Published on Jan 29, 2018 Updated 0 Hours ago

भारत के नजरिये से हिन्द महासागर में सामुद्रिक सुरक्षा जितनी महत्वपूर्ण है, जरुरी नहीं कि आसियान के भूगोल के लिहाज से वह उतना महत्वपूर्ण हो।

ड्रैगन से संघर्षः भारत और आसियान की एकजुटता

गणतंत्र दिवस पर 10 आसियान देशों के नेताओं और सरकार प्रमुखों को आमंत्रण से बातचीतों का केंद्र बिंदु नए और उभरते गठबंधनों तथा डोकलम पठार पर भारत और चीन के बीच वर्तमान में जारी तनाव बन चुका है और अब यह स्पष्ट हो चुका है कि 2018 की विदेश नीति का फोकस पूर्व दिशा की ओर है।

पश्चिम दिशा के बजाये पूरब दिशा की ओर सोचने के लिए एक बदलाव जरुरी है। सोच को रूपांतरित कर जमीन आधारित से समुद्र आधारित रणनीति बनाने की आवश्यकता है। इस नई विश्व दृष्टि में, भारत और हिंद महासागर के जल के बीच में निकले हुए इसके प्रायद्वीप के हिस्से को निश्चित रूप से अपने प्रभाव एवं पहुंच को न केवल चीन के विस्तार को संतुलित करने के लिए, अफ्रीकी महादेश के पूर्वी तट से लेकर प्रशांत महासागर के पश्चिमी तट तक विस्तारित करना चाहिए बल्कि सकारात्मक और स्पष्ट रूप से एशिया के नेता के रूप में उभरना चाहिए। चीन की बेल्ट एवं रोड पहल और सामुद्रिक ‘रेशम मार्ग’ के रास्ते उत्तर, मध्य एवं दक्षिण एशिया तक जमीन एवं समुद्र के रास्ते पैठ करने के प्रयासों को अधिकतर लोगों द्वारा भारत को घेरे में लाने और भारत की पहुंच एवं प्रभाव को सीमित करने की कोशिशों के रूप में देखा जा रहा है। यह चीन को भारत की सबसे बड़ी सुरक्षा चुनौती बना देता है; और इससे भारत और चीन के बीच पहले से जटिल और कमजोर रिश्तों में जटिलता की और परतें जुड़ जाती हैं।

चीन के साथ अपने खराब रिश्तों के इतिहास, जिसमें गंभीर सीमा विवाद से लेकर जल जंग शामिल हैं, को देखते हुए भारत के लिए चुनौती घरेलू एवं व्यापक एशियाई क्षेत्र दोनों ही जगहों पर अपनी पहुंच और शक्ति पर जोर देते रहने के साथ साथ व्यस्त रहने और संघर्ष टालने से जुड़ी है। जब प्रधानमंत्री मोदी 9वें ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, चीन, दक्षिण अफ्रीका) सम्मेलन में भाग लेने शियामेन गए तो हर किसी का मानना था कि दोनों देशों के बीच डोकलाम पठार पर 72 दिनों तक चला आ रहा सैन्य गतिरोध चतुर कूटनीति के द्वारा टाल दिया गया है। बहरहाल, सच्चाई यह है कि यह संघर्ष अभी खत्म नहीं हुआ है। पिछले छह महीनों के दौरान अधिकतर समय तक भारत और चीन डोकलाम पठार, जोकि भारत, भूटान और चीन के चौराहे (क्रॉसरोड) लेकिन दृढ़ता से भूटान के क्षेत्र में पड़ता है, पर एक खामोश टकराव से जूझते रहे हैं। चीन की मंशा इस पठार से दक्षिण की ओर एक सड़क बनाने की है जिससे उसे बटंगला के वॉटरशेड से 30 किलोमीटर दक्षिण गाईमोचेन, जहां वर्तमान त्रिकोणीय जंक्शन को चिन्हित किया गया है, तक पहुंच हासिल हो जाए पर भारत के लिए यह एक अभिशाप है। चीन का वॉटरशेड को गाईमोचेन तक ले जाने का इरादा स्पष्ट है। वह भारत को मजबूर करना चाहता है और इस पर जोर देना चाहता है कि नई सीमा रेखा गाईमोचेन से पूर्व की ओर खींची जाए और इस प्रकार अरुणाचल प्रदेश को चीनी क्षेत्र के अंदर ले आया जाए, लेकिन भारत को यह कतई मंजूर नहीं है।

इससे पहले कि दोनों की अति उत्साही मीडिया इस मामले को तूल देना शुरु कर दे और इसे अपनी सुर्खियां बनाने लगे जिससे विवाद को और तूल मिले, विदेश मंत्रालय ने इसे टालने के लिए जल्दी से संकेत दे दिया है कि भारत और चीन दोनों ही जगह इससे संबंधित ‘तंत्र’ मौजूद हैं जो मामले को हाथ से निकलने नहीं देंगे।

2013 में देसपांग से लेकर 2014 में चुमर (जब नरेन्द्र मोदी एवं शी जिनपिंग अहमदाबाद में साबरमती नदी के तट पर टहल रहे थे) तक की चीनी घुसपैठ को निश्चित रूप से हठी शी के एक आक्रामक संकेत और सक्रियतावादिता के रूप में देखा जाना चाहिए जिसका जवाब देने में भारत को खुद से कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। वास्तव में, विश्लेषकों का मानना है कि पिछले वर्ष अगस्त में डोकलाम में गतिरोध दूर होने का कदम चीन द्वारा इसलिए उठाया था क्योंकि शी 19वीं पार्टी कांग्रेस पर ध्यान केंद्रित करना और आंतरिक रूप से अधिक शक्ति हासिल करना चाहते थे और साथ ही साथ डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा सृजित अनिश्चितता एवं अस्थिरता से उपजी शून्यता को भरने के लिए तैयार एक वैश्विक जिम्मेदार नेता के रूप् में अपनी छवि चमकाना भी चाहते थे। अब यह सारा कुछ संपन्न हो जाने के बाद इस मसले का एक बार फिर से उभरना बिल्कुल स्वाभाविक ही था।

जब तक भारत में आसियान के नेता हैं, वे यह सुनिश्चित करने में भारत की सहायता करेंगे कि समुदी रास्ते खुले रहें और चीन की विस्तारवादी नीतियों से उन्हें खतरा न पहुंचे। जहां वियतनाम एवं फिलीपींस जैसे देशों का सवाल है तो वे चीन से क्रमशः स्प्राटली द्वीपसमूहां और स्कारबोरोथ शाओले जैसे क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए लड़ते रहे हैं। भारत के लिए फोकस सुरक्षा नहीं बल्कि कनेक्टिविटी और समुद्री रास्तों का विकास रहा है और वह स्पष्ट रूप से संसाधन समृद्ध दक्षिण चाइना सागर में चीनी आक्रामकता पर कोई कदम उठाने में हिचकिचाता रहा है। यह जलमार्ग वैश्विक व्यापार के लिए एक प्रमुख समुद्री रास्ता रहा है जहां से सालाना 5 ट्रिलियन डॉलर के बराबर की वस्तुएं गुजरती रही हैं। इसके तथा अपतटीय तेल एवं गैस ब्लॉक के कारण चीन की नौसेना लगातार यहां गश्त लगाती रहती है और और उसने इसकी भी रत्ती भर परवाह नहीं की कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालयों द्वारा इनमें किसी भी द्वीप पर उसके दावे को सही नहीं ठहराया गया।

भारत ने चीन के डोकलाम दुस्साहस को रोक कर भले ही अपने और अपने सैन्य हितों पर जोर दिया है लेकिन यह मानना गलत होगा कि बहुत कुशल कूटनीति भी चीन के साथ इन तनावों में जल्द कोई कमी ला पाने में कामयाब हो पाएगी। अगर अन्य घटनाक्रमों के परिप्रेक्ष्य में भारत के प्रति चीन के आक्रमक बर्ताव पर गौर करें तो यह समझना स्वाभाविक लगता है कि हिन्द महासागर में, दक्षिण पूर्व एशिया में भारत के साथ क्षेत्रीय सहयोग, कनेक्टिविटी एवं सुरक्षा सहयोग को बेहतर बनाने के लिए दिल्ली में आसियान के 10 नेताओं की उपस्थिति ने चीन को अधिक बेचैन कर दिया है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या डोकलम पर चीन के ताजा हमले के पीछे यही कारण हो सकता है। अगर ऐसा है तो चीन ने संभवतः बेहद माकूल समय चुना है।

इन वास्तविकताओं को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि भारत के लिए लाभ की स्थिति यह है कि वह चीन के खिलाफ अन्य रास्तों के माध्यम से अपनी राजनयिक लड़ाई खुद लड़े और तैयार साझीदारों के साथ नए और अनोखे रणनीतिक गठबंधन बनाये। भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका से निर्मित्त नवगठित ‘क्वाड‘इनमें संभवतः सबसे महत्वपूर्ण गठबंधन साबित हो सकता है। वास्तव में, क्वाड के संदर्भ में ‘एशिया प्रशांत‘ (चीन इस शब्द को वरीयता देना पसंद करता है) की जगह ‘भारत-प्रशांत‘ शब्द का उपयोग, भले ही केवल शाब्दिक हो, लेकिन चीन की विस्तारवादी नीति के खतरे की स्वीकृति भर से कहीं अधिक महत्व रखता है।

आसियान देश चाहते हैं कि भारत इस मामले में कोई निश्चित निर्णय ले, लेकिन भारत के नजरिये से हिन्द महासागर में सामुद्रिक सुरक्षा जितनी महत्वपूर्ण है, जरुरी नहीं कि आसियान के भूगोल के लिहाज से वह उतना महत्वपूर्ण हो। यह भारत की अपनी तटीय रेखाओं और जलमार्गों के करीब है। पूरब की ओर देखें तो भारत के लिए आवश्यक है कि सामुद्रिक क्षेत्र में आसियान देशों के साथ उसके आर्थिक रिश्तों लगातार बने रहें और इसके लिए नौ परिवहन की स्वतंत्रता (एफओएन) बनी रही लेकिन चीन के खिलाफ खुल कर आने में भारत की हिचकिचाहट इसकी राह में एक बड़ा रोड़ा है। कुछ एशियाई देशों की चीन के साथ निकटता और यह तथ्य भी कि आसियान सर्वसहमति के आधार पर काम करता है और इसके सभी सदस्य देशों के पास वीटो का अधिकार है, इस मामले को और जटिल बना रहा है।

भारत को इस नई दिशा में अपनी रणनीतिक सोच को नए सिरे से व्यक्त करना होगा, साथ ही आसियान नेताओं को यह भी भरोसा दिलाना होगा कि क्वाड में उसकी साझीदारी का अर्थ यह नहीं है कि वह दूसरे क्षेत्रीय समूहों से अपना ध्यान हटा लेगा। भले ही, आसियान के किसी भी सदस्य देश ने खुले आम इसकी पुष्टि नहीं की है लेकिन सच्चाई यह है कि कई देश आंतरिक रूप से संशयी हैं और कुछ देश महसूस करते हैं कि उन्हें एक महत्वपूर्ण रणनीतिक कदम से वंचित कर दिया है जो प्रत्यक्ष रूप् से उन्हें प्रभावित कर सकती है। इसके अतिरिक्त, दिल्ली में इंडोनेशिया के विदेश नीति कम्युनिटी के डिनो पट्टी जलाल ने आसियान देशों की चिंताओं को स्वर दिया कि वे ऐसा महसूस करते हैं कि वे चीन एवं जैसाकि चीन इसे देखता है ‘एशियाई‘ नाटो के बीच की लड़ाई में फंस कर रह गए हैं।

इंडोनेशिया एवं वास्तव में अन्य नौ आसियान सदस्य देशों के लिए चीन एक ऐसी वास्तविकता है जिससे चतुराई के साथ निपटे जाने की जरुरत है और साथ ही उन्हें इसके साथ रहने में सक्षम बनने की भी आवश्यकता है। बहरहाल, भारत के लिए क्वाड चीन की ‘बेल्ट एवं रोड’ पहल तथा सामुद्रिक सिल्क रूट योजनाओं का विकल्प ढूंढने का बेशुमार अवसर उपलब्ध कराता है। अगर कूटनीति सफल रहती है, तो भारत इस गणतंत्र दिवस की यात्रा का उपयोग आसियान से अपने लिए समर्थन जुटाने में कर सकता है लेकिन बातचीत में लेन-देन शामिल रहेगी।

चीन डोकलाम में अपनी ताकत का प्रदर्शन कर सकता है जिससे वह यह प्रदर्शित कर सके कि भारत भी उन्हीं देशों की तरह कमजोर है जिसके साथ वह रिश्ते प्रगाढ़ करने की कोशिश कर रहा है। लेकिन भारत का लाभ इस बात में निहित होगा कि किस प्रकार वह पूर्व और पश्चिम दोनों से ही अपने राजनयिक संबंधों में संतुलन बना कर रखता है। एक तरफ अमेरिका एवं यूरोप के साथ अपने संबंध बेहतर रखे और दूसरी तरफ व्यापक दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्र में भी अपना प्रभुत्व बना कर रखे और मधुर संबंध बनाये।

अगर भारत इसमें सफल रहता है तो शायद विदेश मंत्रालय के उच्चाधिकारी चीन को धन्यवाद देंगे कि उसकी वजह से मजबूत लोकतांत्रिक देश, बड़ी आर्थिक शक्तियां तथा महत्वपूर्ण क्षेत्रीय देश सभी समान प्रयोजन के लिए एकजुट हुए हैं और साझीदारी कर रहे हैं।

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