Published on May 01, 2020 Updated 0 Hours ago

लग्ज़ेमबर्ग की रियासत अपनी मर्ज़ी से भी और हालात के कारण भी कई यूरोपीय देशों के बीच पुल का काम करती आयी है. जबकि, इसकी हर एक हज़ार आबादी में से दो लोग नए कोरोना वायरस से संक्रमित हैं. ये विश्व के किसी भी देश की आबादी के बीच कोरोना वायरस के संक्रमण का सबसे अधिक अनुपात है.  

कोविड-19: यूरोपीय संघ की तरह दोराहे पर खड़ा लक्ज़ेमबर्ग

अगर कोई दुनिया में इस बात की मिसाल खोज रहा है कि कोई देश घरेलू स्तर पर कोविड-19 की महामारी से निपटने के लिए सख़्त उपाय कर रहा है. लेकिन, उसने अपनी अंतरराष्ट्रीय सीमाएं बंद नहीं की हैं. तो, इसका सबसे शानदार उदाहरण है, यूरोपीय देश लग्ज़ेमबर्ग. आधिकारिक रूप से लग्ज़ेमबर्ग को ग्रैंड डची कहा जाता है. ये एक छोटी सी रियासत है, जिसकी सीमाएं फ्रांस और जर्मनी से मिलती हैं. इसकी राजधानी के दो मील के पत्थर बेहद महत्वपूर्ण हैं. एक तो यहां पर यूरोप के सबसे शानदार क़िलों में से एक क़िला है, जो यहां के सिटी सेंटर का निगहबान है. और दूसरे हैं, विशाल खड्‍डों के आर पार, लग्ज़ेमबर्ग की राजधानी के अलग-अलग इलाक़ों को जोड़ने वाले पुल हैं, जो अपने नीचे बहने वाली अल्ज़ेट को पार करने में लोगों की मदद करते हैं. लग्ज़ेमबर्ग की राजधानी के ये दोनों ही मील के पत्थर यूं खड़े दिखाई देते हैं, जैसे वो इसके मार्गों की रखवाली करते हों. लग्ज़ेमबर्ग, यूरोप के जिस भौगोलिक इलाक़े में मौजूद है, वहां से इसके लिए यूरोपीय संघ में दो में से एक भूमिका का चुनाव करना संभव है. या तो ये रियासत अपनी सीमाओं की क़िलेबंदी कर ले. या फिर अपने दो पड़ोसी देशों के बीच सेतु बन जाए.

लग्ज़ेमबर्ग के लिए अपनी सीमाओं को बंद करने का विकल्प असल में कभी था ही नहीं. क्योंकि, लग्ज़ेमबर्ग अपनी वित्तीय सेवाओं और अपने विकास के लिए यूरोपीय संघ द्वारा प्राप्त अवसरों पर ही निर्भर है. इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात ये है कि लग्ज़ेमबर्ग के क़ानून को यूरोप के कोर्ट ऑफ़ जस्टिस से मान्यता प्राप्त है

कोविड-19 की महामारी के दौर में जब पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद उग्र होकर उभर रहा है. तब हर देश के लिए अपने अपने देश को दूसरों से जोड़ने वाली सीमाओं की घेरेबंदी करना वाजिब विकल्प लगता है. लेकिन, लग्ज़ेमबर्ग ने अपने दरवाज़े हमेशा खोले रखे हैं. लग्ज़ेमबर्ग के लिए अपनी सीमाओं को बंद करने का विकल्प असल में कभी था ही नहीं. क्योंकि, लग्ज़ेमबर्ग अपनी वित्तीय सेवाओं और अपने विकास के लिए यूरोपीय संघ द्वारा प्राप्त अवसरों पर ही निर्भर है. इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात ये है कि लग्ज़ेमबर्ग के क़ानून को यूरोप के कोर्ट ऑफ़ जस्टिस से मान्यता प्राप्त है. इसके अलावा इसके कई वित्तीय संस्थान हैं जिन्हें अन्य देश भी मान्यता देते हैं. ख़ासतौर से यूरोपीय निवेश बैंक. जो यूरोपीय संघ के देशों में किसी आर्थिक संकट के उभरने पर उससे निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. इन दोनों के मुख्यालय लग्ज़ेमबर्ग में ही स्थित हैं. इसके अलावा, लग्ज़ेमबर्ग की अर्थव्यवस्था अन्य देशों से आने वाली वस्तुओं पर निर्भर है. इसके अलावा, यहां के लगभग दो लाख नागरिक हर रोज़ काम करने के लिए, जर्मनी, फ्रांस और बेल्जियम से आवाजाही करते हैं. जैसा कि लग्ज़ेमबर्ग के प्रधानमंत्री ज़ैवियर बेट्टेल ने कह भी कि, ‘अगर हम अपनी सीमाएं बंद कर देते हैं, तो फिर हमें अपने देश के अस्पतालों को भी बंद करना होगा.’ ज़ैवियर बेट्टेल का इशारा उन हज़ारों डॉक्टरों और नर्सों की ओर था, जो बेल्जियम, फ्रांस और जर्मनी से रोज़ाना काम करने के लिए लग्ज़ेमबर्ग आते हैं.

इसीलिए, लग्ज़ेमबर्ग की रियासत अपनी मर्ज़ी से भी और हालात के कारण भी कई यूरोपीय देशों के बीच पुल का काम करती आयी है. जबकि, इसकी हर एक हज़ार आबादी में से दो लोग नए कोरोना वायरस से संक्रमित हैं. ये विश्व के किसी भी देश की आबादी के बीच कोरोना वायरस के संक्रमण का सबसे अधिक अनुपात है.[1]  लग्ज़ेमबर्ग में हर नागरिक को ये पता है कि वो कोरोना वायरस के संक्रमण से बस हाथ मिलाने की दूरी भर से बचे हुए हैं. फिर भी, लग्ज़ेमबर्ग ने अपने यहां के स्कूल बंद करने का फ़ैसला बड़ी देर से, 16 मार्च को लागू किया था. इसके तीन दिन बाद देश भर में आपातकाल लागू करने का एलान किया गया था. जिसके बाद सरकार ने लोगों से कहा कि अगर वो घर से बैठ कर काम कर सकते हैं, तो ऐसा ही करें. और बेहद ज़रूरी न हो तो अपने घरों से बाहर न निकलें. घर और दफ़्तर के अलावा बाक़ी सभी स्थलों को बंद कर दिया गया था. लग्ज़ेमबर्ग का सामाजिक जीवन कुछ बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने तक सीमित कर दिया गया. यहां पर केवल ज़रूरी सेवाएं, जैसे कि सार्वजनिक परिवहन, किराने और दवा की दुकानें और डाक घर ही खुले हुए हैं.

लेकिन, ये सख़्त क़दम बहुत देर से उठाए गए. और तब तक कोरोना वायरस की महामारी पूरे देश में फैल चुकी थी. यूरोपीय संघ के अन्य देशों के साथ साथ लग्ज़ेमबर्ग भी इस संक्रामक महामारी से निपटने के लिए तैयार नहीं था. इसके बावजूद और इस बात को ध्यान में रखते हुए कि यहां पिछली महामारी का प्रकोप कई पीढ़ियों पहले हुआ था, आज लग्ज़ेमबर्ग की वीरान सड़कें देख कर यहां के नागरिकों की अच्छी छवि बनती है. अब तक यहां के लोगों में कोविड-19 की महामारी को लेकर कोई घबराहट नहीं दिखी है. लोगों को अपने देश की अस्पताल व्यवस्था पर भरोसा है. और संक्रमित होने का डर भी कम है. बल्कि इससे ज़्यादा लोग आने वाले आर्थिक संकट को लेकर चिंतित हैं.

लग्ज़ेमबर्ग, यूरोपीय महाद्वीप का प्रमुख वित्तीय केंद्र है. लग्ज़ेमबर्ग अपनी आर्थिक ज़रूरतों के लिए यूरोपीय संघ की स्थिरता पर बहुत अधिक निर्भर है. पिछले दशक में आए यूरो संकट के बाद यूरोपीय संघ के आधे अधूरे संघीय ढांचे की कमियां उजागर हो गई थीं. कोरोना वायरस की महामारी ने यूरोपीय संघ के भविष्य को एक बार फिर से दांव पर लगा दिया है. भले ही, स्वास्थ्य व्यवस्था यूरोपीय संघ के सदस्य देशों की ज़िम्मेदारी के दायरे में आती है. लेकिन, यूरोपीय संघ के जिन क्षेत्रों में कोविड-19 की महामारी का सबसे बुरा प्रभाव देखने को मिल रहा है, उन्होंने यूरोपीय संघ से वाजिब तौर पर मदद की गुहार लगाई. लेकिन, कम से कम इस संकट के शुरुआती हफ़्तों में यूरोपीय संघ के सदस्य देश, व्यापक दृष्टिकोण अपनाने के बजाय अपने अपने राष्ट्रीय हितों को तरज़ीह दे रहे थे. उन्होंने अल्प स्वास्थ्य संसाधनों को अपने नागरिकों के लिए बचा कर रखने का फैसला किया. इस कारण से कोविड-19 से सबसे अधिक प्रभावित स्पेन और इटली के नागरिकों को अपनी देखभाल के लिए अपने अपने देशों की सरकारों के भरोसे छोड़ दिया गया. जिन देशों के बीच कई दशक से सीमाओं पर आवाजाही के वक़्त कोई जांच नहीं होती थी. वहां पर सीमाएं बंद कर दी गई. आने जाने वालों पर निगरानी सख़्त कर दी गई. ऐसे में, किसी एक यूरोपीय देश द्वारा दूसरे देश की मदद करने की मिसालें भी बेहद सीमित हो गईं. अब लोगों के बीच ये ख़याल घर कर रहा है कि इस संकट के दौरान न केवल कोरोना वायरस के मरीज़ों को सांस लेने में दिक़्क़त हो रही है. बल्कि, यूरोपीय संघ का भी दम घुट रहा है.

यूरोपीय संघ के संगठनों की शुरुआती निष्क्रियता की जगह अब कुछ हलचलें देखने को मिल रही हैं. यूरोपीय संघ के स्तर पर देखें तो स्वास्थ्य की मदद के लिए कुछ रक़म का जुगाड़ किया जा रहा है. जबकि यूरोपीय आयोग स्वास्थ्य संसाधनों को तमाम देशों के बीच बांटने के लिए जुटाने का काम कर रहा है. ख़ासतौर से इस महामारी से सबसे अधिक प्रभावित देशों का विशेष ध्यान रखा जा रहा है. अलग-अलग देशों की सरकारें, यूरोपीय संघ की सीमाओं की हिफ़ाज़त के लिए भी प्रयास कर रही हैं. जर्मनी और लग्ज़ेमबर्ग ने हाल ही में फ़ैसला किया कि इस महामारी से मुश्किल में पड़े इटली, स्पेन और फ्रांस के कुछ कोविड-19 मरीज़ों को अपने यहां के अस्पतालों में भर्ती करें. ताकि इन देशों की स्वास्थ्य सेवाओं पर महामारी के कारण अचानक पड़े बोझ को कुछ कम किया जा सके. इसे यूरोप की एकता दिखाने का स्वागत योग्य क़दम कहा जा सकता है.

कोरोना संकट ने हमें इस बात का एहसास भी कराया है कि हमने अपने सार्वजनिक संगठनों को डिजिटल विकल्पों के लिए कितना कम तैयार किया हुआ है. शिक्षा की ही मिसाल लीजिए. लग्ज़ेमबर्ग और यूरोपीय संघ के बहुत से अन्य देशों में, आज जिस तरह की शिक्षा दीक्षा हो रही है, वो उन्नीसवीं सदी के मॉडल पर आधारित है.

अभी ये कहना मुश्किल है कि आगे चल कर यूरोपीय देशों के बीच राष्ट्रवाद को अहमियत मिलेगी. या सभी देश मिल कर एक यूरोप की एकता को प्राथमिकता देंगे. इस समय कोविड-19 की महामारी के आर्थिक प्रभावों से निपटने के लिए कई यूरोपीय देशों की सरकारें, आर्थिक राहत पैकेज पर विचार विमर्श कर रही हैं. लेकिन, जिस तेज़ी से यूरोपीय अर्थव्यवस्था का राष्ट्रीयकरण हो रहा है, उससे लग्ज़ेमबर्ग जैसी छोटी सी रियासत के सामने तो अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा. इसके वित्तीय संस्थान, साझा यूरोपीय मुद्रा यूरो से लाभ कमाते हैं. लग्ज़ेमबर्ग की समृद्धि की बुनियाद में वो बहुराष्ट्रीय कंपनियां हैं, जिन्होंने लग्ज़ेमबर्ग में अपना यूरोपीय मुख्यालय बनाया है. ताकि वो साझा यूरोपीय बाज़ार और लग्ज़ेमबर्ग सरकार द्वारा दी जाने वाली टैक्स रियायतों का अधिकतम लाभ ले सकें. ऐसे में इस बात से किसी को चौंकना नहीं चाहिए कि लग्ज़ेमबर्ग के प्रधानमंत्री ज़ैवियर बेट्टेल उन नौ यूरोपीय प्रधानमंत्रियों में से एक थे, जिन्होंने यूरोज़ोन के 19 सदस्य देशों द्वारा साझा, ‘कोरोना बॉन्ड’ जारी करने की मांग उठाई थी. ताकि, कंपनियों को रियायती दरों पर क़र्ज़ मुहैया कराया जा सके. इससे आगे चल कर कोरोना की महामारी से निपटने के लिए एक साझा यूरोपीय क़र्ज़ नीति का निर्माण हो सकता था. लेकिन, जर्मनी और नीदरलैंड अभी यूनान और इटली की सरकारों द्वारा जारी बॉन्ड की गारंटी देने को तैयार नहीं हैं. और आपसी समझौतों के कारण यूरोपीय संघ ख़ुद से ऐसे बॉन्ड जारी नहीं कर सकता. लेकिन, यूरोपीय संघ ने जिस पिछले आर्थिक संकट का सामना किया था, उससे ये सबक़ मिला था कि मुश्किल समय में साहसिक क़ानूनी व्याख्याओं की आवश्यकता पड़ती है.

समय के साथ क़दम मिला कर चलना:ई-लर्निंग का अभ्यास

कोरोना संकट ने हमें इस बात का एहसास भी कराया है कि हमने अपने सार्वजनिक संगठनों को डिजिटल विकल्पों के लिए कितना कम तैयार किया हुआ है. शिक्षा की ही मिसाल लीजिए. लग्ज़ेमबर्ग और यूरोपीय संघ के बहुत से अन्य देशों में, आज जिस तरह की शिक्षा दीक्षा हो रही है, वो उन्नीसवीं सदी के मॉडल पर आधारित है. आज हज़ारों छात्र घर बैठ कर पढ़ाई कर रहे हैं. ऐसे में शिक्षा व्यवस्था को भी तकनीक के साथ लंबी छलांग लगानी ही पड़ेगी.

सैद्धांतिक तौर पर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की मदद से तैयार शिक्षा के उपकरणों में इस बात की पूरी संभावना है कि वो अधिक प्रभावी साबित हो सकें. और छात्रों को अधिक आकर्षक और उनकी मर्ज़ी के मुताबिक़ पाठ्यक्रम उपलब्ध कराने में मदद कर सकें. लेकिन, अपने सुधरे हुए रूप में भी लग्ज़ेमबर्ग में छात्रों को जो ई-लर्निंग कराई जा रही है, उसके परिणाम इस संभावना के उलट होने की आशंका है. चूंकि ई-लर्निंग की कोई व्यवस्था अभी स्थापित नहीं की गई है. ऐसे में इस महामारी के दौरान ई-लर्निंग के जो पाठ्यक्रम चलाए जा रहे हैं, वो विशेष तौर पर तैयार नहीं किए हऐं. इसीलिए अभी ई-लर्निंग के जो विकल्प आज़माए जा रहे हैं, वो न तो छात्रों की पसंद के हैं. और न ही अध्यापकों और अभिभावकों के बोझ को कम करने में मददगार साबित हो रहे हैं. होम वर्क को ई-मेल पर भेजा जा रहा है. फिर अभिभावक इसका प्रिंट आउट लेते हैं. और किसी अच्छे दिन छात्र इस काम को पूरा कर डालते हैं. फिर वो इसे स्कैन करके अध्यापकों के पास भेजते हैं. फिर अध्यापक उनमें सुधार के सुझाव देते हैं. वापस ई-मेल करते हैं. क्या तकनीक में मौजूद अपार संभावनाओं का प्रयोग करके इस मुश्किल व्यवस्था को और आसान और समय बचाने वाला नहीं बनाया जा सकता था?

वैसे भी, किसी महामारी के वक़्त ई-शिक्षा का फ़ायदा अलग-अलग छात्रों को अलग तरह से होता है. सबसे पहले तो इस सुविधा की आर्थिक पाबंदियों को समझना होता है. हर परिवार के बच्चे घर पर पढ़ाई करने का बोझ नहीं उठा सकते. दूसरी बात ये है कि वर्चुअल कक्षाओं के न होने पर, सारी पढ़ाई इस बात पर निर्भर करती है कि बच्चों के मां-बाप कैसे मध्यस्थ की भूमिका अदा करते हैं. कर्फ्यू के दौरान बचने वाले समय का बच्चे किस तरह से सदुपयोग कर पाते हैं, ये इस बात पर निर्भर करता है कि किसी बच्चे का परिवार समाज के किस वर्ग से आता है. बहुत से लोगों को ऐसा लग सकता है कि जब एक अनजान महामारी से हज़ारों लोग मर रहे हैं, तो हमें पढ़ाई के नुक़सान की फ़िक्र पड़ी है. मगर, यदि हम अपने विद्यालयों को डिजिटल भविष्य के लिए तैयार कर सकेंगे, तो अगर कभी भविष्य में पूरे महाद्वीप की जनता को घरों में क़ैद करना पड़ा, तो हम इस बार के मुक़ाबले पहले से अधिक तैयार होंगे. ज़्यादा तेज़ी और निर्णयात्मक ढंग से क़दम उठा सकेंगे. क्योंकि हमें ये पता होगा कि हमारे इन क़दमों से बच्चों का भविष्य ख़तरे में नहीं पडेगा.

किसी भी संकट से मिले अवसर को बर्बाद नहीं होने देना चाहिए

जब अंतत: लग्ज़ेमबर्ग की सरकार, बच्चों की पढ़ाई के डिजिटल समाधान निकाल सकी. तो वो अमरीका की कंपनी माइक्रोसॉफ्ट पर आधारित था. हाल ही में प्रकाशित हुरुन ग्लोबल एजुकेशन रिच लिस्ट 2020 में शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय अरबपतियों की फेहरिस्त सामने आई थी. इसमें कोई भी अरबपति ऐसा नहीं है, जो यूरोप से कारोबार करता हो. शिक्षा का बड़ा कारोबार, जो आम तौर पर डिजिटल विकल्पों पर आधारित है, वो यूरोप से बाहर स्थित है. अगर हम राहत के आर्थिक पैकेज और यूरो बॉन्ड की मदद से यूरोपीय शिक्षा व्यवस्था में सुधार ला सकें, तो इससे यूरोप के आर्थिक हितों का डिजिटल युग में प्रवेश हो सकेगा. इससे यूरोप के बहुत से हित सधेंगे.

आगे चलकर ऐसा हो सकता है कि शायद हमें यूरोपीय देशों को और क़रीब लाने के लिए कोरोना वायरस की महामारी और इससे उत्पन्न आर्थिक संकट का ही इंतज़ार था. जैसे कि एक दशक पहले के यूरोप संकट से यूरोपीय केंद्रीय बैंक के अधिक सक्रिय भूमिका निभाने का रास्ता खुला था. उसी तरह मौजूदा उठा पटक के बाद यूरोपीय संघ अपनी क़र्ज़ क्षमता का कोरोना बॉन्ड के तौर पर पूरा इस्तेमाल कर सकेगा. ताकि भयंकर मंदी के भवंर में फंसने से यूरोपीय देश ख़ुद को बचा सकें. अब अगर इस काम में लग्ज़ेमबर्ग की रियासत एक सेतु का काम करने का फ़ैसला करती है. तो, लग्ज़ेमबर्ग यूरोपीय देशों को डिजिटल परिवर्तन के लिए एकजुट करके इस क्रांति में अग्रणी भूमिका निभा सकता है. वरना तो, हमारे संकट की गहरी खाई में गिर कर वहीं फंसे रह जाने की आशंका है.

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