2017 में भारत ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का नेतृत्व करने के लिए इथियोपिया के मामूली राजनेता टेड्रोस अधोनन घेब्रेयेसुस के पक्ष में वैश्विक समर्थन जुटाया. टेड्रोस को चीन का समर्थन हासिल था और वो जीत गए. हालांकि टेड्रोस की जीत के लिए चीन को भारत की मदद की ज़रूरत नहीं थी लेकिन वो चाहता था कि दुनिया के सबसे बड़ा लोकतंत्र का चेहरा टेड्रोस के पक्ष में हो.
2019 के आख़िर में वुहान में जिस महामारी की शुरुआत हुई थी, उसको छिपाने के लिए WHO चीन की मदद कर रहा है और भारत से उम्मीद रखता है कि कोविड19 के ख़िलाफ़ लड़ाई में वो दुनिया का नेतृत्व करे.
WHO के माइकल जे रायन ने कहा, “वायरस कहां से आया ये जानने के लिए हमें पहले सभी मामलों को देखने की ज़रूरत है. जब ख़तरा बड़ा हो जाता है तो हमें ये समझने की ज़रूरत है कि ख़तरा कहां है और कहां मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं. भारत बड़ी आबादी वाला देश है और इस वायरस का भविष्य बेहद ज़्यादा और सघन आबादी वाले देश में माना जाएगा.“ उन्होंने चेचक और पोलियो को जड़ से ख़त्म करने में भारत के काम की तारीफ़ की. रायन ने कहा, “भारत में अद्भुत क्षमता है. ये बेहद महत्वपूर्ण है कि भारत जैसे देश दुनिया को रास्ता दिखाएं जैसे उन्होंने पहले दिखाया था.“
हम सिर्फ़ ये मान सकते हैं कि वो मज़ाक नहीं कर रहे थे. जिस वक़्त भारत ने चीन से 10 हज़ार वेंटिलेटर मंगवाया है, उस वक़्त एक गंभीर सवाल है: चीन और महामारी के बारे में अब हमें जितना पता है, ऐसे में भारत की उच्च-स्तरीय कमेटी में क्या दिल्ली के WHO दफ़्तर को शामिल होने देना बुद्धिमानी है? इसके अलावा कमेटी में शामिल दूसरे विशेषज्ञों के भी WHO से नज़दीकी रिश्ते हैं. निगरानी का दूसरी तरीक़ा डाटा इकट्ठा करना है. क्या ये समय नहीं है कि देश में हितों में टकराव और पारदर्शिता का एलान हो जब इन्हें अंतर्राष्ट्रीय तौर पर मांगा जा रहा है.
WHO को मालूम है कि भारत में बीमारी का दोहरा बोझ है. जेनेवा के विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत में कोविड19 से हालात यूरोप के मुक़ाबले बिगड़ सकते हैं. ये आशंका जताई जा रही है कि समय के साथ वायरस फैलेगा. जब बड़ी ताक़तें जूझ रही हैं उस वक़्त भारत कैसे नेतृत्व करेगा?
भारत के सामने एकमात्र विकल्प है कि महामारी पर काबू करने की कोशिश करते वक़्त स्थानीय क्षमता विकसित करे. इसका मतलब है कि युद्ध स्तर पर अस्पताल और सामुदायिक स्वास्थ्य प्रणाली बनाई जाए. लॉकडाउन बढ़ सकता है जिससे कारोबार को नुक़सान होगा लेकिन भारत में सप्लाई चेन शिफ्ट करने के लिए बड़ा वैश्विक मौक़ा है.
इसमें चीन ने दुनिया को सेहत के मामले में ग़ुलाम बनाकर मानवतावाद के क्षेत्र में वर्चस्व को जोड़ दिया है. ताबूत और मुर्दाघर से लेकर मास्क, दस्ताने, वेंटिलेटर, डॉक्टर, नर्स, खाद्यान्न, पानी और परिवहन की कमी के ज़रिए महामारी ने चीन को दुनिया के मसीहा के रूप में पेश किया है
पूरे यूरोपीय यूनियन के देशों ने अलग-अलग रणनीति अपनाई है. भारत जहां स्वास्थ्य राज्य का विषय है, वहां भी ऐसा होना चाहिए. लॉकडाउन सभी राज्यों पर समान रूप से असर नहीं डालेगा क्योंकि उनका स्वास्थ्य ढांचा और संसाधन अलग-अलग हैं.
जब हालात सामान्य होंगे तब क्या विश्व ज़्यादा संरक्षणवादी होगा? क्या विश्व व्यापार संगठन (WTO) चीन का अगला युद्ध का मैदान होगा? उत्तरी अमेरिका में महामारी के आग की तरह फैलने के साथ ये सवाल अहम है.
इसी तरह दूसरे सवाल भी जैसे क्या WHO के पास अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल- जिसकी वजह से दुनिया भर में सीमा पार व्यापार समेत जीवन के सभी पहलुओं पर असर पड़ता है- घोषित करने की शक्ति होनी चाहिए?
कोविड19 लोकतांत्रिक विश्व की सबसे बड़ी खुफ़िया नाकामियों में से एक है क्योंकि चीन महामारी- इसका नया भू-राजनीतिक हथियार को परोपकार के रूप में पेश कर रहा है. चीन पहले से ही दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य और आर्थिक शक्तियों में से एक है. इसमें चीन ने दुनिया को सेहत के मामले में ग़ुलाम बनाकर मानवतावाद के क्षेत्र में वर्चस्व को जोड़ दिया है. ताबूत और मुर्दाघर से लेकर मास्क, दस्ताने, वेंटिलेटर, डॉक्टर, नर्स, खाद्यान्न, पानी और परिवहन की कमी के ज़रिए महामारी ने चीन को दुनिया के मसीहा के रूप में पेश किया है.
एक सोच जिसे चीन ने WHO के साथ मिलकर फैलाया है, वो ये है कि अभी आरोप लगाने का समय नहीं है क्योंकि महामारी के ख़िलाफ़ सभी ताक़तों को ज़रूर एक हो जाना चाहिए. ये कुछ-कुछ उसी तरह है जैसे द्वितीय विश्व युद्ध के समय मित्र राष्ट्रों के लिए लाखों यहूदियों को बचाने से ज़्यादा ज़रूरी जर्मनी के एडोल्फ हिटलर को हराना था.
क्या भारत से ये यकीन करने में भूल हुई कि टेड्रोस का समर्थन करने से उसे फ़ायदा होगा? ये जानते हुए कि स्वास्थ्य और मानवाधिकार के मामले में उनका रिकॉर्ड अच्छा नहीं है. उस वक़्त भारत की दलील थी कि पहला अफ्रीकी WHO प्रमुख होने की वजह से टेड्रोस हमारी तरह हैं. इस नौकरी के दो और दावेदारों यूनाइटेड किंगडम के डॉ. डेविड नबारो और पाकिस्तान की डॉ. सानिया निश्तार के मुक़ाबले टेड्रोस को ज़्यादा क़रीबी समझा गया.
वैसे तो WHO का चुनाव शायद ही कभी सुर्खियों में आता है लेकिन 2017 में टेड्रोस के चुनाव के वक़्त ऐसा हुआ था. जेनेवा पुलिस ने WHO के इर्द-गिर्द सुरक्षा बढ़ा दी थी और ज़्यादा एहतियात बरती गई थी. WHO के चुनाव में ऐसी स्थिति पहले कभी नहीं आई थी.
चीन का डर और धाक महसूस किया जा रहा था. अफ्रीका में चीन ने बड़े पैमाने पर निवेश किया है. चीन के सहयोगियों के साथ मध्य और दक्षिणी अमेरिका के देशों ने एकजुट होकर टेड्रोस के लिए वोट किया. मैदान में खड़ा पाकिस्तान भी मान गया और पश्चिमी देश भी. उनका मानना था कि WHO चुनाव के लिए चीन से लड़ाई ठीक नहीं है.
WHO के लिए टेड्रोस का दृष्टिकोण था कि नामुमकिन भी मुमकिन है. ऐसा संभव है कि उन्हें ये मालूम नहीं था कि वो कहां जा रहे हैं. उनके बारे में माना जाता है कि उनका ध्यान कहीं और है. यहां तक कि उन्हें ज़्यादा दिलचस्पी भी नहीं है. जब वैज्ञानिक बोल रहे हैं तो टेड्रोस कहीं और मशगूल हैं. लेकिन ऐसा उनके सहयोगियों के बारे में नहीं कहा जा सकता. इन सहयोगियों में उनके पुराने विरोधी डेविड नबारो और कनाडा के ब्रूस एलवार्ड शामिल हैं जिन्होंने ताइवान के बारे में सवाल उठाने वाले एक पत्रकार को रोक दिया.
चीन ने नवंबर 2019 में वुहान के हालात के बारे में दुनिया से झूठ बोला. उस वक़्त चीन ने नये तरह के निमोनिया से लोगों के बीमार होने की चिंताओं को खारिज कर दिया था. इस तरह छिपाने की वजह से बीमारी फैली और लोगों की मौत हुई क्योंकि चीन के नये साल के मौक़े पर लोग एक-जगह से दूसरी जगह यात्रा करते हैं. महामारी को दुनिया के सामने लाने वाले एक डॉक्टर को ख़ामोश कर दिया गया और वो ड्यूटी करते हुए मारे गए. चीन ने डॉक्टर के परिवार से माफ़ी मांगी लेकिन दुनिया से नहीं. WHO चुप है.
ये वक़्त है WHO के ख़तरनाक दोहरे चरित्र को उजागर करने का. इसका संकेत उस वक़्त मिला जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने G20 में भाषण देते वक़्त नेताओं से अनुरोध किया कि, “WHO जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को मज़बूत किया जाए, उनमें सुधार किया जाए और कोविड19 की वजह से आर्थिक परेशानियों को कम करने के लिए ख़ास तौर पर ग़रीबों की दिक़्क़तों को दूर करने के लिए मिलकर काम किया जाए.“
जनवरी 2020 की शुरुआत में टेड्रोस से मांग की गई कि वो अंतर्राष्ट्रीय स्तर का स्वास्थ्य आपातकाल घोषित करें. लेकिन उन्होंने इसे नज़रअंदाज़ कर दिया. जनवरी के मध्य में वो दावोस गए जिस वक़्त WHO ने ट्वीट किया कि, “चीन की सरकार की शुरुआती जांच के मुताबिक़ ऐसा कोई साफ़ सबूत नहीं मिला है जिससे साबित हो कि चीन के वुहान में मिले नोवल कोरोना वायरस का संक्रमण इंसान से इंसान में होता है.“
जनवरी के आख़िर में टेड्रोस ने चीन जाकर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाक़ात की. वहां उन्होंने कहा कि चीन बीमारी को काबू करने में नया वैश्विक मानदंड कायम कर रहा है. उन्होंने “सूचनाओं को साझा करने में चीन के खुलेपन” की भी तारीफ़ की. चीन से टेड्रोस के लौटने के बाद 30 जनवरी 2020 को WHO ने स्वास्थ्य आपातकाल की घोषणा की.
क्या टेड्रोस शी की सहमति का इंतज़ार कर रहे थे? क्या ये जनवरी के आख़िर में महामारी बना?
ORF के अध्यक्ष समीर सरन लिखते हैं, “इस बीच में कोविड19 लगातार एक महामारी की विशेषता दिखाता रहा, पूरी दुनिया में तेज़ी से फैलता रहा. न सिर्फ़ टेड्रोस और उनकी टीम स्वास्थ्य आपातकाल घोषित करने में नाकाम रही, उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से यात्रा प्रतिबंध के ज़रिए डर और भेदभाव नहीं फैलाने का भी अनुरोध किया. WHO ने अमेरिका की तरफ़ से स्वास्थ्य प्रतिबंधों को भी हद से ज़्यादा और गैर-ज़रूरी बताया. WHO की सलाह को मानते हुए यूरोपियन सेंटर फॉर डिज़ीज़ प्रिवेंशन एंड कंट्रोल ने सलाह दी कि यूरोपीय यूनियन में वायरस के संक्रमण की आशंका कम है. इसकी वजह से यूरोप के देश सीमाओं पर अच्छे ढंग से चौकसी नहीं बढ़ा पाए.“
अब लोग कड़ियों को जोड़ रहे हैं. उनके पास बैठकर सोचने का वक़्त है. क्या चीन के सामानों, सेवाओं और क्लिनिकल ट्रायल को पूरी दुनिया में खारिज कर दिया जाएगा?
अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल घोषित करते समय टेड्रोस ने कहा कि चीन नहीं बल्कि कमज़ोर स्वास्थ्य सिस्टम वाले देश समस्या हैं. इससे भारत चर्चा का मुख्य विषय बन गया. उस वक़्त लोगों को ये मालूम नहीं था कि इटली, स्पेन, फ्रांस, जर्मनी, स्विट्ज़रलैंड, अमेरिका, यूके और कनाडा भी ध्वस्त होने वाले हैं. ये सभी लोकतांत्रिक दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश हैं. ज़्यादातर देशों के चीन के साथ बड़े व्यापारिक रिश्ते हैं और ये स्वास्थ्य ज़रूरत दुनिया के शक्तिशाली लोकतंत्रों को बांटने में चीन की मदद कर रही है.
यूरोपियन यूनियन में शामिल ग्रीस पहले ही जेनेवा में चीन की आलोचना करने वाले एक मानवाधिकार प्रस्ताव को रोक कर अलग हो चुका है. हाल के दिनों में कोविड19 से सबसे ज़्यादा प्रभावित इटली, चीन का साथ देकर G7 की एकजुटता को तोड़ चुका है.
ये वक़्त है WHO के ख़तरनाक दोहरे चरित्र को उजागर करने का. इसका संकेत उस वक़्त मिला जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने G20 में भाषण देते वक़्त नेताओं से अनुरोध किया कि, “WHO जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को मज़बूत किया जाए, उनमें सुधार किया जाए और कोविड19 की वजह से आर्थिक परेशानियों को कम करने के लिए ख़ास तौर पर ग़रीबों की दिक़्क़तों को दूर करने के लिए मिलकर काम किया जाए.“
2016 में जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल ने इबोला संकट को लेकर देर से जागने पर WHO की खिंचाई की थी. उस वक़्त इबोला से पश्चिमी अफ्रीका में 10 हज़ार लोगों की मौत हो गई थी. मर्केल ने सुधार की मांग करते हुए कहा था कि WHO अकेला अंतर्राष्ट्रीय संगठन है जिसे वैश्विक स्वास्थ्य को लेकर पूरी दुनिया का समर्थन हासिल है.
नॉर्वे की पूर्व प्रधानमंत्री और WHO की पहले महिला महानिदेशक (1998-2013) ग्रो हारलेम ब्रंडलैंड ने भी सुधारों की कोशिश की थी. उन्होंने कहा था, “दुनिया भर के लोगों की सेहत बेहतर करने में मैं अपनी भूमिका नैतिक आवाज़ और तकनीकी नेता के तौर पर पाती हूं.“ अपनी समयाविधि के दौरान उन्होंने दुनिया को लोगों की सेहत से जुड़ी पहली संधि दी थी: तंबाकू नियंत्रण को लेकर समझौता. असंभव को संभव बनाने में पारदर्शिता और जवाबदेही महत्वपूर्ण हैं.
किसी कारण से पैसे जुटाए जा रहे हैं और सबकी निगाहें WHO पर हैं. उसने कमज़ोर स्वास्थ्य सिस्टम वाले देशों की मदद के लिए 675 मिलियन डॉलर जुटाने की पेशकश की है. WHO ने अपने इतिहास में पहली बार एकजुटता फंड बनाया है जिससे लोगों से चंदा लिया जा सके. इस पर नज़र रखनी होगी.
पूंजीवाद और नव-उदारवाद का दोष निकाला जा सकता है लेकिन उसका जवाब चीन का आधिपत्य नहीं है. WHO को लेकर सवाल उठते रहेंगे. दुनिया में लोगों की सेहत और नैतिकता का ख्याल रखने वाला चीन के लिए छिपाने में ख़ुश क्यों है?
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