Published on Oct 13, 2021 Updated 12 Days ago

भारत इलेक्ट्रिक गाड़ियों को बढ़ावा देकर अपनी सड़कों के कार्बन उत्सर्जन को ख़त्म करने की कोशिश कर रहा है. लेकिन, बिजली बनाने से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को ख़त्म किए बिना क्या सड़क परिवहन से फैलने वाला प्रदूषण ख़त्म किया जा सकता है?

सड़क प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए निजी इलेक्ट्रिक गाड़ियों को बढ़ावा देने की कोशिश

दोपहिया वाहनों का दबदब

वर्ष 2000 से भारत के लोग हर साल क़रीब पांच हज़ार किलोमीटर का सफ़र तय करते आए हैं. साल 2000 से अब तक प्रति व्यक्ति वाहन के मालिकाना हक़ में चार गुने का इज़ाफ़ा हुआ है. उसमें भी ख़ास तौर से दो-पहिया और तिपहिया वाहनों की संख्या सबसे अधिक बढ़ी है. देश में गाड़ियों की कुल क़रीब 20 करोड़ की तादाद में दो-पहिया और तिपहिया गाड़ियों का हिस्सा क़रीब 80 प्रतिशत (कारों की तुलना में पांच गुने से भी अधिक) है. लेकिन, कुल ईंधन की खपत में उनकी हिस्सेदारी महज़ 20 फ़ीसद है. तिपहिया गाड़ियां सार्वजनिक परिवहन और आवाजाही की साझा ज़रूरतों वाली सुविधाएं मुहैया कराती हैं. पिछले एक दशक में निजी परिवहन के किसी भी अन्य माध्यम की तुलना में दोपहिया और तिपहिया गाड़ियों की संख्या सबसे तेज़ी से बढ़ी है. आज भारतीय शहरों में कोई भी दोपहिया वाहन हर दिन औसतन 27 से 33 किलोमीटर का सफ़र तय करता है, और इनके द्वारा रोज़ाना अधिकतम 86 किलोमीटर का सफर होता है. वहीं, दोपहिया वाहनों से सफर का सालाना औसत 8,800 किलोमीटर और अधिकतम 22 हज़ार 500 किलोमीटर है.

अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के मुताबिक़ आज भारत में सबसे ज़्यादा ऊर्जा की खपत परिवहन के क्षेत्र में बढ़ रही है. पिछले तीन दशकों में भारत के ट्रांसपोर्ट सेक्टर में ऊर्जा की खपत में पांच गुने का इज़ाफ़ा हो चुका है. वर्ष 2019 में ये खपत 10 करोड़ टन तेल के बराबर (Mtoe) थी. 

इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने में विचार करने वाली बात ये है कि क्या दोपहिया और तिपहिया वाहनों को इलेक्ट्रिक बनाने पर ज़ोर देने से सड़क परिवहन से होने वाला कार्बन उत्सर्जन कम हो सकेगा? भारत में कुल गाड़ियों में दोपहिया और तिपहिया वाहनों की अधिक हिस्सेदारी का ही नतीजा है कि परिवहन से होने वाले कुल कार्बन उत्सर्जन में निजी गाड़ियों की हिस्सेदारी महज़ 18 प्रतिशत है. अगर हम इसमें दोपहिया और तिपहिया वाहनों को जोड़ भी दें, तो कुल कार्बन उत्सर्जन में निजी वाहनों की हिस्सेदारी केवल 36 प्रतिशत होती है. ये बहुत से अन्य देशों की तुलना में काफ़ी कम है; मिसाल के तौर पर अमेरिका में परिवहन से होने वाले कुल प्रदूषण में निजी कारों का हिस्सा क़रीब 57 फ़ीसद है.

अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) के मुताबिक़ आज भारत में सबसे ज़्यादा ऊर्जा की खपत परिवहन के क्षेत्र में बढ़ रही है. पिछले तीन दशकों में भारत के ट्रांसपोर्ट सेक्टर में ऊर्जा की खपत में पांच गुने का इज़ाफ़ा हो चुका है. वर्ष 2019 में ये खपत 10 करोड़ टन तेल के बराबर (Mtoe) थी. भारत में यातायात व्यवस्था तेल पर बहुत अधिक निर्भर है. इसकी 95 फ़ीसद मांग पेट्रोलियम उत्पादों से पूरी होती है. भारत में तेल की कुल खपत का क़रीब आधा हिस्सा, यातायात के सेक्टर में इस्तेमाल होता है. वर्ष 2000 से अब तक भारत में तेल की मांग दो गुना से भी अधिक बढ़ गई है और इसकी सबसे बड़ी वजह गाड़ियों की बढ़ती संख्या और सड़क परिवहन का बढ़ता इस्तेमाल है. आवाजाही में आई इस तेज़ी को भारत में सड़कों के बढ़ते जाल से और बढ़ावा मिला है. वर्ष 2000 में जहां भारत में 33 लाख किलोमीटर सड़कें थीं. वहीं, वर्ष 2016 में ये बढ़कर कर 59 लाख किलोमीटर हो गईं. आज भारत में सड़कों का अमेरिका के बाद दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा नेटवर्क है.

लागत में पेट्रोल से चलने वाले दो-पहिया वाहनों (मोटर बाइक) के लिए कम लागत वाली बैटरी के साथ-साथ वाहन की कुल लागत में बैटरी का हिस्सा ज़्यादा होना चाहिए. तभी बैटरी की लागत में कमी से वाहन की कुल क़ीमत में कमी आएगी.

सड़क परिवहन और हाइवे मंत्रालय (MORTH) के मुताबिक़, देश में हर दिन सभी तरह की लगभग 75 हज़ार गाड़ियां बेची जाती हैं. आज भारत में ऐसे कम से कम 42 शहर और क़स्बे हैं, जहां गाड़ियों की संख्या दस लाख से अधिक है. दस लाख से ज़्यादा आबादी वाले भारतीय शहरों में पहले ही देश के कुल रजिस्टर्ड वाहनों की तीस फ़ीसद हिस्सेदारी है. शहरी परिवारों में गाड़ियों की संख्या ग्रामीण क्षेत्र के परिवारों की तुलना में काफ़ी अधिक है. वर्ष 2019 में भारत के गांवों की तुलना में शहरी क्षेत्र में गाड़ियों का मालिकाना हक़ 1.4 गुना अधिक था. वहीं, ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में, शहरों में निजी कारों की संख्या तो दोगुनी से भी अधिक थी.

जैसा कि ज़्यादातर इलेक्ट्रिक गाड़ियों के साथ होता है, उसी तरह दोपहिया इलेक्ट्रिक वाहनों के सामने भी ईंधन और लागत की चुनौतियां खड़ी होती हैं. बैटरी के दामों में तेज़ी से आ रही गिरावट से इलेक्ट्रिक दो-पहिया वाहनों की कुल क़ीमत में तो गिरावट आ सकती है; लेकिन, लागत में पेट्रोल से चलने वाले दो-पहिया वाहनों (मोटर बाइक) के लिए कम लागत वाली बैटरी के साथ-साथ वाहन की कुल लागत में बैटरी का हिस्सा ज़्यादा होना चाहिए. तभी बैटरी की लागत में कमी से वाहन की कुल क़ीमत में कमी आएगी.

इस संदर्भ में इलेक्ट्रिक गाड़ियों को लेकर बनने वाली नीति में कारों को भी शामिल किया जाना चाहिए, जो ज़्यादातर खाते-पीते घरों में हुआ करती हैं. तभी सख़्त नीतिगत क़दम उठाकर, पेट्रोल-डीज़ल से चलने वाली गाड़ियों के मालिकों को इलेक्ट्रिक वाहन अपनाने की दिशा में आगे बढ़ाया जा सकेगा. वहीं, कम आमदनी वाले घरों के बाइक रखने वालों को इलेक्ट्रिक गाड़ियां ख़रीदने के लिए दिए जाने वाले सब्सिडी जैसे प्रोत्साहनों में भी कमी लाने की ज़रूरत है. इससे कार्बन उत्सर्जन कम करने के बोझ का कम से कम एक हिस्सा, भारत के अमीर तबक़े पर डाला जा सकेगा. अब चूंकि देश में सड़क परिवहन से होने वाले कार्बन उत्सर्जन का 80 प्रतिशत हिस्सा दो-पहिया और तिपहिया वाहनों के बजाय, अन्य गाड़ियों से आता है. ऐसे में भारत के सड़क परिवहन से कार्बन उत्सर्जन कम करने की कोशिशों को सही दिशा में आगे बढ़ाया जा सकेगा.

इलेक्ट्रिक गाड़ियों को दी जाने वाली सब्सिडी

वैसे तो भारत में सड़कों पर ज़्यादा से ज़्यादा इलेक्ट्रिक गाड़ियों को बढ़ावा देने के लिए कई तरह की नीतियां लागू हैं. लेकिन, इनमें से ज़्यादातर नीतियों के केंद्र में दो-पहिया और तिपहिया वाहन ही हैं. साल 2015 से देश में इलेक्ट्रिक दो-पहिया और तिपहिया गाड़ियों की संख्या हर साल 60 प्रतिशत से ज़्यादा की दर से बढ़ रही है. वर्ष 2016 में भारत की सड़कों पर 18 लाख दोपहिया और तिपहिया (इन्हें ई-रिक्शा भी कहा जाता है) गाड़ियां थीं. इन गाड़ियों से हर दिन क़रीब छह करोड़ लोगों की परिवहन संबंधी मांग पूरी की जा रही थी. इनमें से ज़्यादातर तिपहिया वाहन शहरी क्षेत्रों में चल रहे थे. कुल बाज़ार के हिसाब से देखें तो इन गाड़ियों की बिक्री का स्तर सामान्य ही है. साल 2019 में 7 लाख, 40 हज़ार इलेक्ट्रिक दोपहिया और तिपहिया गाड़ियां बेची गई थीं, जो देश में बिकी कुल गाड़ियों का महज़ 3 फ़ीसद थीं.

FAME-II को दो साल और बढ़ाकर इसे 31 मार्च 2024 तक लागू कर दिया गया है. जबकि पहले ये योजना 31 मार्च 2022 को समाप्त होने वाली थी. इस योजना के तहत दी जाने वाली सब्सिडी को भी इलेक्ट्रिक दो-पहिया गाड़ियों की कुल लागत के 20 प्रतिशत से बढ़ाकर 40 प्रतिशत कर दिया गया है. 26 जून 2021 तक इस योजना से 78,045 गाड़ियों को फ़ायदा मिला था. 

इलेक्ट्रिक गाड़ियों को अपनाने को रफ़्तार देने के लिए साल 2015 में फास्टर एडॉप्शन ऑफ़ इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (FAME) नाम की सब्सिडी वाली योजना शुरू की गई थी. 2019 में FAME-II के नाम से इस योजना के दूसरे चरण को मंज़ूरी दी गई थी. इस योजना के तीन वर्षों के लिए 1.4 अरब डॉलर के बजट पर मुहर लगी थी. इसमें इलेक्ट्रिक और हाइब्रिड गाड़ियां ख़रीदने पर नीतिगत प्रोत्साहन और गाड़ियों को चार्ज करने के ठिकाने बनाने पर ज़ोर दिया गया था. FAME-II का मक़सद इलेक्ट्रिक बसों, दो-पहिया और तिपहिया इलेक्ट्रिक गाड़ियों और कारों की ख़रीद को बढ़ावा देना है. उन्नत किस्म की बैटरी वाली गाड़ियों को ख़रीदने पर ही सब्सिडी दी जाती है न कि सीसे और एसिड वाले वैरिएंट पर. जबकि अभी बेची जा रही ज़्यादातर इलेक्ट्रिक गाड़ियों में अभी यही बैटरियां मिलती हैं. इन नीतियों के साथ-साथ राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों ने भी इलेक्ट्रिक गाड़ियों को बढ़ावा देने की नीतियां लागू की हैं. FAME के दूसरे चरण के दौरान इलेक्ट्रिक दोपहिया गाड़ियों और बड़े पैमाने पर ऑर्डर पर सब्सिडी में पचास प्रतिशत की बढ़ोत्तरी (प्रति किलोवाट 200 डॉलर) से इलेक्ट्रिक दो-पहिया गाड़ियों की क़ीमत में दस प्रतिशत तक कमी की उम्मीद की जा रही है. लेकिन, इसमें कई चुनौतियां भी हैं. FAME-II को दो साल और बढ़ाकर इसे 31 मार्च 2024 तक लागू कर दिया गया है. जबकि पहले ये योजना 31 मार्च 2022 को समाप्त होने वाली थी. इस योजना के तहत दी जाने वाली सब्सिडी को भी इलेक्ट्रिक दो-पहिया गाड़ियों की कुल लागत के 20 प्रतिशत से बढ़ाकर 40 प्रतिशत कर दिया गया है. 26 जून 2021 तक इस योजना से 78,045 गाड़ियों को फ़ायदा मिला था. FAME में किए गए इन बदलावों को राज्य सरकारों से भी सहयोग मिल रहा है. जैसे कि पिछले साल गुजरात और दिल्ली सरकारों ने एलान किया था. इससे इलेक्ट्रिक गाड़ियों और पेट्रोल-डीज़ल से चलने वाली गाड़ियां ख़रीदने और उन्हें चलाने में आने वाले कुल ख़र्च (Total Cost of Ownership) में समानता आएगी.

मार्च 2023 तक भारत में इलेक्ट्रिक गाड़ियों की बिक्री 26 प्रतिशत से बढ़ने की उम्मीद है. पेट्रोल और डीज़ल पर अधिक टैक्स (ख़ुदरा क़ीमतों का लगभग 60 प्रतिशत), इलेक्ट्रिक गाड़ियों पर GST को 12 प्रतिशत से घटाकर 5 फ़ीसद करने और इलेक्ट्रिक गाड़ियां ख़रीदने वालों को और प्रोत्साहन देने से इलेक्ट्रिक गाड़ियों की मांग बढ़ने की उम्मीद है.

यहां सवाल इस बात का है कि भारत, सड़कों पर ज़्यादा से ज़्यादा इलेक्ट्रिक वाहन बढ़ाने के लिए किस हद तक सब्सिडी दे सकता है और इससे विकास और अर्थव्यवस्था के अन्य लक्ष्य हासिल करने पर किस तरह का असर पड़ेगा. 

यहां सवाल इस बात का है कि भारत, सड़कों पर ज़्यादा से ज़्यादा इलेक्ट्रिक वाहन बढ़ाने के लिए किस हद तक सब्सिडी दे सकता है और इससे विकास और अर्थव्यवस्था के अन्य लक्ष्य हासिल करने पर किस तरह का असर पड़ेगा. नीति निर्माताओं द्वारा कोई नई तकनीक अपनाने को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी देना कोई असामान्य बात नहीं है. नई तकनीक में विकास के साथ इन सब्सिडी में भी बदलाव आता जाता है. नीति निर्माताओं ने सब्सिडी वाली ये नीतियां, इलेक्ट्रिक गाड़ियों को बढ़ावा देने के लिए लागू की हैं. लेकिन, इन सब्सिडी का असर अन्य बातों, जैसे कि सार्वजनिक हित में होने वाले सरकारी व्यय और अन्य फ़ौरी व अहम ज़रूरतों जैसे कि शिक्षा और स्वास्थ्य में होने वाले ख़र्च पर पड़ता है. सरकार इलेक्ट्रिक गाड़ियों को जनता द्वारा बड़े पैमाने पर स्वीकार करने और कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य हासिल करने से मिलने वाली अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा की अहमियत को समझती है. लेकिन, सरकार को इलेक्ट्रिक गाड़ियों पर ज़्यादा पैसे  ख़र्च करने को लेकर चिंतित भी होना चाहिए. इलेक्ट्रिक दोपहिया और तिपहिया गाड़ियों को अपनाने से निजी गाड़ियां रखने वालों का ज़्यादा फ़ायदा होता है. इलेक्ट्रिक गाड़ियां ख़रीदने को सब्सिडी देने का ज़्यादा लाभ तब होता है, जब कम सब्सिडी पर भी लोग इन्हें अपना लें. लेकिन, अगर भारत में दो-पहिया गाड़ियां रखने वाले ही इलेक्ट्रिक वाहन ख़रीदेंगे, तो इसका बहुत सीमित फ़ायदा होगा. इसका मतलब ये है कि सब्सिडी के बिना दोपहिया गाड़ियां रखने वालों द्वारा भी, इलेक्ट्रिक वाहन ख़रीदने की उम्मीद नहीं. जैसा कि पहले भी कहा गया है कि, नीतियों में सिर्फ़ इलेक्ट्रिक गाड़ियां अपनाने को ही प्रोत्साहन देना नहीं, बल्कि बिना सब्सिडी के भी गाड़ियां ख़रीद सकने वाले लोगों को पेट्रोल-डीज़ल वाले वाहन ख़रीदने से रोकने के उपाय भी होने चाहिए.

इलेक्ट्रिक गाड़ियों के कुल जीवन चक्र में कार्बन उत्सर्जन

पर्यावरण पर परिवहन क्षेत्र का असर मापने वाले मॉडलों में किसी गाड़ी और उसके ईंधन को बनाने से लेकर उसकी कुल आयु तक के प्रभाव को शामिल किया जाता है. इसमें कोई गाड़ी बनाने के लिए कच्चा माल ख़रीदने, उसके प्रसंस्करण, उत्पादन, इस्तेमाल और उपयोग के बाद के विकल्पों, ईंधन ख़रीदने, उसे साफ़ करने, लाने- ले दाने और इस्तेमाल के दौरान होने वाले कार्बन उत्सर्जन को सामिल किया जाता है. इलेक्ट्रिक गाड़ियों के कुल जीवन चक्र के मूल्यांकन (LCA) को अगर, पेट्रोल-डीज़ल वाली गाड़ियों के साथ, या फिर अलग करके तुलना करने का चलन अब बड़े पैमाने पर बढ़ रहा है. हालांकि, जैसे जैसे इस बारे में रिसर्च बढ़ रहा है, तो उनके नतीजों का दायरा भी बढ़ रही है. तमाम रिसर्च के नतीजों में ये फ़र्क़ हर स्टडी के पैमाने में अंतर, चुने गए लक्ष्य, संभावनाओं, मॉडल, व्यापकता, समय चक्र और आंकड़ों के कारण आ रहा है.

ऐसे में विचार का विषय ये है कि क्या नीतियों को किसी ख़ास तकनीक (जैसे कि इलेक्ट्रिक गाड़ियों) का चुनाव करना चाहिए. या फिर, उन्हें कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन कम करने पर ज़ोर देना चाहिए. 

हाल ही में किया गया एक अध्ययन इस नतीजे पर पहुंचा कि इलेक्ट्रिक गाड़ियों की, पेट्रोल-डीज़ल वाली गाड़ियों से होने वाले कार्बन उत्सर्जन की बराबरी करने के लिए इन्हें कम से कम दो लाख किलोमीटर चलाया जाना चाहिए. लिथियम- आयन बैटरियां बनाने में बड़े पैमाने पर लगने वाली ऊर्जा- और इससे होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन और पेट्रोल-डीज़ल गाड़ियों की तुलना में बैटरी से चलने वाली गाड़ियों का वज़न औसतन 50 प्रतिशत ज़्यादा होने का मतलब है कि इन्हें बनाने में ज़्यादा स्टील और एल्युमिनियम भी लगता है. बिक्री से पहले किसी इलेक्ट्रिक गाड़ी में समाहित ये कार्बन, किसी पेट्रोल-डीज़ल वाली गाड़ी की तुलना में 20 से 50 प्रतिशत तक ज़्यादा होता है. आधुनिक लिथियम- आयन बैटरी, लगभग 1 लाख 35 हज़ार किलोमीटर चलती है. जिसके बाद इसका इस्तेमाल कर पाना संभव नहीं होता. अध्ययन के मुताबिक़, जैसे ही किसी इलेक्ट्रिक गाड़ी की बैटरी बदलने की उम्र तक पहुंचती है, तो कार्बन उत्सर्जन के मामले में इलेक्ट्रिक गाड़ी, पेट्रोल- डीज़ल से चलने वाली गाड़ियों के बराबर पहुंच जाती है. अगर ये बात सही है, तो कार्बन उत्सर्जन कम करने में इलेक्ट्रिक गाड़ियों का योगदान संदेह के घेरे में आ जाता है. पेट्रोल- डीज़ल से चलने वाली गाड़ियों के कार्बन उत्सर्जन की बराबरी करने के लिए इलेक्ट्रिक गाड़ियों को कितना चलाया जाना चाहिए, इस पर किए गए अध्ययनों में काफ़ी अंतर पाया गया है. ये फ़र्क़ इलेक्ट्रिक गाड़ियों की बैटरी, किसी पेट्रोल- डीज़ल गाड़ी की ईंधन की खपत और इलेक्ट्रिक गाड़ी चार्ज करने में इस्तेमाल की जाने वाली बिजली में अंतर की वजह से आता है.

ऐसे में विचार का विषय ये है कि क्या नीतियों को किसी ख़ास तकनीक (जैसे कि इलेक्ट्रिक गाड़ियों) का चुनाव करना चाहिए. या फिर, उन्हें कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन कम करने पर ज़ोर देना चाहिए. यहां पर ध्यान देने वाली बात ये है कि पिछले एक दशक के दौरान पेट्रोल- डीज़ल गाड़ियों से होने वाला प्रदूषण कम करने के पैमानों में काफ़ी सुधार हुआ है और भविष्य में भी इनमें और सुधार होने की संभावना है. उदाहरण के लिए यूरो 6 डीज़ल गाड़ियों में कार्बन उत्सर्जन की दर इलेक्ट्रिक गाड़ियों के बराबर ही है. इसके अलावा, पेट्रोल- डीज़ल गाड़ियों की रफ़्तार लाने में कमी और वज़न में हल्के होने से सड़कों पर धूल कम उठती है. इससे टायर और सड़कें भी कम घिसते हैं, जो कि शहरी प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत हैं. दुनिया भर में कुल सौ करोड़ गाड़ियों में से 50 लाख इलेक्ट्रिक गाड़ियों की मौजूदा संख्या, 2040 में कुल 200 करोड़ गाड़ियों में से 30 करोड़ हो जाएगी. इससे तेल की मांग में सालाना दस या बीस लाख बैरल की ही कमी आएगी. वहीं, पेट्रोल- डीज़ल गाड़ियों की कुशलता में सुधार से तेल की मांग में प्रति दिन दो करोड़ बैरल तक की कमी आने की संभावना है. इससे प्रदूषण और कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में बड़े पैमाने पर कमी आ सकती है.

अगर हम बिजली बनाने से होने वाले कार्बन उत्सर्जन को रोकने पर ध्यान न देकर, केवल सड़क परिवहन से कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए इलेक्ट्रिक गाड़ियों को बढ़ावा देने की नीति पर ही ज़ोर देंगे, तो गाड़ियों से निकलने वाला प्रदूषण तो कम हो जाएगा. फिर ये प्रदूषण कोयले से चलने वाले बिजलीघरों या धुआं फेंकने वाले जेनरेटर से होने लगेगा. ऐसे में पहले हमें इलेक्ट्रिक गाड़ियां चार्ज करने का बुनियादी ढांचा विकसित करने पर ज़ोर देना होगा. हालांकि, बिजली बनाने की क्षमता का, अगले पांच साल तक भारत में इलेक्ट्रिक गाड़ियां अपनाने पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है. लेकिन, इलेक्ट्रिक गाड़ियों से बिजली की मांग बढ़ने और ग्रिड प्रबंधन की चुनौतियां बनी रहेंगी. सबसे अहम बात तो ये है कि सरकारी ख़ज़ाने में अहम योगदान देने वाले पेट्रोलियम उत्पादों पर टैक्स को कम करने और उसके विकल्प तलाशने पर ध्यान देने की ज़रूरत है.

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Authors

Akhilesh Sati

Akhilesh Sati

Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Lydia Powell

Lydia Powell

Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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