Published on Jul 31, 2022 Updated 0 Hours ago

ऐसे में जब देश गुटों में बंटे हुए हैं, भारत को आपसी विवादों और विरोधाभासों को एक-दूसरे के साझा हितों में बदलने की आवश्यकता है.

भारत की जी-20 अध्यक्षता के समक्ष पांच चुनौतियां!
अमेरिका,अर्थव्यवस्था,आपूर्ति श्रृंखला,चीन,जी-20,पश्चिमी देश,भारत,महंगाई दर,यूरोपियन यूनियन,रूस-यूक्रेन युद्ध,वैश्विक मंदी

जैसे कि भारत 1 दिसंबर, 2022 से 30 नवंबर, 2023 तक जी-20 की अध्यक्षता के लिए ख़ुद को तैयार कर रहा है, ऐसे में भारत को ना केवल राजनीति के ज़रिए अंतरराष्ट्रीय  कार्यकलापों के अर्थशास्त्र को तेज़ करने के लिए एक निश्चित एजेंडा निर्धारित करने से कुछ लीक से हटकर अलग करने की ज़रूरत होगी, बल्कि अर्थशास्त्र के ज़रिए पश्चिमी दबाव की राजनीति को साधने पर भी समान रूप से ज़ोर देना होगा. हालांकि यह सब करना बहुत आसान भी नहीं है, बेहद चुनौती भरा है. संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) के नेतृत्व वाले लोकतांत्रिक राष्ट्रों और चीन के आस-पास जुटने वाले सत्तावादी शासनों के बीच बढ़ते ध्रुवीकरण और आरोप-प्रत्यारोप का दौर इस भूभाग की स्थिति को और भी जटिल बना रहा है. इन परिस्थियों में भारत  की जी-20 की अध्यक्षता इस बात पर निर्भर करेगी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कितनी कुशलता से देशों के बीच दूरियों को पाटने, विवादों को ख़त्म करने, शांति स्थापित करने, संघर्षों को शांत करने और टूट चुकी आपूर्ति श्रृंखलाओं को फिर से बहाल करने के लिए रास्ते और साधन खोज पाते हैं. ज़ाहिर है कि मतभेदों की वजह से एक विकट स्थिति में पहुंच चुकी दुनिया को जी-20 जैसे मंच के माध्यम से साझा हितों वाले विश्व में बदलने की आवश्यकता है.

भारत  की जी-20 की अध्यक्षता इस बात पर निर्भर करेगी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कितनी कुशलता से देशों के बीच दूरियों को पाटने, विवादों को ख़त्म करने, शांति स्थापित करने, संघर्षों को शांत करने और टूट चुकी आपूर्ति श्रृंखलाओं को फिर से बहाल करने के लिए रास्ते और साधन खोज पाते हैं. 

वैश्विक चुनौतियों का मुक़ाबला

दुनिया के सामने वर्तमान में मुख्य तौर पर पांच चुनौतियां हैं, जिनका हल निकालने या फिर उनका सामना करने में जी-20 अपनी अहम भूमिका निभा सकता है. सबसे पहली और सम्मुख खड़ी चुनौती रूस-यूक्रेन युद्ध है. इस मुद्दे पर मोदी को संवेदनशील और नए तरीके से सोचने के ज़रूरत होगी, ताकि पश्चिम और रूस दोनों को युद्ध का मैदान बन चुके यूक्रेन से पीछे हटाया जा सके. जी-20 से रूस को बाहर निकालना, जैसा कि पश्चिमी देश चाहते हैं, एक हिसाब से संभव नहीं है और इसी तरह से रूस-यूक्रेन की लड़ाई का अनंतकाल तक जारी रहना भी संभव नहीं है. ऐसे में यहां दोनों के लिए एक ही रास्ता बचता है और वो है रणनीतिक वापसी. पश्चिम अपनी तरफ से आगे बढ़कर यूक्रेन की उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) की सदस्यता को ठंडे बस्ते में डाल सकता है, क्योंकि यही वो मसला है जिस पर रूस आगबबूला है. दूसरी तरफ रूस को अपने कदम वापस लेने और कूटनीति में उसके स्थान को महत्त्व देने के लिए प्रेरित किया जा सकता है. दुनिया में कोई भी नहीं चाहता कि यह संघर्ष एक बड़े और व्यापक युद्ध में तब्दील हो. हालांकि, यह सब कहना बहुत आसान सा लगता है. लेकिन भारत के पश्चिम और रूस, दोनों के साथ मजबूत संबंधों के मद्देनज़र युद्ध और हथियारों के ज़रिए एक दूसरे के आमने-सामने खड़े दोनों को ख़ूनी गतिरोध से बाहर निकालने में मध्यस्थ के रूप में भारत की भूमिका के महत्त्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है. इसमें कोई दोराय नहीं है कि यह एक बड़ी चुनौती होगी और अगर भारत इसका समाधान निकालने में कामयाब हो जाता है, तो यह उसकी जी-20 अध्यक्षता की सबसे बेहतरीन उपलब्धि होगी. इसको मूर्तरूप देने का अर्थ होगा कि एक तरफ अमेरिका, यूरोपीय संघ (ईयू) और नेटो और दूसरी तरफ रूस के साथ कई दौर की पर्दे के पीछे की बातचीत. अगर देखा जाए तो परंपरागत रूप से यह कार्य संयुक्त राष्ट्र (यूएन) का है. संयुक्त राष्ट्र की असफलता से भारत को इस कार्य को अंज़ाम तक पहुंचाने और शांति का मार्ग स्थापित करने की शुरुआत करने का अवसर मिल सकता है. रूस-यूक्रेन संघर्ष को समाप्त करने के लिए अपनी भूमिका को सफलतापूर्वक निभाने में भारत अगर कामयाब रहा, तो यह वो कार्य होगा, जिसे पूरी सुरक्षा परिषद भी करने विफल रही है.

भारत के पश्चिम और रूस, दोनों के साथ मजबूत संबंधों के मद्देनज़र युद्ध और हथियारों के ज़रिए एक दूसरे के आमने-सामने खड़े दोनों को ख़ूनी गतिरोध से बाहर निकालने में मध्यस्थ के रूप में भारत की भूमिका के महत्त्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है.

 अगर भारत पहली चुनौती से पार पाने में सफल हो जाता है, तो दूसरी चुनौती, यानी पूरी दुनिया में महंगाई, खासकर खाने-पीने की वस्तुओं की महंगाई की वजह से वैश्विक स्तर पर छाई मुद्रास्फीति की समस्या का ख़ुद-ब-ख़ुद समाधान हो जाएगा. अगर ऐसा नहीं होता है, तो फिर इस चुनौती से निपटने के लिए अलग से प्रयास करने होंगे. फिलहाल, जी-20 के 19 सदस्यों में से तीन सदस्य देशों में महंगाई दर 10 प्रतिशत से अधिक है, सात देशों में महंगाई दर 7.5 से 10 प्रतिशत के बीच है, पांच देशों में महंगाई दर 5 से 7.5 प्रतिशत के बीच है और चार देशों में महंगाई दर 5 प्रतिशत से कम है. हालांकि, दुनिया की बाकी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में मुद्रास्फीति अभी सारे जी-20 सदस्य देशों के लिए कोई गंभीर चुनौती नहीं है. यदि रूस-यूक्रेन युद्ध का ज़ल्द समाधान नहीं होता है, तो भारत को महंगाई दर पर काबू पाने के लिए नए कदमों को उठाने की आवश्यकता होगी.

 

तीसरी चुनौती है ऊर्जा. रूस दुनिया को यह बता रहा है कि उसके खिलाफ प्रतिबंध भविष्य में उसकी अर्थव्यवस्था को ज़रूर प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन फिलहाल इन प्रतिबंधों का उस पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा है. रूस की प्रतिक्रिया से जो सबसे अधिक प्रभावित हैं, वो हैं गैस पर निर्भर यूरोपीय देश. जुलाई में गर्मी के मौसम में यह समस्या भले ही बड़ी नहीं लगती हो, लेकिन नवंबर आते-आते सर्दी के मौसम में जर्मनी जैसे देशों में गैस की कमी की समस्या विकराल रूप धारण कर सकती है. गर्मी में आर्थिक व्यवस्था ज़रूर प्रभावित होगी, लेकिन इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि सर्दी में दिनों यूरोप की राजनीति में बड़ा भूचाल आ  जाएगा. रूस से बहुत कम मात्रा में तेल ख़रीदने के लिए भारत को दोषी ठहराना, केवल पश्चिम के ढोंग को सामने लाएगा, इससे समस्या का समाधान नहीं होगा. इसका सामना करने के लिए भारत को तीन अलग-अलग जी-20 ऊर्जा हितों- मुख्य रूप से ऊर्जा उत्पादकों (अमेरिका, रूस और सऊदी अरब) बनाम ऊर्जा उपभोक्ताओं (यूरोप और अन्य) को एक साथ व्यवहारिक मंच पर ले जाने की आवश्यकता है.

  

चौथी चुनौती है खाद्य वस्तुओं और ऊर्जा की बढ़ती की क़ीमतों की वजह से लगातार बढ़ती मुद्रास्फीति और इससे निपटने के लिए देशों द्वारा की जा रही कोशिशें. लोकतांत्रिक देशों में बेतहाशा महंगाई राजनीतिक अस्थिरिता का कारण बन सकती है. इसीलिए, महंगाई को काबू में रखना सिर्फ़ आर्थिक लिहाज से ज़रूरी नहीं है, बल्कि यह एक राजनीतिक प्राथमिकिता भी है. अधिकतर देशों में केंद्रीय बैंक इस पर काबू पाने के लिए मौद्रिक नीति के घिसे-पिटे हथकंडे का उपयोग करते हुए ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं. इस तरह के उपायों से अतिरिक्त खपत पर लगाम अवश्य लग सकती है, लेकिन आपूर्ति पक्ष की समस्या का समाधान नहीं हो सकता है. चीन, इंडोनेशिया, जापान, रूस और तुर्की के अलावा अन्य सभी जी-20 सदस्य देशों की केंद्रीय बैंकों ने हाल ही में ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है. यह व्यापक रूप से सभी देशों में व्यवसाय करने की लागत को बढ़ाएगा और मुद्रास्फीति में प्रारंभिक तौर पर कमी लाए बगैर निवेश की गति को धीमा कर देगा. भारत को इस प्रकार का जी-20 एजेंडा प्रस्तुत करने की आवश्यकता है, जो मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए खाद्य वस्तुओं की तात्कालिक कमी का समाधान करने वाला हो और नई खाद्य आपूर्ति श्रृंखलाओं के निर्माण को प्रोत्साहित करने वाला हो. इसके साथ ही भारत को विकास के तरीकों को मज़बूती से स्थापित करना चाहिए और इसमें कम ब्याज दरें भी एक अहम पहलू है.

रूस दुनिया को यह बता रहा है कि उसके खिलाफ प्रतिबंध भविष्य में उसकी अर्थव्यवस्था को ज़रूर प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन फिलहाल इन प्रतिबंधों का उस पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा है. रूस की प्रतिक्रिया से जो सबसे अधिक प्रभावित हैं, वो हैं गैस पर निर्भर यूरोपीय देश.

भारत के सामने पांचवी चुनौती धीमी आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ बढ़ती मुद्रास्फीति के कारण पैदा हुआ मंदी का ख़तरा है. विकसित देशों में यह स्थिति मांग में कमी के तौर पर दिखाई देती है, क्योंकि लोग बढ़ती क़ीमतों की वजह से ख़रीदारी कम कर देते हैं और इसके परिणामस्वरूप वृद्धि धीमी हो जाती है. इसका नीतिगत समाधान है, लोगों के हाथों में अधिक नगदी. लेकिन विकासशील देशों में खपत और वृद्धि के इस समीकरण की गुंजाइश बेहद सीमित है, सरकारों के पास संसाधनों की कमी है, लोगों तक नगदी पहुंचाना मुश्किल है. भारत की तरह खाद्य सामग्री से भरपूर अर्थव्यवस्थाओं में खाद्य वितरण एक नीतिगत कार्रवाई का नतीजा है. भारत को इस मुद्दे को जी-20 के मंच पर रखना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि यह ग्रुप खाद्यान्न की कमी से जूझ रही अर्थव्यवस्थाओं पर अतिरिक्त ध्यान दे. यदि सरकार की तरफ से विशेष प्रयास किया जाना आवश्यक हो, तो इसके लिए यह ज़रूरी है कि आर्थिक वृद्धि के संकेत भी दिखाई देने चाहिए.

सारांश

पृथ्वी को हरा-भरा बनाना या फिर प्रौद्योगिकी प्लेटफार्मों को शासन के प्रति अधिक जवाबदेह बनाने जैसी बहसें चलती रहेंगी. अगर एक बार बड़ी चुनौतियों का समाधान हो जाए, तो इन मुद्दों का हल भी आसानी से हो जाएगा. रोज़गार, स्वास्थ्य, डिजिटल अर्थव्यवस्था, व्यापार, निवेश, जलवायु, भ्रष्टाचार का खात्मा, पर्यटन, संस्कृति, सामाजिक-आर्थिक विकास, शिक्षा और महिला सशक्तिकरण जैसे मसलों को लेकर स्वाभाविक रूप से 100 आधिकारिक बैठकें होंगी. 50 अकादमिक संवाद और अंतरराष्ट्रीय   वित्तीय संरचना, वित्तीय समावेशन और सतत् आर्थिक प्रबंधन, बुनियादी ढांचे के लिए वित्तपोषण, जलवायु वित्त प्रबंधन और टैक्स से जुड़े मसलों को लेकर 40 बैठकें होंगी. भले ही बड़ी समस्याओं को प्राथमिकता दी जाए, लेकिन इन सभी मुद्दों पर बातचीत जारी रहनी चाहिए.

पृथ्वी को हरा-भरा बनाना या फिर प्रौद्योगिकी प्लेटफार्मों को शासन के प्रति अधिक जवाबदेह बनाने जैसी बहसें चलती रहेंगी. अगर एक बार बड़ी चुनौतियों का समाधान हो जाए, तो इन मुद्दों का हल भी आसानी से हो जाएगा. 

आख़िर में, पिछले 13 वर्षों में सभी जी 20 नेताओं को विभिन्न महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर होने वाली आधिकारिक वार्ताओं में एक साथ लाने की कोशिश की गई है. नवंबर, 2008 में वाशिंगटन शिखर सम्मेलन में अर्थव्यवस्था पर विशेष ध्यान देने के साथ जो शुरू हुआ, वह अप्रैल, 2009 के लंदन शिखर सम्मेलन में “एक समावेशी, हरित और सतत् सुधार” के विस्तार के साथ धुंधला होना शुरू हो गया. सितंबर, 2009 में पिट्सबर्ग शिखर सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन का मुद्दा शामिल था, जबकि नवंबर, 2010 में हुए सियोल शिखर सम्मेलन ने सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों, समुद्री पर्यावरण संरक्षण और भ्रष्टाचार को जी-20 के एजेंडे में प्रस्तुत किया. नवंबर, 2014 के ब्रिस्बेन शिखर सम्मेलन ने विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय  मुद्रा कोष से गिनी, लाइबेरिया और सिएरा लियोन में इबोला के प्रकोप के लिए 300 मिलियन अमेरिकी डॉलर के बजट का अनुरोध किया, जबकि नवंबर, 2015 के अंताल्या शिखर सम्मेलन में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को लेकर एक बयान जारी किया गया था.

जी-20 का प्राथमिक लक्ष्य वैश्विक अर्थव्यवस्था के संचालक मंडल के रूप में कार्य करना था. जी-20 ने दूसरे अन्य मुद्दों को शामिल करने के लिए अपने अधिकारों का विस्तार किया है, जो उसकी बढ़ती प्रासंगिकता या औचित्य को प्रदर्शित करता है. लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि सरकारें उन लोगों के संकीर्ण हितों के सामने झुकती हैं, जिनका इसमें कुछ भी दांव पर नहीं लगा होता है और जो इस प्रकार के एजेंडे को हाईजैक करना चाहते हैं. ऐसे में जी-20 की शक्ति और आधिकारिक नियंत्रण को और कम करने की कोशिशों का विरोध करना भारत सहित इसकी अध्यक्षता की ज़िम्मेदारी संभालने वाले देशों के लिए एक अदृश्य और अप्रत्यक्ष चुनौती बनी रहेगी.

ये लेखक के अपने निजी विचार हैं.

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