Author : Ajay Tyagi

Published on Nov 08, 2023 Updated 0 Hours ago

उभरते बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में सरकारों और नियामकों (रेगुलेटर्स) को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पद्धतियों से लगातार सीखने और अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों में उन्हें अपनाने की ज़रूरत है.

हरित परिवर्तन के लिए फंडिंग की चुनौतियां और वित्तीय स्थिरता का जोखिम

दुनिया भर के देशों को समय पर ग्रीन हाउस गैस (GHG) को कम करने की प्रतिबद्धता, जलवायु अनुकूलन की आवश्यकता और सतत विकास लक्ष्यों (SDG) को पूरा करने के लिए बड़ी मात्रा में अतिरिक्त वित्तीय संसाधनों की ज़रूरत है. ये सामान्य परिदृश्य के तहत ज़रूरी संसाधनों से बहुत ज़्यादा है.

दिल्ली में सितंबर 2023 में आयोजित G20 शिखर सम्मेलन के दौरान ये कहा गया कि विकासशील देशों को अपने राष्ट्रीय स्तर के निर्धारित योगदान (NDC) को लागू करने के लिए 2030 से पहले 5.8-5.9 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की ज़रूरत है. शिखर सम्मेलन में ये भी कहा गया कि 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन तक पहुंचने के उद्देश्य से स्वच्छ ऊर्जा तकनीकों के लिए 2030 तक हर साल 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता है.

अक्टूबर 2023 में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की वैश्विक वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन की तरफ बदलाव को हासिल करने के लिए सार्वजनिक निवेश में बढ़ोतरी सीमित होगी. इसलिए प्राइवेट सेक्टर को उभरते बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं (EMDE), जो वर्तमान में लगभग दो-तिहाई ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन करते हैं, के बड़े जलवायु निवेश की ज़रूरत की तरफ महत्वपूर्ण योगदान देने की आवश्यकता है. रिपोर्ट के अनुमान के मुताबिक 2050 तक शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए इन अर्थव्यवस्थाओं में 2030 तक ज़रूरी निवेश में प्राइवेट सेक्टर के हिस्से को मौजूदा 40 प्रतिशत के स्तर से बढ़ाकर लगभग 90 प्रतिशत (चीन को छोड़कर) करने की आवश्यकता पड़ेगी.

प्राइवेट सेक्टर को उभरते बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं (EMDE), जो वर्तमान में लगभग दो-तिहाई ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन करते हैं, के बड़े जलवायु निवेश की ज़रूरत की तरफ महत्वपूर्ण योगदान देने की आवश्यकता है.

उभरते बाज़ारों एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं (EMDE) के सामने दो कठिन काम हैं- जलवायु वित्त में बड़ी मात्रा में प्राइवेट सेक्टर का निवेश उपलब्ध कराना और ये सुनिश्चित करना कि उनकी अर्थव्यवस्थाएं वित्तीय स्थिरता से जुड़ी चिंताओं की परवाह किए बिना एक व्यवस्थित ढंग से हरित परिवर्तन से गुज़रें.

इसके अलावा भी चुनौतियां हैं. सीमित संसाधनों और घरेलू संस्थागत निवेशकों के द्वारा जलवायु एवं अविकसित वित्तीय बाज़ारों के लिए वित्त मुहैया कराने की प्रतिबद्धता में कमी की वजह से उभरते बाज़ारों एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं (EMDE) को अनुमानित प्राइवेट पूंजी की ज़रूरत के एक बड़े हिस्से को पूरा करने के लिए विदेशी निवेशकों पर बहुत ज़्यादा निर्भर रहने की आवश्यकता होगी.

EMDE की अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग कम होती है. कई विकासशील देश तो ऐसे भी हैं जिनकी क्रेडिट रेटिंग इन्वेस्टमेंट-ग्रेड भी नहीं होती. एक स्पष्ट वर्गीकरण (टैक्सोनॉमी) की व्यवस्था की गैर-मौजूदगी में EMDE में कथित ‘हरित परियोजनाएं’ विकसित देशों में ऐसे प्रोजेक्ट के लिए मानदंडों को शायद पूरा नहीं कर सकती हैं. फिर निवेशक करेंसी के जोखिम का भी सामना करते हैं जो मौजूदा ख़राब वैश्विक भू-राजनीतिक परिदृश्य की वजह से और भी बढ़ जाता है.

दुनिया भर की सरकारों और वित्तीय सेक्टर के नियामकों (रेगुलेटर) को अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं के व्यवस्थित ढंग से हरित परिवर्तन को सुनिश्चित करने के लिए योजना बनाने, सतर्क रहने और क्षमता बढ़ाने की आवश्यकता है. शायद उनकी भूमिका को मोटे तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है यानी ‘सही ढंग से ग्रीन लेबल लगाने एवं निवेश आसान बनाने को सुनिश्चित करना’ और ‘वित्तीय स्थिरता को सुनिश्चित करना’.

ये लेख इन दो क्षेत्रों में वैश्विक परिदृश्य के साथ-साथ भारतीय स्थिति पर भी गौर करता है.

सही हरित लेबल लगाना और निवेश को सुगम बनाने को सुनिश्चित करना

कंपनियों के द्वारा अपने जलवायु से जुड़े वित्तीय जोखिमों का सटीक और निष्पक्ष खुलासा (डिसक्लोज़र) ऐसे जोखिमों की कीमत और प्रबंधन के लिए महत्वपूर्ण है. ये न सिर्फ कंपनियों के ख़ुद के लिए ज़रूरी है बल्कि उन कंपनियों में वित्तीय जोखिम रखने वाले निवेशकों, कर्ज़दाताओं और अन्य के लिए भी आवश्यक है.

इस तरह के डिसक्लोज़र ख़ास तौर पर निवेशकों के दृष्टिकोण से प्रासंगिक हैं ताकि वो कंपनियों के द्वारा दी गई ग़लत जानकारी के आधार पर निवेश करने से बच सकें. इसके साथ-साथ एक सर्वव्यापी मान्यता प्राप्त ‘ग्रीन टैक्सोनॉमी’, डिसक्लोज़र स्टैंडर्ड और रिपोर्टिंग की रूप-रेखा के अभाव में सही ढंग से हरित लेबलिंग सुनिश्चित करना एक चुनौतीपूर्ण काम है.

कई अलग-अलग डिसक्लोज़र स्टैंडर्ड जैसे कि ग्लोबल रिपोर्टिंग इनिशिएटिव (GRI), जलवायु से जुड़े वित्तीय डिसक्लोज़र पर टास्क फोर्स (TCFD) और सस्टेनेबिलिटी अकाउंटिंग स्टैंडर्ड बोर्ड (SASB) का पालन अलग-अलग अधिकार क्षेत्रों में किया जा रहा है. साथ ही टैक्सोनॉमी विभिन्न जगहों पर अलग-अलग हैं.

भारत की बात करें तो 2021 में भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) बिज़नेस रेस्पॉन्सिबिलिटी एंड सस्टेनेबिलिटी रिपोर्ट (BRSR) का फ्रेमवर्क लेकर आया और उसने 2022-23 से बाज़ार पूंजीकरण के हिसाब से टॉप 1,000 लिस्टेड कंपनियों के लिए इस रिपोर्टिंग को अनिवार्य बना दिया.

कंपनियों के द्वारा जलवायु से जुड़े अपने वित्तीय जोखिमों के सिलसिलेवार और तुलनीय सार्वजनिक खुलासे को वैश्विक स्तर पर विकसित करने के लक्ष्य के साथ कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में काफी काम हो रहा है. इतना ही महत्वपूर्ण है अंतर्राष्ट्रीय मानकों और अधिकार क्षेत्र से जुड़ी विशेष आवश्यकताओं के बीच इंटरऑपरेबिलिटी की सुविधा प्रदान करना.

दो साल से अधिक समय तक काफी विचार-विमर्श के बाद जून 2023 में इंटरनेशनल सस्टेनेबिलिटी स्टैंडर्ड बोर्ड (ISSB) वैश्विक रूप-रेखा के तौर पर काम करने के लिए मानक लेकर आया– सामान्य स्थिरता से जुड़े खुलासों के लिए IFRS S1 और जलवायु से जुड़े खुलासों के लिए IFRS S2. अब इंटरनेशनल ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ सेक्युरिटीज़  कमीशन (IOSCO) को दुनिया भर में इन मानकों को लागू करने के लिए तौर-तरीके तैयार करने की आवश्यकता है.

भारत की बात करें तो 2021 में भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) बिज़नेस रेस्पॉन्सिबिलिटी एंड सस्टेनेबिलिटी रिपोर्ट (BRSR) का फ्रेमवर्क लेकर आया और उसने 2022-23 से बाज़ार पूंजीकरण के हिसाब से टॉप 1,000 लिस्टेड कंपनियों के लिए इस रिपोर्टिंग को अनिवार्य बना दिया. कंपनियों के लिए इसे अनिवार्य करने वाला भारत बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच शुरुआती देशों में से एक था.

BRSR एक व्यापक अवधारणा (कॉन्सेप्ट) है जिसमें विस्तृत रिपोर्टिंग की रूप-रेखा निर्धारित करते समय अलग-अलग पर्यावरणीय, सामाजिक और गवर्नेंस (ESG) विशेषताओं को शामिल किया गया है. ये फ्रेमवर्क मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय ढांचे के साथ BRSR रिपोर्टिंग फ्रेमवर्क की इंटरऑपरेबिलिटी मुहैया कराता है.

SEBI ने थर्ड पार्टी इंश्योरेंस  प्रोवाइडर के ज़रिए दायर किए गए BRSR दावों के वेरिफिकेशन का विचार बनाया है. इसे जल्द शुरू किया जाना चाहिए. SEBI उद्योग और दूसरे हिस्सेदारों के साथ सलाह-मशविरे के बाद भारतीय परिदृश्य में IFRS S1 और IFRS S2 मानकों को अपनाने के उचित होने की सीमा की भी पड़ताल कर सकता है.

सेबी पिछले दिनों फंड के द्वारा ESG खुलासों और उनकी रेटिंग पर नीति लेकर भी आया है. साथ ही उसने ESG रेटिंग देने वालों को रेगुलेट करने के लिए फ्रेमवर्क भी तैयार किया है. इसके अलावा, सेबी ने ESG की थीम पर आधारित स्कीम जारी करने वाले म्युचुअल फंड के लिए गाइडलाइन भी तैयार की है.

भारत के द्वारा निम्नलिखित चिंताओं का समाधान करना इस समय की ज़रूरत है:

टैक्सोनॉमी (वर्गीकरण)

  • भारत को हरित परियोजनाओं पर एक व्यापक एवं स्पष्ट टैक्सोनॉमी लाना चाहिए (2023 का SEBI का फ्रेमवर्क ‘ग्रीन डेट सिक्युरिटीज़’ को परिभाषित करता है लेकिन इसका उपयोग सीमित है);
  • भारत को टैक्सोनॉमी के विषय पर स्पष्टता मुहैया करानी चाहिए. ये गलत जानकारी से परहेज करने और बाज़ार की ईमानदारी में भरोसा बनाने के लिए ज़रूरी है.

ये दोनों कदम निवेशकों के लिए महत्वपूर्ण हैं, ख़ास तौर पर विदेशी एवं घरेलू संस्थागत निवेशकों के लिए.

ॉन्ड मार्केट का विस्तार करना

  • भारत कम विकसित बॉन्ड मार्केट (उचित रूप से गहरे इक्विटी मार्केट के उलट) की चुनौती का सामना कर रहा है;
  • मौजूदा समय में बॉन्ड मार्केट में काफी हद तक उच्च-स्तरीय बॉन्ड हैं. साथ ही 97 प्रतिशत कॉरपोरेट बॉन्ड टॉप 3 रेटिंग की श्रेणियों (AAA, AA+ और AA) में केंद्रित हैं;
  • जो बॉन्ड जारी करने वाले ये रेटिंग पाने में नाकाम हैं वो बॉन्ड मार्केट तक नहीं पहुंच सकते हैं. ये एक कारण है जिसकी वजह से वर्तमान में ज़्यादातर बॉन्ड जारी करने वाले या तो नॉन-बैंकिंग फाइनेंशियल कॉरपोरेशन (NBFC) हैं या पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग (PSU). हरित बदलाव की कई परियोजनाएं के इस रेटिंग की श्रेणी में आने की संभावना नहीं है.
  • बॉन्ड मार्केट से जुड़े दूसरे सुधारों की बात करें तो एक विश्वसनीय क्रेडिट बढ़ाने वाला तौर-तरीका स्थापित करने की ज़रूरत है;
  • क्रेडिट के जोखिम को काबू करने के उद्देश्य से क्रेडिट डिफॉल्ट स्वैप (CDS) के लिए बाज़ार को विकसित करना चाहिए.

रेंसी हेजिंग के बाज़ार का विस्तार करना

  • किसी भी दूसरे उभरते बाज़ार की तरह भारत को भी जलवायु वित्त की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए महत्वपूर्ण रूप से विदेशी निवेश पर निर्भर रहने की ज़रूरत होगी;
  • विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए घरेलू करेंसी हेजिंग के बाज़ार को गहरा करना होगा;
  • मौजूदा रूढ़िवादी नियामक दृष्टिकोण पूंजी खाते की परिवर्तनीयता (कन्वर्टिबिलिटी) की कमी से निर्देशित होता है. शुरुआत में हरित परियोजनाओं के समर्थकों के लिए ट्रेडिंग के दौरान पोज़िशन लिमिट में कुछ छूट मददगार हो सकती है.

ित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करना

जलवायु परिवर्तन से वित्तीय स्थिरता को संभावित ख़तरे पर दुनिया का ध्यान बढ़ता जा रहा है. कम कार्बन अर्थव्यवस्था की तरफ बिना कोई योजना बनाए और विघटनकारी बदलाव का वित्तीय प्रणाली पर अस्थिर प्रभाव पड़ सकता है.

जलवायु के लिए वित्त को पूरा करने के उद्देश्य से महत्वपूर्ण, पर्याप्त और अतिरिक्त संसाधनों को इकट्ठा करने के लिए वित्तीय लचीलापन सुनिश्चित करना एक पूर्व शर्त है. वास्तव में, जलवायु परिवर्तन की वजह से वित्तीय जोखिमों का समाधान करना और सतत वित्त जुटाना एक दूसरे से जुड़े हैं और दोनों मोर्चों पर भरोसेमंद कदम पारस्परिक तौर पर मज़बूती प्रदान करेगी.

कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थान- जिनमें फाइनेंशियल स्टैबिलिटी बोर्ड (FSB), बेसेल कमेटी ऑफ बैंकिंग सुपरविज़न (BCBS), कमेटी ऑन पेमेंट्स एंड मार्केट इंफ्रास्ट्रक्चर (CPMI), इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ इंश्योरेंस सुपरवाइज़र्स (IAIS), इंटरनेशनल ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ सेक्युरिटीज़  कमीशन (IOSCO), इंटरनेशनल फाइनेंशियल रिपोर्टिंग स्टैंडर्ड्स (IFRS), ऑर्गेनाइज़ेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD), IMF और वर्ल्ड बैंक शामिल हैं- जलवायु से जुड़े वित्तीय जोखिमों का समाधान करने के तौर-तरीकों पर काम कर रहे हैं. उनके काम-काज की समीक्षा नियमित रूप से G20 की बैठकों में भी की जाती है.

FSB अपनी अलग-अलग सदस्यता- जिनमें व्यक्तिगत अधिकार क्षेत्रों के वित्तीय प्रशासन (वित्त मंत्रालय, केंद्रीय बैंक, बैंकिंग एवं इंश्योरेंस सुपरवाइज़र्स, सिक्युरिटीज़ मार्केट रेगुलेटर्स), मानक तय करने वाले संस्थान और अंतर्राष्ट्रीय संगठन शामिल हैं- की वजह से इस काम का तालमेल करने के लिए अच्छी स्थिति में है.

FSB का कहना है कि जलवायु से जुड़े जोखिमों का समाधान करने के लिए रेगुलेटरी और सुपरवाइज़री क्षमता एवं साधन मौजूद होने चाहिए. ये व्यक्तिगत क्षेत्रों और व्यापक सिस्टम के स्तर पर होना चाहिए.

जुलाई 2021 में FSB जलवायु से जुड़े वित्तीय जोखिमों का समाधान करने के लिए एक व्यापक और समन्वित योजना के रूप में एक रोडमैप लेकर आया. इसमें उठाए जाने वाले कदम और काम को पूरा करने के लिए आवश्यक सांकेतिक समय सीमा शामिल हैं. रोडमैप में एक-दूसरे से जुड़े चार क्षेत्र शामिल हैं. इनमें जलवायु से जुड़े वित्तीय जोखिमों की कीमत और प्रबंधन के आधार के रूप में कंपनी के स्तर का खुलासा; जलवायु से जुड़ी असुरक्षा के इलाज के लिए डेटा; रेगुलेटरी और सुपरवाइज़री फ्रेमवर्क और टूल को डिज़ाइन करने और इस्तेमाल करने के लिए असुरक्षा का विश्लेषण; और वित्तीय स्थिरता पर जलवायु से जुड़े ख़तरों का समाधान करने के लिए रेगुलेटरी और सुपरवाइज़री पद्धतियां एवं साधन शामिल हैं. FSB ने पिछले दिनों सितंबर 2023 में आयोजित G20 की बैठक के दौरान इन चार क्षेत्रों में अभी तक दर्ज की गई प्रगति और आगे के रास्ते का सारांश प्रस्तुत किया.

जलवायु से जुड़ी वित्तीय असुरक्षा और वित्तीय स्थिरता पर संभावित प्रभाव के लिए एक व्यवस्थित मूल्यांकन की आवश्यकता है. इस तरह की असुरक्षा और परिदृश्य के विश्लेषण की समीक्षा के लिए विश्लेषणात्मक साधनों को और ज़्यादा विकसित और परिष्कृत करने की ज़रूरत है. जलवायु से जुड़े जोखिमों को सामान्य असुरक्षा मूल्यांकन की रूप-रेखा के साथ जोड़ देना चाहिए. एक मज़बूत और विश्वसनीय डेटा स्रोत की आवश्यकता होने वाली है.

FSB का कहना है कि जलवायु से जुड़े जोखिमों का समाधान करने के लिए रेगुलेटरी और सुपरवाइज़री क्षमता एवं साधन मौजूद होने चाहिए. ये व्यक्तिगत क्षेत्रों और व्यापक सिस्टम के स्तर पर होना चाहिए. वित्तीय जोखिमों का समाधान करने के उद्देश्य से जलवायु से जुड़े जोखिमों के लिए सुपरवाइज़री और रेगुलेटरी दृष्टिकोण को संपूर्ण सुपरवाइज़री और रेगुलेटरी दृष्टिकोण के भीतर समन्वित करना चाहिए. सूक्ष्म-विवेकपूर्ण और व्यापक-विवेकपूर्ण- दोनों परिप्रेक्ष्यों को ध्यान में रखना होगा.

FSB की परिकल्पना है कि क्षेत्रीय और अधिकार क्षेत्र से जुड़ी विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग देशों के बीच अच्छी पद्धतियों को साझा किया जाए ताकि तुलना में मदद मिले.

जहां तक बात भारतीय स्थिति की है तो भारत में वित्तीय क्षेत्र की मध्यवर्ती संस्थाओं को जलवायु से जुड़ी असुरक्षा को समझने और उनका मूल्यांकन करने के लिए क्षमताओं को तेज़ी से विकसित करने की आवश्यकता है, फिर उन्हें अपने व्यापक असुरक्षा से जुड़े मूल्यांकन की रूप-रेखा में शामिल करना होगा.

उदाहरण के लिए, बैंक की पूंजी पर्याप्तता रूप-रेखा (कैपिटल एडिक्वेसी फ्रेमवर्क) में जलवायु से जुड़े जोखिमों को स्वीकार करना चाहिए और उनके लिए प्रावधान करना चाहिए. बैंक की संपूर्ण पूंजी पर्याप्तता की आवश्यकता को जोड़ते समय जलवायु परिवर्तन के असर के हिसाब से असुरक्षित परियोजनाओं को उनके द्वारा कर्ज़ देने को अपेक्षाकृत अधिक जोखिम भार दिया जाना चाहिए.

जुलाई 2022 में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने ‘जलवायु जोखिम और सतत वित्त’ पर एक चर्चा पत्र (डिस्कशन पेपर) प्रकाशित किया. इसका उद्देश्य जलवायु के विषय पर अपने रेगुलेटेड (विनयमित) संस्थाओं को दिशा-निर्देश देने में मज़बूती लाना था. इस डिस्कशन पेपर में वैश्विक स्तर पर सर्वश्रेष्ठ पद्धतियों को शामिल किया गया और रेगुलेटेड संस्थाओं के लिए रिस्क मैनेजमेंट (जोखिम प्रबंधन) के ढांचे पर मार्गदर्शन किया गया है. साथ ही इसमें ये भी पता लगाया गया है कि कैसे तनाव परीक्षण (स्ट्रेस टेस्टिंग) और जलवायु परिदृश्य विश्लेषण (क्लाइमेट सिनेरियो  एनालिसिस ) जैसे साधनों का इस्तेमाल असुरक्षा की पहचान और मूल्यांकन में किया जा सकता है. हालांकि RBI ने अभी तक गाइडलाइन जारी नहीं की है जिसमें तेज़ी लाई जानी चाहिए.

सर्वश्रेष्ठ वैश्विक पद्धतियों से लगातार सीखने और अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों से जुड़े विचारों को ध्यान में रखते हुए उन पद्धतियों को अपनाने की आवश्यकता है.

इसी तरह का डिस्कशन पेपर SEBI और भारतीय बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (IRDAI) के द्वारा भी अपने रेगुलेटेड संस्थाओं के लिए जारी किया जाना चाहिए. वैसे तो इनके डिस्कशन पेपर और RBI के डिस्कशन पेपर की बहुत सी बातें एक जैसी होंगी लेकिन जोखिम मूल्यांकन, परिदृश्य विश्लेषण और तनाव परीक्षण को लेकर कुछ सेक्टर विशेष से जुड़े मुद्दे भी होने चाहिए.

उदाहरण के लिए, बीमा कंपनियों को प्रीमियम की रक़म तय करते समय सावधानीपूर्वक अपने ग्राहक या ग्राहक की संपत्ति पर जलवायु परिवर्तन के संभावित असर पर विचार करना चाहिए. इसी तरह, असेट मैनेजर को जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होने वाली संपत्तियों के लिए उचित मूल्य समायोजन (प्राइसिंग एडजस्टमेंट ) करना होगा.

वित्तीय क्षेत्र की सभी मध्यवर्ती संस्थाओं को करीबी निगरानी के लिए जलवायु से जुड़ी असुरक्षा की जानकारी और डेटा नियमित रूप से अपने-अपने रेगुलेटर को मुहैया कराना चाहिए.

जलवायु से जुड़े व्यापक वित्तीय जोखिमों के समाधान के उद्देश्य से रणनीतिक योजना बनाने के लिए अंतर-नियामक तालमेल (इंटर-रेगुलेटरी कोआर्डिनेशन ) महत्वपूर्ण है. वित्त मंत्री की अध्यक्षता में फाइनेंशियल स्टेबिलिटी  एंड डेवलपमेंट काउंसिल (FSDC) इस तरह के तालमेल के लिए सही मंच होगी.

निष्कर्ष

निष्कर्ष ये है कि जलवायु परिवर्तन और सतत वित्त पोषण (फाइनेंसिंग) के मुद्दे लगातार बदल रहे हैं और कई वैश्विक घटनाक्रम तेज़ी से हो रहे हैं. ज़्यादातर उभरते बाज़ारों और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं (EMDE) में पूरा इकोसिस्टम शुरुआती चरण में है. वहां की सरकारों और रेगुलेटर के सामने सीखने में कठिनाई है. उन्हें सर्वश्रेष्ठ वैश्विक पद्धतियों से लगातार सीखने और अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों से जुड़े विचारों को ध्यान में रखते हुए उन पद्धतियों को अपनाने की आवश्यकता है.

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