Author : Kabir Taneja

Published on Jul 05, 2018 Updated 0 Hours ago

ऐसा कोई भी हमला जो ISIS के नाम पर किया जा रहा है उसे फ़ौरन नकारना ज़रूरी है, ये साफ़ करते हुए कि ISIS की घटी में कोई मौजूदगी नहीं है।

कश्मीर में ISIS से खेलने के खतरे

सीरिया के दक्षिण पूर्वी हिस्से के देर एज्जोर इलाके में मई २०१८ में इस्लामिक स्टेट का तथाकथित राज्य २०१४ से २०१६ के बीच उनके कब्जे वाले इलाके के मुकाबले सिर्फ तीन फीसदी रह गया है। सीरिया में ISIS के खिलाफ कई देशों की सेनाएं इकट्ठी काम कर रही थीं। ISIS के खिलाफ अमेरिका के नेतृत्व वाले गठबंधन के अलावा, रूस और ईरान ने भी यहाँ सामरिक चाल चली कि सीरिया में इस्लामिक स्टेट का खात्मा भी हो जाए और उनके सामरिक हित सुरक्षित रहे। इन सब सेनाओं की मिलीजुली कार्यवाई ने इस्लामिक स्टेट के कब्जे वाले क्षेत्र को काफी कम कर दिया है और तेज़ी से इस्लामिक स्टेट को कमज़ोर कर दिया जिस से ये भी कहा जाने लगा कि इस्लामिक ख़त्म हो गया है।

इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठन एक अराजक संगठन नहीं हैं जैसा कि पब्लिक में उनके बारे में धारणा है, न ही वो हालात के मुताबिक उसी क्षण फैसले ले कर काम करते हैं। ये पूरा संगठन बहुत ही औपचारिक ढंग से आयोजित है, इसका ढांचा और इसके काम करने के तरीके एक गहरी रणनीति और योजना का नतीजा हैं। संगठन में नीतियां तय की जाती हैं, अलग अलग ओहदों पर लोग तैनात हैं और एक तारतम्य है तभी वो किसी भी देश के अन्दर एक नॉन स्टेट या नाजायज़ आतंकी संगठन होने के बावजूद बचे रहे हैं। मिसाल के तौर पर ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व में बना अल क़ायदा ८० के दशक में अपने शुरूआती दौर से लेकर ९० के दशक तक एक नीति के तहत काम करता रहा, फैसले का केन्द्रीकरण और उसे लागू करने में विकेंद्रीकरण। यानी फैसले का अधिकार टॉप नेतृत्व के पास ही था लेकिन उसे लागू करने के लिए हर जगह छोटी छोटी टुकडियां थीं, आखिरी ऑपरेशन की जानकारी लीडरों को दी जाती थी, जिसमें ज़्यादातर इस बात पर जोर नहीं होता था कि आतंकी हमलों को किस तरह किया गया बल्कि इस पर कि इसका भूराजनैतिक असर क्या होगा। १९९८ में केन्या और तंज़ानिया में अमेरिकी दूतावासों पर हमले का मास्टरमाइंड फज़ल अब्दुल्लाह मुहम्मद के मुताबिक अल क़ायदा में एक मज़बूत केंद्र था, एक मज़बूत ढांचा था, वो सुस्त संगठन नहीं बल्कि काफी चुस्त था, सभी उस से जुड़े हुए थे। इस वजह से जो दुसरे दर्जे के कमांडर थे उन्हें भी एक ज़िम्मेदारी का एहसास था, वो भी सशक्त महसूस करते थे। यही वजह थी कि वो इस ग्रुप को यमन, अफ्रीका और दुसरे देशों में भी फैला सके। इस वजह से इसकी मौजूदगी पूरी दुनिया में महसूस होने लगी।इस्लामिक स्टेट को इसी वैश्विक उपस्थिति की ज़रूरत थी ताकि वो अमेरिका और इसरायली ठिकानो पर हमला कर सके और अपनी विचारधारा को एक सुनियोजित तरीके से फैला सके। फैसले लेने की आजादी जो अल कायदा ने दी थी वो कितनी कामयाब हो रही है, वो इस बात से साफ़ था कि अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में जब अमेरिकी ड्रोन हमले तेज़ हो गए तो IS की टॉप लीडरशिप तनाव में आ गयी।

ISIS जैसे आत्नाकी संगठन अराजकता में काम नहीं करते,ना ही वो फौरी फैसले लेते हैं, जैसी पब्लिक में उनके बारे में धारणा है। ग्लोबल जिहादी गुटों की कार्यशैली एक गहरी रणनीतिक योजना के तहत चलती है। एक मज़बूत संगठन है, इसमें एक अनुक्रम है और इसी वजह से ये एक देश में सरकार के कण्ट्रोल के बाहर एक उग्रवादी इकाई की तरह बच पाए।

ये समझना ज़रूरी है अगर आप ISIS को सझना चाहते हैं, ISIS की जड़ AQI यानी अल कायदा इन इराक में है, जिसका मुखिया अबू मुसाब अल ज़रकावी था। ज़रकावी ही ISIS की विचारधारा का जनक है। ऑपरेशन और प्रोपोगंडा दोनों को ही लेकर ISIS का जो नजरिया है वो अल कायदा इन इराक के दो दशकों के तजुर्बे से ही उधार लिया गया है।इसी विचारधारा को टेक्नोलौजी की मदद से और फैलाया गया। बहरहाल ISIS ने दो चीज़ों का ज्यादा निर्णायक तरीके से फायदा उठाया है, उसके पास विदेशी लड़कों की एक बड़ी टीम जुट गयी और साथ ही इन्टरनेट का जम कर इस्तेमाल किया गया। इसलिए हालाँकि भौगोलिक तौर पर उसके कब्जे वाला क्षेत्र सिमट कर सिर्फ तीन फीसदी ही रह गया है फिर भी उसने अपनी पहचान को इस तरह खड़ा कर लिया है कि अल कायदा को भी उस से इर्ष्य होगी। कोई भी ISIS की विचारधारा से प्रभावित होकर उस के नाम पर कहीं भी आतंकी हमला कर सकता है। ये ISIS जैसी संस्था के लिए बहुत मुनाफे का सौदा है जो आज के दिन परदे के पीछे छुपी है और खुल कर सीरिया में अपने दुश्मनों का सामना नहीं कर सकती, लेकिन इस से इंकार करना मुश्किल है कि दुनिया भर में उसकी मौजूदगी बढ़ रही है।

ISJK यानी ISIS जम्मू एंड कश्मीर का नाम सुनने में ही ग़लत या अनुपयुक्त लगता है। लेकिन जम्मू कश्मीर के भविष्य में इसकी वैध्यता या फिर इसकी नाकामी इस बात पर टिकी होगी कि सरकार की आतंक से निबटने की नीति क्या है, आतंक विरोधी नीतियों में पारंपरिक तरीकों से हट कर सोंचने की ज़रूरत है, एक दूरदर्शी और ऐसी नीति की ज़रूरत है जो छोटी बड़ी बारीकियों को समझे। आतंक को ख़त्म करने के लिए सिर्फ पारंपरिक सैन्य ताक़तों का इस्तेमाल काफी नहीं होगा। ये आतंक के खतरे को तुरंत रोकने और सीमित करने में तो कामयाब हो सकते हैं लेकिन ISIS अपनी विचारधारा को लोकप्रिय करने के लिए और वहां अपनी भौगोलिक मौजूदगी ख़त्म होने पर भी मौजूदगी बनाये रखने के लिए जिस तरह का मॉडल इस्तेमाल कर रहा है उसके लिए भारत की आतंक विरोधी नीति में एक नई सोंच की आवश्यकता है।

भारत पहले ही ये समझने में ग़लती कर चुका है कि इस डिजिटल दौर में जहाँ हर तरह की सूचना का आदान प्रदान इतनी आसानी से हो रहा है और इतनी चालाकी से फेक न्यूज़ भी फैलाई जा रही है वहां इस तरह के काल्पनिक आतंकी खतरे से कैसे जूझें। बल्कि सोशल मीडिया पर ग़लत ख़बरों का जो आतंक है उस से निबटने के लिए ISIS और अल कायदा जैसे संगठन खुद कई तरीके अपना रहे हैं। फरवरी में जम्मू कश्मीर के DGP SP वैद्य ने बताया कि अब तक घाटी में ISIS की मौजूदगी का कोई सबूत नहीं है, और इसा फ़ाज़ली द्वारा किया गया आतंकी हमला, जो कि एक फ्रीलान्स जिहादी माना जा सकता है, जिस से श्रीनगर में एक पुलिस अफसर की मौत हो गयी, इस्लामिक स्टेट के नाम पर किया गया हमला माना जा सकता है जिस का फैसला खुद आतंकी ने लिया होगा न की संगठन ने। लेकिन फरवरी के इस बयान के बाद जून पर आइये, एक और हमला और इस बार DGP वैद ने इसे ISJK से जोड़ा, जिस से ISJK के नाम को वैद्यता मिलती है, जबकि बहुत मुमकिन है कि ISJK नाम की कोई चीज़ मौजूद भी न हो, न ही ये ISIS की सोंच में मौजूद थी। लेकिन ये ISIS के प्रचार से जुड़े लोगों के लिए एक और मौक़ा है कि इसका फायदा उठाएं और इस से अपना नाम जोड़ कर इसे अपनी रणनीति की कामयाबी के तौर पर दिखाएं। इस चाल का असर कश्मीर जैसे राज्य पर काफी गंभीर हो सकता है जो पहले से ही तनाव में है।

ISIS के लिए किये गए आतंकी हमलों और ISIS के नाम पर किये गए हमलों में फर्क समझाना ज़रूरी है। तभी इस्लामिक स्टेट की फैलाई पटकथा के जाल से बचा जा सकता है। हालाँकि फ़ाज़ली ने जो किया वो इस्लामिक स्टेट के नाम पर किया और इसे इस्लामिक स्टेट के आधिकारिक मीडिया आमाक़ ने इस पर अपना दावा कर के इसे वैध्यता दी लेकिन ये ध्यान देना ज़रूरी है कि फ़ज़ली ने खुद ISIS को उसके ऑनलाइन एपरेटस के ज़रिये इस हमले पर दावा करने की सूचना दी थी, ISIS ने इस पर खुद दावा नहीं किया था। बहरहाल ISIS आजकल दावा करने की ये नीति इसलिए अपना रहा है ताकि दुनिया में उसका नाम बना रहे,उस पर फोकस बना रहे और वो ये बात ख़ारिज कर सके कि इस्लामिक स्टेट हार गया है। मिसाल के तौर पर पिछले साल अक्टूबर में लॉस वेगास में बंदूक से हुई हिंसा में खून से लथपथ मैन्डले बे होटल की तस्वीर आमने आई तो अमाक़ ने इस पर भी दावा किया। लेकिन ये सब को पता है कि भीड़ पर गोली चलाने की इस घटना का ISIS से कोई लेना देना नहीं था। फाजली ने भी आतंकी हमले के बाद ये खुद दावा किया की ये ISIS का हमला है और इस्लामिक स्टेट ने इसका फायदा एक ऐसे क्षेत्र में तनाव फैलाने के लिए किया जहाँ उसकी कोई मौजूदगी नहीं है, ख़ास कर के मनोवैज्ञानिक तौर पे।

भारत पहले ही ये समझने में ग़लती कर चुका है कि इस डिजिटल दौर में जहाँ हर तरह की सूचना का आदान प्रदान इतनी आसानी से हो रहा है और इतनी चालाकी से फेक न्यूज़ भी फैलाई जा रही है वहां इस तरह के काल्पनिक आतंकी खतरे से कैसे जूझें। बल्कि सोशल मीडिया पर ग़लत ख़बरों का जो आतंक है उस से निबटने के लिए ISIS और अल कायदा जैसे संगठन खुद कई तरीके अपना रहे हैं।

विषमता ये है कि ISIS को खुद इस बात का एहसास है कि वो कश्मीर घटी में अपनी “विलायत” (यानी अपने शासन वाला क्षेत्र) नहीं बना पायेगा। इस संस्थान ने जिन आंकड़ों का अध्यन किया है उसके मुताबिक कई ISIS समर्थक भी ये मानते हैं कि इस्लामिक स्टेट की घाटी में ओपचारिक मौजूदगी नामुमकिन है। कश्मीर एक ऐसा क्षेत्र है जो दो खेमों की जंग में बंटा है।काफ़िर, यानी भारतीय सेना और दूसरी तरफ वो देशभक्त जो अपनी सरज़मीन की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं (यानी आज़ादी की मांग करने वाले और पाकिस्तानी आतंकी गुट)। कोई क्षेत्र आधिकारिक तौर पर ISIS के कब्जे में है या नहीं ये बात एक उलटी कथा फैलाने की दृष्टि से बहुत अहम् है। इसलिए ऐसा कोई भी हमला जो ISIS के नाम पर किया जा रहा है उसे फ़ौरन नकारना ज़रूरी है, ये साफ़ करते हुए कि ISIS की घटी में कोई मौजूदगी नहीं है। और अगर कोई भी ISIS के नाम पर हमला कर रहा है तो वो ऐसा अपनी स्वयं के फैसले पर कर रहा है।

किसी भी क्षेत्र का औपचारिक तौर पर ISIS का “विलायत” यानी उसके प्रशासन वाले क्षेत्र होने के लिए पहले समूह और उसके लीडर अबू बकर अल बगदादी को बायत देनी होती है, यानी वफादारी की क़सम कहानी होती है। यानी पूरी तरह से ये क्षेत्र राज्न्नेतिक, सैनिक और धार्मिक तौर पे खलीफा के आदेश को मानेगा। मिसाल के तौर पर फिलिपींस के मनिला में अबू सयाफ के ग्रुप ने इस्लामिक स्टेट को “बायत” दे कर उसकी खिलाफत को कबूल किया। बघ्दादी ने जब इसे स्वीकार कर लिया तब ग्रुप को अपने हमले की रणनीति, उसे मीडिया में फैलाना और शरिया को इस्लामिक स्टेट के कायदे के मुताबिक मानना ज़रूरी हो गया। अबू सय्याफ को इसके बाद से फिलिपींस क्षेत्र के इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक और लेवांत के नाम से जाना जाने लगा। ISIS के इसी तरह के “विलायत” मिस्र, यमन, लीबिया में हैं। यानी के “बायत” और उसका स्वीकार किया जाना ही किसी गुट के इस्लामिक स्टेट में शामिल होने की वैद्यता को साबित करता है, और उसके बाद भी किन हालत में और किस तरह इसे स्वीकार किया गया ये तय करता है की किसी गुट का इस्लामिक स्टेट के साथ जुड़ना या उसके प्रति वफादारी में कितनी सच्चाई है।

कश्मीर की सरकार और पुलिस तंत्र ने ISJK को क्यूँ वैद्यता देने की कोशिश की इसके कई कारण हो सकते हैं, हो सकता है कि घाटी में बढ़ते आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए सैन्यबल का इस्तेमाल बिना इस डर के करने की आसानी के लिए कि इसका घरेलु या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई असर होगा। या दूसरी वजह ये हो सकती है की तुरंत लाभ के लिए किसी राजनीतिक स्थति का ग़लत अंदाज़ा लगाना। बहरहाल ISIS को वैधता देना आग से खेलने जैसा है। आतंकी हमलों के नज़रिए से नहीं बल्कि घाटी की आबादी की पूरी सोंच को नुकसान पहुँचाने के नज़रिए से। साथ ही ISIS की प्रोपोगंडा तंत्र को जो कमज़ोर करने की कोशिश हो रही है उसको भी नुकसान पहुंचेगा। आज के दौर में इस्लामिक स्टेट का प्रोपोगैंडा तंत्र ने न अपनी धार खोयी है न क्षमता,वो आज भी भारत की ऐसी चुनौतियों से ऑनलाइन लड़ने की क्षमता से ज्यादा सक्षम है।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.