Author : Hari Bansh Jha

Published on Nov 09, 2023 Updated 0 Hours ago

प्रधानमंत्री दहल की चीन यात्रा चीनी साझेदारी के मामले में नेपाली लोगों के मन में पैदा हुए संदेह को दूर करने की उनकी क्षमता का परीक्षण करेगी.

नेपाल और चीन के संबंधों में विश्वास की कमी की व्याख्या!

23 सितम्बर को नेपाली प्रधानमंत्री पुष्प कुमार दहल की प्रस्तावित चीन यात्रा ऐसे समय में हुई जब वहाँ के स्थानीय नागरिक चीन द्वारा जारी किए गए नए मानचित्र (नक्शा), जहां उन्होंने कालापानी, लिपुलेख, और लिंपियाधुरा क्षेत्र को नेपाल के अंग के तौर पर नहीं दिखलाया है, के विरोध मे काठमांडू की सड़कों पर उतर आए थे. चीन के इस कदम के विरोध में, नेपाली काँग्रेस से सम्बद्ध नेपाल छात्र संघ ने, चीनी दूतावास के बाहर विरोध प्रदर्शन किया था. चीन के खिलाफ़ अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए, काठमांडू नगर पालिका  के महापौर बालेन शाह ने अपनी आगामी चीन यात्रा भी रद्द कर दी थी. 

दोनों देशों के बीच के संबंधों में गिरावट उस वक्त आई, जब, सन् 2020 में नेपाल के हुमला ज़िले में चीन द्वारा नेपाली क्षेत्र के संभावित अतिक्रमण के बारे में नेपाली मीडिया में खबर प्रकाशित हुई थी.

पिछले कुछ समय से नेपाल-चीन के बीच के संबंधों में उतनी गर्मजोशी नहीं दिख रही जितनी गर्मी पूर्ववर्ती के.पी.शर्मा ओली (15 फ़रवरी 2018 से 13 मई 2021) के प्रधानमंत्री काल में रही थी. दोनों देशों के बीच के संबंधों में गिरावट उस वक्त आई, जब, सन् 2020 में  नेपाल के हुमला ज़िले में चीन द्वारा नेपाली क्षेत्र के संभावित अतिक्रमण के बारे में नेपाली मीडिया में खबर प्रकाशित हुई थी. इस घटना के तुरंत बाद ही, काठमांडू स्थित चीनी दूतावास ने इस तरह के किसी भी अतिक्रमण का खंडन किया. चीनी विचारों का विरोध करते हुए, नेपाली सरकार ने दोनों देशों के बीच ऐसे किसी भी प्रकार के क्षेत्रीय विवाद को नकार दिया था. 

बाद में, नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में मई 2021 में गठित नई सरकार ने इस मामले की जांच के लिए गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव जया राज आचार्य की अगुवाई में एक समिति का भी गठन किया है. सितंबर  2022 में समिति ने  हुमला जिले में किए गए क्षेत्रीय दौरे के उपरांत इस बाबत, सरकार को अपनी रिपोर्ट भेजी है. इस रिपोर्ट के अनुसार, नेपाल-चीन सीमा के संबंध में कुछ वास्तविक समस्याएं थी और इस समस्या का समाधान, दोनों देशों के बीच, विशेषज्ञों की संयुक्त समूह के गठन और होने वाले विचार विमर्श के बाद ही संभव हो पाएगा.    

इस घटना के उपरांत, जब इस साल 1 जनवरी को पोखरा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के उद्घाटन से एक दिन पूर्व, काठमांडू स्थित चीनी दूतावास ने इस परियोजना को चीन-नेपाल बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) सहयोग का अंग बताया, उसी वक्त नेपाली जनता को चीन के इरादे पर और भी संदेह गहराया. चीन के इस घोषणा के तुरंत बाद नेपाली सरकार ने उनके इस दावे को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया, और ऐसे किसी भी पहल को नकार दिया. 

नेपाल-चीन संबंध 

नेपाल ने जब चीन से बीआरआई पर किसी प्रकार का समझौता भी नहीं किया था, उस वक्त साल 2016 में उसने चीन स्थित एक्सिम बैंक से पोखरा के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के निर्माण के लिए  215.96 मिलियन  डॉलर का एक सॉफ्ट लोन प्राप्त किया था. इसके एक साल बाद सन् 2017 में नेपाल ने चीन संग बीआरआई के लिए हुए समझौते पर औपचारिक रूप से हस्ताक्षर किए थे. शुरुआत में, तो 35 परियोजनाओं का चयन बीआरआई के तहत किया गया था, परंतु बाद में, इसे घटा कर सिर्फ़ नौ परियोजनाएं ही इस योजना के अंतर्गत रह गईं थीं. परंतु इस समझौते पर हस्ताक्षर होने के छह साल बाद भी बीआरआई के अंतर्गत के किसी भी परियोजना की शुरुआत नहीं हुई है. 

नेपाली जनता में बीआरआई परियोजना को लागू किए जाने के किसी भी प्रकार के प्रयास की वजह से देश को भारी ऋण के जाल में बिल्कुल उसी तरह से फँसन का भय है, जैसे कि श्रीलंका में हुआ है. ऐसा होने से देश की संप्रभुता भी कमज़ोर हो सकती है.

लाखों डॉलर वाले पोखरा अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डे की वजह से, नेपाल को लगातार, भारी आर्थिक नुकसान हो रहा है. इस अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डे के उद्घाटन के आठ महीने के पश्चात भी किसी अन्तराष्ट्रीय उड़ान का परिचालन अब तक नहीं होने की वजह से देश, कर्ज़ चुकता कर पाने में बिल्कुल ही असमर्थ साबित हो रहा है. 

नेपाली जनता में बीआरआई परियोजना को लागू किए जाने के किसी भी प्रकार के प्रयास की वजह से देश को भारी ऋण के जाल में बिल्कुल उसी तरह से फँसन का भय है, जैसे कि श्रीलंका में हुआ है. ऐसा होने से देश की संप्रभुता भी कमज़ोर हो सकती है. बीआरआई के अंतर्गत होने वाले ज़्यादातर व्यापारिक सौदों में पारदर्शिता की कमी देखी गई है, जो अक्सर प्राप्तकर्ता देश के बजाय चीन के राजनीतिक हितों को फायदा पहुंचाने के मकसद से रखा जाता है, यह सर्वविदित है. एक प्रमुख कारण शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती नेपाली काँग्रेस सरकार भी थी, जिसने परियोजना पर सहमति बनाते वक्त, चीन को ये स्पष्ट कर दिया था कि वो अपनी महत्वाकांक्षी बीआरआई योजना के तहत अपने बुनियादी ढांचा परियोजना के विकास के लिए चीन से केवल अनुदान की अपेक्षा करता है न कि किसी वाणिज्यिक ऋण की

फिर भी, ये समझ के परे है कि आखिर क्यों पुष्प कमल दहल ने प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद, ये बेहतर तरीके से जानते हुए कि नेपाल के लिए ये एक सफेद हाथी साबित हो सकता है, उसके बावजूद, जल्दबाज़ी में एक चीनी प्रतिनिधी दल को काठमांडू-केरूंग रेलवे का विस्तृतअध्ययन करने की अनुमति दी. इस ट्रांस-हिमालयन तिब्बत-नेपाल रेलवे परियोजना पर रेलवे के नेपाल खंड को पूरा करने के लिए लगभग 4.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर या नेपाल के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 10 प्रतिशत खर्च हो सकता है. कमज़ोर हिमालयन क्षेत्र से हो कर गुजरने वाली ये अरबों डॉलर की रेलवे प्रोजेक्ट, रणनीतिक रूप से चीन के लिए काफी लाभकारी होगी, लेकिन नेपाल इससे किसी भी तरह से आर्थिक तौर पर लाभान्वित होने वाला है, ऐसी कोई संभावना नहीं दिखती है. ऐसे में अगर नेपाल इस परियोजना के लिये, लिये गए कर्ज़ को चुकाने में विफल रहा तो, तो क्या होगा? 

नेपाली लोगों के हितों की रक्षा करके चीन के प्रति नेपाली जनता में व्याप्त अविश्वास को किस तरह से दूर कर सकते थे. उन्हे पक्ष और विपक्ष पर विचार किए बिना किसी भी प्रकार के नए और ताज़े समझौतों पर हस्ताक्षर नहीं करने चाहिए यह भी एक सोच थी.

इसलिए, अब फिलहाल चीन के साथ के बिगड़ते संबंधों को सही रास्ते पर लाने के उद्देश्य से, प्रधानमंत्री दहल अपनी चीन यात्रा के दौरान, चीन के साथ चंद महत्वपूर्ण सौदे करना चाहते थे, जिसके अंतर्गत दोनों देशों के बीच व्यापार के लिये नए सीमा बिन्दु खोलना प्रमुख रूप से शामिल था. इस मौके पर, नेपाल का चीन के साथ दो सीमा परेषण लाइन परियोजनाओं –  पहला 220 किलोवाट वाली चिलाईम – केरुङ सीमा पा रसुवागढ़ी में नेपाल – चीन सीमा से 16 किमी दूर स्थित है और दूसरा कोशी प्रांत के संखुवासभा जिले में किमथानका सीमा बिन्दु, के निर्माण का प्रस्ताव रखना चाहता था. नेपाल में, पहले चीन के साथ के बिजली के आदान-प्रदान के लिए कोई ट्रांसमिशन लाइन नहीं हुआ करती थी. इन परियोजनाओं के अलावा, चीनी बिजली वितरण प्रणाली के माध्यम से नेपाल, नेपाल-चीनी सीमा के पास अपने चंद सीमावर्ती क्षेत्रों के विद्युतीकरण में चीन का सहयोग लेगा. महत्वपूर्ण बात ये भी है कि दोनों देश 454 मेगवाट उत्पादन क्षमता वाली अरुण किमांथका जैसी बड़ी पनबिजली परियोजनाओं में संयुक्त निवेश पर भी विचार कर रहे हैं. दोनों देशों के बीच काठमांडू रिंग रोड के साथ एक भूमिगत बिजली नेटवर्क प्रणाली के विकास के लिये भी एक समझौता किया जा सकता है, जिसका चौड़ीकरण चीन द्वारा किया जाना है.    

नेपाल की आगे की नीति 

इन सब से इतर, नेपाल और चीन द्वारा अपने द्विपक्षीय मिलिट्री और डिफेन्स संबंधों को पुनः शुरू करने के आसार है. इस दिशा में, नेपाली सेना, शीघ्र ही अपने कुछ अधिकारियों को राष्ट्रीय सुरक्षा कोर्स करने के लिए चीन भेज सकती है. इसके अलावे, नेपाली सेना और चीन की पीपल लिबरेशन आर्मी का, साल 2019 के बाद से स्थगित चल रहे ‘सागरमठ मित्रता’ के बैनर के तले संयुक्त सैन्य अभ्यास को पुनः शुरू करने के आसार है.  

प्रधानमंत्री दहल के लिए ये उनके कूटनीतिक कौशल की परीक्षा की घड़ी थी कि वो अपनी इस चीन यात्रा के दौरान, नेपाली लोगों के हितों की रक्षा करके चीन के प्रति नेपाली जनता में व्याप्त अविश्वास को किस तरह से दूर कर सकते थे. उन्हे पक्ष और विपक्ष पर विचार किए बिना किसी भी प्रकार के नए और ताज़े समझौतों पर हस्ताक्षर नहीं करने चाहिए यह भी एक सोच थी. इसके साथ ही यह भी कहा जा रहा था कि, उन्हें सीमा संबंधी मुद्दों अथवा चीन द्वारा वित्तपोषित परियोजनाओं के लिए दिये  कर्ज़ संबंधी मुद्दों को, चीन के सामने बगैर किसी झिझक के उठाने से भी नहीं हिचकिचाना चाहिए. उनकी यात्रा से लोगों और राजनीतिक दलों के बीच यही एक उम्मीद थी कि – अगर दोनों देशों के बीच किसी भी प्रकार की विश्वास की कमी है तो उसे संबोधित कर, समस्याओं  को दूर कर बेहतर परस्पर संबंध कायम किये जाने चाहिए. 

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