Author : Aparna Roy

Published on Nov 22, 2022 Updated 0 Hours ago

विकासशील देशों की आवाज़ और जलवायु परिवर्तन से जुड़े अपने लक्ष्य हासिल करने की समय-सीमा का सटीक पालन करने वाले इकलौते G20 देश के तौर पर भारत विश्व का जलवायु नेतृत्व (climate leader) संभालने को तैयार है.

COP27: भारत का तीन सूत्रीय एजेंडा

ये लेख ‘समान’ लेकिन ‘विभिन्न’ उत्तरदायित्व निभाने का लक्ष्य: COP27 ने दिखाई दिशा! श्रृंखला का हिस्सा है.


अब जबकि दुनिया जलवायु सम्मेलन (COP27) के लिए मिस्र के शर्म अल-शेख़ (Sharm El-Sheikh) शहर में जमा हो रही है, ताकि वो ग्लोबल वार्मिंग (global warming) का नए सिरे से मूल्यांकन कर सके और उन क़दमों को दोहरा सके, जिन्हें जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए फ़ौरन उठाने की ज़रूरत है, और नई चुनौतियों के हिसाब से ढलने की भी आवश्यकता है. तब, हाल ही में जारी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की बदलाव अपनाने में अंतर से जुड़ी 2022 की रिपोर्ट बेहद परेशान करने वाली तस्वीर पेश करती है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़, जलवायु परिवर्तन के असर और गंभीर होने के साथ ही आने वाले वर्षों में और जल्दी जल्दी देखने को मिलेंगे. रिपोर्ट कहती है कि ऐसा तब होगा, जब दुनिया ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) का उत्सर्जन कम करने की शुरुआत कर रही है. जलवायु परिवर्तन के इन दुष्प्रभावों का असर तुलनात्मक रूप से दुनिया के विकासशील देशों को अधिक झेलना पड़ेगा. जबकि दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन में इन देशों का योगदान बहुत कम है. इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की रिपोर्ट, ‘क्लाइमेट चेंज 2022: इम्पैक्ट्स, एडैप्टेशन ऐंड वल्नरेबिलिटी’ की मानें तो दुनिया में इस वक़्त 3.6 अरब आबादी जलवायु परिवर्तन के सबसे बुरे प्रभाव झेलने वाले इलाक़ों में रह रही है. इनमें से ज़्यादातर लोग विकासशील देशों की जनसंख्या का हिस्सा हैं. इन देशों के पास क्षमता, समानता और पर्याप्त संसाधनों की कमी के अलावा विकास संबंधी मौजूदा चुनौतियां भी भरपूर हैं. ऐसे में विकासशील देशों के पास जलवायु परिवर्तन की अनिश्चितता के जोखिमों को कम करने या उसके हिसाब से ख़ुद को ढालने की क्षमता ही नहीं है. मज़बूत कोशिशों के अभाव में ये मंज़र और भी बुरा होने वाला है. विकासशील देशों के कमज़ोर तबक़े, जलवायु संकट के सबसे अग्रिम मोर्चे पर खड़े हैं.

हाल ही में जारी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की बदलाव अपनाने में अंतर से जुड़ी 2022 की रिपोर्ट बेहद परेशान करने वाली तस्वीर पेश करती है. इस रिपोर्ट के मुताबिक़, जलवायु परिवर्तन के असर और गंभीर होने के साथ ही आने वाले वर्षों में और जल्दी जल्दी देखने को मिलेंगे.

धरती का तापमान बढ़ने को केवल 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का मतलब, दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन को 2030 में अभी के स्तर से आधा करना और 2050 तक नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल करना है. हालांकि, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए दुनिया के तमाम देशों ने जो वादे अभी किए हैं, वो आपसी सहमति से तय किए गए इन लक्ष्यों को हासिल करने से बहुत दूर हैं. ये साफ़ है कि दुनिया की बड़ी ताक़तें जलवायु के मामले में असरदार नेतृत्व दे पाने में नाकाम रही हैं. जिस अनिश्चित मगर भयंकर भविष्य का अंदाज़ा लगाया गया है, उसकी चुनौतियों से निपटने के लिए विकासशील देश जलवायु परिवर्तन पर इस सम्मेलन (COP27) की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे हैं. उन्हें एक ऐसे मज़बूत नेतृत्व की तलाश है, जो जलवायु प्रशासन में नेतृत्व की कमी को पूरा कर सके और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए साझा प्रयासों को आगे ले जा सके.

भारत: जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में उभरता अगुवा

भारत इस कमी को पूरा करने के लिए तैयार है. जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने और उसके हिसाब से ख़ुद को ढालने के लिए ठोस और सकारात्मक क़दम उठाकर, भारत ने ज़बरदस्त क्षमता, प्रतिबद्धता और नेतृत्व की संभावनाओं का प्रदर्शन किया है. भारत G20 का इकलौता देश है, जो जलवायु परिवर्तन से जुड़े अपने लक्ष्य सही समय पर हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. हाल ही में संशोधित अपने राष्ट्रीय स्तर पर तय योगदान (NDC) में भारत ने वादा किया है कि वो अपनी GDP में कार्बन उत्सर्जन की हिस्सेदारी 2030 तक, 2005 के स्तर से 45 प्रतिशत कम करेगा. यही नहीं, भारत ने 2030 तक अपनी कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता का 50 प्रतिशत हिस्सा गैर जीवाश्म ईंधन पर आधारित ऊर्जा स्रोतों से हासिल करने का लक्ष्य रखा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में लाइफ (लाइफ स्टाइल फॉर एनवायरमेंट) मिशन की शुरुआत की है. और आज चूंकि भारत अंतरराष्ट्रीय सौर ऊर्जा गठबंधन और आपदा से निपटने लायक़ मूलभूत ढांचे के गठबंधन का नेतृत्व कर रहा है, तो भारत दुनिया के सामने एक ऐसी चमकती मिसाल बनकर उभरा है, जिसने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ऐसे ठोस क़दम उठाए हैं, जिन्हें विकास के मक़सदों के साथ मिलाकर काम किया जा सकता है.

लेकिन, भारत किस तरह से अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके COP27 में एक बराबरी वाले और समावेशी ढांचे को आगे बढ़ा सकता है, जो जलवायु परिवर्तन से जुड़े साझा लक्ष्यों में तब्दील किए जा सकें? भारत ये किस तरह से सुनिश्चित कर सकता है कि COP27 में विकास की असरदार साझेदारियां बनाई जाएं, ताकि विकासशील देशों को जलवायु संबंधी बहुआयामी चुनौतियों से निपटने में मदद मिल सके?

भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 1.9 मीट्रिक टन है. वहीं, अमेरिका का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 15.52 मीट्रिक टन है. ऐसे में भारत को चाहिए कि वो अपनी इस मांग पर मज़बूती से अड़ा रहे कि विकासशील देशों को पर्याप्त समय, वित्तीय और तकनीकी मदद के साथ नीतिगत मौक़ा भी देना चाहिए, ताकि वो कम कार्बन उत्सर्जन वाले भविष्य की ओर बढ़ सकें.

पहला, COP27 में ‘निष्पक्ष वार्ताओं’ को आगे बढ़ाने के साथ साथ भारत को संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन से जुड़ी रूप-रेखा संधि (UNFCCC’s) के साझा मगर अलग अलग क्षमताओं के हिसाब से अलग अलग ज़िम्मेदारियों के सिद्धांत (CBDR-RC) को पूरी तरह से लागू करने पर ज़ोर देना चाहिए. विकासशील देश न केवल ग्लोबल वार्मिंग के लिए बहुत कम ज़िम्मेदार हैं, बल्कि उनकी मौजूदा प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन दर भी बहुत कम है. चूंकि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में विकासशील और विकसित देशों के बीच बहुत फ़र्क़ है ऐसे में किसी विकासशील देश जैसे कि भारत से ये अपेक्षा करना नाइंसाफ़ी होगी कि वो अमेरिका जैसे विकसित देश के बराबर पैसे ख़र्च करके जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए क़दम उठाए. जहां भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 1.9 मीट्रिक टन है. वहीं, अमेरिका का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 15.52 मीट्रिक टन है. ऐसे में भारत को चाहिए कि वो अपनी इस मांग पर मज़बूती से अड़ा रहे कि विकासशील देशों को पर्याप्त समय, वित्तीय और तकनीकी मदद के साथ नीतिगत मौक़ा भी देना चाहिए, ताकि वो कम कार्बन उत्सर्जन वाले भविष्य की ओर बढ़ सकें.

जलवायु परिवर्तन के प्रशासन का मौजूदा ढांचा, हर देश द्वारा कार्बन उत्सर्जन की ‘उचित हिस्सेदारी’ को स्पष्ट करने वाला नहीं है. पेरिस समझौते पर दस्तख़त करने वाले देशों को ख़ुद से ही अपने अपने कार्बन उत्सर्जन घटाने के लक्ष्य करने, अपने क़दमों का मूल्यांकन करने और जलवायु परिवर्तन से जुड़े भविष्य के वादे करने का अधिकार दिया गया है. हर देश द्वारा ख़ुद से तय उत्सर्जन के लक्ष्यों (NDCs) की समीक्षा और उनके पर्याप्त होने का अकलन करने की न्यायोचित और पारदर्शी व्यवस्था नहीं है. इसके कारण विकासशील देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन का असर कम करने के लिए किए गए उपायों में नीतिगत अंतर हमेशा बना रहेगा. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) ये कहता है कि G20 के विकसित देश- जो दुनिया के 75 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं- वो जलवायु परिवर्तन से जुड़े अपने लक्ष्य हासिल करने की सही समय-सीमा पर नहीं चल रहे हैं.

विकासशील देशों की आवाज़ के तौर पर भारत को चाहिए कि वो विकसित और अमीर देशों पर जलवायु परिवर्तन से जुड़ी अपनी कोशिशें तेज़ करने का दबाव बनाए. इस कोशिश में भारत को चाहिए कि वो COP27 को विकासशील देशों के लिए एक ऐसा अवसर बनाए जो समानता और समावेशी होने के सिद्धांत में अपने साझा यक़ीन को दोहराते हुए, जलवायु परिवर्तन के लक्ष्य हासिल करने का साझा रास्ता निर्धारित कर सकें.

दूसरा भारत को चाहिए कि वो विकसित देशों पर इस बात का भी दबाव बनाए कि वो विकासशील देशों को पूंजी और तकनीक उपलब्ध कराएं. इससे विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से लड़ने की अपनी क्षमता बढ़ाने और तबाही लाने वाले जलवायु परिवर्तन के हिसाब से ख़ुद को ढालने में मदद मिलेगी. IPCC की रिपोर्ट कहती है कि 2010 से 2020 के दौरान, जलवायु परिवर्तन के चलते भयंकर मौसम जैसे कि सूखा, बाढ़ और तूफ़ानों ने अमीर देशों की तुलना में सबसे कमज़ोर विकासशील देशों में 15 गुना ज़्यादा लोगों की जान ली है.

भारत को ये मांग करनी चाहिए कि COP27, बदलाव लाने के लिए ज़रूरी पूंजी जुटाने के व्यापक दिशा निर्देश अपनाए. इसके स्रोत तय करे और फिर इस पूंजी के प्रशासन और जवाबदेही का भी एक मज़बूत ढांचा तैयार करे, जो दी जाने वाली मदद को सही ढंग से लागू करने की निगरानी कर सके.

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का आकलन है कि विकासशील देशों को नए हालात के हिसाब से ख़ुद को ढालने के लिए हर साल 70 अरब डॉलर की रक़म चाहिए. क्योंकि अब से लेकर 2030 तक इसकी लागत 140 से लेकर 300 अरब डॉलर तक पड़ने की संभावना है. विकासशील देशों द्वारा, जलवायु परिवर्तन का असर कम करने और नई परिस्थिति के हिसाब से ख़ुद को ढालने के लिए जो क़दम उठाए जाने हैं, उन दोनों के लिए विकसित देशों ने अभी 100 अरब डॉलर की मदद का वादा किया है. ये रक़म जलवायु परिवर्तन के लगातार बिगड़ते असर से निपटने के लिए बहुत कम है. बदलाव लाने से जुड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चाहिए कि वो सबसे कमज़ोर लोगों को पूंजी, तकनीक, मज़बूत क्षमता और संस्थागत संसाधन मुहैया कराए, ताकि वो ख़ुद को नए हालात के हिसाब से ढाल सकें. भारत को ये मांग करनी चाहिए कि COP27, बदलाव लाने के लिए ज़रूरी पूंजी जुटाने के व्यापक दिशा निर्देश अपनाए. इसके स्रोत तय करे और फिर इस पूंजी के प्रशासन और जवाबदेही का भी एक मज़बूत ढांचा तैयार करे, जो दी जाने वाली मदद को सही ढंग से लागू करने की निगरानी कर सके.

तीसरा, वैसे तो नुक़सान और क्षति (L&D) भी COP27 के एजेंडे में शामिल है और कमज़ोर देशों के लिहाज़ से ये बात तारीफ़ के क़ाबिल है. लेकिन, भारत को ये सुनिश्चित करना चाहिए कि वार्ताओं में इस मुद्दे पर सकारात्मक रुख़ अपनाते हुए,र इस मुद्दे को उसकी अहमियत के हिसाब से ही गंभीरता से लेकर इस पर ध्यान केंद्रित किया जा सके.

IPCC ने बताया है कि सबसे असरदार बदलाव के उपाय भी जलवायु परिवर्तन के सबसे कमज़ोर क्षेत्रों में सभी तरह के नुक़सान और क्षति को रोकने में सफल नहीं होंगे. ऐसे में भारत को चाहिए कि वो नुक़सान और क्षति के सैंटियागो नेटवर्क (SNLD) को लागू करने और इसके लिए पूंजी उपलब्ध कराने को तेज़ी देने पर ज़ोर दे. इससे संबंधित संगठनों, संस्थाओं नेटवर्कों और विशेषज्ञों को विकासशील देशों में स्थानीय, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर नुक़सान और क्षति कम करने में, रोकने में और इस चुनौती से निपटने में मदद की जा सकेगी. इससे जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा असर झेल रहे देशों को ख़ास तौर से मदद मिल सकेगी.

शर्म अलशेख़ सम्मेलन में भारत

शर्म अल-शेख़ सम्मेलन में भारत के ऊपर सबसे अहम ज़िम्मेदारी है- कि वो अंतरराष्ट्रीय समुदाय को लक्ष्य लागू करने के लिए एकजुट कर सके. क्योंकि सभी देशों को दिनों-दिन जटिल होते जा रहे जलवायु संकट के ख़िलाफ़ ‘एकजुट’ रहना चाहिए. दुनिया, G20 और COP27 में भारत के नेतृत्व की ओर उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है. भारत को चाहिए कि वो विकसित देशों को ये बात समझा सके कि अगर आज वो कुछ नहीं करते हैं, विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ज़रूरी बदलाव लाने में मदद नहीं करते हैं, तो उससे दिनों दिन बढ़ते जलवायु संकट से आने वाले समय में तबाही और भी बढ़ेगी. इसके लिए और क्रांतिकारी क़दमों की ज़रूरत होगी. इसमें आने वाले भविष्य में जलवायु संकट से निपटने के लिए अधिक पूंजी की दरकार भी शामिल है. दुनिया, जलवायु परिवर्तन से निपटने के महत्वाकांक्षी लक्ष्य पूरे करने में अब और देरी का बोझ नहीं उठा सकती है. शर्म अल-शेख़ का जलवायु सम्मेलन, ‘ठोस क़दमों का अवसर’ होना चाहिए.

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