Published on Oct 05, 2021 Updated 0 Hours ago

प्रवासियों तक सरकार के सामाजिक और कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप करने होंगे.

भारत के प्रवासी कामगारों के प्रति सरकारों को समावेशी दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत!

कोविड-19 महामारी प्रवासी कामगारों के लिए ऐसी तकलीफ़ें लेकर आई जिसकी पहले किसी ने कल्पना तक नहीं की थी. प्रवासी श्रमिक आम तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. पिछले साल कोविड-19 के प्रसार को रोकने के लिए अचानक लॉकडाउन का एलान कर दिया गया. उस वक़्त बगैर किसी सामाजिक-आर्थिक और स्वास्थ्य सुरक्षा के ये प्रवासी मज़दूर उन शहरों में अटक गए जहां ये काम पर लगे हुए थे. हालात ऐसे बन गए थे कि वो अपने गांवों को लौट नहीं पा रहे थे.  कोविड-19 के डर के बीच परिवहन सुविधाओं के अभाव, भुखमरी और तंगी की आशंकाओं, सामाजिक भेदभावों, प्रशासन के प्रतिकूल बर्तावों जैसी चुनौतियों के बीच हताश बदहाल ये लोग पैदल ही सैकड़ों मील दूर अपने गांव की ओर निकल पड़े. सड़कों पर पैदल चलते ऐसे हज़ारों-लाखों कामगारों की तस्वीरों ने उनके नाज़ुक हालात को सबके सामने लाकर खड़ा कर दिया. 

बाद में देर से ही  सही पर केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से इनके लिए कई राहत उपायों की घोषणा की गई. इनमें मुफ़्त अनाज, अस्थायी निवास स्थान और परिवहन सुविधाओं के इंतज़ाम शामिल है. हालांकि, अच्छे इरादों के साथ शुरू की गई इन कल्याणकारी योजनाओं में खामियां भरी पड़ी थीं. उनको अमल में लाने को लेकर भी कई तरह की कमियां सामने आईं. नतीजतन ज़रूरतमंद प्रवासियों का एक बड़ा तबका इन राहत सुविधाओं से महरूम रह गया. कई अध्ययनों से भी ये बात उभरकर सामने आई है. 

दूसरी लहर की चुनौतियां

इस साल की शुरुआत में भारत में कोविड-19 की दूसरी जानलेवा लहर की मार पड़ी. इसने कई राज्यों को एक बार फिर लॉकडाउन का सहारा लेने पर मजबूर कर दिया. इससे आर्थिक गतिविधियां डांवाडोल हो गईं. 2020  से ही तंगहाली झेल  रहे आर्थिक प्रवासियों के सामने दोबारा आजीविका और स्वास्थ्य का संकट खड़ा हो गया. इन प्रवासियों में से एक बड़े तबके ने कुछ अर्सा पहले ही पहली लहर के झटके से उबरना शुरू किया था. कइयों ने तो बड़े शहरों में बस अपना काम शुरू ही किया था.

प्रवासी मज़दूरों की इन असुरक्षाओं को पैदा करने वाले बड़े कारक हैं- आर्थिक और खाद्यान्न की असुरक्षा, जीवनयापन के कठिन हालात, स्वास्थ्य से जुड़े ख़तरे और सामाजिक भेदभाव. राजनीतिक तौर पर भी उन्हें अलग-थलग कर दिया जाता है. ऐसे में इन मज़दूरों की हालत लगातार दयनीय बनी रहती है. 

दूसरी लहर में ग़रीब प्रवासी मज़दूरों की हालत और ख़राब हो गई. पहली बात ये कि ये प्रवासी कामगार बेहद कम मेहनताने  पर काम करते हैं. पिछले साल  कोरोना की पहली लहर के  चलते अचानक महीनों तक रोज़गार छिन जाने, वापस घर लौटने और वहां  अपने परिवार का पालन-पोषण करने में उनकी सारी जमापूंजी ख़त्म हो चुकी थी. ऐसे प्रतिकूल हालात में कोरोना की दूसरी लहर ने उनकी कमर तोड़ डाली. दूसरा, पहली लहर के दौरान देशव्यापी लॉकडाउन के चलते इन प्रवासियों की दुर्दशा की ओर पूरे देश का ध्यान गया था, लेकिन दूसरी लहर में ऐसा राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन नहीं लगाया गया. ऐसे में उनकी पीड़ा की चर्चा बेहद सीमित रही. हालांकि, दूसरी लहर के बीच कई राज्यों ने लंबे अर्से तक लॉकडाउन जारी रखा. इसके चलते अपनी आजीविका को लेकर इन  प्रवासियों को और भी ज़्यादा नुकसान झेलना पड़ा. राज्यों के बीच यातायात पर लागू तमाम पाबंदियों के चलते उन्हें वापस अपने गांव  लौटने में भी भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा. तीसरा, पहली लहर के उलट दूसरी लहर में ग्रामीण इलाक़ों में कोरोना संक्रमण तेज़ी से फैला. लिहाज़ा इन मज़दूरों के लौटकर गांव जाने के रास्ते में भी भारी रुकावटें खड़ी हो गईं. चौथा, कोरोना के मामलों में कई गुणा बढ़ोतरी होने के चलते आर्थिक असुरक्षा के  साथ-साथ नाज़ुक हालात वाले प्रवासी मज़दूरों के सामने स्वास्थ्य के मोर्चे पर भी बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया. सरकारी आश्वासनों, न्यायिक दिशानिर्देशों और कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत के बावजूद इन प्रवासियों की तकलीफ़ें बदस्तूर जारी रहीं. दूसरी लहर के दौरान और उसके बाद भी इन कामगारों की दुर्दशा पहेली बनकर खड़ी है.

अनेक तरह की असुरक्षाएं

प्रवासी मज़दूर भारत की शहरी बसावट में श्रम शक्ति मुहैया कराने वाला सबसे प्रमुख स्रोत हैं. बहरहाल तात्कालिक राहत से जुड़े अनेक उपायों के बावजूद इनकी दुर्दशा जस की तस बनी हुई है. इसके पीछे की वजहों को समझने के लिए अनेक बातों पर ध्यान देना होगा. दरअसल इन कामगारों के बुनियादी नागरिकता अधिकारों के रास्ते में कई तरह की ख़ामियां मौजूद रही हैं. प्रवासी श्रमिक आजीविका के बेहतर मौकों की तलाश में अपना घरबार छोड़कर दिल्ली, बेंगलुरु, मुंबई, अहमदाबाद और चेन्नई जैसे शहरों में पहुंचते हैं.  अक्सर वो कम आमदनी वाले छोटे-मोटे काम-धंधों में लग जाते हैं. इनमें दिहाड़ी मज़दूर, घरेलू नौकर, रिक्शा चालक जैसे काम शामिल हैं.  इन कामों में कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं होती. उन्हें बेहद कठिनाई भरे और प्रतिकूल हालातों में काम करना पड़ता है. प्रवासी मज़दूरों की इन असुरक्षाओं को पैदा करने वाले बड़े कारक हैं- आर्थिक और खाद्यान्न की असुरक्षा, जीवनयापन के कठिन हालात, स्वास्थ्य से जुड़े ख़तरे और सामाजिक भेदभाव. राजनीतिक तौर पर भी उन्हें अलग-थलग कर दिया जाता है. ऐसे में इन मज़दूरों की हालत लगातार दयनीय बनी रहती है. कोविड-19 ने इस समस्या को और विकराल बना दिया. 

आर्थिक कठिनाइयां

प्रवासी मज़दूरों का काम असंगठित  स्वभाव वाला होता  है. उन्हें बेहद कठिन हालातों में और काफ़ी कम मेहनताने पर लंबे वक़्त तक काम  करने  पर मजबूर होना पड़ता  है. उनके काम-धंधों से जुड़ी शर्तें अस्थायी किस्म की होती हैं. इस वजह से वो रोज़गार से जुड़ी सुरक्षा से महरूम रहते हैं. मेहनताने के लिए अपने मालिक़ों पर निर्भर रहते हैं. अक्सर उन्हें अनियमित रूप से मज़दूरी दी जाती है. कोरोना की दूसरी लहर के प्रचंड रूप अख़्तियार करने के दौरान सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की एक रिपोर्ट में पाया गया कि “अप्रैल-मई 2021 में गंवाए गए 2.25 करोड़ रोज़गारों में से 1.72 करोड़ रोज़गार दिहाड़ी मज़दूरों के थे.” इन परिस्थितियों में सरकार द्वारा ठोस रूप से नकदी के ट्रांसफ़र के बिना उनके आर्थिक हालात तेज़ी से बिगड़ते चले  गए.

आजीविका ब्यूरो द्वारा 2020 में अहमदाबाद में की गई ज़मीनी पड़ताल से पता चलता है कि स्थानीय रिहाइश से  जुड़े सटीक दस्तावेज़ों के अभाव के चलते प्रवासी मज़दूरों को वैध गैस कनेक्शन नहीं मिल पाता.

खाद्य असुरक्षा

प्रवासी मज़दूरों की आर्थिक परेशानियां खाद्य असुरक्षा के चलते और बढ़ गईं. प्रवासी कामगारों के राशन कार्ड गांव में उनके परिवारों के पास होते हैं. लिहाज़ा शहरी इलाक़ों में उन्हें सस्ता अनाज नहीं मिल पाता. वहां उन्हें बाहरी समझा जाता है. वो किसी दूसरी जगह में रजिस्टर्ड राशन कार्ड का इस्तेमाल नहीं कर सकते. ऐसे में शहरी क्षेत्रों में स्थायी रूप से निवास करने वाले ग़रीबों के विपरीत प्रवासियों को अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा खाने-पीने के सामानों पर ख़र्च करना पड़ता है. आजीविका ब्यूरो द्वारा 2020 में अहमदाबाद में की गई ज़मीनी पड़ताल से पता चलता है कि स्थानीय रिहाइश से  जुड़े सटीक दस्तावेज़ों के अभाव के चलते प्रवासी मज़दूरों को वैध गैस कनेक्शन नहीं मिल पाता. ऐसे में उन्हें ऊंची क़ीमतों पर गैस सिलेंडर ख़रीदना होता है या फिर खाना पकाने के लिए लकड़ियों का सहारा लेना पड़ता है. प्रवासियों को गांव में अपने परिवारों के  लिए भी पैसे भेजने होते हैं. गांव में रहने वाले उनके परिजन अक्सर उन्हीं की आमदनी पर निर्भर रहते हैं. इस तरह की वित्तीय ज़रूरतें उन्हें कर्ज़ के ख़तरनाक दुष्चक्र में फंसा  देती हैं. स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन कमेटी (SWAN) की हालिया रिपोर्ट में ये बताया गया है कि महामारी के दौरान उन्हें साक्षात्कार देने वाले 76 प्रतिशत कामगारों के पास तत्काल गुज़र बसर चलाने के लिए महज़ 200 रु या उससे भी कम रकम मौजूद थी. काम-धंधा छूट जाने, ना के बराबर बचत होने और मुफ़्त अनाज हासिल करने के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ों के अभाव के चलते शहरों में ग़रीब प्रवासी कामगारों  के लिए अभूतपूर्व चुनौतियां खड़ी हो गईं.  

गुज़र बसर के लिए बेहद कठिनाइयों वाले हालात

प्रवासी  श्रमिक दूरदराज़ के गांवों, कस्बों और इलाक़ों से शहरों का रुख करते हैं. अक्सर वो दूसरे राज्यों से आए होते  हैं. ऐसे में उन्हें अपने और अपने परिवार (अगर परिवार उनके साथ हो) के लिए रहने की जगह का इंतज़ाम करना होता है. उनकी कोशिश होती है कि उनकी रिहाइश उनके काम धंधे वाली जगह के क़रीब हो ताकि उन्हें काम पर जाने के लिए रोज़ रोज़ पैसे न ख़र्च करने पड़ें. अपने अध्ययन के दौरान आजीविका ब्यूरो ने पाया कि निर्माण क्षेत्र के श्रमिकों, सिर पर बोझा उठाने वालों और रेस्टोरेंट/होटल के स्टाफ़ अपने मालिक़ों से काम वाली जगह पर  रहने की छूट पाने की जुगत लगाते रहते हैं. कई बार तो उनको इस सहूलियत के बदले मज़दूरी में कटौती से भी संतोष करना पड़ता है. कई प्रवासी श्रमिक झुग्गी  बस्तियों, मेस हाउस या काम धंधे से जुड़ी मुख्य जगहों के आसपास बसी कामगार कॉलोनियों में सस्ते किराए के मकान तलाशते हैं. इस तरह की रिहाइश की मांग काफ़ी ज़्यादा होती है. ऐसे में प्रवासियों को इनके बदले ज़्यादा किराया चुकाना होता है. हालांकि, अक्सर यहां बुनियादी स्वच्छता और पानी से जुड़ी सुविधाओं का अभाव  होता है. और तो  और  ये इलाक़े भीड़-भाड़ वाले और अस्वच्छ होते हैं. शहरों में जो प्रवासी कामगार इस तरह की रिहाइश का ख़र्चा नहीं उठा सकते वो फ़ुटपाथ, रेलवे  स्टेशनों और बस डिपो में रात बिताते हैं. कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान SWAN के एक अध्ययन में पाया गया कि काम धंधा गंवा चुके प्रवासी श्रमिकों को शहरों में किराया चुकाने में काफ़ी परेशानी महसूस हुई.  उनके सामने किराए के मकानों से निकाले जाने का ख़तरा पैदा हो गया. लिहाज़ा वो अपनी बची-खुची जमा पूंजी के सहारे अपने गांव जाने को मजबूर हो गए.  

अपने अध्ययन के दौरान आजीविका ब्यूरो ने पाया कि निर्माण क्षेत्र के श्रमिकों, सिर पर बोझा उठाने वालों और रेस्टोरेंट/होटल के स्टाफ़ अपने मालिक़ों से काम वाली जगह पर  रहने की छूट पाने की जुगत लगाते रहते हैं. कई बार तो उनको इस सहूलियत के बदले मज़दूरी में कटौती से भी संतोष करना पड़ता है.

अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं

शहरों में रहने वाले प्रवासी मज़दूरों को अपने स्वास्थ्य को लेकर भी भारी असुरक्षा का सामना करना पड़ता है. महामारी के दौरान तो ये असुरक्षा और बढ़ गई. मई 2021 में आजीविका ब्यूरो ने एक अध्ययन में पाया कि उन्हें साक्षात्कार देने वाले 70 प्रतिशत मज़दूर स्वास्थ्य सुविधाओं तक अपनी पहुंच बनाने में समर्थ नहीं थे. “अनलॉकिंग द अर्बन नाम से प्रकाशित इस रिपोर्ट में बताया गया है कि चूंकि प्रवासी श्रमिक दूसरे राज्यों से आते हैं लिहाज़ा कई मामलों में वो मेज़बान राज्य सरकारों द्वारा सरकारी अस्पतालों में मुहैया कराई जाने वाली सस्ती स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ पाने के अयोग्य हो जाते हैं. इतना ही नहीं वहां उन्हें लंबी कतारों और जटिल प्रक्रियाओं से गुज़रना होता है. उन्हें कोई भी सुविधा आसानी से उपलब्धता नहीं हो पाती. इसके अलावा उन्हें सरकारी अस्पतालों के प्रतिकूल माहौल से भी दो-चार होना पड़ता है. चूंकि ज़्यादातर प्रवासी कामगार दिहाड़ी मज़दूरी पर लगे होते हैं लिहाज़ा उनके लिए इन तमाम हालातों का मतलब होता है अपने काम के घंटों से हाथ धोना. इन परिस्थितियों में उन्हें मजबूरन निजी स्वास्थ्य सुविधाओं की तलाश करनी होती है. वहां इलाज का बेतहाशा ख़र्च उनके बूते के बाहर होता है. इसे पूरा करने के लिए वो कर्ज़ के मकड़जाल में फंस जाते हैं. कोविड-19 से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं के चलते ऐसे कर्ज़ों का बोझ और बढ़ गया. ख़ासतौर से दूसरी लहर के बाद प्रवासियों के लिए हालात और बदतर हो गए. इस मुद्दे पर किए गए अध्ययनों नो कंट्री फ़ॉर वर्कर्स और पेशेंट्स नॉट पासपोर्ट्स में इन मुश्किल परिस्थितियों का ब्योरा दिया गया है. गंदे परिवेश और साफ़-सफ़ाई की बेहाली की मार महिला प्रवासियों पर कहीं ज़्यादा होती है. अच्छे खानपान और पोषण का अभाव और निर्धनता उनकी सेहत को भारी नुकसान पहुंचाती हैं. ख़ासतौर से गर्भवती और बच्चों को दूध पिलाने वाली महिलाओं पर इन हालातों का सबसे बुरा प्रभाव पड़ता है. लॉकडाउन के दौरान महिलाओं के ख़िलाफ़ घरेलू हिंसा में हुई बढ़ोतरी ने उनकी स्थिति को और बिगाड़ दिया. जहां तक कोविड-19 टीकाकरण का सवाल है, टीकाकरण केंद्रों के बारे में पर्याप्त सूचनाओं के अभाव, स्मार्ट फ़ोन न होने के चलते स्लॉट बुकिंग की ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया तक पहुंच नहीं होने, प्रशासनिक रुकावटों और सूचनाओं के अभाव के कारण ग़रीब प्रवासियों तक वैक्सीन की पहुंच में भी देरी हुई.  

मई 2021 में आजीविका ब्यूरो ने एक अध्ययन में पाया कि उन्हें साक्षात्कार देने वाले 70 प्रतिशत मज़दूर स्वास्थ्य सुविधाओं तक अपनी पहुंच बनाने में समर्थ नहीं थे. 

पक्षपात और अलग-थलग किए जाने के शिकार

शहरों में कामकाज की तलाश में पहुंचे इन प्रवासी मज़दूरों को बाहरी होने की छवि से जूझना पड़ता है. इसके चलते उन्हें समाज में गहराई तक पैठ बना चुके भेदभावों का शिकार होना पड़ता है. शहरों के स्थानीय निवासियों में अक्सर उनके प्रति हिकारत का भाव देखा गया है. ऐसे में इन प्रवासियों के सामने पहले से मौजूद पहाड़ जैसी परेशानियां और बढ़ जाती हैं. कोविड-19 महामारी के दौरान प्रवासियों को अक्सर गंदा’, ‘दूसरों का रोज़गार छीनने वाला’,  ‘अपराधी और असामाजिक के तौर पर देखा गया. उन्हें कोरोना संक्रमण का वाहक समझा गया. शहरों में उन्हें दुत्कारा, ठुकराया गया. वापस अपने-अपने गांव पहुंचने पर वहां भी उन्हें ऐसे ही प्रतिकूल बर्तावों का सामना करना पड़ा. इतना ही नहीं उचित दस्तावेज़ों के अभाव में शहरी प्रशासन और पुलिस का रवैया भी उनके प्रति कठोर रहा. ग़ौरतलब है कि ये कामगार जिन शहरों में काम करते हैं अक्सर वो वहां के वोटर नहीं होते. लिहाज़ा ऐसा लगता है कि उस शहर का सियासी तबका भी उनकी परेशानियों के प्रति उदासीन बना रहता है. 

 ग़ौरतलब है कि ये कामगार जिन शहरों में काम करते हैं अक्सर वो वहां के वोटर नहीं होते. लिहाज़ा ऐसा लगता है कि उस शहर का सियासी तबका भी उनकी परेशानियों के प्रति उदासीन बना रहता है. 

सुरक्षा का समग्र विचार

प्रवासी मज़दूरों के नाज़ुक हालात उन्हें समाज में हाशिए पर धकेल देते हैं. सम्मान के साथ जीने और अपनी मर्ज़ी से कहीं भी आने-जाने से जुड़े उनके बुनियादी अधिकारों का हनन होता रहता है. उन्हें तात्कालिक तौर पर कोविड-19 के प्रभावों से राहत दिलाने के लिए कई अस्थायी उपायों की घोषणा की गई. हालांकि भारत के घरेलू प्रवासी कामगारों के जटिल मानवतावादी ज़ख़्मों और समस्याओं पर मरहम लगाने के लिए ये उपाय पर्याप्त रूप से प्रभावी नहीं थे. इसके लिए सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का अधिकारों पर आधारित नज़रिया सामने लाना होगा. इस सिलसिले में इन प्रवासी कामगारों के सामने पेश तमाम तरह की असुरक्षाओं को ध्यान में रखना होगा. कई तरह के ढांचागत बदलाव लाने होंगे. इनमें प्रवासी मज़दूरों से जुड़े आंकड़ों पर राज्यों के बीच और केंद्र और राज्यों के स्तर पर तालमेल बिठाना होगा. प्रवासियों तक सरकार के सामाजिक और कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाने के लिए नीतिगत हस्तक्षेप करने होंगे. प्रवासी मज़दूरों से जुड़े दस्तावेज़ों के निर्माण की प्रक्रिया को आसान बनाना होगा. इसके साथ ही शहरों के प्रशासनिक ढांचों में भी सुधार लाना होगा ताकि हर कोई इन प्रवासी मज़दूरों के साथ इंसानी तौर-तरीक़ों से पेश आए. प्रवासी कामगारों की तकलीफ़ कम करने की दिशा में इस तरह के बदलावों से शुरुआत की जा सकती है.

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Authors

Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh is an Associate Fellow under the Political Reforms and Governance Initiative at ORF Kolkata. His primary areas of research interest include studying ...

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Anasua Basu Ray Chaudhury

Anasua Basu Ray Chaudhury

Anasua Basu Ray Chaudhury is Senior Fellow with ORF’s Neighbourhood Initiative. She is the Editor, ORF Bangla. She specialises in regional and sub-regional cooperation in ...

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