Author : Ameya Mondkar

Published on Apr 24, 2020 Updated 0 Hours ago

भारत सरकार और आपदा प्रबंधन से जुड़े सभी मंत्रालयों को चाहिए कि वो राज्यों में अपने समकक्ष विभागों से अति सक्रियता से संवाद करें. इस संवाद में सामाजिक संगठनों और नागरिक समूहों को भी शामिल किया जाए. ताकि संवाद के उनके माध्यम मज़बूत हो सकें.

कोविड-19 का संकट और भारत में संवाद का अभाव

इस समय कोरोना वायरस की महामारी ने पूरी दुनिया पर क़हर बरपाया हुआ है. इस महामारी के कारण न केवल सभी देशों की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था पर अचानक से बहुत बोझ बढ़ गया है. बल्कि, इस संकट ने किसी मुश्किल वक़्त पर संवाद की चुनौती भी खड़ी कर दी है. आज सूचना की खपत का सबसे बड़ा माध्यम सोशल मीडिया बन गया है. ऐसे में संकट के समय साफ और सूचना देने वाले से लेकर सूचना प्राप्त करने वाले विभिन्न समूहों के बीच सीधा संवाद, संकट से निपटने के लिए बेहद आवश्यक है. अगर सूचना स्पष्ट नहीं होगा, तो हम इस महामारी से निपटने के लिए संघर्ष ही करते रहेंगे.

11 मार्च 2020 को विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित कर दिया था. क्योंकि उस समय तक कोरोना वायरस से संक्रमित मरीज़ों की संख्या तेरह गुना बढ़ चुकी थी. उस समय तक भारत में इस वायरस से संक्रमित केवल 62 मामले सामने आए थे. जो विश्व में कुल संक्रमित लोगों का महज़ 0.05 प्रतिशत ही था. जहां एक ओर विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं कई यूरोपीय देशों ने इस महामारी की गंभीरता को समझ लिया था और इससे निपटने के लिए आवश्यक संसाधनों का भी आकलन कर लिया था. लेकिन, उस समय तक भारत संकट के इस महासागर के किनारे बैठा रक्षात्मक रुख़ अपनाए हुए था. ऐसा लग रहा था कि भारत को इस तबाही के आने का इंतज़ार था. सवाल ये है कि क्या भारत ने इस महामारी से निपटने के लिए ज़रूरी उपाय करने में देर कर दी?

भारत में नए कोरोना वायरस के प्रकोप के शुरुआती दिनों में पहले संक्रमण के शिकार हुए राज्यों ने अपने अपने स्तर पर इस महामारी को लेकर जानकारियों और संवाद का तरीक़ा अपने अपने हिसाब से अपनाया था. जबकि केंद्र सरकार उस समय तक इस बात को लेकर स्पष्ट नीति नहीं बना सकी थी कि उसे इस महामारी से निपटने की कैसी राष्ट्रव्यापी नीति का निर्माण करना है. साफ़ है कि इस महामारी को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समन्वय और बेहतर हो सकता था

केंद्र, राज्य और महामारी

28 राज्यों के 736 ज़िलों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों वाले भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में तरह तरह की बोलियां बोली जाती हैं. हर क्षेत्र की अपनी विशेष भाषा और संस्कृति है, जो कई बार तो एक ही राज्य में अलग-अलग होती है. ऐसे में इस संकट को लेकर संवाद करना भारत के लिए बहुत जटिल समस्या बन गया. भारत की सरकार को न केवल 1.3 अरब जनता से संवाद करना था. बल्कि, इसी के साथ सरकार को हर राज्य के लिए विशेष संवाद की व्यवस्था तैयार करनी थी, जो इस संकट के समय संवाद को सुचारू रूप से बनाए रख सके. इस संवाद का मक़सद देश के हर राज्य के समाज के हर तबक़े, ख़ासतौर से ग़रीबों और समाज के हाशिए पर पड़े लोगों तक सही सूचना पहुंचाना था. भारत में नए कोरोना वायरस के प्रकोप के शुरुआती दिनों में पहले संक्रमण के शिकार हुए राज्यों ने अपने अपने स्तर पर इस महामारी को लेकर जानकारियों और संवाद का तरीक़ा अपने अपने हिसाब से अपनाया था. जबकि केंद्र सरकार उस समय तक इस बात को लेकर स्पष्ट नीति नहीं बना सकी थी कि उसे इस महामारी से निपटने की कैसी राष्ट्रव्यापी नीति का निर्माण करना है. साफ़ है कि इस महामारी को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समन्वय और बेहतर हो सकता था. अलग-अलग राज्यों की सरकारों ने महामारी की रोकथाम के लिए कर्फ्यू और धारा 144 लागू करने जैसे उपाय अपनाने शुरू कर दिए थे. वहीं, केंद्र सरकार की तरफ़ से इस बारे में पहला स्पष्ट सूचना 19 मार्च को आया, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में पूरे देश की जनता से 22 मार्च को जनता कर्फ्यू का पालन करने की अपील की. लेकिन, देश के तमाम हिस्सों में कई जगहों पर बड़ी संख्या में लोग पांच मिनट के लिए ताली बजाने और घंटी बजाने के लिए इकट्ठा हो गए. इसका मक़सद महामारी से लड़ रहे स्वास्थ्य कर्मियों का सम्मान करना था. पुलिसकर्मियों और मीडिया का हौसला बढ़ाना था. ज़रूरी सेवाओं के निष्पादन में लगे लोगों का मान बढ़ाना था. लेकिन, जिस तरह ताली बजाने और घंटी बजाने के नाम पर भीड़ इकट्ठा हुई, उससे साफ़ हो गया कि देश की जनता के एक बड़े हिस्से में सोशल डिस्टेंसिंग को लेकर कोई गंभीरता नहीं थी. ताली बजाने को लेकर देश में इतना उत्साह बढ़ गया कि इस दौरान केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के नेतृत्व में कोरोना वायरस की महामारी से निपटने के लिए बनाई गई आर्थिक प्रतिक्रिया की टास्क फ़ोर्स के गठन की प्रमुख ख़बर ही दब गई. दो दिन बाद प्रधानमंत्री मोदी ने पूरे देश में 21 दिनों के लिए पूरी तरह से लॉकडाउन लागू करने का एलान किया. इससे देश के कई हिस्सों में

केंद्र सरकार की तरफ़ से इस महामारी को लेकर दिए गए दोनों ही सूचना प्रतीकात्मक रूप से तो बहुत व्यापक थे. मगर इनमें स्पष्टवादिता और विस्तार से समझाए जाने का अभाव था. इसके विपरीत केरल और महाराष्ट्र समेत कई राज्यों ने इस संकट से जुड़े संवाद को लेकर एक व्यापक एवं समग्र नीति पर अमल आरंभ किया था.

हड़कंप मच गया. लोग बेवजह ही सामान की ख़रीदारी करके जमाख़ोरी करने लगे. केंद्र सरकार की तरफ़ से इस महामारी को लेकर दिए गए दोनों ही सूचना प्रतीकात्मक रूप से तो बहुत व्यापक थे. मगर इनमें स्पष्टवादिता और विस्तार से समझाए जाने का अभाव था. इसके विपरीत केरल और महाराष्ट्र समेत कई राज्यों ने इस संकट से जुड़े संवाद को लेकर एक व्यापक एवं समग्र नीति पर अमल आरंभ किया था. इन राज्यों की सरकारें अपने नागरिकों से लगातार संवाद कर रही थीं. उन्हें महामारी से जुड़े आंकड़े नियमित रूप से दे रही थीं. इन राज्यों की सरकारों ने मीडिया के तमाम माध्यमों के ज़रिए अपनी जनता को बताया कि वो इस महामारी से निपटने के लिए कौन-कौन से उपाय कर रही हैं. जनता और सरकार के बीच ये संवाद देख कर, कई बार ऐसा भी लगा कि एक ही बात को बार-बार दोहराया जा रहा है. लेकिन, इसका एक फ़ायदा ये हुआ कि ये राज्य सरकारें अपनी जनता के हर तबक़े तक अपनी बात पहुंचाने में फल रहीं. और इस कारण से जनता के बीच बेवजह ख़ौफ़ का माहौल बनने की आशंका को कम से कमतर किया जा सका. अब जबकि कोविड-19 महामारी भारत में ‘शुरुआती दौर’ से आगे बढ़ चुकी है और हम अब संकट के महासागर के बीचों बीच-खड़े हैं, तो केंद्र सरकार को चाहिए कि अब वो इस बारे में संवाद को नए स्तर पर ले जाए, जिसके तहत इस संकट के तमाम पहलुओं और स्वास्थ्य व्यवस्था की ख़ामियों जैसे पेचीदा मसलों पर जनता से स्पष्ट रूप से बात की जा सके. इसे संवाद की Rhetorical Arena Theory भी कहा जाता है. जिसके तहते अलग-अलग किरदार मिल कर किसी संकट के बारे में संवाद करते हैं. इस सिद्धांत के तहत संकट से निपटने में जुटे तमाम विभाग और लोग अपने अपने तरीक़े से जनता से ऐसे संवाद करते हैं कि उनके बीच आपसी समन्वय भी बना रहे और बात दोहराई न जाए. न ही संवाद में जनता को विरोधाभास दिखे. जैसे कि केंद्र और राज्यों के सरकारी अधिकारी, अर्ध सरकारी संस्थाएं, आपदा प्रबंधन में लगी टीमें, मीडिया के प्रतिनिधि और ग़ैर सरकारी संगठन, आपस में मिलकर लगातार सलाह मशविरा करके, आंकड़े साझा करके और परिचर्चा करके, संकट से जुड़ी जानकारी जनता तक पहुंचाएं. ऐसे आपसी सहयोग वाली साझीदारियों से संवाद, ज़मीनी स्तर तक पहुंचा पाने में मदद मिलती है. इससे संवाद एक ही दिशा में चलता है और उसमें छोटे स्तर से लेकर व्यापक स्तर तक कोई विरोधाभास नहीं होता. साथ ही साथ आपसी समन्वय से ये सभी भागीदार, फेक न्यूज़ या अफ़वाहें फैलाने वालों को क़ाबू में रख पाते हैं.

समय की मांग समावेशी संवाद है

किसी भी संकट, ख़ासतौर से सार्वजनिक स्वास्थ्य की चुनौती के समय के संवाद की रणनीति तभी असरदार साबित होती है,  जब सटीक जानकारी को जनता के हर तबक़े तक पहुंचाया जाए. चूंकि संवाद शब्द अपने आप में सबको समेटने वाला है, ऐसे में किसी भी सूचना की व्याख्या और उसे किस रूप में देखा जाएगा, ये अलग-अलग समुदायों में अलग-अलग होता है. हालांकि, अभी इस बात पर विवाद बना हुआ है कि भारत में कोरोना वायरस की महामारी किस चरण में प्रवेश कर चुकी है. ये तीसरे चरण यानी कम्युनिटी ट्रांसमिशन में जा चुकी है या नहीं. ऐसे में लोगों तक जानकारी पहुंचाने में जुटे हर विभाग और समूह के लोगों को चाहिए कि ऐसा समावेशी संवाद तैयार करें, जो इस संकट से निपटने के लिए आवश्यक हर तबक़े तक पहुंच सके. जो लोगों की चिंताओं को दूर कर सके. जो हर सामाजिक और आर्थिक तबक़े की आवश्यकताओं का ध्यान रख कर बनाया जाए. चूंकि सार्वजनिक संवाद अलग-अलग माध्यमों से होते हुए लोगों तक पहुंचता है. ऐसे में ये सुनिश्चित करना होगा कि ये समाज के किसी भी वर्ग को न तो नीचा दिखाए और न ही किसी के बीच भेदभाव करे. इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि सरकार और इसके प्रतिनिधि जो भी घोषणाएं करते हैं उनसे नागरिकों के बर्ताव पर कोई उल्टा असर नहीं पड़ना चाहिए. उदाहरण के तौर पर दिल्ली की सरकार अपने राज्य से बड़ी संख्या में अप्रवासी मज़दूरों के उत्तर प्रदेश को पलायन को नहीं रोक सकी. इस संकट ने दिल्ली सरकार के जनता से संवाद की रणनीति में आवश्यक तत्वों के अभाव को पूरी तरह से सामने ला दिया. वहीं, दूसरी तरफ़ महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अपने राज्य में रह रहे अप्रवासियों को अपनी ओर से भरोसे का सूचना दिया. उद्धव ठाकरे इन लोगों को ये समझाने में सफल रहे कि वो उनके हितों का ध्यान रखेंगे. इसके लिए उन्होंने सुरक्षा के शिविर बनाने की घोषणा की. इस तरह से उद्धव ने एक ऐसी मिसाल पेश की, जिसका अनुगमन देश के अन्य राज्यों की सरकारें भी कर सकती हैं. संवाद में ऐसी समावेशी रणनीति, विश्व स्वास्थ्य संगठन के उन दिशा निर्देशों के अनुरूप है, जिन्हें इंटरनेशनल हेल्थ रेग्यूलेशन (IHR) के नाम से जारी किया गया है. जिनके अंतर्गत सरकारों से अपील की गई है कि वो संवाद की रणनीति में मानवाधिकारों का सम्मान करने का विशेष ध्यान रखें.

सरकार ने पूरे देश में जिस लॉकडाउन का एलान किया है, उसे साम्राज्यवाद के दौर के क़ानून एपिडेमिक डिज़ीज़ एक्ट के तहत लगाया गया है. ये क़ानून आज से 123 साल पहले यानी वर्ष 1897 में बना था. इसके अलावा सरकार ने अपनी घोषणा को क़ानूनी जामा पहनाने के लिए वर्ष 2005 में बने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन क़ानून की भी मदद ली है

कोविड-19 की महामारी के अनुभव ने हमें बताया कि क़ानूनों में बदलाव की ज़रूरत है

भारत में नए कोरोना वायरस की वजह से फैली कोविड-19 की महामारी ने ख़तरे की घंटी बजा दी है. इससे न केवल हमारे देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की ख़ामियां उजागर हो गई हैं. बल्कि जोखिम से जुड़े संवाद और संकट के प्रबंधन से जुड़े क़ानूनी ढांचे की कमियों को भी सामने ला दिया है. सरकार ने पूरे देश में जिस लॉकडाउन का एलान किया है, उसे साम्राज्यवाद के दौर के क़ानून एपिडेमिक डिज़ीज़ एक्ट के तहत लगाया गया है. ये क़ानून आज से 123 साल पहले यानी वर्ष 1897 में बना था. इसके अलावा सरकार ने अपनी घोषणा को क़ानूनी जामा पहनाने के लिए वर्ष 2005 में बने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन क़ानून की भी मदद ली है. हालांकि, इन दोनों ही क़ानूनों में इस बात की व्याख्या नहीं की गई है कि किसी संकट के समय संवाद कैसे हो. जबकि संकट के समय आपदा प्रबंधन में जनता से सही संवाद, सबसे महत्वपूर्ण तत्व है. लेकिन, आज समय की मांग ये है कि इन दोनों क़ानूनों में त्वरित गति से परिवर्तन किया जाए. और इनमें राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन के उपायों को भी शामिल किया जाए. आज जिसतरह से संवाद के डिजिटल माध्यमों का दायरा बढ़ गया है, उससे ये आवश्यक हो गया है कि इन तत्वों को भी क़ानून के दायरे में लाया जाए. इसके अलावा विश्व स्वास्थ्य संगठन को चाहिए कि वो इंटरनेशनल हेल्थ रेग्यूलेशन (IHR) में तुरंत परिवर्तन करे. और किसी भी संकट से निपटने और जोखिम से जुड़े संवाद के लिए प्रोटोकॉल तय करे. नीति नियंताओं को चाहिए कि वो ह्योगो फ्रेमवर्क (Hyogo Framework) से प्रेरणा लें. क्योंकि इस फ्रेमवर्क में किसी भी आपदा के दौरान उसके प्रबंधन की पूरी कार्ययोजना के बारे में विस्तार से बताया गया है. इस फ्रेमवर्क में कहा गया है कि, ‘पूर्व चेतावनी के सिस्टम का विकास किया जाए, जो जन केंद्रित हो. ख़ासतौर से ऐसी व्यवस्थाएं विकसित की जाएं, जो समय पर लोगों को इस तरह से चेतावनी दें कि वो उस आम जनता की समझ में आ जाए, जिसे इस संकट से जोख़िम हो. संवाद के इन माध्यमों में आबादी के अलग-अलग तबक़ों उनकी लैंगिकता, संस्कृति और रोज़ी रोटी से जुड़े मसलों का भी ध्यान रखा जाए. इसमें वो दिशा निर्देश भी शामिल हों, जो लोगों को ये बताएं कि वो चेतावनी मिलने पर क्या करें.’ इसी तरह की व्यापक और सर्वहित की समावेशी दिशा निर्देशों को क़ानूनी जामा पहनाए जाने की ज़रूरत है, ताकि भारत में संकट से निपटने के प्रावधान को क़ानूनी जामा पहनाया जा सके.

हालांकि, क़ानून में परिवर्तन लाने में समय लगेगा. ऐसे में भारत सरकार और आपदा प्रबंधन से जुड़े सभी मंत्रालयों को चाहिए कि वो राज्यों में अपने समकक्ष विभागों से अति सक्रियता से संवाद करें. इस संवाद में सामाजिक संगठनों और नागरिक समूहों को भी शामिल किया जाए. ताकि संवाद के उनके माध्यम मज़बूत हो सकें. सूचना स्पष्ट हों और जनता तक पहुंच सकें. और हमें ये सब भारत में कोविड-19 की महामारी के सामुदायिक संक्रमण की शुरुआत करने से पहले ही कर लेना होगा. वरना अगर हमने अभी और इंतज़ार किया तो समाज का हर तबक़ा इस महामारी के प्रवाह में डूबता दिखेगा.

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