7.5 से 10.0 15% शून्य
10.0 से 12.5 20% शून्य
12.5 से 15 25% शून्य
15 से 50 30% शून्य
50 से 100 रु 30% 10%
100 से 200 रु 30% 15%
200 से 500 रु 30% 25%
500 से अधिक 30% 37%
नोट: शिक्षा और स्वास्थ्य उपकर के रूप में 4% का अतिरिक्त उपकर है।

इसका मतलब साफ़ है. हम ये कह सकते हैं कि मौजूदा सरकार की ही तरह वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण भी नीति निर्माण के मोर्चे पर 20वीं सदी के विचारों की क़ैद में हैं. जिसके बुनियादी उसूल हैं- निर्देश, नियंत्रण और दबाव डालना. इसके बजाय  उनको चाहिए कि वो भारत के नीति निर्माण के तौर-तरीक़ों को 21वीं सदी की तरफ़ ले जाएं. जिसके बुनियादी सिद्धांत कुछ इस तरह हैं- सरल, असलदार. और आसानी से भुगतान और जमा करना. इस विषय में बहुत सी बारीक़ियां हैं, जिनके बारे में हम और विस्तार से भविष्य के लेखों में चर्चा करेंगे.

जो एक और छोटा सा नीतिगत बदलाव वित्त मंत्री ने 2020 के आम बजट में किया है, वो है कि बैंकों में खातेदारों की जमा राशि की गारंटी एक लाख से बढ़ा कर पांच लाख कर दी है. ये बदलाव होने में बहुत वक़्त लग गया. और ये अभी भी अपर्याप्त ही है. बैंकों की जमा राशि पर बीमा गारंटी की शुरुआत एक जनवरी 1962 में पांच हज़ार रुपए से शुरू हुई थी. जिसे डिपॉज़िट इन्श्योरेंस ऐंड क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन के ज़रिए शुरू किया गया था. एक अप्रैल 1970 को ये रक़म बढ़ा कर 10 हज़ार कर दी गई. फिर इसे एक जनवरी 1976 को बढ़ा कर 20 हज़ार किया गया. और एक जुलाई 1980 को 30 हज़ार किया गया था. आख़िर में एक मई 1993 को बैंक में जमा राशि पर गारंटी को बढ़ा कर एक लाख रुपए कर दिया गया था. अगर हम हर साल 12 प्रतिशत की विकास दर को भी मानें, तो ये रक़म 20 लाख होनी चाहिए थे. इन आंकड़ों को छोड़ भी दें, तो इस सुरक्षा गारंटी के साथ वित्त मंत्री के पास ये अवसर है कि वो फ़ाइनेंशियल रिजॉल्यूशन ऐंड डिपॉज़िट इन्श्योरेंस बिल को संसद में पेश करें.

हमें इस वक़्त सबसे ज़्यादा ज़रूरत इस बात की है कि सरकार आर्थिक मसलों पर वही रुख़ अपनाए, जैसा हमने 1991 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के वक़्त देखा था. इस वक़्त सरकार आर्थिक सुस्ती की कड़वी हक़ीक़त से बेख़बर मालूम होती है. उसे शायद इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि ये सुस्ती आगे चल कर आर्थिक मंदी में तब्दील हो सकती है

वहीं, व्यापक आर्थिक स्तर पर बात करें, तो ये बजट बड़े साहसिक तरीक़े से कहता है कि वो 10 प्रतिशत विकास दर को हासिल करेगा. साथ ही 2019-20 में इसका लक्ष्य वित्तीय घाटे को 3.8 प्रतिशत और 2020-21 में केवल 3.5 प्रतिशत तक सीमित रखने का है. अगर हम विकास दर की बात करें, तो हम सांसें थाम कर इसका इंतज़ार नहीं कर रहे हैं. मगर, जहां तक वित्तीय घाटे की बात है, तो ये लक्ष्य बहुत प्रभावित नहीं करते. सरकार ने डिविडेंट डिस्ट्रीब्यूशन टैक्स का बोझ कंपनियों से हटा कर इसे पाने वालों पर डाल दिया. इसके असर को हम शेयर बाज़ार की प्रतिक्रिया से आसानी से समझ सकते हैं. इस घोषणा के बाद सेंसेक्स एक हज़ार अंक गिर गया था. बेहतर होता कि इसकी अनदेखी कर दी जाती. ऐसे महंगे प्रयोग तभी अच्छे लगते हैं, जब अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही होती है. उस वक़्त नहीं, जब विकास के क़दम लड़खड़ा रहे हों.

शायद, हमें इस वक़्त सबसे ज़्यादा ज़रूरत इस बात की है कि सरकार आर्थिक मसलों पर वही रुख़ अपनाए, जैसा हमने 1991 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के वक़्त देखा था. इस वक़्त सरकार आर्थिक सुस्ती की कड़वी हक़ीक़त से बेख़बर मालूम होती है. उसे शायद इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि ये सुस्ती आगे चल कर आर्थिक मंदी में तब्दील हो सकती है. ऐसा लगता है कि मौजूदा सरकार न तो संपत्ति निर्माण करने वालों का मिज़ाज पढ़ पा रही है, न ही उनकी चुनौतियों का उसे अंदाज़ा है. और जहां तक आर्थिक विकास की बात है, तो वो शायद सरकार की नज़रों से दूर है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का 45 पन्नों का दस्तावेज़ भारत की वास्तविक आकांक्षाओं से बहुत दूर कहीं अतीत की गहराइयों में गुम मालूम होता है. हम बस ये उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले समय में सरकार की अन्य नीतियां विकास दर को रफ़्तार देने में सफल होंगी.

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