Author : Tanoubi Ngangom

Published on Apr 16, 2018 Updated 0 Hours ago

चीन की विकास संबंधी कूटनीति न सिर्फ वित्त के वैकल्पिक स्रोत प्रस्तुत करती है, बल्कि एक ऐसा मॉडल भी पेश करती है, जो परम्परागत सहायता की प्रमुख आलोचनाओं से ऊपर उठता प्रतीत होता है। हालांकि, सत्ता के ऐसे संबंध शायद ही कभी सपाट होते हों, इतना हीं नहीं, अक्सर इनके महत्वपूर्ण भूराजनीतिक निहितार्थ भी होते हैं।

विकास सम्बन्धी कूटनीति और चीन का फायदा

यह लेख The China Chronicles श्रृंखला का 53 वीं हिस्सा है।


सैन्य ताकत और आर्थिक नियन्त्रण परम्परागत रूप से भूराजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का मुख्य साधन रहे हैं और सॉफ्ट पावर इसमें सहायता प्रदान करती रही है। समकालीन भूराजनीति में यह पहली बार है, जब हम इस स्वीकृत नियम को औंधे मुंह गिरते देखने के गवाह बने हैं। चीन का अनुभव इसका क्लासिक उदाहरण है — जहां, कई मामलों में, हमने चीन की अधिपत्य जमाने की महत्वाकांक्षाओं को मजबूत बनाने में उसकी विकास संबंधी कूटनीति को मुख्य भूमिका अख्तियार करते देखा है। चीन का आचरण न सिर्फ भूराजनीति बल्कि वैश्विक विकास की स्थापित समझ के प्रति भी संदेह जगाता है।

वैश्विक विकास का क्षेत्र तेजी से ऐसा कार्यक्षेत्र बनता जा रहा है, जहां भूरणनीतिक तनाव कमजोर पड़ते जाएंगे। यूं तो अब समय भूराजनीति के व्यापक अध्ययन में विकास के लिए दिये जाने वाले सहयोग पर गंभीर रूप से विचार करने आ चुका है।

आकर्षण और विश्वास पर आधारित सॉफ्ट पावर को अक्सर सशक्त सैन्य और राजनीतिक बल यानी — हार्ड पावर के विपरीत समझा जाता रहा है। जैसा कि जोसेफ निये जूनियर की दलील है कि कूटनीति और आर्थिक सहायता कार्यक्रमों में आमतौर पर पर्याप्त धन नहीं होता, क्योंकि उनके तत्काल परिणाम कभी-कभार ही नजर आते हैं। अमेरिका को ही लीजिए — जिसका समस्त भौगोलिक समूहों पर सबसे ज्यादा सामरिक प्रभाव है — विदेशी सहायता का अंश अमेरिका के संघीय बजट के एक प्रतिशत से भी कम है। इसके अलावा, जब भी बजट में कटौती की नौबत आती है, तो पहली गाज सहायता पर ही गिरती है, जिससे यह धारणा बनती है कि विकास संबंधी सहायता उतनी जरूरी नहीं है, विशेषकर तब,जब उसकी तुलना सैन्य खर्च से हो। इसके बावजूद, यह विकास संबंधी कूटनीति ही है, जो चीन के लिए विदेशों में अपने हितों की रक्षा की दृष्टि से फायदेमंद रही है।

आकर्षण और विश्वास पर आधारित सॉफ्ट पावर को अक्सर सशक्त सैन्य और राजनीतिक बल यानी — हार्ड पावर के विपरीत समझा जाता रहा है।

चीन का विकास संबंधी सहायता का मॉडल — अन्य उभरतीय अर्थव्यवस्थाओं की ही तरह दो बुनियादी आधारों पर टिका है — जिन्हें विदेशी सहायता संबंधी दो श्वेत पत्रों में व्यक्त किया गया है। पहला, यह हस्तक्षेप न करने तथा साझेदार देशों के सम्प्रभुता के ​अधिकारों के सम्मान पर जोर देता है। स्पष्ट तौर पर परम्परागत सहायता प्रदाताओं, विशेषकर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक द्वारा तय की गई विवादास्पद शर्तों के विपरीत — चीन का विकास संबंधी दृष्टिकोण सहायता प्राप्त करने वाले देशों को उनकी जरूरतों के मुताबिक स्वतंत्र रूप से अपनी वृद्धि और विकास का मार्ग चुनने का साधन प्रदान करता है। दूसरा, चीन की विकास संबंधी सहायता में दोनों पक्षों के लिए लाभकारी सिद्धांत का अनुसरण किया जाता है। खुद को अब तक अपनी ही घरेलू चुनौतियों से जूझने वाला देश मानने वाले चीन की आर्थिक सहायता — दूसरे देश को विकास के फायदे दिलाने के साथ ही साथ उसके स्वयं के लिए भी लाभकारी होनी चाहिए। दोनों पक्षों को लाभ पहुंचाने वाला यह सिद्धांत अपने साथ एक अन्य पहलु समान साझेदारी और समान शक्ति सक्रियता की धारणा को भी लाता है। इसलिए, चीन की विकास संबंधी कूटनीति न सिर्फ वित्त के वैकल्पिक स्रोत प्रस्तुत करती है, बल्कि एक ऐसा मॉडल भी पेश करती है, जो परम्परागत सहायता की प्रमुख आलोचनाओं से ऊपर उठता प्रतीत होता है। हालांकि, सत्ता के ऐसे संबंध शायद ही कभी सपाट होते हों, इतना हीं नहीं, अक्सर इनके महत्वपूर्ण भूराजनीतिक निहितार्थ भी होते हैं।

यूं तो, चीन की विकास संबंधी कूटनीति से जुड़े कार्यक्रम के पीछे की प्रेरणा-श्वेत पत्रों में बतायी गई वजहों के अलावा — को समझना नामुमकिन है — लेकिन इस विकास संबंधी सहायता ने चीन को व्यापक रणनीतिक ​फायदे दिलाए हैं। अफ्रीका महाद्वीप के साथ चीन की साझेदारी ऐसे बहुत से उदाहरण प्रस्तुत करती है। चीन ने पीपुल्स बैंक ऑफ चायना, चायना डेवेलपमेंट, एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट बैंक ऑफ चायना और चायना-अफ्रीका डेवलेपमेंट फंड के जरिए निवेश और ऋण के रूप में अफ्रीका को पर्याप्त मात्रा में सहायता दी है। एसएआईएस-सीएआरआई की गणना के अनुसार, 2000-2014 की अवधि में चीन ने अफ्रीका को 86 बिलियन डॉलर की सहायता उपलब्ध कराई। इस राशि का बहुत सा भाग संसाधनों की दृष्टि से समृद्ध अंगोला, डेमोक्रेटि​क रिपब्लिक ऑफ कांगो और सूडान जैसे देशों को गया। आज, अफ्रीका, चीन को कच्चे तेल का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है। सबसे महत्वपूर्ण बात हालांकि यह है कि अफ्रीका में चीन की सैन्य मौजूदगी बढ़ती जा रही है। अफ्रीका में चलाए जा रहे शांति मिशनों में चीन के सैन्य कर्मियों की संख्या में तेजी से वृद्धि देखी गई है — काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन्स के अनुसार, इस तरह के छह मिशनों में चीन की ओर से 2,500 से ज्यादा सैनिकों और विशेषज्ञों का योगदान दिया गया। इतना ही नहीं, 2015 में चीन ने अफ्रीकी संघ को 100 मिलियन डॉलर की सैन्य सहायता देने का वादा किया; और चीन का पहला विदेशी नौसैनिक अड्डा हाल ही में जिबूती में बनाया गया है।

चीन ने पीपुल्स बैंक ऑफ चायनाचायना डेवेलपमेंटएक्सपोर्ट-इम्पोर्ट बैंक ऑफ चायना और चायना-अफ्रीका डेवलेपमेंट फंड के जरिए निवेश और ऋण के रूप में अफ्रीका को पर्याप्त मात्रा में सहायता दी है।

एशिया में भी ऐसी कई मिसाले मौजूद हैं। सबसे ताजातरीन और विवादास्पद मामला श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाह का है। 2010 में, चीन ने हम्बनटोटा बंदरगाह के निर्माण के लिए 1.5 बिलियन डॉलर का कर्ज दिया था — इस परियोजना को शुरुआत से ही बहुतों ने आर्थिक तौर पर लाभदायक नहीं माना । इस कर्ज और अन्य बहुत सी अन्य ढांचागत परियोजनाओं को दिए गए कर्ज को मिलाकर यह राशि बहुत ज्यादा हो गई। इसके बाद का घटनाक्रम संतोषजनक रहा — श्रीलंका ने हम्बनटोटो बंदरगाह के लिए चीन की सरकारी कम्पनियों के सा​थ 99 साल की लीज़ पर हस्ताक्षर किए। चीन की वित्तीय सहायता वाली अन्य ढांचागत परियोजनाओं के लिए भी यह चेतावनी की तरह है — उदाहरण के तौर पर, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के बहुत से खंडों से कोई बड़ा वाणिज्यिक लाभ होने की संभावना नहीं है। इसके अलावा, चीन ने रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह के निर्माण में निवेश किया है; उसने मलक्का जलडमरूमध्य यानी स्ट्रेट्स ऑफ मलक्का में डीप सी पोर्ट बनाने के लिए 7.2 बिलियन की राशि देने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है तथा मालदीव में अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का निर्माण करने के लिए समझौता किया है।

इस प्रकार, किसी देश की विकास संबंधी नीति और आर्थिक सहायता कार्यक्रम का उद्देश्य दुनिया भर में साख बनाने से कहीं बढ़कर हो सकता है। दरअसल, इस तरह की कूटनीति किसी संशोधनवादी ताकत द्वारा अपनी भूराजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का विस्तार करने का साधन बन सकती है। इसके परिणामस्वरूप, सॉफ्ट पावर में मौजूद विकास संबंधी कूटनीति का परम्परागत वर्गीकरण अब प्रचलन में नहीं है। इसके मद्देनजर, क्या अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सॉफ्ट पावर के अध्ययन में ऐसे संशोधन किए जाने की जरूरत हैं, ताकि वर्तमान भूराजनीतिक वास्तविकताओं का प्रतिबिम्ब पेश कर सके? दूसरा, क्या विकास और भूराजनीतिक स्थायित्व के अनुकूल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत मानदंडों का प्रारूप तैयार करने के लिए क्या ​विकास के लिए परम्परागत सहायता प्रदाता देशों और नए सहायता प्रदाता देशों के मतभेदों को तत्काल दूर किए जाने की जरूरत है? अंत में, क्या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नियमविरोधी बनने का खतरा, आत्मविश्वास से भरे चीन को ऐसे मानदंड संबंधी प्रारूप के दायरे में रखने के लिए पर्याप्त होगा?

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