Author : Aditi Madan

Published on Jul 29, 2021 Updated 0 Hours ago

टीकाकरण में इस लैंगिक असमानता की एकमात्र वजह विषम लिंग अनुपात नहीं है बल्कि इसमें लैंगिक असमानता से जुड़े कई मुद्दों का योगदान है. 

टीकाकरण अभियान में लैंगिक असमानता और उसके असली कारण

भारत दुनिया के उन देशों में है जहां लैंगिक अनुपात में सबसे ज़्यादा विषमता है. मौजूदा आंकड़े के मुताबिक़ देश में 5.7 प्रतिशत पुरुष ज़्यादा हैं. लेकिन टीकाकरण अभियान में लैंगिक असमानता को देश में महिला-पुरुषों की आबादी में अंतर से नहीं जोड़ा जा सकता है. भारत के कोविड-19 वैक्सीनेशन अभियान, जिसमें महिलाएं पीछे चल रही हैं, में एक लैंगिक पक्षपात है. जनवरी 2021 से 30 करोड़ 90 लाख वैक्सीन की डोज़ लगाई गई है जिनमें से सिर्फ़ 14 करोड़ 30 लाख वैक्सीन डोज़ महिलाओं को दी गई है जबकि पुरुषों को 16 करोड़ 70 लाख डोज़ दी गई है. ये लैंगिक असमानता चिंताजनक है क्योंकि टीकाकरण के मामले में पुरुषों और महिलाओं के बीच फ़र्क़ 6 प्रतिशत से ज़्यादा है. टीकाकरण में ये लैंगिक असमानता अलग-अलग राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में अलग-अलग है. उदाहरण के लिए, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली और उत्तर प्रदेश सबसे ख़राब प्रदर्शन करने वाले राज्यों में शामिल हैं. लेकिन केरल, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में अगर वैक्सीन की कम-से-कम एक डोज़ लेने वालों की बात की जाए तो पुरुषों के मुक़ाबले महिलाएं आगे हैं.

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) 2015-16 के आंकड़ों के मुताबिक़ सिर्फ़ 40 प्रतिशत महिलाओं को अकेले घर से बाहर जाने की इजाज़त है जिसमें इलाज के लिए बाहर जाना भी शामिल है. ये आंकड़ा इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि महिलाओं को पूरी तरह आवागमन की स्वतंत्रता नहीं है और दूर के टीकाकरण केंद्रों तक जाने में उन्हें दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है.

टीकाकरण में इस लैंगिक असमानता की एकमात्र वजह विषम लिंग अनुपात नहीं है बल्कि इसमें लैंगिक असमानता से जुड़े कई मुद्दों का योगदान है. स्वास्थ्य देखभाल में कई पुरानी संरचनात्मक समस्याएं और स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा तक पहुंच की लैंगिक प्रकृति का नतीजा ये निकला है कि परिवार में पुरुष के ऊपर महिला के स्वास्थ्य और कल्याण को आम तौर पर प्राथमिकता नहीं दी जाती है. उदाहरण के लिए, पुरुष सदस्यों को अक्सर खाने-पीने की चीज़ों और पोषण में बड़ा हिस्सा मिलता है; टीका लगाने में भी पुरुषों को प्राथमिकता मिलती है क्योंकि महिलाओं से घर का काम-काज संभालने की उम्मीद की जाती है, ख़ास तौर पर उस वक़्त जब टीका लगाने के बाद बुख़ार हो जाए. इसके बाद लोकप्रिय रूढ़िवादी धारणा भी है जिसके मुताबिक़ चूंकि पुरुष काम के लिए बाहर जाते हैं इसलिए उनके स्वास्थ्य की सुरक्षा ज़रूर की जानी चाहिए और महिलाओं के मुक़ाबले पुरुषों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता मिलनी चाहिए. महिलाओं को ज़्यादा घरेलू समझा जाता है, इसलिए उन्हें कम प्राथमिकता दी जाती है.

आवागमन के मामले में महिलाओं की स्वतंत्रता

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) 2015-16 के आंकड़ों के मुताबिक़ सिर्फ़ 40 प्रतिशत महिलाओं को अकेले घर से बाहर जाने की इजाज़त है जिसमें इलाज के लिए बाहर जाना भी शामिल है. ये आंकड़ा इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि महिलाओं को पूरी तरह आवागमन की स्वतंत्रता नहीं है और दूर के टीकाकरण केंद्रों तक जाने में उन्हें दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है.

टीका लगाने के लिए भी महिलाओं को अपने पति की इजाज़त लेने की ज़रूरत पड़ती है. इस तरह महिलाएं निर्णय लेने और घर के वित्तीय फ़ैसलों में भी दब्बू बनी रहती हैं. इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में टीके को लेकर ग़लत जानकारी फैलने की वजह से वैक्सीन लगाने को लेकर असमंजस की हालत भी बनी हुई है. वैक्सीन के साइड इफेक्ट को लेकर अफ़वाहें हैं और ग़लत, अपुष्ट संदेश चल रहे हैं कि वैक्सीन लगाने के कारण महिलाओं के माहवारी चक्र में रुकावट आती है और उनके बच्चे पैदा करने पर असर पड़ता है.

एक नया दृष्टिकोण ऐसा हो जो प्रभावी सामाजिक और व्यवहारगत संचार के समर्थन को बढ़ावा दे जिसके ज़रिए ग़लत धारणाओं से लड़ा जा सके और टीका लगवाने के फ़ायदों को प्रोत्साहन दिया जा सके. 

जागरुकता की कमी और तकनीकी पहुंच में लैंगिक बंटवारा और डिजिटल निरक्षरता ने हालात को और बिगाड़ा है. वैक्सीनेशन की पूरी प्रक्रिया इस हद तक तकनीक पर आधारित है कि महिलाएं पीछे छूट जाती हैं क्योंकि स्मार्टफ़ोन तक पहुंच (भारत में 20 प्रतिशत से कम महिलाओं के पास मोबाइल फ़ोन है) और सूचनाएं काफ़ी सीमित हैं. इससे भी बढ़कर ग्रामीण क्षेत्रों में 10 में से सिर्फ़ तीन महिलाओं की पहुंच इंटरनेट तक है जबकि पुरुषों में ये संख्या पांच है (एनएफएचएस 2019-20). इंटरनेट तक महिलाओं की पहुंच में कई बाधाएं हैं जिनमें सामाजिक/पारिवारिक पाबंदी भी शामिल है जिसके तहत लोगों को लगता है कि अगर इंटरनेट तक महिलाओं की पहुंच हो गई तो वो अनैतिक काम में शामिल हो सकती हैं और कुछ ग़लत हरकतें कर सकती हैं. पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं को कोविन ऐप पर रजिस्टर करने में भी दिक़्क़त आती है और उन्हें तकनीकी जानकारी रखने वाले अपने परिवार के पुरुष सदस्यों पर निर्भर रहना पड़ता है. इसके उलट दिल्ली और मुंबई के दो चुनिंदा ज़िलों, जिनके बारे में माना जाता है कि वहां इंटरनेट तक पुरुषों और महिलाओं की पहुंच बराबर है, के आंकड़े बताते हैं कि पुरुषों ने महिलाओं को क्रमश: 53 प्रतिशत और 23 प्रतिशत से पीछे छोड़ दिया. लेकिन छत्तीसगढ़ के 22, केरल के 13, आंध्र प्रदेश के 11 और उत्तराखंड के सात ज़िलों में इसके विपरीत रुझान देखा जा सकता है.

डिजिटल विभाजन के अलावा भी ऐसे कई कारण हैं जो वैक्सीन लगाने में लैंगिक असमानता में योगदान देते हैं.

महिलाएं लिंग आधारित हिंसा में बढ़ोतरी, लड़कियों के स्कूल की पढ़ाई छोड़ने और असंगठित क्षेत्र में नौकरी जाने की वजह से ख़ास तौर पर मुश्किल में हैं. साथ ही बच्चों की देखरेख, खाना बनाने, साफ़-सफ़ाई और बीमार और बुजुर्ग की देखभाल करने से जुड़े घरेलू काम में बढ़ोतरी भी महिलाओं की एक दिक़्क़त है जिसमें महामारी के दौरान 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. इन सभी चीज़ों का महिलाओं पर नुक़सानदेह असर पड़ा है, ख़ास तौर पर उन महिलाओं पर जो समाज के निचले और हाशिए पर पड़े वर्ग की हैं.

बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत

इन चुनौतियों से पार पाने और वैक्सीन तक महिलाओं की पहुंच बढ़ाने का एक तरीक़ा है पोलियो जैसे अतीत के सफल टीकाकरण अभियानों से सबक़ सीखना और एक अलग तरह का और बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाना. एक नया दृष्टिकोण ऐसा हो जो प्रभावी सामाजिक और व्यवहारगत संचार के समर्थन को बढ़ावा दे जिसके ज़रिए ग़लत धारणाओं से लड़ा जा सके और टीका लगवाने के फ़ायदों को प्रोत्साहन दिया जा सके. इस काम में आशा कार्यकर्ताओं की मदद लेनी चाहिए ताकि लोगों के साथ उनके व्यापक और गहरे नेटवर्क का फ़ायदा उठाया जा सके और वो जितनी वैक्सीन लगाती हैं, उसके हिसाब से उतने प्रोत्साहन की राशि मिलनी चाहिए. साथ ही निर्वाचित जनप्रतिनिधियों, ख़ास तौर पर महिला नेताओं का भी सहयोग लेना चाहिए ताकि स्वास्थ्य संचार की रणनीतियों में हिस्सा बनने के लिए महिलाओं को इकट्ठा किया जा सके. कोविन पर रजिस्टर करने की समस्या से निपटने में महिलाओं के लिए वॉक-इन वैक्सीनेशन (यानी बिना रजिस्टर किए वैक्सीनेशन केंद्र पर जाकर वैक्सीन लगवाना) का आयोजन किया जाना चाहिए, चलते-फिरते टीकाकरण केंद्रों को बढ़ावा देना चाहिए और मौजूदा आंगनवाड़ी केंद्रों पर अस्थायी कैंप का आयोजन किया जाना चाहिए ताकि आस-पड़ोस में रहने वाली ज़्यादा-से-ज़्यादा महिला लाभार्थियों को वैक्सीन लगाने में सहूलियत के ज़रिए आकर्षित किया जा सके.

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