Published on Mar 23, 2021 Updated 0 Hours ago
कोविड-19 से जंग: प्राकृतिक समानता प्राप्त हर व्यक्ति इस लड़ाई में एक तटस्थ व्यक्ति है!

दुनिया भर में सरकारें कोविड-19 संकट के मामले में एक महत्वपूर्ण मोड़ की तरफ बढ़ रही हैं. जिस वैक्सीन के आने की लंबे समय से आस लगी थी, वह आ चुकी है. खुशकिस्मती की बात यह है कि इससे ऐसे दो लक्ष्य हमारी पहुंच में आ गए हैं, जिनकी वजह से मौजूदा लॉकडाउन संबंधी कई पाबंदियां लगाई गई थीं. वे दो लक्ष्य हैं- अधिक जोख़िम के दायरे में आने वाले लोगों को कोविड-19 वायरस के संक्रमण से और स्वास्थ्य व्यवस्था को धराशायी होने से बचाना. एक बार जोख़िम के दायरे में आने वाले इस वर्ग का टीकाकरण हो जाए तो कई देश उन पाबंदियों में ढील दे पाएंगे, जो समाज और अर्थव्यवस्था पर उन्हें थोपनी पड़ी हैं. लेकिन यह भी दिख रहा है कि कई देशों ने इस मामले में अपने लक्ष्य में बदलाव किया है. वे सिर्फ़ टीकाकरण के ज़रिये हर्ड-इम्यूनिटी (कोविड-19 के खिलाफ़ प्रतिरोधी क्षमता) हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन नया लक्ष्य तभी हासिल हो सकता है, जब सरकारें इसमें उन लोगों को भी शामिल करें, जो पहले इस बीमारी से उबर चुके हों और इस कारण से उनमें कुदरती तौर पर इम्यूनिटी आ चुकी हो. सरकारों को इन लोगों को हर्ड इम्यूनिटी-वाले वर्ग में लाना होगा. यह भी याद रखना होगा कि इतना सब करने के बाद भी हर्ड इम्यूनिटी के लक्ष्य को पाने में काफी देर होगी. एक और बात यह है कि कुदरती तौर पर इम्यून लोग विकासशील देशों के लिए काफ़ी मायने रखते हैं.

कुदरती तौर पर इम्यूनिटी बेहद महत्वपूर्ण

जिन देशों ने हर्ड-इम्यूनिटी का लक्ष्य तय किया है, उन्हें वायरस के संक्रमण से उबर चुके लोगों को भी संसाधन मानना चाहिए, ख़ासतौर पर इसलिए क्योंकि वायरस से बीमार होने वालों की संख्या समूची दुनिया में अभी भी बढ़ रही है. ऐसे में टीकाकरण की बढ़िया रणनीति वही होगी, जिसमें इम्यूनिटी पा चुके लोगों की संख्या कम जोख़िम के साथ तेज़ी से बढ़ाने की कोशिश की जाए. ऐसी रणनीति में इस सच्चाई को भी शामिल करना होगा कि सरकारों के पास टीकाकरण की क्षमता जरूरत से कम है और टीका लगाने के साथ बड़ी और प्रत्यक्ष लागत भी जुड़ी होती है. यह लागत जहां अधिकतर विकसित देशों के लिए मायने नहीं रखती, वहीं विकासशील देशों के लिए यह बड़ा मुद्दा है क्योंकि उनके पास वित्तीय संसाधनों का अभाव है.

ऐसे में टीकाकरण की बढ़िया रणनीति वही होगी, जिसमें इम्यूनिटी पा चुके लोगों की संख्या कम जोख़िम के साथ तेज़ी से बढ़ाने की कोशिश की जाए.

संसाधनों की बचत के साथ बड़ी आबादी को तेजी से इम्यून करने के लिए, जिन लोगों में पहले ही कोविड-19 की प्रतिरोधी क्षमता आ चुकी है, उनका फिर से टीकाकरण नहीं किया जाना चाहिए. ये तो पहले ही कुदरती तौर पर इम्यून हो चुके हैं. दुनिया भर में वैक्सीन की कमी को देखते हुए यह बात और भी महत्वपूर्ण हो जाती है. जर्मनी में तो रॉबर्ट कोच इंस्टिट्यूट (STIKO) के साथ जुड़े वैक्सिनेशन कमिशन (टीकाकरण आयोग) ने सुझाव दिया है कि अस्पताल-क्लीनिक में हुई जांच में जिन लोगों के SARS-CoV-2 से संक्रमित होने की बात सामने आ चुकी है, उन्हें शुरुआती दौर में वैक्सीन नहीं लगाई जानी चाहिए अगर इसकी कमी हो तो. जो लोग कुदरती इम्यूनिटी का फायदा नहीं उठा रहे हैं, वे कीमती संसाधन बर्बाद कर रहे हैं. इससे दूसरे लोग संक्रमित होंगे और उनमें से कइयों की जान जा सकती है, जबकि दूसरों को वायरस से बचने के लिए पाबंदियों के अंदर रहना होगा.

कई जानी-मानी पत्रिकाओं में ऐसे शोध के नतीजे प्रकाशित हुए हैं, जिनसे पता चलता है कि जो लोग संक्रमण से उबर चुके हैं, उनमें कुदरती तौर पर एंटीबॉडी पाई गई हैं. अभी तक उनमें कम से कम आठ महीने तक एंटीबॉडी रहने का पता चल चुका है (उदाहरण के तौर पर J.M. Dan et al. और A. Wajnberg et al. साइंस में). संक्रमण से उबर चुके लोग उतने ही सुरक्षित हैं, जितने की बहुत अधिक क्षमता वाली वैक्सीन लगवा चुके लोग. दूसरी ओर, हम यह नहीं जानते कि वैक्सीन लगवाने के कितने समय बाद तक कोई शख्स़ वायरस से इम्यून रहता है. वैसे, बायोनटेक के सीईओ और सह-संस्थापक यू साहीन मानते हैं कि टीकाकरण से उतनी अवधि तक प्रतिरोधी क्षमता विकसित होती है, जितनी की कुदरती तौर पर.

कुदरती तौर पर प्रतिरोधी क्षमता हासिल करने वाले लोगों की संख्या बड़ी है और वह तेजी से बढ़ रही है. हम यह भी जानते हैं कि कोविड-19 से बुजुर्गों की तुलना में 50 वर्ष से कम आयु वाले लोगों को कम ख़तरा है. युवाओं में आमतौर पर बग़ैर लक्षण वाला संक्रमण पाया गया है या उन्हें मामूली तौर पर बीमार होते देखा गया है. यह बात विकासशील देशों के लिए काफी मायने रखती है, जहां युवाओं की आबादी अधिक है. उदाहरण के लिए, सब-सहारन अफ्रीका के देशों में 95 फीसदी आबादी युवा है. इनमें कम से कम आधी आबादी 25 वर्ष से कम आयु वाली है. ऐसे में क़ुदरती तौर पर हासिल प्रतिरोधी क्षमता एक बेशकीमती संसाधन हो सकता है, ख़ासतौर पर विकासशील देशों में. वैसे यह उन देशों में वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या पर निर्भर करता है.

युवाओं में आमतौर पर बग़ैर लक्षण वाला संक्रमण पाया गया है या उन्हें मामूली तौर पर बीमार होते देखा गया है. यह बात विकासशील देशों के लिए काफी मायने रखती है, जहां युवाओं की आबादी अधिक है. 

इन देशों में वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या कम करके बताई जा रही है. इसलिए यह अनुमान लगाना होगा कि वहां के लोग किस हद तक प्रतिरोधी क्षमता हासिल कर चुके हैं. एंटीबॉडी का पता लगाने के लिए जो शोध हुए हैं, उनमें कुदरती तौर पर प्रतिरोधी क्षमता का सही अंदाज़ा नहीं लग पाया है क्योंकि संक्रमण से उबर चुके कई लोगों में एंटीबॉडी नहीं बन पाई. शायद उनके शरीर की प्रतिरोधी क्षमता सिर्फ़ सेल्युलर डिफेंस यानी कोशिकाओं के बचाव के भरोसे रही. भारत में कुछ ऐसी रिपोर्ट्स आई थीं, जिनमें यह कयास लगाया गया था कि आबादी का बड़ा हिस्सा संक्रमण से उबरने के कारण एक हद तक प्रतिरोधी क्षमता हासिल कर चुका है. अगर हम यह भी मान लें कि ऐसे लोगों की संख्या का विकसित देशों और ख़ासतौर पर विकासशील देशों में बढ़ा-चढ़ाकर अनुमान लगाया जा रहा है, तो भी इस संसाधन की अनदेखी नहीं करनी चाहिए. इसका पता लगाना चाहिए, ऐसे लोगों को सर्टिफाई करना चाहिए और इस संसाधन का इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

झूठे वादे से बचना

जो सरकारें कुदरती या प्राकृतिक इम्यूनिटी की सच्चाई को स्वीकार नहीं करेंगी, उनकी स्थिति बेहद नाज़ुक हो सकती है. साथ ही, जो देश पूरी तरह से टीकाकरण के ज़रिये हर्ड- इम्यूनिटी के भरोसे रहेंगे, उन्हें आने वाले कई महीनों या कुछ वर्षों तक सख्त़ आर्थिक और सामाजिक पाबंदियां लगानी पड़ेंगी. ये पाबंदियां जितनी लंबी होंगी, समाज को उसकी उतनी ही अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी और वक्त के साथ उनके फायदे भी कम होते जाएंगे. इतना ही नहीं, वक्त़ गुज़रने के साथ वैक्सीन लगवाने में लोगों की दिलचस्पी भी घटती जाएगी. वायरस से जिस वर्ग को अधिक ख़तरा है, उनके टीकाकरण के बाद अधिक से अधिक संख्या में वैक्सिनेशन का तर्क कमज़ोर पड़ता जाएगा. इसके अलावा, बच्चों और किशारों के लिए अभी तक वैक्सीन को मंजूरी नहीं मिली है. इन समूहों के टीकाकरण पर विचार किया जाना बाकी है. कोविड-19 वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या बढ़ने के साथ हर्ड इम्यूनिटी की सीमा भी बढ़ रही है. इन हालात में ऐसी टीकाकरण रणनीति पर चर्चा ज़रूरी हो गई है, जिसमें कुदरती तौर पर प्रतिरोधी क्षमता हासिल कर चुके लोगों को शामिल किया जाए. इस बीच, कुदरती तौर पर इम्यून हो चुके लोगों की अनदेखी के कारण टीकाकरण की लागत दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है.

टीकाकरण की मौजूदा रणनीति के अन्य प्रभाव

कई विकासशील देशों में समस्या महामारी से संक्रमित लोगों की संख्या नहीं बल्कि कमज़ोर स्वास्थ्य व्यवस्था और बड़े स्तर पर लॉकडाउन के अनचाहे दुष्प्रभाव हैं. आबादी का बड़ा हिस्सा स्वस्थ्य हो तो अच्छी बात है, लेकिन अक्सर ऐसा देखा गया है कि जहां की अर्थव्यवस्था मजबूत होती है, वहां के नागरिकों की सेहत अच्छी रहती है और उनके लंबे वक्त तक जीने की संभावना भी होती है. उधर, लॉकडाउन और मंदी का कहीं व्यापक असर हो रहा है. इनसे ख़ासतौर पर समाज के सबसे कमज़ोर वर्ग पर ज्यादा चोट पड़ रही है. शिक्षा व्यवस्था भी अभी तक सामान्य नहीं हो पाई है, जिसकी समाज को लंबे वक्त में बड़ी कीमत चुकानी होगी. इसका भी ख़ासतौर पर विकासशील देशों पर अधिक असर होगा.

जो देश पूरी तरह से टीकाकरण के ज़रिये हर्ड- इम्यूनिटी के भरोसे रहेंगे, उन्हें आने वाले कई महीनों या कुछ वर्षों तक सख्त़ आर्थिक और सामाजिक पाबंदियां लगानी पड़ेंगी. 

ऐसे में हम आशा करते हैं कि कुछ सरकारें सामने दिख रहे जोख़िम के साथ अवसरों को स्वीकार करने का साहस दिखाएंगी. अभी तो लोगों और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए अधिक जोख़िम वाले वर्ग का टीकाकरण और इकॉनमी-सोसायटी को सामान्य अवस्था में लाना बड़ी चुनौती है. इसके लिए हर्ड-इम्यूनिटी की ख़ातिर कुदरती तौर पर प्रतिरोधी क्षमता की सच्चाई को स्वीकार करने की ज़रूरत है. महामारी की शुरुआत में यह सवाल उठाया गया था कि कुदरती इम्यूनिटी को मान्यता देने पर सेल्फ-इंफेक्शन की आशंका पैदा हो सकती है, लेकिन यह तर्क पहले भी कमज़ोर था और वक्त के साथ और कमज़ोर होता गया है.

ऐसे में अगर कुदरती तौर पर प्रतिरोधी क्षमता की सच्चाई को स्वीकार किया जाता है तो इससे लोग सरकार की नई संवेदनशील रणनीति के समर्थन के लिए आगे आएंगे. तब जल्द ही सामान्य जीवन की ओर लौटना संभव हो पाएगा.

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Authors

Raymond Boadi Frempong

Raymond Boadi Frempong

Dr Raymond Frempong currently works as a postdoctoral researcher at the Chair of Development of Economics University of Bayreuth. His research interests are development economics ...

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David Stadelmann

David Stadelmann

Prof. Dr. David Stadelmann studied Economics (MA/BA) as well as Mathematics (MSc/BSc) at the University of Fribourg (Switzerland) where he received his PhD in 2010 ...

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Frederik Wild

Frederik Wild

Frederik Wild is a PhD student in economics at the University of Bayreuth (Germany) where he also received his MA in Philosophy &amp: Economics. He ...

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