Author : Kabir Taneja

Published on May 20, 2017 Updated 0 Hours ago

ईरान का राजनीतिक परिदृश्य कई परतों वाला है, जिसमें रूढ़िवादी, नरमपंथी, उदारवादी, सैन्य, खुफिया और अन्य जैसे परस्पर विरोधी साथ-साथ मौजूद हैं, जो हुकूमत के बीच अपना प्रभाव बनाने की जद्दोजहद कर रहे हैं।

परमाणु समझौते के बाद चुनाव की तैयारियों में जुटा ईरान

इस्लामिक गणराज्य के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह खामेनी की सरपरस्ती वाली गार्जियन काउंसिल की जांच प्रक्रिया सम्पन्न होने के बाद उम्मीदवारों के नामों पर अंतिम मुहर लगने के बाद से ही ईरान में महीने भर चलने वाला चुनाव प्रचार का दौर शुरू हो चुका है। विशेषकर अनिश्चितता के इस दौर में, जब अमेरिका की कमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प जैसे नेता के हाथ में है, ईरान का नेतृत्व करने के लिए वर्तमान राष्ट्रपति हसन रूहानी का मुकाबला मुस्तफा अका-मीरसालिम, मुस्तफा हाशमी-ताबा, इस्हाक जहांगीरी, मोहम्मद-बाकेर गालिबेफ और सैय्यद इब्राहिम रईसी से होने जा रहा है।

चुनावों से ऐन पहले हालात नाटकीय हो चुके हैं, पूर्व राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने पहले चुनाव न लड़ने की बात कही थी, लेकिन नामांकन दाखिल करने की प्रक्रिया के आखिरी मिनटों में अपनी उम्मीदवारी का पर्चा भरकर उन्होंने ईरानी मतदाताओं को हैरत में डाल दिया। चुनाव में 137 महिला उम्मीदवारों सहित 1,600 से ज्यादा उम्मीदवारों ने पर्चा भरा था,लेकिन इनमें से कोई भी फाइनल तक नहीं पहुंच सका।

राष्ट्रपति रूहानी, जिनके मार्गदर्शन में ईरान ने पश्चिमी देशों (संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सभी सदस्यों तथा जर्मनी) के साथ महत्वपूर्ण परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, उनके बारे में विश्लेषकों का मानना है कि उन्हें तेहरान के राजनीति के हलकों से मुकाबला मिलेगा, जिसे वे बखूबी जानते हैं। उनके प्रतिद्वंद्वियों को दो समूहों-सुधारवादियों और रूढ़िवादियों में बांटा जा सकता है। रूहानी के साथ प्रथम उपराष्ट्रपति जहांगीरी और पूर्व खान मंत्री हाशिमी-तबा सुधारवादी गुट से हैं।रूढ़िवादियों की नुमाइंदगी तेहरान के मेयर गालिबाफ, पूर्व संस्कृति और इस्लामिक मार्गदर्शन मंत्री मीरसालिम तथा विशिष्ट उम्मीदावर रईसी कर रहे हैं, जो आठवें शिया इमाम की पवित्र श्राइन के संरक्षक हैं, लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें वृद्ध हो रहे आयतोल्लाह खामेनेई का स्थान लेने वाले की हस्ती के रूप में प्रचारित किया जाता है।

आमतौर पर ऐसा माना जा रहा है कि रूहानी, गालिबेफ और रईसी जैसे नेता ही इस दौड़ में हैं, जो ईरान के परमाणु समझौते के बाद के राजनीतिक और आर्थिक दोनों तरह के निष्कर्षों को प्रभावित करेंगे। कनाडा की एक कंसल्टेंसी द्वारा हाल में कराए गए सर्वेक्षण के अनुसार अर्थव्यवस्था और नौकरियां यहां की दो प्रमुख चिंताएं हैं और ईरान की जनता चाहती है कि नेता इन समस्याओं का हल तलाशे। पिछले चुनावों और उसके बाद रूहानी के राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण किए जाने के दौरान भी यही समस्याएं थीं।सर्वेक्षण के अनुसार, इस अध्ययन में भाग लेने वाले 1,005 नरमपंथियों में से 52 प्रतिशत का मानना है कि रूहानी के नेतृत्व में देश की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती गई, जबकि 31 प्रतिशत का कहना है कि यह बेहतर हुई है। जब उनसे सटीक रूप से पूछा गया कि क्या परमाणु समझौते के सफलतापूर्वक संपन्न होने से आम जनता की आर्थिक स्थिति में कुछ बदलाव आया है, तो 72 प्रतिशत लोगों का कहना था कि इसमें कोई सुधार नहीं आया है।

आमतौर पर ऐसा माना जा रहा है कि रूहानी, गालिबेफ और रईसी जैसे नेता ही इस दौड़ में हैं, जो ईरान के परमाणु समझौते के बाद के राजनीतिक और आर्थिक दोनों तरह के निष्कर्षों को प्रभावित करेंगे।

चुनाव पर परमाणु समझौते का प्रभाव, भले ही मुख्य मद्दे से ध्यान भटकाने का भुलावा भर हो, लेकिन 2013 में रूहानी के चुनाव से पहले इसी तरह की स्थिति थी, जब अहमदीनेजाद को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। उनके नेतृत्व में पश्चिम के साथ ईरान के रिश्ते बहुत ही ज्यादा खराब हो गए थे और उन दिनों युवाओं में बेरोजगारी और आर्थिक स्थिति में सुधार न होना ईरान का प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बन गए थे। वर्षों से पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों का दंश झेल रही ईरानी अर्थव्यवस्था बुरी तरह दबाव में थी, ऐसे में पश्चिम के साथ अपने प्रशासन के रिश्ते सामान्य बनाने की बात को जन समर्थन मिलने लगा। इसका ईरान के नरमपंथी और सुधारवादी राजनीतिक हलकों ने रूढ़िवादियों के खिलाफ इस्तेमाल किया। जबकि रूढ़िवादी बातचीत की पूरी प्रक्रिया के दौरान रूहानी और विदेश मंत्री जवाद जारिफ की यह कहकर आलोचना करते रहे कि असैन्य परमाणु ऊर्जा संसाधनों को विकसित करने के ईरान के बुनियादी अधिकारों के बदले में पश्चिम को बहुत सी रियायते दी गईं। और तो और जब ईरानी शिष्टमंडल के सदस्य विएना, आस्ट्रिया में समझौते के बारे में विचार-विमर्श कर रहे थे, तो आयतोल्लाह खामेनेई ने अमेरिका को धमकाने के लिए अक्सर ट्विटर, आम ईरानी नागरिकों के लिए प्रतिबंधित सोशल मीडिया साइट का सहारा लिया।

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स्रोत :खामेनी. आईआर/ट्विटर

ईरान का राजनीतिक परिदृश्य कई परतों वाला है, जिसमें रूढ़िवादी, नरमपंथी, उदारवादी, सैन्य, खुफिया और अन्य जैसे परस्पर विरोधी साथ-साथ मौजूद हैं, जो हुकूमत के बीच अपना प्रभाव बनाने की जद्दोजहद कर रहे हैं। इस बात को दर्शाने का प्रमुख उदाहरण आयतोल्लाह के सीधे कमान वाली बेहद प्रशिक्षित सैन्य इकाई इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (आईआरजीसी)की भूमिका को समझ पाना है, जिसे विदेशी हस्तक्षेप और आंतरिक असंतोष से इस्लामी क्रांति की रक्षा करने का दायित्व सौंपा गया है।

आईआरजीसी की इस समय ईरानी अर्थव्यवस्था में गहरी पैठ है और समझा जाता है कि निर्माण, दूरसंचार, खान आदि क्षेत्रों में विभिन्न कंपनियों और सरकारी उद्यमों का स्वामित्व उसके पास है। इस साल जनवरी में, ईरान सरकार ने सीरियाई युद्ध में बशर-अल-असद सरकार की सहायता के लिए आईआरजीसी की करीबी इकाइयों के साथ मिलकर सीरिया सरकार के साथ व्यवसायिक समझौतों पर हस्ताक्षर किए। चुनाव के निष्कर्ष में केवल पूर्व राष्ट्रपतियों सहित रूढ़िवादी या सुधारवादी सत्ता केंद्र ही नहीं, यहां तक कि यह बात भी मायने रखती है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान, पश्चिमी प्रतिबंधों के अधीन रहते हुए निर्वाचन व्यवस्था में सैन्य/खुफिया तंत्र का फैलाव संभवत:काफी बढ़ गया है।

यही बात रईसी को राष्ट्रपति बनने का एक अच्छा अवसर भी देती है। आम धारणा रूहानी के दोबारा निर्वाचन की ओर ही इशारा करती दिखाई दे रही है, लेकिन इसके बावजूद रूढ़िवादी लॉबी ने खुफिया तंत्र के साथ मिलकर परमाणु समझौते के बारे में अपने संदेहों के कारण कुछ आशंकाएं व्यक्त की हैं। दरअसल यह बात रईसी को पसंद करने वालों को रूहानी का समर्थन वाले सुधारवादी गुट को योजनाबद्ध और सशक्त रूप से डराने का अवसर दे सकती है। रूहानी के समर्थकों में सुधारों के पक्षधर और 1997 से 2005 तक ईरानी सरकार का नेतृत्व कर चुके पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी सरीखी हस्तियां शुमार हैं। ऐसा समर्थन बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकता है, क्योंकि खातमी के अपने कई पूर्ववर्तियों और उत्तराधिकारी अहमदीनेजाद की तरह अपने राष्ट्रपति कार्यकाल के आखिरी दिनों में आयतुल्लाह से मतभेद हो गए थे और उन्हें राजनीति से निर्वासित कर दिया गया था।

अरब सागर के पार, भारत, ईरान के सबसे बड़े तेल आयातकों में से एक रहा है, जिसके इस देश के साथ संबंध लाभदायक और हानिकारक दोनों ही रहे हैं। तेल और गैस को ईरानी अर्थव्यवस्था में सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती रही है, जो अब देश के राजनीतिक स्थायित्व के लिए महत्वपूर्ण हो चुके हैं। भारत और ईरान की सभ्यताओं के बीच हजारों वर्षों के सौहार्दपूर्ण और महत्वपूर्ण संबंध होने के बावजूद, अक्सर यह पाया गया है कि दोनों देशों के बीच कामकाजी राजनयिक समझ विकसित करना मुश्किल है। 2009 में भारत द्वारा मुख्य रूप से अमेरिकी दबाव के कारण, संयुक्त राष्ट्र में ईरान के परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ वोट दिए जाने के बावजूद उसने अमेरिका पर दबाव बनाया कि वह ईरान पर लगे अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में कुछ उसे कुछ ढील दे, ताकि वह उससे तेल खरीदना जारी रख सके। इस कारोबार के साथ-साथ भारत ने ईरान के फरजाद बी तेल एवं गैस क्षेत्र में 1 अरब डॉलर लगाने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है। यह मामला परम्परागत प्रशासनिक उलझनों में अटका हुआ है और यह दोनों देशों के संबंधों को आगे बढ़ाने की दिशा में निर्णायक बन चुका है।

तेल और गैस को ईरानी अर्थव्यवस्था में सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती रही है, जो अब देश के राजनीतिक स्थायित्व के लिए महत्वपूर्ण हो चुके हैं।

तेल और गैस के दायरे से परे, दोनों देशों के बीच व्यापक सामरिक संबंधों की संभावना भी चाबहार बंदरगाह परियोजना पर निर्भर करती है। भारत में ईरान की ओर से पहले की गई मंत्री स्तरीय यात्राएं और पिछले साल हुई नरेन्द्र मोदी की ईरान यात्रा के दौरान, चाबहार परियोजना के सामरिक महत्व की मरीचिका इस तथ्य के बावजूद बढ़ गई कि इसे विकसित करने की प्रक्रिया दोनों देशों के बीच प्रशासनिक लालफीताशाही का कष्टदायक प्रदर्शन भर रही है। चाबहार परियोजना को आगे बढ़ाने के प्रयास आज — इस बात की बेमिसाल, व्यवस्थित और स्टेप-बाइ-स्टेप गाइड बन चुके हैं कि कूटनीति स्तर पर नाकामी कैसे हासिल की जाती है — वह भी तब, जब दोनों ही पक्ष अपने-अपने हितों की दृष्टि से भरपूर लाभ पाने वाले हों, इसके बावजूद वे ऐसा करने में नाकाम रहें। भारत के हितों का दायरा एक व्यापक नीतिगत प्रयास है, अफगानिस्तान में स्थिरता लाने और मध्य एशिया तक पहुंच उपलब्ध कराने के लिए भी ईरान बहुत महत्वपूर्ण है, जबकि ईरान को अब तक इस बात की पहचान करना बाकी है कि अगले तीन दशकों के लिए हाइड्रोकार्बन के लिए उसके ज्यादातर बाजार पूर्व की ओर स्थित हैं।

भारतीय दृष्टिकोण से, रूहानी का दोबारा निर्वाचित होने को संभवत: दोनों देशों के बीच महत्वपूर्ण मसलों पर गतिरोध बरकरार रहने के रूप में देखा जा सकता है। इन मसलों में अब फरजाद बी तेल और गैस क्षेत्र पर तकरार भी शामिल हो चुकी है।हालांकि, यह भारत के हित में होगा कि ईरान सुधार के पथ पर चलता रहे और ईरान की अर्थव्यवस्था विश्व व्यापार से संबंधित खुले बाजार की ओर बढ़ती जाए। एक ओर यह सच है कि डोनाल्ड ट्रम्प के अमेरिका के राष्ट्रपति चुने जाने से ईरान में निवेश के संबंध में कई अनिश्चितताएं उत्पन्न हो चुकी हैं। वास्तविकता यह है कि परमाणु समझौता बहुआयामी है, अमेरिका के उस समझौते से पीछे हटने की आशंकाओं के संबंध में पांच अन्य देशों को मरहम और सुरक्षा कवच के रूप में देखा जा सकता है।

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