इस सच्चाई के बारे में सभी लोग वाक़िफ़ हैं कि जलवायु परिवर्तन, ग़रीबी, विकास के मुद्दे और ऋण संकट समेत ज़्यादातर वैश्विक चुनौतियां ग्लोबल साउथ पर विपरीत असर डालती हैं. ज़ाहिर है कि ग्लोबल साउथ विकासशील देशों का एक ऐसा समूह है, जिसकी वैश्विक GDP में 39 प्रतिशत हिस्सेदारी है और जो वैश्विक आबादी के 85 प्रतिशत हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है. स्टिमसन सेंटर की रिपोर्ट एक सच्चाई की ओर स्पष्ट इशारा करती है, जिसके मुताबिक़ खाद्यान्न, ऊर्जा एवं वित्तीय संकट से कम से कम दुनिया के 107 विकासशील देशों को गंभीर ख़तरा है, इन देशों में 1.7 बिलियन लोग निवास करते हैं. इतना सब पता होने के बावज़ूद वैश्विक व्यवस्था और पश्चिम-केंद्रित बहुपक्षीय संस्थान इन वास्तविकताओं को अपनी चिंताओं में शामिल करने और इनका समाधान खोजने में नाक़ाम रहे हैं. जैसा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा, “समाधान की खोज में हमारी भूमिका या आवाज़ का कोई महत्व नहीं है.”
ग्लोबल साउथ विकासशील देशों का एक ऐसा समूह है, जिसकी वैश्विक GDP में 39 प्रतिशत हिस्सेदारी है और जो वैश्विक आबादी के 85 प्रतिशत हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है.
इन सभी असंतुलनों को दुरुस्त करने की कोशिशों के तहत भारत ने ग्लोबल साउथ की चिंताओं और आकांक्षाओं का न केवल समर्थन किया है, बल्कि ग्लोबल साउथ को अपनी G20 अध्यक्षता के केंद्र में भी रखा है. अपनी G20 अध्यक्षता की शुरुआत में ही भारत ने 125 देशों के प्रतिनिधियों के साथ वर्चुअल तरीक़े से वॉयस ऑफ ग्लोबल साउथ समिट की मेजबानी की थी. भारत ने यह भी सुनिश्चित किया था कि इस वर्ष मई में हिरोशिमा में जी7 समिट में भी ग्लोबल साउथ और उसके प्रमुख मुद्दे बैठक के केंद्र में बने रहें.
सुर्खियों में ग्लोबल साउथ
हालांकि, देखा जाए तो ग्लोबल साउथ कई दूसरे अहम कारणों से भी सुर्खियों में रहा है.
यह महज़ संयोग की बात है कि अपनी G20 की अध्यक्षता के दौरान भारत ग्लोबल साउथ रीजन पर विशेष ज़ोर दे रहा है और इसी दौरान रूस-यूक्रेन संघर्ष अपने दूसरे साल में पहुंच चुका है. हालांकि, यह भारत के विचारों की स्पष्टता से प्रकट करता है, रूस-यूक्रेन संघर्ष ने इस सच्चाई को साबित करने का काम किया है. इस युद्ध ने ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ के बीच के वैचारिक मतभेद को सामने लाकर रख दिया है, जिससे लंबे समय से चले आ रहा बुनियादी और दबा-छिपा तनाव एक प्रकार से सतह पर आ गया है.
यूरोपीय देशों द्वारा इस बात की उम्मीद की गई थी दुनिया के ज़्यादातर देश रूस के ख़िलाफ़ एकजुट होंगे, लेकिन हुआ इसका उलट और बड़ी संख्या में देशों ने अलग-अलग पेचीदा वजहों के चलते रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर अपना मिलाजुला रुख अपनाया है. स्पष्ट वास्तविक राजनीतिक जोड़-तोड़ के अलावा, यूरोपीय उपनिवेशवाद के प्रति ऐतिहासिक रूप से ग्लोबल साउथ की विभिन्न शिकायतों और वर्तमान बहुपक्षीय संरचनाओं में ग्लोबल साउथ के प्रतिनिधित्व की कमी ने यूरोप के साथ मतभेदों को बढ़ाने में अपना योगदान दिया है. इस सबका एक ऐसा नतीज़ा सामने आया है, जिसकी उम्मीद नहीं थी. कहने का तात्पर्य यह है कि इसका परिणाम यह सामने आया है कि यूरोप आख़िरकार लंबे समय से उपेक्षित क्षेत्र, अर्थात ग्लोबल साउथ पर अब ज़्यादा ध्यान दे रहा है.
तेज़ी से हो रहे वैश्विक ध्रुवीकरण के दौर में भारत के इन प्रयासों ने G20 को भू-राजनीतिक चिंताओं से पूरी तरह से विलग नहीं होने दिया, बल्कि भारत ने इसके बजाए आर्थिक और अन्य चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित किया है, जो कि इस G20 समूह का सबसे बड़ा मकसद है.
रूस-यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद से ही यूरोप की यह कोशिश रही है कि भारत सख़्त लहज़े में रूस की कड़ी निंदा करे. लेकिन हुआ इसके विपरीत, वैश्विक स्तर पर तेज़ी से अपना प्रभाव बढ़ाने वाले भारत ने दो महत्त्वपूर्ण वैश्विक संगठनों, अर्थात G20 और शंघाई सहयोग संगठन की अपनी अध्यक्षता में अपने नज़रिए को तीन एफ- यानी फूड, फ्यूल और फर्टिलाइजर्स के संकट के माध्यम से पूरी दुनिया के सामने स्पष्ट किया है कि ग्लोबल साउथ पर इस युद्ध का कितना गंभीर असर पड़ रहा है. तेज़ी से हो रहे वैश्विक ध्रुवीकरण के दौर में भारत के इन प्रयासों ने G20 को भू-राजनीतिक चिंताओं से पूरी तरह से विलग नहीं होने दिया, बल्कि भारत ने इसके बजाए आर्थिक और अन्य चुनौतियों पर ध्यान केंद्रित किया है, जो कि इस G20 समूह का सबसे बड़ा मकसद है.
इतना ही नहीं भारत ने यूरोपीय देशों को आत्मनिरीक्षण यानी अपनी कमियों के बारे में सोचने, उनका पता लगाने और उन कमियों को दूर करने पर भी मज़बूर किया है. भारत के विदेश मंत्री डॉ.एस. जयशंकर का एक बयान खूब वायरल हुआ, जिसमें उन्होंने कहा है कि, “यूरोप को इस मानसिकता से बाहर निकलना होगा कि यूरोप की समस्याएं पूरी दुनिया की परेशानियां हैं, लेकिन दुनिया की समस्याएं और मसले यूरोप की समस्याएं नहीं हैं.” विदेश मंत्री जयशंकर के इस बयान की गूंज दूर-दूर तक सुनाई दी. उनके इस बयान की चर्चा सिर्फ़ ग्लोबल साउथ के देशों में ही नहीं, बल्कि यूरोपियन देशों के भीतर भी खूब चर्चा हुई. यह इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि 2023 म्यूनिख सिक्योरिटी कॉन्फ्रेंस में जर्मन चांसलर ओलाफ़ शोल्ज़ द्वारा भी जयशंकर के इस बयान का उल्लेख किया गया. नतीज़तन यूरोपियन गलियारों में इस सच्चाई को लेकर ज़बरदस्त तरीक़े से आत्म-चिंतन का दौर शुरू हो गया और एस. जयशंकर की टिप्पणियों के बाद यह बात उन्हें अच्छे से समझ में आ गई कि अगर यूरोप ग्लोबल साउथ की चुनौतियों के प्रति उदासीन रहता है, तो वह ग्लोबल साउथ से भी किसी समर्थन और समन्वय की उम्मीद नहीं कर सकता है.
यूरोपियन यूनियन की विदेश नीति के प्रमुख जोसेप बोरेल ने मार्च 2023 में नई दिल्ली में आयोजित इस साल के रायसीना डायलॉग और G20 मंत्रिस्तरीय मीटिंग में हिस्सा लेने के बाद लिखा, “यह जानना बेहद दिलचस्प था कि दुनिया भर में हमारे कई गैर-पश्चिमी साझेदार आज के संकट भरे वक़्त में किस प्रकार से सोचते हैं.” बोरेल के ख़ुद के शब्दों में कहा जाए, तो जो कुछ निष्कर्ष वे अपने साथ ब्रुसेल्स लेकर गए थे, उसमें भारत और पूरे ग्लोबल साउथ की महत्वाकांक्षाओं को गंभीरता से लिया जाना, साथ ही बहुपक्षीय मंचों पर ग्लोबल साउथ की इच्छाओं को, उनके अधिकार को सही मायने में स्वीकार किया जाना भी शामिल था. बाद में अपने ब्लॉग में भी बोरेल ने इस विषय पर खुल कर अपनी बात लिखी और इसमें शायद जयशंकर के बयान का संज्ञान लेते हुए उल्लेख किया कि कैसे रूस-यूक्रेन युद्ध पर ग्लोबल साउथ की अनिर्णय की स्थिति यानी किसका समर्थन करें और किसका विरोध करें जैसी ऊहापोह की स्थिति, “एक लिहाज़ से देखा जाए तो यह इसी तरह के दूसरे बड़े वैश्विक मुद्दों को प्रमुखता नहीं दिए जाने और संसाधन उपलब्ध नहीं कराए जाने के दोहरे मापदंडों और उससे उपजी हताशा से प्रेरित है.”
एक उभरती अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था
वास्तविकता में देखा जाए तो ग्लोबल साउथ में उभरती ताक़तों के उदय को तेज़ी के साथ प्रतिबिंबित करने के लिए एक नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था बनती हुई दिखाई दे रही है. वर्तमान G20 की तिकड़ी में इंडोनेशिया, भारत और ब्राज़ील शामिल हैं, जिसमें बाद में वर्ष 2025 में दक्षिण अफ्रीका भी शामिल हो जाएगा. जैसा कि फॉरेन पॉलिसी (Foreign Policy) के प्रधान संपादक रवि अग्रवाल ने ज़ोर देकर कहा है कि वर्ष 2023 की वैश्विक राजनीति का सबसे महत्त्वपूर्ण रुझान ग्लोबल साउथ का बढ़ता दबदबा है. यूरोप ने ग्लोबल साउथ की चिंताओं और मुद्दों पर अगर अभी भी ध्यान नहीं दिया, तो हो सकता है कि वह एक और आसन्न संकट को लेकर अपनी आंखें मूंदे हुए है.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि ग्लोबल साउथ के अनुभवों एवं चुनौतियों के बारे में भारत की बेबाक एवं दृढ़ अभिव्यक्ति ने यूरोप की सोच में देर से ही, लेकिन ज़रूरी परिवर्तन लाने में अहम योगदान दिया है.
ग्लोबल साउथ की आवाज़ को ज़ोर-शोर के साथ उठाकर भारत ने न केवल अपनी बात को पूरी दुनिया के समक्ष रखा है, बल्कि एक युवा, तेज़ी से उभरते लेकिन कमज़ोर क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले कई अन्य देशों की ओर से भी पैरोकारी की है. अफ्रीकन यूनियन को G20 के एक पूर्ण सदस्य के रूप में शामिल करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा डाला जा रहा दबाव इस बात का स्पष्ट सबूत है. इसको लेकर दिया गया तर्क भी देखा जाए तो वैचारिक रूप से सही है कि अगर 450 मिलियन से कम आबादी वाला यूरोपियन यूनियन G20 का सदस्य हो सकता है, तो फिर 1.3 बिलियन से अधिक आबादी वाला अफ्रीकन यूनियन G20 का सदस्य क्यों नहीं बन सकता है?
यूरोप की बात की जाए, तो ग्लोबल साउथ में नैरेटिव्स की लड़ाई जीतने के लिए यूरोप की ओर की जा रही जद्दोजहद ने इस रीजन के साथ यूरोप की संलग्नता को लेकर कहीं न कहीं एक बार फिर नए सिरे से विचार करने के लिए प्रेरित किया है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि ग्लोबल साउथ के अनुभवों एवं चुनौतियों के बारे में भारत की बेबाक एवं दृढ़ अभिव्यक्ति ने यूरोप की सोच में देर से ही, लेकिन ज़रूरी परिवर्तन लाने में अहम योगदान दिया है.
ज़ाहिर है कि मौज़ूदा दौर में ग्लोबल साउथ के देशों के साथ यूरोप के संबंध एक महत्त्वपूर्ण मोड़ पर हैं. अधिक बराबरी एवं कम दयालुता वाले नज़रिए के माध्यम से यूरोप धीरे-धीरे और मज़बूती के साथ लगातार एशिया, अफ्रीका एवं लैटिन अमेरिका के प्रति अपनी कूटनीतिक पहुंच को बढ़ाने में जुटा हुआ है. उल्लेखनीय है कि कम से कम कुछ हद तक तो नई दिल्ली को इस बदलाव के लिए श्रेय दिया जा सकता है. यूरोप की सोच में आया यह परिवर्तन वैश्विक गतिशीलता को निर्धारित करने के भारत के सामर्थ्य के साथ-साथ एक आत्मविश्वास से लबरेज़ एक उभरती ताक़त के रूप में उसकी सशक्त भूमिका का एक सबसे सटीक प्रमाण है.
शायरी मल्होत्रा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में एसोसिएट फेलो हैं.
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