Published on Sep 12, 2022 Updated 0 Hours ago

हालिया ऊर्जा संरक्षण संशोधन अधिनियम 2022 में भारत की कार्बन सघनता घटाने और ऊर्जा संरक्षण को बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया है, पर हो सकता है कि ये क़वायद देश की औद्योगिक नीतियों के हिसाब से तर्कसंगत ना हों.

ऊर्जा संरक्षण संशोधन अधिनियम: भारत के लिए समझदारी भरी शुरुआत?

ये लेख कॉम्प्रिहैंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया एंड द वर्ल्ड सीरीज़ का हिस्सा है.


भारतीय संसद के निचले सदन (लोकसभा) ने अगस्त 2022 में ऊर्जा संरक्षण (संशोधन) विधेयक पारित कर दिया. इसका उद्देश्य ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001 में संशोधन करना है. ज़्यादातर स्टेकहोल्डर्स और उपभोक्ताओं ने संशोधित प्रावधानों का स्वागत किया है. संशोधित प्रावधान केंद्र सरकार को ऊर्जा उपभोक्ताओं पर ग़ैर-जीवाश्म ईंधनों के इस्तेमाल की ज़िम्मेदारी आयद करने का अधिकार देते हैं. जलवायु कार्यकर्ता इसे एक अहम प्रावधान मान रहे हैं, जिससे भारत को अपने जलवायु लक्ष्य हासिल करने में मदद मिलेगी. ताज़ा संशोधन केंद्र सरकार को कार्बन ट्रेडिंग योजना पर अमल का अधिकार देते हैं. आमतौर पर इसे एक सकारात्मक बदलाव की तरह देखा जा रहा है, हालांकि कुछ लोग प्रावधान को भ्रामक ठहरा रहे हैं. इस संशोधन से केंद्र सरकार को भवनों, उपकरणों और वाहनों पर ऊर्जा संरक्षण से जुड़े मानक आयद करने के अधिकार मिल जाएंगे. जलवायु संरक्षण की वक़ालत करने वालों ने इसका स्वागत किया है. संशोधन से राज्य विद्युत नियामक आयोगों (SERCs) को जुर्माने तय करने और अपने क्रियाकलापों को अंजाम देने के लिए नियम-क़ायदे बनाने के अधिकार मिल गए हैं. दरअसल कुछ हलकों में ये चिंता जताई जाने लगी थी कि केंद्र सरकार विद्युत क्षेत्र के नियमन को लेकर राज्य सरकारों की शक्तियां हड़प रही है. ताज़ा संशोधन से इस दिशा में कुछ राहत मिली है. संशोधित अधिनियम के तहत ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (BEE) की गवर्निंग काउंसिल का विस्तार किया गया है. इस तरह इसमें छह मंत्रालयों, विभागों, नियामक संस्थाओं के सदस्यों के साथ-साथ उद्योगों और उपभोक्ता समूहों के सदस्यों को भी शामिल किया गया है. ज़्यादातर स्टेकहोल्डर्स ने इस क़दम का स्वागत किया है. 

भारतीय संसद के निचले सदन (लोकसभा) ने अगस्त 2022 में ऊर्जा संरक्षण (संशोधन) विधेयक पारित कर दिया. इसका उद्देश्य ऊर्जा संरक्षण अधिनियम, 2001 में संशोधन करना है. ज़्यादातर स्टेकहोल्डर्स और उपभोक्ताओं ने संशोधित प्रावधानों का स्वागत किया है.

ऊर्जा संरक्षण, ऊर्जा गहनता और कार्बन सघनता 

अक्सर ऊर्जा संरक्षण को ऊर्जा दक्षता के तौर पर प्रयोग में लाया जाता है. इनके बीच क़रीबी रिश्ता होने के बावजूद दोनों समान नहीं हैं. ऊर्जा संरक्षण का मतलब है कम ऊर्जा का इस्तेमाल (जैसे कमरे से निकलते वक़्त बत्ती बुझा देना), जबकि दक्षता का अर्थ है समझदारी से ऊर्जा का प्रयोग (जैसे फ़्लूरेसेंट लैंप्स की बजाए समान मात्रा में रोशनी हासिल करने के लिए लाइट एमिटिंग डायोड (LED) बत्तियों का प्रयोग). ऊर्जा संरक्षण मौजूदा ऊर्जा पूंजी भंडार की ऊर्जा प्रयोग दक्षता को सुधारता है. अक्सर इसका मतलब भारी-भरकम पूंजी निवेश के ज़रिए किए जाने वाला प्रौद्योगिकीय बदलाव होता है. इसके तहत पूंजी भंडार में नई प्रौद्योगिकी का प्रसार किया जाता है- मिसाल के तौर पर एक ऐसा सेंसर उपकरण लगाना जो कमरे में किसी के ना होने की सूरत में अपने आप ही बत्तियां बंद कर दे. ऐसे प्रसार के लिए या तो विस्तार या प्रतिस्थापन निवेश की दरकार होती है. ज़ाहिर है विस्तार निवेश मौजूदा पूंजी भंडार का विस्तार (जैसे बिजली उत्पादन की नई क्षमताओं में निवेश) करता है. इस तरह उत्पादन के ऊंचे स्तर हासिल किए जाते हैं और सकल ऊर्जा प्रयोग में इज़ाफ़ा होता है. हालांकि इस क़वायद में ऊर्जा सघनता के निम्न स्तर का इस्तेमाल होता है, क्योंकि ये मानकर चला जाता है कि मौजूदा पूंजी के मुक़ाबले नई पूंजी ज़्यादा दक्ष होती है. प्रतिस्थापन निवेश प्रयोग से बाहर हो चुकी पूंजी को सीधे तौर पर प्रतिस्थापित करता है. इसके तहत बाद में जोड़ी गई (retrofitted) पूंजी पर हुए निवेश ख़र्च को शामिल किया जाता है- जैसे मौजूदा फ़्लूरोसेंट बत्तियों की जगह LED बत्तियां लगाना. ज़ाहिर है प्रतिस्थापन निवेश पूंजी भंडार का विस्तार नहीं करता. ये सकल ऊर्जा प्रयोग को तो नहीं बढ़ाता लेकिन विस्तार निवेश के मुक़ाबले ऊर्जा की सघनता में तेज़ गिरावट की प्रक्रिया को ज़रूर आसान बना देता है. इस सिलसिले में नई पूंजी को पुरानी पूंजी की तुलना में ज़्यादा दक्ष माना जाता है. 

ऊर्जा सघनता किसी अर्थव्यवस्था की ऊर्जा दक्षता के आकलन का पैमाना होता है. सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में ऊर्जा इस्तेमाल (या ऊर्जा आपूर्ति) के अनुपात के प्रयोग से इसका आकलन किया जाता है. इससे ये पता चलता है कि अर्थव्यवस्था में ऊर्जा को मौद्रिक उत्पाद के तौर पर कितनी कुशलता से बदला जाता है. ऊर्जा सघनता अनुपात जितना छोटा होगा, किसी देश की उर्जा सघनता उतनी ही कम होगी. निम्न उर्जा सघनता राष्ट्र के आर्थिक उत्पादन में ऊर्जा के दक्ष इस्तेमाल की जानकारी देती है. 

ऊर्जा की प्रत्येक इकाई के उपभोग से उत्सर्जित होने वाले कार्बन को कार्बन सघनता कहा जाता है. ये आर्थिक उत्पादन के लिए प्रयोग की जाने वाली ऊर्जा के मिश्रण को प्रकट करती है. कार्बन की निम्न सघनता या तो ऊर्जा के निम्न उपभोग (जैसा कि ग़रीब परिवारों/इलाक़ों/देशों के संदर्भ में होता है) या फिर ऊर्जा इस्तेमाल में ऊंची दक्षता वाली अर्थव्यवस्था या कम ऊर्जा ख़पत वाली क्रियाओं के दबदबे (जैसे सेवाएं) का संकेत देती है. 

इससे ये पता चलता है कि अर्थव्यवस्था में ऊर्जा को मौद्रिक उत्पाद के तौर पर कितनी कुशलता से बदला जाता है. ऊर्जा सघनता अनुपात जितना छोटा होगा, किसी देश की उर्जा सघनता उतनी ही कम होगी. निम्न उर्जा सघनता राष्ट्र के आर्थिक उत्पादन में ऊर्जा के दक्ष इस्तेमाल की जानकारी देती है. 

इन तमाम जानकारियों की रोशनी में संशोधित अधिनियम के मुख्य प्रावधानों में (उपकरणों पर ऊर्जा दक्षता मानकों की जवाबदेही तय करने को लेकर केंद्र सरकार को दिए गए अधिकार को छोड़कर) ऊर्जा संरक्षण या ऊर्जा दक्षता की बजाए कार्बन की सघनता कम किए जाने पर ज़ोर दिया गया है. दरअसल भारत ने अपनी GDP में कार्बन उत्सर्जन की सघनता को 2030 तक 45 फ़ीसदी घटाने (2005 के स्तर से) की प्रतिबद्धता जताई है. इसके साथ ही 2030 तक ग़ैर-जीवाश्म ईंधन आधारित संसाधनों से संचयी विद्युत शक्ति की स्थापित क्षमता का 50 फ़ीसदी हासिल करने का लक्ष्य है. राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) के संशोधित लक्ष्यों में भी इसे शुमार किया गया है. ऊर्जा संरक्षण संशोधन अधिनियम का प्रयोग इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के वाहक के तौर पर किया गया है. 

भारत की कार्बन सघनता के रुझान

1970-90 के बीच भारत में वाणिज्यिक ऊर्जा का उपभोग औसतन 5.7 प्रतिशत की दर से बढ़ा, जबकि अर्थव्यवस्था में औसतन 4.3 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई. इस कालखंड में बुनियादी ढांचा निर्माण में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई. इनमें ख़ासतौर से बिजली निर्माण, औद्योगिक ऊर्जा के बढ़ते उपभोग, बिजली के सामानों में निवेश और मोटर कारें शामिल हैं. नतीजतन मध्यम वर्गीय परिवारों में बिजली, पेट्रोलियम और गैस का उपभोग बढ़ गया. इन घटनाक्रमों से कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की सघनता में बढ़ोतरी हुई. बहरहाल 1990 के दशक में जब भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को आंशिक तौर पर खोला तब से भारत की COउत्सर्जन सघनता में गिरावट के रुझान दिखाई पड़े. इसके पीछे मुख्य रूप से ऊर्जा सघनता में गिरावट का हाथ रहा है.  

1990 से 2019 के बीच भारत की GDP में छह गुणा से भी ज़्यादा बढ़ोतरी हो चुकी है, जबकि भारत के सकल अंतिम उर्जा उपभोग में महज़ 2.5 गुणांक का ही इज़ाफ़ा हुआ है. ज़ाहिर है GDP में ऊर्जा उपभोग के मुक़ाबले दो गुणा से भी ज़्यादा की बढ़त हुई है. इसके मायने यही हैं कि भारत में पिछले सालों में आर्थिक उत्पाद की एक अतिरिक्त इकाई के उत्पादन के लिए पहले से कम ऊर्जा की ज़रूरत पड़ी है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2021 में भारत में CO2 सघनता 2005 की CO2 सघनता के मुक़ाबले 28 प्रतिशत नीचे आ गई. भारतीय परिवारों में रसोई के लिए ईंधन के तौर पर पारंपरिक जैव-ईंधनों (जलावन की लकड़ी, मवेशी के मल से बने उपले आदि) से ढांचागत रूप से आगे निकल जाना ऊर्जा के प्रयोग से जुड़ी दक्षता के मुख्य वाहकों में से एक है. हालांकि आज भी लाखों भारतीय परिवारों में रसोई के प्राथमिक ईंधन के तौर पर जैव-ईंधनों का इस्तेमाल जारी है. भारत में अंतिम ऊर्जा उपभोग में जैव-ईंधनों से हासिल ऊर्जा का हिस्सा 1990 में 42 फ़ीसदी था, जो 2019 में घटकर 18 फ़ीसदी रह गया. भारतीय परिवारों द्वारा LPG (लिक्विड पेट्रोलियम गैस) या पाइप्ड नेचुरल गैस का इस्तेमाल शुरू करने से ये नतीजा हासिल हुआ. इस कालखंड में बेहद निम्न रूपांतरण दक्षता (5-10 प्रतिशत) वाले जैव ईंधन की बजाए उच्च दक्षता वाले पेट्रोलियम-आधारित ईंधनों का इस्तेमाल शुरू हो गया. इस तरह ऊर्जा उपभोग में समान रूप से बढ़ोतरी के बिना आर्थिक गतिविधियों का संचालन मुमकिन हो सका. भारत में ऊर्जा सघनता में 60 फ़ीसदी की गिरावट के पीछे देश के ऊर्जा मिश्रण में जैव ईंधन के हिस्से में आई कमी का हाथ रहा है

ऊर्जा सघनता में सुधार का दूसरा वाहक विकास की ढांचागत बनावट में सेवा क्षेत्र के पक्ष में आया बदलाव है. उद्योगों पर आधारित विकास यात्रा के मुक़ाबले सेवा क्षेत्र से हासिल होने वाले विकास की ऊर्जा सघनता कम होती है. भारत में 1990-2017 के कालखंड में तक़रीबन 90 फ़ीसदी मूल्य-वर्धित विकास कम ऊर्जा सघनता श्रेणी के आर्थिक क्षेत्रों से हासिल हुआ. इनमें बड़े रिटेल सेवा क्षेत्र, कारोबार और वित्तीय सेवाएं शामिल हैं. भारत में ऊर्जा सघनता में सुधार का तीसरा वाहक उत्पादन और उपभोग की प्रक्रियाओं में आई तकनीकी दक्षता है. ऊर्जा की अपेक्षाकृत ऊंची क़ीमतों, मूल्य के प्रति उपभोक्ताओं की संवेदनशीलता और युवा पूंजी भंडार ने ऊर्जा के इस्तेमाल में तकनीकी कार्यकुशलता लाने में योगदान दिया है. 1990 के दशक की शुरुआत में उदारीकरण के बाद सामान्य रूप से आर्थिक दक्षता में सुधार ऊर्जा संरक्षण संशोधन अधिनियम में जोड़े गए नए प्रावधानों का मक़सद आपूर्ति पक्ष में जीवाश्म ईंधनों की बजाए नवीकरणीय संसाधनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना है. की एक लहर सी आई थी. इसका भी विनिर्माण प्रक्रियाओं में तकनीकी कार्यकुशलता लाने में बड़ा योगदान रहा है.

ऊर्जा संरक्षण संशोधन अधिनियम में जोड़े गए नए प्रावधानों का मक़सद आपूर्ति पक्ष में जीवाश्म ईंधनों की बजाए नवीकरणीय संसाधनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना है.  

इस कड़ी में चौथा कारक कुछ प्रतिकूल क़िस्म का है. दरअसल भारत में औद्योगिकीरण की रफ़्तार सुस्त रहने के चलते प्रति व्यक्ति ऊर्जा उपभोग निम्न स्तरों वाला रहा है. इसी प्रकार यहां ऊर्जा सघनता और कार्बन गहनता भी सीमित रही है. 2019-20 (कोविड से पहले) में भारत में 1381 टेरावाट आवर्स (TWh) बिजली का उत्पादन हुआ. 1.395 अरब की आबादी में समान रूप से बांटे जाने पर इससे प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग महज़ 1000 किलोवाट घंटे (kWh) से भी कम है. ये स्तर 2020 में 3316 kWh के वैश्विक औसत से काफ़ी कम है. दरअसल भारत विश्व औसत से कम ऊर्जा उपभोग करने वाला G20 का इकलौता देश है. निम्न ऊर्जा उपभोग या और सटीक रूप से कहें तो निम्न आय से पारिवारिक स्तर पर ऊर्जा का उपभोग सीमित हो जाता है. इसके मायने करोड़ों परिवारों के लिए जीवन की ख़राब गुणवत्ता है. ख़ासतौर से ग्रामीण भारत में यही दिखाई देता है. भारत में ऊर्जा और कार्बन की निम्न सघनता के पीछे इस कारक का हाथ रहा है.

चुनौतियां 

ऊर्जा संरक्षण संशोधन अधिनियम में जोड़े गए नए प्रावधानों का मक़सद आपूर्ति पक्ष में जीवाश्म ईंधनों की बजाए नवीकरणीय संसाधनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना है. हालांकि ये ऊर्जा संरक्षण की परिकल्पना के हिसाब से तर्कसंगत नहीं है. बहरहाल अब तक ऊर्जा सघनता को निम्न स्तर पर बरक़रार रखने में योगदान देने वाले और नतीजतन कार्बन सघनता को घटाने वाले कारकों के आगे बरक़रार रहने के आसार नहीं हैं. इन कारकों में- रसोई के लिए जैव ईंधनों की बजाए आधुनिक ईंधनों का इस्तेमाल, विनिर्माण से सेवाओं की ओर बदलाव, औद्योगिक ऊर्जा दक्षता में कामयाबियां और प्रति व्यक्ति निम्न ऊर्जा उपभोग शामिल हैं. कार्बन उत्सर्जन की सघनता को कम करने के लिए जीवाश्म ईंधनों की जगह ग़ैर-जीवाश्म ईंधनों के हिस्से में बढ़ोतरी अहम हो जाती है. हालांकि भारत के डिकार्बनाइज़ेशन लक्ष्य हमेशा उसकी औद्योगिक नीतियों से मेल खाते नहीं रहे हैं. इनमें “मेक इन इंडिया” और “आत्मनिर्भरता” से जुड़ी नीतियां शामिल हैं. इतनी देर से औद्योगिक आधार के विकास की क़वायद (चाहे वो जलवायु-अनुकूल वस्तुओं के विनिर्माण के लिए ही क्यों न हो) से ऊर्जा की सघनता में बढ़ोतरी हो सकती है. इससे कार्बन सघनता घटाने के प्रयासों को झटका लग सकता है.

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Authors

Akhilesh Sati

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Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Lydia Powell

Lydia Powell

Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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