Published on Jun 20, 2022 Updated 0 Hours ago

श्रीलंकाई सरकार की नीतिगत ग़लतियों की वजह से देश की खाद्य सुरक्षा पर विपरीत असर पड़ा है.

श्रीलंका में गहराता संकट: ग़लत आर्थिक नीतियों से ख़तरे में पड़ी खाद्य सुरक्षा

ये लेख ओआरएफ़ पर छपे सीरीज़, भारत के पड़ोस में अस्थिरता: एक बहु-परिप्रेक्ष्य अवलोकन का हिस्सा है.


मानव विकास और सामाजिक-आर्थिक संकेतक में श्रीलंका हमेशा ही अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों से आगे रहा है. 2009 में गृह युद्ध के ख़ात्मे के बाद से हमने इन संकेतक में ख़ासी तरक़्क़ी होते देखी है. इनमें मानव विकास सूचकांक, साक्षरता दर और स्वास्थ्य से जुड़े संकेतक शामिल हैं. विश्व बैंक के मुताबिक दक्षिण एशियाई क्षेत्र के देशों में श्रीलंका में निर्धनता की दर काफ़ी नीचे (0.77 फ़ीसदी) रही है. भारत में ग़रीबी की दर 13.42 प्रतिशत, बांग्लादेश में 15.16 प्रतिशत और पाकिस्तान में 5.23 फ़ीसदी रही है. श्रीलंका 2030 तक सतत या टिकाऊ विकास के लक्ष्य हासिल करने की दिशा में राष्ट्रों द्वारा तय किए गए योगदानों को हासिल करने पर भी नज़र टिकाए रहा है. इन तमाम क्षेत्रों में हासिल की गई कामयाबी के पीछे मुख्य रूप से वहां के नागरिकों को उपलब्ध कराई जा रही नि:शुल्क  शिक्षा और मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाओं का हाथ बताया जा सकता है. इस कड़ी में समृद्धि कार्यक्रम जैसे लोक सुरक्षा कार्यक्रमों का हवाला दिया जा सकता है. बहरहाल इन मोर्चों पर हासिल सफलताओं के बावजूद कोविड-19 की आमद के बाद से देश का व्यापार घाटा बढ़कर 3 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया. ऋण पर इकट्ठा  ब्याज़ 7.8 करोड़ अमेरिकी डॉलर के पार चला गया. मई 2022 में देश का विदेशी मुद्रा भंडार पहले के 7.6 अरब अमेरिकी डॉलर से घटकर 2.3 अरब अमेरिकी डॉलर रह गया. निर्यात से होने वाली कमाई में भी 3.4 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई. निर्यात से हुई आमदनी मार्च 2022 में 1.057 अरब अमेरिकी डॉलर थी जो अप्रैल 2022 में घटकर 91.53 करोड़ अमेरिकी डॉलर पर आ गई. इसके विपरीत मेडिकल और स्वास्थ्य सेवाओं का ख़र्चा 2019 के मुक़ाबले 2021 में 33.1 प्रतिशत बढ़ गया. ख़ासतौर से कोविड-19 महामारी की वजह से ये बढ़ोतरी देखने को मिली है. पर्यटन और प्रवासी कामगारों से मिलने वाली विदेशी मुद्रा के नुक़सान ने देश की अर्थव्यवस्था को हिलाकर रख दिया. फ़िलहाल देश की खाद्य महंगाई दर अब तक के सर्वोच्च स्तर (57.4 फ़ीसदी) पर पहुंच गई है. इससे देश की खाद्य सुरक्षा ख़तरे में आ गई है.  

2016-17 में एशिया में खाद्य सुरक्षा सूचकांक में श्रीलंका पहले पायदान पर था. 2022 के मध्य तक श्रीलंका इस सूची में गिरकर 11वें पायदान पर आ गया है. इसमें कोई शक़ नहीं कि किसी देश के विकास में खाद्य सुरक्षा की एक अहम भूमिका होती है. इसका सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है.

2016-17 में एशिया में खाद्य सुरक्षा सूचकांक में श्रीलंका पहले पायदान पर था. 2022 के मध्य तक श्रीलंका इस सूची में गिरकर 11वें पायदान पर आ गया है. इसमें कोई शक़ नहीं कि किसी देश के विकास में खाद्य सुरक्षा की एक अहम भूमिका होती है. इसका सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है. आज आर्थिक संकट के चलते श्रीलंका में 2 तरह से खाद्य असुरक्षा महसूस की जा रही है: पहला, तेज़ होता संघर्ष और मानवीय अशांति, विरोध-प्रदर्शन और खाने-पीने के सामानों के लिए लंबी कतार; और दूसरा, कर्ज़ और मदद के लिए विदेशी मुल्कों पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता.

महामारी के दौर में श्रीलंका में बदलते मौसमी रुझानों और जलवायु से जुड़े हालातों के बावजूद खेतीबाड़ी में अपेक्षाकृत ऊंची पैदावार हासिल हुई. लिहाज़ा देश में मौजूदा खाद्य असुरक्षा के लिए कोविड-19 को आंशिक तौर पर ही ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. सच्चाई ये है कि लॉकडाउन समेत कोविड-19 से जुड़ी तमाम पाबंदियों ने देश के कृषि क्षेत्र पर बेहद मामूली असर डाला. महामारी के दौरान देश में चावल और चाय की ज़बरदस्त पैदावार हुई. ज़ाहिर है महामारी का खेतीबाड़ी पर कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा.   

सियासी मोर्चे पर बड़ी चूक

चावल देश का मुख्य खाद्यान्न है. ग्रामीण क्षेत्रों के ग़रीब परिवारों की कैलोरी से जुड़ी ज़्यादातर ज़रूरत इसी से पूरी होती है. श्रीलंका 2010 में ही चावल के मामले में आत्मनिर्भर बन गया था. वहां हर साल औसतन 9 लाख मीट्रिक टन फल और सब्ज़ियों की पैदावार हो रही थी. इस तरह देश की खाद्य उपलब्धता सुनिश्चित थी और सबको किफ़ायती दरों पर उपलब्ध भी हो रही थी. बहरहाल कोविड-19 महामारी के बाद और देश में बढ़ते आर्थिक संकट के चलते देश की खाद्य सुरक्षा ख़तरे में पड़ गई. नीतिगत मोर्चे पर 2 बड़ी ग़लतियों के चलते ऐसी नौबत आई. पहला, 2016-17 में देश के किसानों को दी जा रही खाद सब्सिडी को कूपन सिस्टम से बदल दिया गया. इससे पहले दशकों तक किसानों को NPK ऊर्वरकों की ख़रीद पर खाद सब्सिडी मुहैया कराई जाती रही थी. इससे उपज के बदले कम क़ीमत मिलने पर भी किसानों को अच्छा-ख़ासा मुनाफ़ा हो जाता था. इस नीतिगत फ़ैसले से चावल, फल और सब्ज़ियां किफ़ायती हो गईं, जिससे कम आमदनी वाले लोगों को सहारा मिला. बदक़िस्मती से नीतिगत बदलाव के बाद किसानों ने इन कूपनों के बदले दूसरे ग़ैर-कृषि आवश्यक सामानों की ख़रीदारी शुरू कर दी. नतीजतन श्रीलंका में खाद्यान्न उत्पादन के मुख्य मौसमों (याला और माहा) में कृषि पैदावार में भारी गिरावट आ गई. सूखे की बढ़ती समस्या ने हालात को और गंभीर बना दिया. नतीजतन चावल और सब्ज़ियों की पैदावार में आई कमी को पूरा करने के लिए आयात का सहारा लिया जाने लगा.  

मौजूदा राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने मई 2020 में ‘आर्गेनिक खेती’ के नारे के तहत रासायनिक खादों और कृषि में इस्तेमाल होने वाले केमिकलों पर रोक लगाने का बेपरवाही भरा फ़ैसला ले लिया.

दूसरे, मौजूदा राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने मई 2020 में ‘आर्गेनिक खेती’ के नारे के तहत रासायनिक खादों और कृषि में इस्तेमाल होने वाले केमिकलों पर रोक लगाने का बेपरवाही भरा फ़ैसला ले लिया. बहरहाल, देश की ज़रूरत के हिसाब से ऑर्गेनिक खाद तैयार करने और संभावित बीमारियों और कीटनाशकों के हमले से बचाव के लिए कोई व्यवस्था या बदलाव से जुड़ी रणनीति नहीं बनाई गई. देश के पास पर्याप्त ऑर्गेनिक कच्चे मालों और तकनीकी का अभाव था. इसके अलावा खेतों में ज़मीनी स्तर पर सामने आने वाले मसलों से निपटने के लिए वैकल्पिक व्यवस्थाएं भी नदारद थी. ऐसे में कमज़ोर पैदावार की वजह से किसानों को उपज का बड़ा नुक़सान झेलना पड़ा. कीट-पतंगों और बीमारियों ने भी खेती-बाड़ी में ज़बरदस्त हानि पहुंचाई. इससे कई किसान औद्योगिक और निर्माण क्षेत्र में छोटी-मोटी नौकरियां करने पर मजबूर हो गए. इस फ़ैसले का असर अब भी महसूस किया जा सकता है. आसमान छूती महंगाई ने खाने-पीने की चीज़ों को पहुंच के बाहर बना दिया है. हालांकि, नवंबर 2021 में कृषि-रसायनों पर लगी रोक हटा ली गई, लेकिन उस समय तक लागू पाबंदी का असर भविष्य में भी बना रहेगा. 2020-2021 की मियाद में फल और सब्ज़ियों के उत्पादन में 35 प्रतिशत और धान की पैदावार में 40 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई. इससे भविष्य में होने वाली गिरावट के संकेत मिलते हैं. सबसे ज़्यादा विदेशी मुद्रा कमाने वाली चाय की फ़सल में तक़रीबन 50 प्रतिशत की गिरावट देखी गई.  

1948 में आज़ादी हासिल करने के बाद से श्रीलंका को अस्थायी नीतियों के चलते भारी नुक़सान झेलने पड़े हैं. बहरहाल, हालिया नीतिगत बदलावों ने देश की कमर तोड़कर रख दी है. इनमें ग़ैर-ज़रूरी टैक्स कटौतियां, पाबंदियां और सब्सिडी शामिल हैं. इसके अलावा राष्ट्रीय नीति और दीर्घकालिक योजनाओं और क्रियान्वयन को लेकर राजनीतिक प्रतिबद्धता के अभाव ने आग में घी डालने का काम किया. इससे भी बड़ी बात ये है कि उपभोक्ताओं के पास अब खाने-पीने के सामान को लेकर अपनी पसंद जताने की ताक़त नहीं रह गई है. मुख्य रूप से खाने-पीने की आदतों में बदलाव की वजह से देश में प्रति व्यक्ति चावल का उपभोग 2015 के 163 किग्रा सालाना से घटकर 2021 में 101 किग्रा सालाना हो गया. दरअसल इस कालखंड में श्रीलंका में गेहूं के आटे से बने उत्पाद लोकप्रिय हो गए. ये एक ऐसा उत्पाद है जो पूरी तरह से आयात पर निर्भर है. आयातित खाद्य पदार्थों पर देश की बढ़ती निर्भरता श्रीलंका की कुल जीडीपी के 15.9 फ़ीसदी तक पहुंच गई. ये रकम ज़्यादातर गेहूं के आटे, दूध के पाउडर, दालों समेत खाने-पीने के कई अन्य सामानों पर ख़र्च होती है. इससे खाद्य असुरक्षा और बदतर हो गई है. हालांकि महंगाई की वजह से गेहूं के आटे का उपभोग 2021 के मध्य से 45 प्रतिशत तक गिर चुका है. ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि क्या श्रीलंका के लोग गहराते आर्थिक संकट के बीच अपने उपभोग के नए रुझानों को बरक़रार रख पाएंगे. 

देश में अल्पपोषण की दर पहले ही काफ़ी ऊंची हैं, बदले हालात में इसका और बदतर होना तय है. श्रीलंका में 5 साल से कम आयु के कुपोषित बच्चों की तादाद दुनिया में उच्चतम स्तरों (15 प्रतिशत) में है. साथ ही पोषण के अभाव में देश की महिलाओं में ख़ून की कमी की समस्या (एनीमिया) के और विकराल होने का ख़तरा बढ़ गया है.

साफ़ है कि अगर आर्थिक हालात ऐसे ही बने रहे तो आने वाले महीनों में श्रीलंकाई लोग तात्कालिक खाद्य असुरक्षा से स्थायी खाद्य असुरक्षा के शिकार बन जाएंगे. संसाधनों (ज़मीन, श्रम और पूंजी) और वित्त के कुप्रबंधन और अदूरदर्शी नीतिगत उपायों (जैसे करों में कटौती) से कृषि, मछली उद्योग और व्यापार जैसे प्रमुख आर्थिक क्षेत्रों पर भारी असर पड़ा है. श्रीलंका आज ऊर्जा के मोर्चे पर भी ज़बरदस्त संकट का सामना कर रहा है. ईंधन और गैस की भारी किल्लत हो गई है और घंटों तक बत्ती गुल रहती है. अब ये बात साफ़ हो चुकी है कि श्रीलंका ने संकट को लेकर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की चेतावनियों को नज़रअंदाज़ करते हुए तमाम नामुनासिब फ़ैसले लेना जारी रखा था. इनमें मुद्रा की आपूर्ति को बढ़ाना शामिल है. इससे श्रीलंकाई रुपए का और ज़्यादा अवमूल्यन हुआ और उसका मूल्य 364 LKR के रिकॉर्ड स्तर तक जा पहुंचा.     

कम आयु के कुपोषित बच्चे

आर्थिक संकट के चलते कई छोटे कारोबार अब मुनाफ़ा देने वाले नहीं रह गए. लोगों को अपनी आजीविका से हाथ धोना पड़ा है. इतना ही नहीं ईंधन संकट की वजह से खाद्य आपूर्ति श्रृंखला में भी रुकावट आ गई है. बड़ी तादाद में आवश्यक खाद्य पदार्थों के आयात रोक दिए गए हैं. अंडे, मांस, दाल और दूध जैसे प्रोटीन से भरपूर खाद्य पदार्थ कम आमदनी वाले तबकों की पहंच से बाहर हो गए हैं. इससे कमज़ोर वर्ग के लोगों जैसे बच्चों, बुज़ुर्गों और गर्भवती महिलाओं के सामने खाद्य और पोषण की असुरक्षा का ख़तरा पैदा हो गया है. देश में अल्पपोषण की दर पहले ही काफ़ी ऊंची हैं, बदले हालात में इसका और बदतर होना तय है. श्रीलंका में 5 साल से कम आयु के कुपोषित बच्चों की तादाद दुनिया में उच्चतम स्तरों (15 प्रतिशत) में है. साथ ही पोषण के अभाव में देश की महिलाओं में ख़ून की कमी की समस्या (एनीमिया) के और विकराल होने का ख़तरा बढ़ गया है. इससे भावी पीढ़ियों पर गंभीर असर पड़ सकता है. बाग़ानों में काम कर रहे मज़दूरों समेत तमाम ग़रीब तबकों और अनदेखी के शिकार कमज़ोर समूहों (जैसे अस्पताल में भर्ती मरीज़ों) के सामने पर्याप्त मात्रा में भोजन नसीब न होने का ख़तरा मंडरा रहा है. 

श्रीलंका के पास खेतीबाड़ी के अनुकूल मौसम है, उपजाऊ ज़मीन है, तगड़ी जैवविविधता है और जीन पूल मौजूद है. इसके बावजूद कृषि से जुड़ा ज़्यादातर कच्चा माल जैसे बीज, कृषि रसायन, मशीन और टेक्नोलॉजी फ़िलहाल विदेशों से आयात किए जा रहे हैं. आयात पर निर्भरता के चलते श्रीलंका को अक्सर वैश्विक क़ीमतों में उतार-चढ़ावों और उपलब्धता और गुणवत्ता से जुड़ी रुकावटों का सामना करना पड़ता है. इतना ही नहीं देश में जारी वित्तीय संकट ने खेती के लिए इन ज़रूरी कारकों (ख़ासतौर से यूरिया) की आपूर्ति को बाधित कर दिया है. यूरिया फ़सल की बढ़वार के लिए इकलौता ज़रूरी सिंथेटिक पोषक तत्व है. यूरिया की ग़ैर-मौजूदगी से पूरी फ़सल के पैदावार पर असर पड़ता है. इससे फ़सल ख़राब होने की नौबत आ जाती है. यूक्रेन और रूस के बीच जारी टकराव से ये संकट और गहरा हो गया है. यूक्रेन दुनिया में गेहूं का सबसे बड़ा उत्पादक है और रूस दुनिया में यूरिया उत्पादित करने वाला सबसे बड़ा देश है. दोनों ही देशों ने विश्व बाज़ार में इन सामानों की आपूर्ति घटा दी है. नतीजतन अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इन उत्पादों की क़ीमतों में उछाल आ गया है. विनिमय दर से जुड़े संकट और आर्थिक दुश्वारियों के चलते श्रीलंका पर इन वैश्विक परिस्थितियों की दोहरी मार पड़ी है. यूरिया के 50 किग्रा वाले बोरे की क़ीमत में 2021 से 2022 के मध्य तक 9 गुणा (16 अमेरिकी डॉलर से 140 अमेरिकी डॉलर) का इज़ाफ़ा हो चुका है. इससे खेतीबाड़ी एक चुनौती बन गई है. खाद्य पदार्थों, दवाइयों, ईंधन और गैस की क़ीमतों में बढ़ोतरी का दौर लगातार जारी है. शहरी समुदायों, ख़ासतौर से ग़रीब तबके के लोगों को ज़बरदस्त किल्लत का सामना करना पड़ रहा है.        

प्रतिक्रियाएं और सुधार के उपाय

श्रीलंका की सरकार किसानों से धान की खेती दोबारा शुरू करने की अपील कर रही है. खाद्य पदार्थों का उत्पादन बढ़ाने के मक़सद से उसने कई यथार्थवादी सुधार भी लागू किए हैं. इनमें खेती योग्य ज़मीनों और शहरी उद्यानों में खेतीबाड़ी शुरू करने की क़वायद भी शामिल है. द्वीप देश के नाते श्रीलंका को संकट की मार झेल रहे मछली उद्योग को सहारा देने के उपायों पर भी ग़ौर करना चाहिए. ये उद्योग देश के नागरिकों को प्रोटीन मुहैया कराने का बड़ा स्रोत बन सकता है.    

इस मसले पर तत्काल क़दम उठाते हुए श्रीलंका ने दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के समर्थन से दक्षिण एशियाई फ़ूड बैंक से मदद की गुहार लगाई है. इस सिलसिले में श्रीलंका एक लाख मीट्रिक टन खाद्य पदार्थों का दान जुटाने या सस्ती दरों पर ख़रीद की उम्मीद लगाए हुए है. श्रीलंका ने पड़ोसी देशों से भी मदद की अपील की है. भारत, चीन और जापान पहले ही श्रीलंका को वित्तीय सहायता पहुंचा चुके हैं. इसमें क्रेडिट लाइंस के साथ-साथ दान के रूप में दिए गए खाद्य पदार्थ भी शामिल हैं. इन तमाम देशों द्वारा कर्ज़ और ज़रूरी सामान भी मुहैया कराए जाने के आसार हैं. 

श्रीलंका ने पड़ोसी देशों से भी मदद की अपील की है. भारत, चीन और जापान पहले ही श्रीलंका को वित्तीय सहायता पहुंचा चुके हैं. इसमें क्रेडिट लाइंस के साथ-साथ दान के रूप में दिए गए खाद्य पदार्थ भी शामिल हैं. इन तमाम देशों द्वारा कर्ज़ और ज़रूरी सामान भी मुहैया कराए जाने के आसार हैं. 

राजस्व बढ़ाने के लिए सरकार द्वारा वैल्यू-एडैड टैक्स (वैट) को 8 प्रतिशत से बढ़ाकर 12 प्रतिशत किए जाने के आसार हैं. इसके साथ ही कॉरपोरेट टैक्स में भी इज़ाफ़े की उम्मीद की जा रही है. कर्ज़ के मोर्चे पर अनुकूल हालात बनाने के लिए सरकार राजस्व में 65 अरब की बढ़ोतरी करने की जुगत में लगी है. सरकार निम्न आय वाले वर्गों को तात्कालिक आर्थिक संकट से उबरने में मदद के लिए नक़दी के साथ-साथ अनुदान और वैकल्पिक अवसर मुहैया कराने पर विचार कर रही है. सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था मुहैया कराने के लिए सरकार को नीतिगत स्तर पर तमाम बदलावों के साथ-साथ बाक़ी ज़रूरी फ़ैसले लेने होंगे. शहरी और ग्रामीण इलाक़ों की ग़रीब आबादी के संघर्ष अलग-अलग हैं. उनकी मदद के लिए उनकी ज़रूरतों के हिसाब से नीतियां और कार्यक्रम चालू किए जाने की दरकार है. पोषण सुरक्षा ख़तरे में है. लिहाज़ा स्कूली छात्रों के लिए भोजन के प्रबंध से जुड़े कार्यक्रम शुरू करने होंगे. सदुपयोग को लेकर जागरूकता बढ़ानी होगी और उपभोग के सस्ते रुझानों को बढ़ावा देना होगा. साथ ही बाग़वानी और भोजन से जुड़ी आदतों में विविधता लाना भी ज़रूरी है. वितरण के साधनों में मज़बूती लाते हुए सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल में सुधार लाना होगा. उत्पादकों को वित्तीय सहायता देनी होगी. बाज़ारों को आपस में जोड़ना होगा और मार्केटिंग के नए-नए अवसर तैयार करने की नीति पर अमल करना होगा. श्रीलंकाई परिवारों पर आर्थिक बोझ कम करना होगा. इसके लिए बिजली-पानी (utility) के बिलों में रियायत देनी होगी. बिल की अदायगी में छूट जैसे प्रावधान भी करने होंगे. इन उपायों का परिवारों के बजट पर ज़बरदस्त प्रभाव पड़ सकता है. कुल मिलाकर मध्यम कालखंड में संगठित और असंगठित दोनों ही क्षेत्रों को मदद की दरकार है.   

ऐसे उपायों का पालन गहराते खाद्य संकट से निपटने की अल्पकालिक रणनीति बन सकती है. कृषि की अहम ज़रूरतों (जैसे यूरिया और दूसरे अहम कारकों) को प्राथमिकता देनी होगी. ऊर्वरक और बीज की ख़रीद पर साख और ऋण की सुविधा मुहैया कराने और ज़रूरत के आधार पर खाद पर आंशिक और पूर्ण सब्सिडी के प्रावधान का प्रस्ताव किया गया है. कृषि के लिए ज़रूरी दूसरे कारकों पर भी ऐसे ही उपायों की पेशकश की गई है. कृषि आधारित निर्यात से हासिल कमाई का एक बड़ा हिस्सा कृषि क्षेत्र की ज़रूरतों पर ही ख़र्च करना ज़रूरी है. इससे आवश्यक कारकों की ख़रीद आसान हो सकेगी. आने वाले महीनों में श्रीलंका में कई तरह की दुश्वारियों की आशंका है. ऐसे में उसकी ओर अंतरराष्ट्रीय मदद (वित्तीय और ग़ैर-वित्तीय दोनों तरह से) का हाथ बढ़ाना ज़रूरी है. खेती की पैदावार बढ़ाने, नौकरियों के अवसरों में बढ़ोतरी करने और श्रम की उत्पादकता बढ़ाने के लिए इस तरह की मदद निहायत ज़रूरी है. सरकार खाद्य सुरक्षा के मक़सद से शहरी बाग़वानी और जागरूकता कार्यक्रमों को भी बढ़ावा दे रही है. देश के लिए एक राष्ट्रीय कृषि नीति का सुझाव दिया गया है. इसके अलावा भूमि के इस्तेमाल के प्रबंधन, किसान परिवारों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध फलों और सब्ज़ियों से मूल्य वर्द्धन को बढ़ावा देने की बात भी कही गई है. बीज उत्पादन और पर्यावरण के अनुकूल ऊर्वरक की सुविधाएं देने, टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण, मूल्य वर्द्धन को लेकर शोध और विकास के साथ-साथ फ़सल की तैयारी के बाद उपज के नुक़सान को न्यूनतम स्तर पर लाने के तौर-तरीक़ों का भी प्रस्ताव किया गया है. बहरहाल, जलवायु परिवर्तन के असर को लेकर श्रीलंका के नाज़ुक हालातों से वहां की खाद्य सुरक्षा और पोषण पर ख़तरा आगे भी बरक़रार रहेगा. लिहाज़ा ऐसे सभी ज़रूरी एहतियाती उपायों और प्राथमिकता वाली रणनीतियों को अमल में लाना ज़रूरी है. मौजूदा संकट से उबरकर पहले से ज़्यादा मज़बूत देश बनने के लिए श्रीलंका को ऐसी तमाम क़वायदों को कामयाबी से अंजाम देना होगा.

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