Published on Sep 26, 2023 Updated 0 Hours ago

गरीबी का चेहरा हर राज्य में अलग-अलग हो जाता है. निगरानी रखने वाली व्यवस्था इतनी लचीली होनी चाहिए कि वो गरीबों का पता लगा सकें और अभाव की परेशानी का इंतज़ाम करने के लिए लक्ष्य आधारित योजनाएं बना सकें. 

भारत में ‘गरीबी’ का खाका खींचना!

बहुआयामी गरीबी (मल्टीडाइमेंशनल पोवर्टी) (2019-21) पर नीति आयोग की रिपोर्ट को प्रकाशित करके सरकार ने अच्छा किया. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 2015-16 के लगभग 24.85 प्रतिशत की तुलना में 2019-21 में गरीबों की संख्या घटकर 14.96 प्रतिशत हो गई है. इस तरह पहले के सर्वे के मुकाबले गरीबों की संख्या में अच्छी गिरावट आई है. दोनों सर्वे संबंधित वर्ष के लिए स्टैंडर्डाइज़्ड नेशनल हेल्थ स्टेटस (NHS) रिपोर्ट के दौरान इकट्ठा किए गए डेटा पर आधारित हैं. 

ये बात सच है कि नौजवान लोगों की आबादी में विस्तार देश के लिए एक संपत्ति की तरह है, ये ऐसी स्थिति है जिसे चीन फिर से दोहराने के लिए काफी कोशिशें कर रहा है. लेकिन युवा लोगों के पास काम भी होना चाहिए.

इस रिपोर्ट को नीति आयोग ने ऑक्सफोर्ड पोवर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिएटिव और UNDP के तकनीक़ी सहयोग से तैयार किया है. इसमें गरीबी की स्थिति का विस्तृत राज्य-स्तरीय विश्लेषण किया गया है जो कि तारीफ के लायक है और अगर गरीबी के हालात को संभालना है तो ये रिपोर्ट प्रासंगिक ज़मीनी स्तर की पहल की आवश्यकता के इर्द-गिर्द सोच को जगाती है. 

गरीबी का प्रबंधन: अनंत चुनौती

कुछ मायनों में ये काम वैश्विक विस्तार के तेज़ वर्षों (1980 से 2007) की तुलना में अब और भी अधिक चुनौतीपूर्ण है. विशाल जनसंख्या और लोअर मिडिल-लेवल प्रति व्यक्ति आमदनी के साथ भारत जैसी अर्थव्यवस्थाएं गरीबी के अनुपात को और कम करने के लिए आवश्यक खर्च मुहैया कराने के मामले में तंगहाल हो सकती हैं. 

तथ्य ये है कि गरीबी कभी ख़त्म नहीं होती. बस इसका रूप बदल जाता है. गरीबी को परिभाषित करने का कोई एक खाका नहीं है. ये ऐसा सबक है जिसे भारत को ज़रूर स्वीकार कर लेना चाहिए क्योंकि प्रति व्यक्ति आमदनी लोअर मिडिल लेवल से आगे बढ़ती है.

2050 तक भारत की आबादी 2022 के 141.2 करोड़ से लगभग 25 करोड़ बढ़कर 166.2 करोड़ होने का अनुमान है. इस तरह दुनिया की “सबसे ज़्यादा आबादी वाले देश का हमारा तमगा” और मज़बूत होगा. ये बात सच है कि नौजवान लोगों की आबादी में विस्तार देश के लिए एक संपत्ति की तरह है, ये ऐसी स्थिति है जिसे चीन फिर से दोहराने के लिए काफी कोशिशें कर रहा है. लेकिन युवा लोगों के पास काम भी होना चाहिए. काम-काज के भविष्य को लेकर अनिश्चितताएं खड़ी हो गई हैं. तकनीक़ की प्रगति, ऑटोमेशन, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और काम-काजी जीवन का विस्तार करने के लिए बायोनिक्स, प्रोडक्टिव वैश्विक नौकरियों में बढ़ोतरी को थाम सकते हैं और इस तरह लोगों की आमदनी जोख़िम में पड़ सकती है. 

गरीबों की पहचान

नीति आयोग की रिपोर्ट प्रासंगिक ढंग से गरीबों की पहचान करने के लिए एक लचीला औज़ार पेश करने और नुकसान की तीव्रता का आकलन करने में भविष्यदर्शी है. ये गरीबी का प्रतिनिधित्व करने वाले 12 सूचकों (इंडिकेटर) के मामले में परिवारों के स्कोर की पहचान करने के लिए NHS 4 और NHS 5 के आंकड़ों का इस्तेमाल करती है जिसे नीचे की तालिका में दिखाया गया है. हर सूचक के लिए स्कोर बायनेरी बेसिस पर है- अगर इंडिकेटर में परिवार वंचित है तो स्कोर 1 और अगर नहीं है तो 0. इस तरह अगर कोई परिवार खाना बनाने के लिए कोयला या बायोमास या कृषि अवशेषों का इस्तेमाल नहीं करता है तो उसका स्कोर 0 है और अगर कोई परिवार इन ईंधनों का इस्तेमाल करता है तो उसका स्कोर 1 है क्योंकि इन खाना बनाने वाले ईंधनों का उपयोग गरीबी के बारे में बताता है. इसी तरह अगर किसी परिवार तक ग्रिड इलेक्ट्रिसिटी आती है तो स्कोर 0 और अगर नहीं आती है तो उसका स्कोर 1. 

संकेतकों को मज़बूत बनाने से बदलाव के मुताबिक ढलने में डिज़ाइन ज़्यादा लचीला बनता है 

गरीबी से प्रेरित अभाव को लेकर उनकी प्रासंगिकता के आधार पर उनमें भेद करने के लिए हर इंडिकेटर के साथ एक वज़न जुड़ा हुआ है. मिसाल के तौर पर, सबसे ज़्यादा भार (0.17) शिक्षा के लिए दोनों सूचकों को दिया गया है. इसके बाद भार (0.11) स्वास्थ्य से जुड़े तीनों इंडिकेटर को दिया गया है और सबसे कम भार (0.05) जीवन की गुणवत्ता (क्वॉलिटी ऑफ लाइफ) के सातों इंडिकेटर को दिया गया है. प्रत्येक पहलू (स्वास्थ्य, शिक्षा और क्वॉलिटी ऑफ लाइफ) का एक समान 33.33 प्रतिशत भार है. हर पहलू के तहत सूचकों की अलग-अलग संख्या इंडिकेटर में भार में अंतर के बारे में बताती है. ये समझदारी और सहज ज्ञान से युक्त है. खाना बनाने के लिए आधुनिक ईंधन का इस्तेमाल या अलग शौचालय होना निश्चित रूप से आपके बच्चों की शिक्षा या स्वास्थ्य सेवाओं तक आपकी पहुंच की तुलना में गरीबी का कम सूचक है. 

MDPI गरीबी ख़त्म करने के मकसद से बनाए गए सरकारी कार्यक्रमों के नतीजों पर नज़र रखने का एक अच्छा तरीका है. लेकिन इस बात पर हैरानी होती है कि गरीबी की प्रवृत्ति को समझने के लिए 12 अलग-अलग इंडिकेटर पर निगरानी रखने के काम की कठिनाई क्या ज़रूरी है.

प्रत्येक सूचक के मामले में हर परिवार के स्कोर (1 या 0) को प्रत्येक इंडिकेटर के परिभाषित भार (0.17, 0.11 या 0.5) से एडजस्ट किया जाता है. फिर हर इंडिकेटर के स्कोर को प्रत्येक परिवार के लिए सभी 12 इंडिकेटर में इकट्ठा किया जाता है. अगर कोई परिवार हर इंडिकेटर के मामले में क्वॉलिफाई करता है तो वो 100 प्रतिशत अभाव का स्कोर करेगा. लेकिन गरीबों को परिभाषित करने के लिए 33 प्रतिशत या उससे ज़्यादा की निचली सीमा को लागू किया जाता है. क्या तब हम कुछ गैर-गरीबों को सांख्यिकी के स्तर पर शामिल करने की अनुमति देकर गरीबी का ज़्यादा अनुमान लगाते हैं?

ये पद्धति कुछ गरीबों को बाहर करने के जोख़िम पर सांख्यिकी के मामले में सख्त होने के बदले समावेशी होने की दिशा में कोशिश करती है. गरीबों को सब्सिडी वाला खाद्य मिलने के मामले में आधार के एकमात्र जांच-पड़ताल का बिंदु बनने के बारे में हंगामा इस बात को उजागर करता है कि गलत पहचान के स्वीकार्य स्तर के साथ समावेशिता (इन्क्लूज़िविटी) गरीबी कम करने के कार्यक्रमों में आगे बढ़ने का व्यावहारिक रास्ता है. 

ये पद्धति उतनी सख्त़ नहीं है जितनी “यूनियन” पद्धति जिसके लिए गरीबों को सभी इंडिकेटर में क्वॉलिफाई करने की आवश्यकता होती है और जिसकी वजह से गरीबी का कम आकलन करने का रिस्क पैदा होता है. साथ ही ये उतनी उदार भी नहीं है जितनी “इंटरसेक्शन” पद्धति जिसके लिए गरीबों को सिर्फ़ किसी भी एक इंडिकेटर में क्वॉलिफाई करने की आवश्यकता होती है और जिसका नतीजा गरीबी के बहुत ज़्यादा अनुमान में निकलता है. 

अल्काइर-फोस्टर पद्धति ये मानती है कि गरीबी प्रासंगिक है और गरीबी ख़त्म करने की बाधाएं अलग-अलग अधिकार क्षेत्रों में भिन्न हो सकती हैं. ये गरीबी समाप्त करने में प्रासंगिक प्राथमिकताओं को शामिल करने की अनुमति देती है. लेकिन तथ्य ये है कि गरीबी कभी ख़त्म नहीं होती. बस इसका रूप बदल जाता है. गरीबी को परिभाषित करने का कोई एक खाका नहीं है. ये ऐसा सबक है जिसे भारत को ज़रूर स्वीकार कर लेना चाहिए क्योंकि प्रति व्यक्ति आमदनी लोअर मिडिल लेवल से आगे बढ़ती है. गरीबी का चेहरा अलग-अलग राज्यों में बदल जाता है और निगरानी रखने वाली व्यवस्था इतनी लचीली होनी चाहिए कि वो गरीबों का पता लगा सकें, अभाव की सीमा का आकलन कर सके और इसे दूर करने के लिए लक्ष्य आधारित योजनाएं बना सकें. 

कोई तुलना नहीं?

कुछ मुद्दों का जवाब नहीं मिल सका है. पहला, ये साफ नहीं है कि 14.96 प्रतिशत ग़रीब परिवार की गिनती कैसे की गई. तालिका से पता चलता है कि 12 इंडिकेटर में से हर इंडिकेटर के लिए राष्ट्रीय जनसंख्या के अनुपात के रूप में ग़रीब परिवार 1 से 12 प्रतिशत के बीच में हैं. हम ये भी जानते हैं कि ग़रीब परिवार के तौर पर क्वॉलिफाई करने के लिए सभी इंडिकेटर में कुल स्कोर कम-से-कम 33 प्रतिशत होना चाहिए. इसलिए परिवारों को 33 प्रतिशत के औसत स्कोर तक पहुंचने के लिए कई इंडिकेटर और आयाम में क्वॉलिफाई करना होगा या तीन आयामों- जिनमें से प्रत्येक का भार 33.33 प्रतिशत है- में से किसी एक में सभी इंडिकेटर में क्वॉलिफाई करना होगा. ये स्पष्ट नहीं है कि 1 से लेकर 12 तक के नंबर की सीरीज़ का औसत 14.96 कैसे हो सकता है.   

दूसरा, अभी तक गरीबों की कुल संख्या को आबादी में ग़रीब व्यक्ति के अनुपात के रूप में बताया जाता रहा है. MDPI पद्धति व्यक्तियों के बदले परिवार को स्कोर देती है. एक परिवार के सभी सदस्यों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति एक समान मानी जाती है. लेकिन तब ये नतीजा गरीबी पर अब तक किए गए सर्वे के मुताबिक कैसे होगा? अमीर परिवारों की तुलना में ग़रीब परिवार में ज़्यादा सदस्य होते हैं. अगर 20 प्रतिशत के अंतर को मान लिया जाए (हर ग़रीब परिवार में 5 व्यक्ति और अन्य परिवारों में 4 व्यक्ति) तो ग़रीब लोगों की संख्या 18 प्रतिशत होगी, न कि 15 प्रतिशत जिसका पता मौजूदा सर्वे में चला है. साथ ही, गरीबी का अनुमान लगाने में पहले के सर्वे सिर्फ़ खपत के आंकड़े- एक “यूनियन” नज़रिया- पर आधारित थे. स्टैटिसटीशियन (सांख्यिकीविदों) को इन अलग-अलग डेटा सेट में गरीबी के रुझान की दीर्घकालीन तुलना को आसान बनाने के लिए एक डेटा ब्रिज डिज़ाइन करने की ज़रूरत होगी. 

गरीबी घटाने की रणनीति कितना अच्छा काम कर रही है? 

स्वास्थ्य और शिक्षा में ज़्यादा मदद की ज़रूरत वाले लोगों में गरीबों की संख्या बहुत अधिक है. स्कूली शिक्षा के लिए निर्धारित न्यूनतम मानदंडों को पूरा नहीं करने वाले परिवारों में 62 प्रतिशत जबकि स्वास्थ्य समर्थन का न्यूनतम स्तर हासिल नहीं करने वाले परिवारों में 43 प्रतिशत ग़रीब हैं. प्रशासन की इन दोनों नाकामियों का जीवन की गुणवत्ता और भविष्य की पीढ़ियों की क्वॉलिटी पर दीर्घकालीन असर है. ये ऐसी कमी है जिसे भारत उस वक्त किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं कर सकता है जब आर्थिक सफलता के लिए हुनरमंद और प्रतिस्पर्धी वर्कफोर्स की सप्लाई सबसे प्रमुख सिद्धांत है. 

“क्वॉलिटी ऑफ लाइफ” पहलू के तहत बिजली हासिल करने के मामले में ग़रीब सबसे नुकसान की स्थिति में दिखाई देते हैं (जिन परिवारों में बिजली नहीं है, उनमें गरीबों का हिस्सा 56 प्रतिशत है). ये ज़मीनी स्तर पर विद्युतीकरण पर सवाल उठाता है क्योंकि लगभग 90 लाख परिवारों तक अभी भी बिजली नहीं पहुंची है जिनमें से करीब दो-तिहाई ग़रीब हैं. “संपत्ति” इंडिकेटर के तहत 47 प्रतिशत के पास टेलीफोन, रेडियो, टीवी, रेफ्रिजरेटर, कंप्यूटर, पशु गाड़ी, साइकिल, मोटरसाइकिल या कार में से एक भी संपत्ति नहीं है. डिजिटल हेल्थ उस समय तक अमीरों का कार्यक्रम बना रहेगा जब तक 2.80 करोड़ परिवारों के पास फोन तक नहीं होगा और इनमें से आधे ग़रीब हैं. 

MDPI गरीबी ख़त्म करने के मकसद से बनाए गए सरकारी कार्यक्रमों के नतीजों पर नज़र रखने का एक अच्छा तरीका है. लेकिन इस बात पर हैरानी होती है कि गरीबी की प्रवृत्ति को समझने के लिए 12 अलग-अलग इंडिकेटर पर निगरानी रखने के काम की कठिनाई क्या ज़रूरी है. गरीबी के प्रतिनिधित्व के तौर पर NSSO के खपत स्तर का इस्तेमाल करने की पुरानी पद्धति का अभी भी आकर्षण है. 

MDPI दृष्टिकोण के तहत बहुत ज़्यादा इस बात पर निर्भर करता है कि कितनी कुशलता के साथ सरकार लक्ष्य बनाकर समर्थन मुहैया कराती है, यहां तक कि निजी चीज़ों जैसे कि कंज़्यूमर ड्यूरेबल, हाउसिंग और अन्य के मामलों में भी. मेरिट गुड्स (जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, कल्याणकारी सेवाएं, इत्यादि) को लोगों तक पहुंचाना और उनकी क्वॉलिटी पर नज़र रखना मुश्किल है. ये मेरिट गुड्स के लिए अयोग्य इंडिकेटर, जैसे कि ज्ञात एफ्लुएंट डिस्चार्ज के बिना फ्लश शौचालय (भले ही ये पानी के स्रोत में प्रवाहित हो), के पिछले दरवाजे से प्रवेश को भी प्रोत्साहन देता है. “स्वच्छता” के तहत फ्लश शौचालय का होना गरीबी के टैग को हटाता है. 

सरकार गरीबों को मुफ्त में मेरिट गुड्स मुहैया करा के जल्दी से उनकी मुसीबत को दूर करना चाहती है. ऐसा करते हुए वो उनकी गरिमा भी छीन लेती है. मुश्किल समय में दान देना एक ज़रूरत है. लेकिन इसे जीवन जीने के स्वीकार्य तरीके के रूप में संस्थागत रूप देना ख़ुद को पराजित करने की तरह है.


संजीव अहलूवालिया ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सलाहकार हैं.

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