Author : Shoba Suri

Published on Sep 20, 2021 Updated 4 Hours ago

बचपन की बीमारियों की रोकथाम के लिए होने वाले व्यापक टीकाकरण अभियान को दोबारा रफ़्तार देने के लिए सभी ज़रूरी कोशिशें होनी चाहिए, जिससे महामारी के चलते इसमें आई कमी की भरपाई हो सके.

भारत में कोविड-19: महामारी के कारण देश में बच्चों के टीकाकरण कार्यक्रम पर दुभार्ग्यपूर्ण असर

टीकाकरण बच्चों की ज़िंदगी सुरक्षित बनाने और उन्हें बीमारियों से बचाने का एक असरदार तरीक़ा है. कम और मध्यम आमदनी वाले देशों में बच्चों के टीकाकरण पर किए गए हर एक डॉलर के निवेश से 44 डॉलर का रिटर्न मिलता है. महामारी के ख़तरे के चलते वर्ष 2020 में दुनिया भर के क़रीब 2.3 करोड़ बच्चों  को नियमित रूप से लगने वाले टीके नहीं लगाए जा सके. इस महामारी ने बच्चों की रोकी जा सकने वाली बीमारियों के नियमित टीके लगाने की प्रक्रिया को चिंताजनक रूप से पटरी से उतार दिया है. हाल ही में टीकाकरण अभियानों और कार्यक्रमों पर कोविड-19 के असर को लेकर हुई समीक्षा में पता चला है कि लॉकडाउन की पाबंदियों, स्वास्थ्य कर्मियों की कमी और संसाधनों को महामारी से लड़ने में झोंकने के चलते, न सिर्फ़ नियमित रूप से लगने वाले टीकों की संख्या कम हुई है, बल्कि सामान्य टीकाकरण अभियान का दायरा भी सिकुड़ गया है.

पूरी दुनिया में टीकाकरण अभियान के विस्तार में एक ठहराव देखा जा रहा है. वर्ष 2020 में वैश्विक स्तर पर केवल 83 प्रतिशत लोगों को सामान्य टीके लगाए जा सके थे और ऐसे बच्चों की संख्या क़रीब 34 लाख बढ़ गई थी जिन्हें टीके नहीं लगे थे. लैंसेट पत्रिका द्वारा हाल ही में की गई एक वैज्ञानिक मॉडल पर आधारित स्टडी में पाया गया कि वर्ष 2020 तक टीकाकरण के दायरे में आने वालों और इससे बाहर के लोगों के बीच का अंतर ख़तरनाक रूप से बढ़ गया था. इस साल ये फ़ासला और बढ़ गया है. इस स्टडी के नतीजों के मुताबिक़, 2020 में डिप्थीरिया- टिटनस- और काली खांसी (DTP) 3 के टीकाकरण में 76.7 प्रतिशत की कमी आई है. वहीं खसरे की वैक्सीन देने में 78.9 फ़ीसद की गिरावट दर्ज की गई है. भारत में DTP3 के टीकाकरण का कवरेज 91 प्रतिशत से घटकर 85 फ़ीसद ही रह गया. विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसफ़ द्वारा हाल ही में जारी किए गए आंकड़े कहते हैं कि भारत में वर्ष 2020 में 30 लाख से ज़्यादा बच्चों को इन टीकों की पहली ख़ुराक नहीं दी जा सकी. वर्ष 2019 की तुलना में टीकों से महरूम बच्चों की ये तादाद दोगुनी हो गई.

पूरी दुनिया में टीकाकरण अभियान के विस्तार में एक ठहराव देखा जा रहा है. वर्ष 2020 में वैश्विक स्तर पर केवल 83 प्रतिशत लोगों को सामान्य टीके लगाए जा सके थे और ऐसे बच्चों की संख्या क़रीब 34 लाख बढ़ गई थी जिन्हें टीके नहीं लगे थे.

भारत में मिशन इंद्रधनुष कार्यक्रम (अब सघन इंद्रधनुष कार्यक्रम या IMI) के तहत बच्चों के टीकाकरण अभियान को ज़बरदस्त रफ़्तार मिली है. इस कार्यक्रम के तहत, हर साल 2.7 करोड़ नवजात बच्चों और 2.9 करोड़ गर्भवती महिलाओं को टीके लगाए जाते हैं. इसके बावजूद भारत में संक्रामक रोग, बच्चों की मृत्यु दर और बीमारी में अहम भूमिका निभाते हैं. न्यूमोनिया और डायरिया प्रोग्रेस रिपोर्ट 2020 के मुताबिक़, इन दोनों बीमारियों से सबसे ज़्यादा मौतों के मामले में नाइजीरिया के बाद भारत का दूसरा नंबर आता है. भारत अगर कुछ क़दम उठा ले, तो न्यूमोनिया और डायरिया से बच्चों की मौत की संख्या काफ़ी कम की जा सकती है. इसके लिए बच्चों को स्तनपान, टीकाकरण, स्वच्छ पानी और साफ़-सफ़ाई की सेवाओं में सुधार और वायु प्रदूषण में कमी जैसे क़दम उठाए जा सकते हैं.

22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के आंकड़े बताते हैं कि बच्चों के (12 से 23 महीनों के) टीकाकरण में काफ़ी सुधार आया है (Figure 1) राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (2015-16) के राष्ट्रीय आंकड़ों को देखते हुए पूरे टीके लगाने की दर 62 प्रतिशत थी.

जानकारी की कमी, असमान वितरण और टीकाकरण

भारत और ऐसे ही ज़्यादा बच्चों वाले देशों की एक बड़ी समस्या कमज़ोर बच्चों के बीच टीकों का असमान वितरण है. सबूत ये बताते हैं कि सामाजिक आर्थिक हैसियत के आधार पर बच्चों के टीकाकरण में भी फ़र्क़ होता है. कम संसाधन और हैसियत वाले परिवारों के बच्चों को बराबर से टीके नहीं लग पाते हैं. हालांकि, भारत के कुछ राज्यों में अमीर और ग़रीब परिवारों के बच्चों के टीकाकरण का ये अंतर कम हुआ है; हालांकि इस समस्या से पार पाने के लिए ज़्यादा लक्ष्य आधारित अभियान चलाने की ज़रूरत है. 2006 से 2016 के दशक के दौरान भारत में टीकाकरण का कवरेज केवल 19 प्रतिशत बढ़ सका है. इसकी सबसे बड़ी वजह जानकारी की कमी, अप्रवासी आबादी का स्वास्थ्य सेवाओं और टीकाकरण तक पहुंच से वंचित होना है. वहीं दूसरी तरफ़, टीके लगवाने को लेकर हिचक भारत की सबसे बड़ी चुनौती है. वैक्सीन को लेकर आशंकाओं के पीछे कई कारण होते हैं. इनमें मां-बाप का शिक्षित होना या न होना, उनकी आमदनी, सुनी-सुनाई बातों पर यक़ीन और टीकाकरण अभियान की जानकारी का न होना शामिल हैं. इस महामारी के चलते शिक्षित और सुविधाओं वाले समुदायों के बीच भी टीके लगवाने को लेकर हिचक पैदा हुई है. इसकी बड़ी वजह ग़लत जानकारी की भरमार है. इंद्रधनुष अभियान के एक विश्लेषण में पता चला है कि सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मचारियों के बीच सही कौशल और क्षमताओं की कमी के चलते लोगों को टीके लगवाने के फ़ायदे बताने का काम ठीक ढंग से नहीं हो पा रहा है. इस अध्ययन में सुझाव दिया गया था कि टीके लगवाने को लेकर ग़लत जानकारियों और मिथकों से बचने के लिए लोगों को सही जानकारी देनी ज़रूरी है.

न्यूमोनिया और डायरिया प्रोग्रेस रिपोर्ट 2020 के मुताबिक़, इन दोनों बीमारियों से सबसे ज़्यादा मौतों के मामले में नाइजीरिया के बाद भारत का दूसरा नंबर आता है. भारत अगर कुछ क़दम उठा ले, तो न्यूमोनिया और डायरिया से बच्चों की मौत की संख्या काफ़ी कम की जा सकती है. 

महामारी के चलते नियमित टीकाकरण अभियान में पड़े खलल से निपटने के लिए, इंडियन अकादेमी ऑफ़ पेडियाट्रिक्स ने कोविड-19 से संक्रमित और संदिग्ध बच्चों को टीके लगाने के लिए कई सुझाव दिए हैं. इबोला वायरस के प्रकोप के दौरान ये देखा गया था कि वास्तविक रूप से संक्रमित होने के जोखिम से ज़्यादा फ़ायदेमंद टीका लगवाना है, क्योंकि उस दौरान महामारी के चलते टीकाकरण अभियान में पड़े खलल से खसरा, मलेरिया और टीबी से इबोला के मुकाबले ज़्यादा लोगों की मौत हुई थी. अफ्रीका में नए कोरोना वायरस से जुड़े जोखिम और सामान्य बीमारियों के टीकाकरण से जुड़े जोखिम के नफ़ा- नुक़सान से जुड़े एक अध्ययन में पाया गया कि, ‘बच्चों को टीका लगवाने के लिए स्वास्थ्य केंद्र लाए जाने के दौरान कोरोना वायरस से हुई एक भी अधिक मौत की तुलना में बच्चों के नियमित टीके लगवाने से कम से कम 84 बच्चों की जान जाने से रोकी जा सकी.’

मार्च अप्रैल 2020 के दौरान ही लॉकडाउन के चलते भारत के लगभग 6 लाख गांवों में चिंताजनक रूप से क़रीब पचास लाख बच्चे नियमित टीकाकरण से महरूम रह गए थे. भारत में कोविड-19 महामारी के चलते नियमित टीकाकरण अभियान में पड़े खलल को समझने के लिए बच्चों के डॉक्टरों के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि नियमित वैक्सीनेशन कार्यक्रम में 50 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है और इससे उबरने की रफ़्तार काफ़ी कम है. बच्चों के लगभग 75 प्रतिशत डॉक्टरों ने टीकाकरण में खलल को लेकर चिंता जताई और कहा कि इससे ग़ैर कोरोना बीमारियों और उनसे मौतों की संख्या बढ़ सकती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के पल्स सर्वेक्षण के मुताबिक़, कोविड-19 महामारी के चलते कई ज़रूर स्वास्थ्य सेवाओं में बाधा पड़ी है (Figure 2). इनमें सबसे ज़्यादा प्रभावित सेवाओं में नियमित टीकाकरण अभियान- या लोगों से संपर्क करने के अभियान (70 प्रतिशत) सुविधाओं पर आधारित सेवाएं (61 फ़ीसद) शामिल हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देश वाले दस्तावेज़ की समीक्षा कहती है कि टीकाकरण अभियान को स्थायी तौर पर ज़ारी रखा जाना चाहिए. इसका ख़ासतौर से ज़ोर उन कमज़ोर तबक़ों पर होना चाहिए, जो महामारी के चलते टीकाकरण से वंचित रह गए हैं. 

विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देश वाले दस्तावेज़ की समीक्षा कहती है कि टीकाकरण अभियान को स्थायी तौर पर ज़ारी रखा जाना चाहिए. इसका ख़ासतौर से ज़ोर उन कमज़ोर तबक़ों पर होना चाहिए, जो महामारी के चलते टीकाकरण से वंचित रह गए हैं. भारत ने फरवरी 2021 में IMI 3.0 की शुरुआत की थी. इसका लक्ष्य उन महिलाओं और बच्चों को टीके लगाना था, जिन्हें महामारी के दौरान नियमित वैक्सीन नहीं लग सकी थी. एक समीक्षा से पता चलता है कि टीकाकरण अभियान के बीच का ये फ़ासला स्वास्थ्य सेवाओं को तैयार करके संस्थागत तरीक़े से अभियान चलाकर पाटा जा सकता है. इससे सबको बराबरी से टीके लगाने की चुनौतियों से निपटना आसान होगा.

इस महामारी के चलते शिक्षित और सुविधाओं वाले समुदायों के बीच भी टीके लगवाने को लेकर हिचक पैदा हुई है. इसकी बड़ी वजह ग़लत जानकारी की भरमार है. 

स्थायी विकास के लक्ष्य हासिल करने के लिए टीकाकरण अभियान तक लोगों की पहुंच को बेहतर बनाना बहुत अहम है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की सावधानी वाली सभी गाइडलाइन का पालन करते हुए नियमित टीकाकरण अभियान को पटरी पर वापस लाने की सख़्त ज़रूरत है. लैंसेट के अध्ययन में कहा गया था कि बच्चों को टीके लगाकर जिन बीमारियों से बचाया जा सकता है, उनके लिए नियमित टीकाकरण अभियान को मज़बूत किए जाने की ज़रूरत है. सबको समान रूप से टीका मिल सके, इसके लिए टीकाकरण अभियान की रफ़्तार को बढ़ाने की ज़रूरत है. स्वास्थ्य शिक्षा और सलाह मशविरे के माध्यम से लोगों को टीके लगाने के फ़ायदे भी बताए जाने चाहिए. इसके साथ साथ टीका लगाने के लिए सुरक्षित माहौल बनाने के लिए स्वास्थ्य कर्मचारियों, ख़याल रखने वालों और समुदाय की ज़रूरतों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. अब समय आ गया है कि भविष्य की पीढ़ियों की जान बचाने के लिए टीकाकरण अभियान में अधिक निवेश किया जाए.

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