Author : Aparna Roy

Expert Speak Terra Nova
Published on Jun 07, 2024 Updated 0 Hours ago

एक प्रभावी फॉरेस्ट मैनेजमेंट स्ट्रैटेजी को अपनाने के मायने भारत के लिए नेट-ज़ीरो एमिशन के लक्ष्य को पूरा करने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने की दिशा में आगे बढ़ने के साथ-साथ इस समस्या का एक स्थायी और कम लागत वाले एक प्रभावी समाधान की ओर अग्रसर होना भी है.

इंसानों के भविष्य में जंगल की भूमिका: नेट-ज़ीरो का भारतीय लक्ष्य जंगलों के बग़ैर मुमकिन नहीं है!

यह लेख निबंध श्रृंखला ‘ये दुनिया का अंत नहीं है: विश्व पर्यावरण दिवस 2024’ का एक हिस्सा है.


ऐसे समय में जब देश में एक नई सरकार बनने की सरगर्मियां चल रही है, इस विश्व पर्यावरण दिवस को उत्साह से मनाने के बहुत से कारण है. राजनीतिक दलों ने महत्वपूर्ण पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के मुद्दों को संबोधित करते हुए 2070 तक नेट-ज़ीरो एमिशन को प्राप्त करने की दिशा में काम करने का संकल्प लिया है.  इन लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में भारत आज रिन्यूएबल एनर्जी को बड़ी तेज़ी से अपना रहा है. इस पहल का लक्ष्य 2030 तक भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद की एमिशन इंटेंसिटी को 45 प्रतिशत तक कम करना और उसी वर्ष तक नॉन फॉसिल फ्यूल से अपनी 50 प्रतिशत तक बिजली की आपूर्ति प्राप्त करना है. 

 

इन महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के बावजूद, भारत, जो आज एक सबसे तेज़ी से बढ़ते हुए विकासशील देशों में से एक है, कोयले जैसे पारंपरिक फॉसिल फ्यूल पर अपनी निर्भरता को जारी रखेगा. मिनिस्ट्री ऑफ़ स्टेटिस्टिक्स एंड प्रोग्राम इम्प्लीमेंटेशन की एनर्जी स्टेटिस्टिक्स 2024 रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि वित्त वर्ष 23 में कोयले से उत्पन्न ऊर्जा कुल ऊर्जा उत्पादन का लगभग 77.01 प्रतिशत थी और ऐसी उम्मीद है कि कोयले से उत्पन्न बिजली 2026 तक 68 प्रतिशत ऊर्जा के मांग को पूरा करेगी. इसलिए, 2070 तक नेट-ज़ीरो लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में तेज़ी से अग्रसर होने के लिए भारत को विविध वैकल्पिक समाधानों को भी अपनाना पड़ेगा.

 भारत, जो आज एक सबसे तेज़ी से बढ़ते हुए विकासशील देशों में से एक है, कोयले जैसे पारंपरिक फॉसिल फ्यूल पर अपनी निर्भरता को जारी रखेगा.

रिसर्च से यह पता चलता है कि जंगलों की तरह टेरेस्ट्रियल कार्बन सिंक भी वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने के लिए एक प्रभावशाली तरीका है जो जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार एक ग्रीनहाउस गैस है. वन संरक्षण की आवश्यकता की वैश्विक मान्यता 2024 विश्व पर्यावरण दिवस की प्राथमिकताओं में साफ़ झलकती है जो लैंड री-स्टोरेशन, सूखे से निपटने के उपाय और मरुस्थलीकरण का मुकाबला करने पर ज़ोर देती है.

 

हालांकि, 2001 और 2023 के बीच, भारत में 2.33 मिलियन हेक्टेयर वृक्ष भूमि का नुक़सान हुआ जिसके कारण वृक्ष भूमि क्षेत्रफल में 6 प्रतिशत की गिरावट आई और CO2 उत्सर्जन 1.20 Gt बड़ा. भारत में बनने वाली नई सरकार के पास इस ढर्रे को सुधारने और नेट ज़ीरो प्राप्त करने की दिशा में भारत की रफ़्तार को तेज़ करने का सुनहरा अवसर है. भारत के जलवायु के प्रति इस संकल्प को पूरा करने के लिए हमें आने वाले  दशक में अपनी वृक्ष भूमि को 12 प्रतिशत तक बढ़ाने की आवश्यकता है. नई सरकार इकोलॉजिकल और सामाजिक रूप से अपने वन क्षेत्र के बचाव, संरक्षण और बहाली के लिए प्रभावी रणनीतियाँ कैसे सुनिश्चित कर सकती हैं?



वनों की कटाई

 

पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम यह है कि भारत सरकार को ‘फॉरेस्ट’ यानी वन को फिर से परिभाषित करने की तत्काल आवश्यकता है. फॉरेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया वर्तमान में वनों को परिभाषित करने के लिए उपग्रह इमेजरी और रिमोट सेंसिंग डेटा का उपयोग करता है और भूमि उपयोग, स्वामित्व या वृक्ष प्रजातियों की परवाह किए बिना, 10 प्रतिशत से अधिक वृक्ष घनत्व और एक हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र वाले किसी भी भूमि क्षेत्र को वन के रूप में परिभाषित करता है. यह विधि प्लांटेशन और प्राकृतिक वनों के बीच अंतर करने में विफ़ल है और इसके फलस्वरूप किसी भी वृक्ष आवरण, चाहे वह बांस हो, कॉफी हो, बगीचे हों या शहरी उद्यान हों उस को 'वन' के रूप में वर्तमान में वर्गीकृत किया जाता है. 

 

प्लांटेशन से ठीक अलग, मूल वन 30-40 विभिन्न वृक्ष प्रजातियों, लाखों वर्षों के उद्भव से बने तंत्र और विशिष्ट क्षेत्रीय बायोफिसिकल विशेषताओं की संरचना वाला एक जटिल इकोसिस्टम हैं. वे सबसे प्रभावी कार्बन सिंक के रूप में काम करते हैं. इस प्रकार, केवल वृक्ष घनत्व को वन नहीं माना जा सकता है. एक अधिक गहन परिभाषा को अपनाने से भारत ऐसी नीतियों को बनाने और लागू करने में सक्षम होगा जो वास्तव में अपने वनों की रक्षा, पुनर्स्थापना और संरक्षण कर पाएंगे.

 

पिछले दो दशकों में भारत अपने कई महत्वपूर्ण वनों की कटाई का मूकदर्शक रहा है. इस कदम के चलते  30 प्रतिशत से अधिक भूमि उजाड़ हुई है और 2.33 मिलियन हेक्टेयर वन क्षेत्र का नुक़सान हुआ है. यह वनों की कटाई देश की आबादी के हर बीस में से एक व्यक्ति को प्रभावित कर रही है जो अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं. वनों की कटाई और भूमि के उजाड़ होने के परिणाम दूरगामी हैं जो कृषि उत्पादकता पानी की गुणवत्ता और जैव विविधता को प्रभावित करते हैं और अंततः भारत में 60 करोड़ से अधिक लोगों को प्रभावित करते हैं. 

 पिछले दो दशकों में भारत अपने कई महत्वपूर्ण वनों की कटाई का मूकदर्शक रहा है. इस कदम के चलते  30 प्रतिशत से अधिक भूमि उजाड़ हुई है और 2.33 मिलियन हेक्टेयर वन क्षेत्र का नुक़सान हुआ है. यह वनों की कटाई देश की आबादी के हर बीस में से एक व्यक्ति को प्रभावित कर रही है जो अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं.

वन भूमि के तेज़ी से वन्य उद्देश्यों के अलावा अन्य प्रयोजनों के लिए किए जाने वाले उपयोग इसका मुख्य कारण है.  पिछले पांच वर्षों के दौरान भारत ने गैर-वन्य उद्देश्यों के लिए 88,903 हेक्टेयर से अधिक वन भूमि को उपयोग के लिए मंजूरी दी जो कि मुंबई और कोलकाता के कुल क्षेत्रफल से भी बड़ा है. इसमें सबसे अधिक 19,424 हेक्टेयर सड़क निर्माण के लिए है, इसके बाद खनन के लिए 18,847 हेक्टेयर, सिंचाई परियोजनाओं के लिए 13,344 हेक्टेयर, ट्रांसमिशन लाइनों के लिए 9,469 हेक्टेयर और रक्षा परियोजनाओं के लिए 7,630 हेक्टेयर शामिल है. भारत का कम्पेन्सेटरी अफॉरेस्टेशन प्रोग्राम इस धारणा पर आधारित है कि वनों को आसानी से कहीं भी प्रतिस्थापित किया जा सकता है. नतीज़तन, गैर-वन्य उपयोग के लिए वन क्षेत्रों की आवश्यकता वाली परियोजनाओं के लिए कीमत में मुआवज़ा एकत्र करके मंजूरी दी जाती है. इसी धन को फिर गैर-वन्य भूमि पर कम्पेन्सेटरी अफॉरेस्टेशन प्रोग्राम चलाने के लिए राज्यों को आवंटित किया जाता है.  2015 के बाद से, सरकार ने वनों को अन्य उद्देश्यों के लिए जारी करने वाले प्रस्तावों में से 1 प्रतिशत से भी कम प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया है. 

 

'वनों' के नुक़सान की भरपाई के लिए, भारत का अफॉरेस्टेशन कार्यक्रम वर्तमान में नीलगिरी, बबूल और सागौन जैसी गैर-देशी, वाणिज्यिक प्रजातियों को बड़े पैमाने पर लगाने पर केंद्रित है. इन लगाए गए प्लांटेशन में जैव विविधता, पारिस्थितिकी मूल्य और प्राकृतिक वनों जैसी दीर्घ आयु नहीं होती.  उनके पास बहुत कम कार्बन निराकरण की  क्षमता होती है और अक्सर इन लकड़ियों के जलने पर कार्बन हवा में ज़्यादा फ़ैलता हैं.  अथक प्रयासों के बावजूद, यह कार्यक्रम काफ़ी हद तक अप्रभावी रहा है जैसा कि ISFR रिपोर्ट 2021 में घने जंगलों में 1,582 वर्ग किलोमीटर की गिरावट के साथ-साथ खुले वन क्षेत्रों में 2,621 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि का पता चलता है.

 

चित्र 1: भारत में वन/फॉरेस्ट कवर का नुक़सान

Source - https://fsi.nic.in/forest-report-2021 

 

भारत को वन प्रबंधन के लिए एक मजबूत नीतिगत ढांचा विकसित करना चाहिए जो इकोसिस्टम और बायोडायवर्सिटी का ध्यान रखते हुए वनों की कटाई को कम करें. एक ऐसा नीतिगत ढांचा जो एक सहभागी सोच के साथ वैज्ञानिक, प्रमाण आधारित पद्धतियों का उपयोग करते हुए भूमि उपयोग के लिए सबसे उपयुक्त वृक्ष-आधारित इंटरवेंशन की पहचान करने में मदद करें. बड़े पैमाने पर री-स्टोरेशन ओप्पोरचुनिटीज़ असेसमेंट मेथोडोलॉजी (ROAM) फ्रेमवर्क को लागू करने से भूमि से संबंध, कानूनी और सामाजिक-आर्थिक डेटा का गहन विश्लेषण करने में मदद मिल सकती है, जिससे ज़्यादा से ज़्यादा वन पुनर्स्थापना के कार्यो को सक्षम बनाया जा सकता है. 

 

इन सब कदमों के बावजूद, एक सफ़ल फॉरेस्ट  प्रोग्राम धन के प्रभावी कार्यान्वयन, उपयोग और निगरानी के लिए कड़े संस्थागत तंत्र स्थापित करने पर निर्भर करेगा. हाल के दिनों में, CAMPA निधि के दुरुपयोग और राज्यों द्वारा अपर्याप्त नियंत्रण के कई उदाहरण सामने आए हैं, जो इस निधि के मजबूत निरीक्षण की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं. 

 वन भूमि के पुनः उत्थान या वनरोपण के लिए स्थानीय समुदायों के समर्थन की आवश्यकता है जो उस जगह के अनुसार और अनुकूल प्रबंधन के तरीकों से वनों की देखरेख कर सकते हैं.

उभरती तकनीक कई आशाजनक समाधान प्रदान करती हैं.  उदाहरण के लिए, स्टार्ट अप कंपनी ट्रिविया द्वारा विकसित दूर से की जाने वाली वन-निगरानी प्रणाली स्मार्टफॉरेस्ट ब्राज़ील के जंगलों के बढ़ने की गति को रियल टाइम में ट्रैक करने के लिए वायरलेस इलेक्ट्रॉनिक सेंसर का उपयोग करती है. इस तकनीक में सेंसर द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों का नीति निर्माण के लिए उपयोग किया जाता है. यह प्रणाली डिजिटल एसेट रजिस्ट्रेशन सिस्टम, हाई प्रिसिशन फॉरेस्ट रिसर्च और किसी ख़तरे के आकलन सहित विभिन्न समाधान भी प्रदान करती है. इसके अतिरिक्त, यह तकनीक जियो-टैगिंग तकनीक ऑनलाइन रिकॉर्डिंग, निगरानी और रिसाव को रोकने के साथ-साथ वन भूमि के सही मानचित्रण के लिए एक मूल्यवान उपकरण के रूप में भी काम कर सकती है. 

 

सार

 

अंत में, वन भूमि के पुनः उत्थान या वनरोपण के लिए स्थानीय समुदायों के समर्थन की आवश्यकता है जो उस जगह के अनुसार और अनुकूल प्रबंधन के तरीकों से वनों की देखरेख कर सकते हैं. वन प्रबंधन में सामुदायिक ज्ञान प्रणालियों और प्रयासों को पहचानना और इसे औपचारिक रूप देना आवश्यक है.  किसान-प्रबंधित प्राकृतिक पुनर्जनन (FMNR) की प्रणालियों ने, जिसके अंतर्गत स्थानीय समुदाय प्राकृतिक रूप से पुनर्जनन करने वाले पेड़ों की रक्षा और प्रबंधन करते हैं, कई राज्यों में महत्वपूर्ण आर्थिक और इकोसिस्टम को लाभ पहुंचाने का काम किया है.  इस तरह की पहलों को बड़े पैमाने पर औपचारिक और संस्थागत बनाने की आवश्यकता है. भारत में, नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) की 'वाडी' परियोजना और फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी की री-ग्रीनिंग ऑफ विलेज कॉमन्स परियोजना जैसे मॉडल अब तक काफ़ी प्रभावी साबित हुए हैं. 

 

प्रभावी वन प्रबंधन रणनीतियों को अपनाने से एक स्थायी और कम लागत वाले प्रभावी समाधान प्राप्त होने के आसार है जो भारत के नेट ज़ीरो एमिशन लक्ष्य को महत्वपूर्ण रूप से आगे ले जाएगा और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करेगा.


अपर्णा रॉय ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में ‘फेलो’ हैं

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