Author : Kabir Taneja

Published on Jan 24, 2020 Updated 0 Hours ago

आने वाले दशक में भारत को ऐसी क्षमता विकसित करने पर ज़ोर देना चाहिए, जो 2019 के पहले बड़े आतंकवादी हमलों जैसी घटनाओं के ख़तरों को पहले से पहचान कर उन्हें नाकाम कर सके.

आतंकवाद और हिंसक उग्रवाद: नए दशक में भारत को और सुरक्षित होने की ज़रूरत

पिछले साल हम ने जम्मू और कश्मीर को जोड़ने वाले बेहद महत्वपूर्ण जम्मू-श्रीनगर हाइवे पर सुरक्षा बलों के ऊपर एक बड़ा आतंकवादी हमला होते देखा था. पुलवामा में हुए इस आतंकी हमले में सीआरपीएफ़ के 40 जवान शहीद हो गए थे. ये आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत के संघर्ष का एक निर्णायक मुकाम था. फ़रवरी 2019 में हुए इस आतंकवादी हमले ने नए साल की शुरुआत एक संकट के साथ की थी. और, इस की वजह से ही भारत ने पाकिस्तान के ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा सूबे के बालाकोट में आतंकवादी शिविरों पर हवाई हमले किए थे. ये किसी आतंकवादी हमले के प्रति भारत की अभूतपूर्व प्रक्रिया थी. इस जवाबी हवाई हमले ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत की रणनीति में एक नया आयाम भी जोड़ा था.

ग्लोबल टेररिज़्म इंडेक्स 2019 के मुताबिक़, पिछले चार वर्षों में आतंकवाद की वजह से होने वाली मौतों की तादाद, पहले के मुक़ाबले आधी से भी कम हो गई है. इस इंडेक्स को ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर में स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ़ इकोनॉमिक्स ऐंड पीस (IEP) द्वारा प्रकाशित किया जाता है. हालांकि, इसी इंडेक्स के मुताबिक़, आतंकवाद प्रभावित देशों की संख्या में इज़ाफ़ा हो रहा है. आईईपी ने जब से ये इंडेक्स या रैंकिंग प्रकाशित करनी शुरू की हैं, तब से भारत इस में आतंकवाद से सब से ज़्यादा प्रभावित दस देशों में शुमार किया जाता रहा है. हालांकि, भारत में आतंकवाद की स्थिति पहले से बेहतर हुई है. इस साल भारत ग्लोबल टेरर इंडेक्स में सातवें नंबर पर है. और उम्मीद की जा रही है कि आने वाले दशक में आतंकवाद के ख़िलाफ़ भारत की स्थिति और भी बेहतर होगी.

भारत में आतंकवाद का सब से बड़ा ख़तरा सीमा पार से प्रायोजित दहशतगर्दी बनी हुई है. इस आतंकवाद को पाकिस्तान की हुकूमत से मदद और बढ़ावा मिलता है. पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का सब से बुरा प्रभाव कश्मीर घाटी को झेलना पड़ता है. इस साल भारत ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 के ज़्यादातर प्रावधानों को ख़त्म कर दिया. भारत सरकार के इस फ़ैसले से पैदा हुए राजनीतिक हालात को अगर हम सुरक्षा के नज़रिए से देखें, तो अभी इस का असर पूरी तरह से दिखना बाक़ी है. 2019 के ग्लोबल टेरर इंडेक्स के मुताबिक़, जम्मू-कश्मीर, भारत का सब से ज़्यादा आतंकवाद प्रभावित राज्य है. 2018 में यहां 321 आतंकवादी हमले हुए थे, जिन में 123 लोगों की जान चली गई.

हालांकि, भारत के दृष्टिकोण से भी और अंतरराष्ट्रीय नज़रिए से भी, आतंकवाद की चुनौतियों में विविधता आ रही है. विश्व स्तर पर बात करें तो, सीरिया और इराक़ में इस्लामिक स्टेट (ISIS या अरबी भाषा में दाएश) के उभार में कमी देखी जा रही है. और, पिछले साल अक्टूबर महीने में इस के ख़लीफ़ा अबू बकर अल-बग़दादी को अमेरिकी सेना ने उत्तरी सीरिया में, एक हवाई हमले में मार गिराया था. लेकिन, कई बड़े नुक़सान उठाने के बावजूद, इस्लामिक स्टेट या आईएसआईएश की विचारधारा और इस के ख़ौफ़नाक इरादों में कोई ख़ास कमी नहीं आई है. हक़ीक़त तो ये है कि हाल ही में अफ्रीका के साहेल इलाक़े में आईएसआईएस से जुड़े आतंकवादी समूहों ने नाइजर और बर्किना फ़ासो में आतंकी हमले किए थे. इस के बाद से पश्चिमी अफ्रीका को इस्लामिक स्टेट के अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद से ख़तरे का नया ठिकाना बताया जा रहा है. जिस का दायरा अगले कुछ वर्षों में बढ़ने की आशंका है. इन सब के बीच, अल क़ायदा भी अपनी आतंकवादी विरासत को मज़बूत बनाने में लगा है. इस्लामिक स्टेट की चर्चा ज़्यादा होने की वजह से अल क़ायदा को काफ़ी झटके लगे थे.

आतंकवाद से ख़तरों के पारंपरिक मोर्चों से ज़्यादा आज हमें दहशतगर्दी की वजह से पैदा हुए ख़तरों के नए मोर्चों पर ध्यान देने की ज़रूरत है. जैसे कि ऑनलाइन आतंकवाद. ऑनलाइन मोर्चे पर आतंकवादी समूहों का मुक़ाबला कर पाना अब तक मुश्किल साबित होता आया है. क्योंकि आतंकवादी भी उसी तकनीक और उन्हीं माध्यमों का आपस में बातचीत और अपने प्रचार के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, जिन से उन्हें परास्त करने की कोशिश की जा रही है. आज सोशल मीडिया का सोशल शब्द, दिनों दिन चुनौतीपूर्ण बनता जा रहा है. 2013 में केन्या की राजधानी नैरोबी के वेस्टगेट मॉल पर हमले के दौरान इस हमले की जानकारी को अल क़ायदा से संबंधित आतंकवादी संगठन अल शबाब द्वारा लाइव ट्वीट किया जा रहा था. वहीं आज आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म टेलीग्राम को अपने वर्चुअल मुख्यालय के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है. ऑनलाइन इकोसिस्टम का इस्तेमाल, आतंकवादी संगठन आपसी संवाद और मुलाक़ातें तय करने के लिए कर रहे हैं. वहीं, सरारी एजेंसियों के सामने चुनौती ये है कि वो आम नागरिकों के निजता के अधिकार का उल्लंघन किए बिना, ऑनलाइन आतंकवाद की इन चुनौतियों से निपटें. आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई पर बहस का ये एक अहम मुद्दा बना हुआ है. भारत इस मोर्चे पर ख़ास तौर से पिछड़ा नज़र आता है. भारत में नित नए निर्देशों के साथ नई एजेंसियां बनाई जा रही हैं. वहीं, पुरानी सुरक्षा एजेंसियों में सुधार किए बिना ही वो ऑनलाइन आतंकवाद का मुक़ाबला करने को मजबूर हैं. भारत में सुरक्षा का इकोसिस्टम, ऑनलाइन आतंकवाद से निपटने के लिए नए सक्षम और काबिल लोगों को अपने साथ जोड़ने में नाकाम रहा है. कुल मिलाकर भारत में आतंकवाद की ऑनलाइन चुनौती से निपटने की पूरी रणनीति गड्डमगड्ड नज़र आ रही है. नतीजा ये कि दहशतगर्दी संगठन, सुरक्षा एजेंसियों के मुक़ाबले काफ़ी आगे निकल गए हैं. आज एक संचार ऐप की मालिक कंपनी के एक करोड़ से ज़्यादा यूज़र हो सकते हैं. इस के सॉफ्टवेयर को चलाने के लिए एक या दो लोगों की ज़रूरत पड़ती है. वहीं, इस प्लेटफॉर्म पर मौजूद आपत्तिजनक सामग्री की पड़ताल कर के अनचाहे यूज़र्स को अलग करने के लिए संसाधन नहीं हैं. आतंकवाद और तकनीक के इस संगम को आईएसआईएस ने दुनिया भर में लोकप्रिय बना दिया है. और तय है कि नए और पुराने आतंकवादी संगठन इन का इस्तेमाल अपने अपने इलाक़ों में ख़ुद को बढ़ाने में करेंगे. निजी ऐप से लेकर पावर ग्रिड तक, साइबर दुनिया में बढ़ रहा ख़तरा, आने वाले समय में आतंकवाद की पारंपरिक चुनौतियों से ज़्यादा बड़ा होगा. ख़ास तौर से भारत में क्योंकि, भारत की सुरक्षा के मौजूदा ढांचे में इस चुनौती से निपटने की क्षमता और कार्यकुशलता की भारी कमी है.

दुनिया भर में एक और जो बड़ी चुनौती उभरी है, वो है दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा की जा रही हिंसक और आतंकवादी घटनाएं. आंकड़ों के मुताबिक़, 2018 में पश्चिमी देशों में उग्र दक्षिणपंथी हिंसा पिछले पांच वर्षों में 320 फ़ीसद तक बढ़ गई. 2019 के पहले नौ महीनों में उग्र दक्षिणपंथी हिंसा की वजह से 77 लोगों की जान चली गई थी. जबकि, इस से पहले के साल में इसी दौरान केवल 11 लोगों ने उग्र दक्षिणपंथी संगठनों की हिंसा की वजह से जान गंवाई थी. न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च की एक मस्जिद में गोरे नस्लवादी ने गोलीबारी कर के 51 लोगों को मार डाला था. इस आतंकवादी हमले को उस ने फ़ेसबुक पर लाइव प्रसारित किया था. इस घटना ने अप्रवासियों के ख़िलाफ़ वैचारिक संघर्ष, विदेशियों से नफ़रत, नस्लवाद और फ़ासीवादी विचारधारा की वजह से पैदा हो रहे आतंकवाद की नई चुनौतियों को दुनिया के सामने रखा था. इस घटना से पहले न्यूज़ीलैंड में आतंकवाद का कोई इतिहास न होने के तथ्य ने चिंता की नई लक़ीरें खींच दी हैं. क्योंकि, न्यूज़ीलैंड की घटना से पहले आतंकवाद को इस्लामिक संगठनों से ही जोड़ कर देखे जाने की सोच प्रचलित थी.

भारत में आतंकवाद और हिंसक उग्रवाद के अलावा बहुसंख्यकवाद की राजनीति भी सरकार के लिए एक नई चुनौती खड़ी कर सकती है. एक ऐसा माहौल तैयार करना जिस में अल्पसंख्यक ख़ुद को असुरक्षित महसूस करें, शोषण के कुछ मामले और भारत के अलग-अलग राज्यों में मुसलमानों को पीट-पीटकर मार डालने की घटनाओं से इस बात का डर है कि मुस्लिम समुदाय, इस्लामिक आतंकवादी संगठनों को रिझाने का अच्छा अवसर मुहैया कराएगा. ऐतिहासिक रूप से हम ने देखा है कि भारतीय मुसलमानों ने इस्लामिक आतंकवादी संगठनों और इन की विचारधाराओं को ख़ारिज ही किया है. अब तक इस्लामिक स्टेट का समर्थन करने के आरोप केवल 180 भारतीयों पर ही लगे हैं. जबकि, फ्रांस और बेल्जियम जैसे पश्चिमी देशों में इन की तादाद सैकड़ों में रही है. इस के बावजूद, अल क़ायदा के भारतीय उप-महाद्वीप संस्करण (AQIS) का अपनी स्थापना के लिए 2002 के गुजरात दंगों को कारण बताना, बुरहान वानी के एनकाउंटर के बाद कश्मीर में सोशल मीडिया के माध्यम से आतंकवादियों की भर्ती का तेज़ होना और भारत के मुस्लिम समुदाय की बेवजह बारीक़ी से पड़ताल करने को हम भारत की बहुसंख्यकवाद की राजनीति का नतीजा मान सकते हैं. अल क़ायदा के प्रमुख अयमन अल ज़वाहिरी के कश्मीर पर हालिया बयान, और आईएसआईस समर्थकों के बीच मुसलमानों को पीट पीटकर मारने की ख़बरों के ऑनलाइन प्रचार की, भविष्य में ऐसे हालात पैदा हो सकते हैं, जिन से हम बच सकते हैं. विश्व स्तर पर जहां अल क़ायदा और इस्लामिक स्टेट प्रचार के लिए आपस में मुक़ाबला कर रहे हैं. वहीं, भारत में ये दोनों आतंकवादी संगठन ज़्यादातर मुस्लिम आबादी को प्रभावित करने में नाकाम रहे हैं. लेकिन, अगर मुस्लिमों पर ऐसे ही बहुसंख्यक राजनीति का दबाव बना रहा, और वो हाशिए पर धकेले जाते रहे. तो, आने वाले समय में ऐसे आतंकवादी संगठनों को भारतीय मुसलमानों के एक तबक़े के बीच अपने प्रचार-प्रसार का अच्छा बहाना मिल जाएगा.

कुल मिलाकर कहें तो, नए दशक में भारत के सामने आतंकवाद के ख़तरों का भविष्य न तो नया है, न ही पिछले दशक में हुई आतंकवादी घटनाओं से कुछ अलग है. हालांकि, भारत अगर आतंकवाद को केवल पाकिस्तान के संकीर्ण नज़रिए से देखेगा, तो इस का मुक़ाबला करना मुश्किल होगा. हालांकि, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद भारत के लिए अभी भी सब से बड़ी चुनौती है. लेकिन, भारत को विश्व स्तर पर बढ़ रहे आतंकवाद के ख़तरों को देखते हुए, इसे समझने और इस आतंकवाद से निपटने के लिए भी तैयार रहना होगा. न कि वो ख़ुद को केवल सीमा पार आतंकवाद पर ही केंद्रित रखे. भारत को ये भी ध्यान में रखना होगा कि स्थानीय आतंकवाद हो या सीमा पार से प्रायोजित दहशतगर्दी, दोनों को अलग कर के देखने में समझदारी नहीं है. आतंकवाद आगे चल कर कौन से रूप में सामने आएगा, इस की भविष्यवाणी कर पाना आसान नहीं है. हालांकि, आने वाले दशक में भारत को ऐसी क्षमता विकसित करने पर ज़ोर देना चाहिए, जो 2019 के पहले बड़े आतंकवादी हमलों जैसी घटनाओं के ख़तरों को पहले से पहचान कर उन्हें नाकाम कर सके. इस के बाद ही भारत को आतंकवाद से निपटने के अपने पारंपरिक तौर-तरीक़ों में बदलाव लाने और आतंकवाद की नई चुनौतियों के प्रति अपनी जानकारी और सुरक्षा को बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए.

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