Published on Oct 12, 2022 Updated 0 Hours ago

विकास पर बढ़ते ब्याज़ दरों के दुष्प्रभाव की रोकथाम के लिए राजकोषीय नीति का प्रयोग ज़रूरी है.

मौद्रिक नीति और राजकोषीय नीति में तालमेल ज़रूरी!

रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया (RBI) के सामने एक नामुमकिन चुनौती है. उसे आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार घटाए बिना, महंगाई पर लगाम लगानी है. इस मक़सद के लिए उसके पास चार औज़ार हैं: घरेलू ब्याज़ दरें तय करना, तरलता प्रबंधन, विदेशी मुद्रा विनिमय दरों में उतार-चढ़ाव रोकने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल करना और बैंकिंग क्रियाकलापों को नियमित करने का अधिकार. इनमें से आख़िरी उपाय केंद्रीय बैंक की बुनियादी भूमिकाओं में से एक है. बहरहाल, इस सिलसिले में रिज़र्व बैंक को मददगार राजकोषीय नीति की उम्मीद रहेगी.

ब्याज़ दर में बढ़ोतरी से महंगाई पर नकेल

एक ही वक़्त पर ब्याज़ दर के मोर्चे पर की गई कार्रवाई अंतरराष्ट्रीय निवेशकों के लिए इस बात का संकेत है कि RBI जैसा राष्ट्रीय मौद्रिक प्राधिकार, स्थायित्व के बचाव के लिए प्रतिबद्ध है. 30 सितंबर 2022 को RBI गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा “केंद्रीय बैंक दरों में आक्रामक बढ़ोतरी से नए फ़ासले तय कर रहे हैं, चाहे इससे निकट भविष्य में आर्थिक वृद्धि की कुर्बानी ही क्यों न देनी पड़े.” इस तरह उन्होंने घरेलू ब्याज़ दरों को, विकसित अर्थव्यवस्थाओं में ब्याज़ दरों में होने वाली बढ़ोतरी से जोड़ने की मजबूरी को भी रेखांकित किया. हालांकि विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तरह हमारी अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहनकारी वित्तीय नीतियों का लाभ नहीं मिल पाया है. यही नीति मुद्रास्फीति की ऊंची दर के पहले की कड़ी है, जिसका मक़सद था- पारिवारिक आमदनी की हिफ़ाज़त के लिए अदा की जाने वाली क़ीमत और महामारी में आई मंदी के बीच कारोबार जगत की मदद करना.

केंद्रीय बैंक दरों में आक्रामक बढ़ोतरी से नए फ़ासले तय कर रहे हैं, चाहे इससे निकट भविष्य में आर्थिक वृद्धि की कुर्बानी ही क्यों न देनी पड़े.” इस तरह उन्होंने घरेलू ब्याज़ दरों को, विकसित अर्थव्यवस्थाओं में ब्याज़ दरों में होने वाली बढ़ोतरी से जोड़ने की मजबूरी को भी रेखांकित किया.

भारत में प्रोत्साहनकारी उपाय निचले स्तर पर थे. केंद्र और राज्य सरकारों का संयुक्त राजकोषीय घाटा 2019-20 में जीडीपी के 7.2 प्रतिशत के बराबर था, जो 2020-21 में तेज़ी से बढ़कर 13.9 प्रतिशत हो गया और आगे चलकर 2021-22 में 10.4 प्रतिशत रह गया. हालांकि हमारी अर्थव्यवस्था 2008-09 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से ही धीमी आंच पर गर्म हो रही थी. 2008-09 में राजकोषीय घाटा 8.3 प्रतिशत तक पहुंच गया था. बाद के साल (2009-10) में वित्तीय घाटा 9.3 प्रतिशत पर था. राजकोषीय जवाबदेही और बजटीय प्रबंधन अधिनियम, 2004 (FRBM) के तहत राजकोषीय घाटे का अनुमानित लक्ष्य 3 प्रतिशत तय किया गया है. हालांकि बाद के कालखंड में इस लक्ष्य के हिसाब से कम होने की बजाए राजकोषीय घाटा 2010-11 से 2019-20 तक 10 में से 9 वर्षों तक तक़रीबन 7 प्रतिशत के इर्द गिर्द रहा है.

वित्तीय नीति लगातार टिकाऊ सीमा से ऊपर

महामारी और यूक्रेन संकट के तौर पर दोहरी मार झेलने के पहले से ही ढीली-ढाली राजकोषीय नीति में मुद्रास्फीति से जुड़ी आशंकाएं जुड़ी हुई थीं. इसने धीरे-धीरे प्रोत्साहनकारी उपायों पर अमल करने की वित्तीय क्षमताओं (विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तरह) को कमज़ोर कर दिया. लिहाज़ा महामारी के दौरान बेहद नियंत्रित और लक्षित वित्तीय नीति अपनाने की ही छूट मिल पाई.

आशिंक तौर पर इसकी वजह पूंजी का पलायन रोकने के लिए घरेलू ब्याज़ दरों को प्रतिस्पर्धी बनाए रखने की क़वायद है. RBI की इस मुस्तैद कार्रवाई से साफ़ है कि वो व्यापक अर्थव्यवस्था में स्थायित्व बरक़रार रखने के लिए कथनी को करनी में बदलने का इरादा रखता है.

ऐसा लगता है कि आपूर्ति पक्ष से क़ीमतों से जुड़े चंद झटके मुख्य महंगाई के साथ जुड़ गए हैं. दरअसल घरेलू मोर्चे पर मूल्य वर्धन और नौकरियों के निर्माण को वरीयता दी जा रही है. इसके हिसाब से नए सिरे से आपूर्ति के स्रोत तैयार करने या घरेलू स्तर पर आपूर्ति किए जाने से आपूर्ति श्रृंखला का स्थायी पुनर्निर्धारण हो गया है. दरअसल ढीली-ढाली राजकोषीय नीति के चलते ब्याज़ दरों में होने वाली बढ़ोतरी की मुद्रास्फीति को कुंद करने की ताक़त मंद पड़ जाती है. केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा 2025-26 तक जीडीपी के 4.5 प्रतिशत के स्तर से ऊपर ही बना रहेगा. राज्य सरकारों के लिए अतिरिक्त 2 फ़ीसदी वित्तीय घाटे की छूट दिए जाने से संयुक्त राजकोषीय घाटा जीडीपी के 6 प्रतिशत के स्तर के आस-पास पहुंच जाता है, जो FRBM क़ानून के तहत तय 3 प्रतिशत की सीमा से काफ़ी ऊपर है.

घरेलू मुद्रा की हिफ़ाज़त

रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति ने 30 सितंबर 2022 को रेपो रेट (वो दर जिसपर वाणिज्यिक बैंक RBI से ऋण ले सकते हैं) में 0.5 प्रतिशत अंक की बढ़ोतरी (5.40 से 5.90 फ़ीसदी) कर दी. आशिंक तौर पर इसकी वजह पूंजी का पलायन (जिससे मुद्रा पर दबाव बढ़ता है) रोकने के लिए घरेलू ब्याज़ दरों को प्रतिस्पर्धी बनाए रखने की क़वायद है. RBI की इस मुस्तैद कार्रवाई से साफ़ है कि वो व्यापक अर्थव्यवस्था में स्थायित्व बरक़रार रखने के लिए कथनी को करनी में बदलने का इरादा रखता है, ताकि भरोसा पैदा हो और निवेशकों के बीच सकारात्मक धारणा बने.

भारत में रेपो रेट अब अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व की दर (3.75 फ़ीसदी) से 2 प्रतिशत अंक से भी ज़्यादा है. ये ना तो किसी सनक का नतीजा है और ना ही कोई असाधारण बात. वैश्विक आर्थिक संकट के दौरान ब्याज़ दरों में अंतर 4.75 से लेकर 6.25 प्रतिशत के बीच बदलता रहा था. भारत में फ़िलहाल महंगाई दर 7 प्रतिशत है, जो अमेरिका और यूरोप के अन्य विकसित अर्थव्यवस्थाओं से 1 फ़ीसदी (या ज़्यादा) नीचे है. लिहाज़ा भारत में पूर्व के मुक़ाबले इस वक़्त इन दरों में निम्न अंतर जायज़ दिखाई देता है. उम्मीद है कि अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व 2023 के मध्य तक 4.5 से 5 प्रतिशत के बीच FF दर (ऊपरी सीमा) का लक्ष्य लेकर चलेगा. इसका मतलब ये है कि महज़ मौजूदा अंतरों को बरक़रार रखने के लिए इस वित्त वर्ष के ख़ात्मे से पहले रेपो रेट बढ़कर 6.5 से 7 प्रतिशत तक पहुंच सकता है.

रेपो रेट में बदलाव के पीछे मुद्रा के प्रबंधन, महंगाई की रोकथाम और आर्थिक वृद्धि के बचाव में कुशलतापूर्वक संतुलन साधने का लक्ष्य रहता है. मई 2014 में मोदी सरकार के सत्ता संभालते वक़्त रेपो रेट 8 प्रतिशत के स्तर पर था. अगले तीन वर्षों यानी अगस्त 2017 तक ये 6 प्रतिशत तक घट गया.

फ़ेडरल रिज़र्व द्वारा आसान मुद्रा नीति को पलटे जाने से अमेरिकी डॉलर का भाव सभी मुद्राओं के मुक़ाबले काफ़ी बढ़ गया है. दूसरी अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं की तुलना में भारतीय रुपए में कम गिरावट दर्ज की गई है- 28 सितंबर 2022 के हिसाब से रुपए में साल में 9 प्रतिशत, जबकि चीनी युआन में 23 प्रतिशत की गिरावट हुई है. इस तरह हमारा आयातित महंगाई से बचाव हो जाता है, लेकिन निर्यात की प्रतिस्पर्धा को नुक़सान पहुंचता है. दरअसल रुपए पर बिक्री का दबाव थामने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल किया जाता है.

आर्थिक वृद्धि की हिफ़ाज़त

रेपो रेट में बदलाव के पीछे मुद्रा के प्रबंधन, महंगाई की रोकथाम और आर्थिक वृद्धि के बचाव में कुशलतापूर्वक संतुलन साधने का लक्ष्य रहता है. मई 2014 में मोदी सरकार के सत्ता संभालते वक़्त रेपो रेट 8 प्रतिशत के स्तर पर था. अगले तीन वर्षों यानी अगस्त 2017 तक ये 6 प्रतिशत तक घट गया. अप्रैल 2019 से इसमें धीरे-धीरे गिरावट का दौर देखा गया. मई 2020 तक ये दर 4 प्रतिशत तक आ गया और अप्रैल 2022 तक इसी स्तर पर बना रहा. मई 2022 से सितंबर 2022 के बीच पांच महीनों के कालखंड में इसमें 1.9 प्रतिशत अंकों की बढ़ोतरी हुई और रेपो रेट 5.9 प्रतिशत पर पहुंच गया. अंतरराष्ट्रीय बेंचमार्क दरों में सख़्ती के चलते ये दौर देखने को मिला है. दरअसल अगस्त 2022 में भारत में घरेलू मुद्रास्फीति 7 प्रतिशत पर थी, जबकि बाहरी स्तर पर इसका मानक 6 प्रतिशत का है.

आर्थिक वृद्धि को हवा देने के साथ-साथ ईंधन और खाद्य क़ीमतों में महंगाई के झटकों का असर कम करने के लिए पूरक वित्तीय नीति बेहतर है. बढ़ते ब्याज़ दरों और वैश्विक अनिश्चितता के माहौल में केंद्र सरकार की परफ़ॉरमेंस लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) स्कीम नए निजी निवेशों को बढ़ावा देती है. 2019 में कॉरपोरेट टैक्स को 25 प्रतिशत के प्रतिस्पर्धी स्तरों तक घटा दिया गया था. महामारी के दौरान RBI ने तरलता से जुड़ी रुकावटों को आसान बना दिया था, जो आज भी अनुकूल बने हुए हैं.

विकास से जुड़े प्रोत्साहनों की ग़ैर-मौजूदगी

महामारी से पहले भी विकास दर निचले स्तरों पर ही थी. RBI ने चालू वित्त वर्ष के लिए विकास की अनुमानित दर को 7.2 प्रतिशत से घटाकर 7 प्रतिशत कर दिया है. आगे चलकर इसे और कम किया जा सकता है. 2022-23 की पहली तिमाही में 14 प्रतिशत विकास का आंकड़ा देखने में लुभावना लगता है. हालांकि 2021-22 की पहली तिमाही में महामारी के प्रभाव से विकास का आधार निम्न (32.5 खरब रु) था. अगर हम 2019-20 की पहली तिमाही के रूप में वैकल्पिक आधार का प्रयोग करें तो विकास दर 14 प्रतिशत से फिसल कर 3.3 प्रतिशत पर आ जाती है. साल 2019-20 की पहली तिमाही महामारी से पहले के दौर में आख़िरी सामान्य तिमाही थी.

महामारी से पहले की आख़िरी तिमाही (2019-20 की पहली तिमाही) में भी विकास दर महज़ 5.4 फ़ीसदी थी. महामारी के प्रभावों से उबर रही अर्थव्यवस्था उसी निम्न स्तरीय उत्पाद संतुलन पर वापस लौट रही है, जिसपर वो महामारी से पहले क़ायम थी. RBI द्वारा विकास दरों के आकलन से भी यही बात ज़ाहिर होती है, जो चालू वित्त वर्ष की बाक़ी तिमाहियों में लगातार घटकर 6 प्रतिशत से 4 प्रतिशत पर आ गई है. विदेशी मोर्चे पर प्रतिकूल परिस्थितियों और घरेलू ब्याज़ दरों में बढ़ोतरियों के मद्देनज़र वित्त वर्ष 2023-24 में 7.2 प्रतिशत की अनुमानित विकास दर आशावादी लगती है.

सौ बात की एक बात ये है कि घरेलू और विदेशी निवेशकों के लिए भारत आकर्षक बना हुआ है. इसके बावजूद, कर से अतिरिक्त राजस्व कमाने के विकल्प सीमित हैं. लिहाज़ा सार्वजनिक बजट आवंटनों को समेटने और कांट-छांट करने के लिए यही माकूल वक़्त है. इसके लिए सार्वजनिक ख़र्च की दक्षता में बढ़ोतरी करनी होगी.

बुनियादी दर में बढ़ोतरी किस हद तक विकास की रफ़्तार रोकेगी, ये अभी साफ़ नहीं है. आधार दर में बढ़ोतरी से आगे चलकर बैंक द्वारा उत्पादक क्षेत्रों को ऋण दिए जाने की क़वायद पर असर पड़ता है. इस प्रभाव को कम से कम करने के लिए बैंकों को अपनी क्रियात्मक दक्षता में सुधार लाने के लिए प्रेरित करना होगा. पिछले तीन वर्षों में बैंकों ने अपने एसेट पोर्टफ़ोलियो में सुधार करते हुए नुक़सानों के लिए प्रावधान किए हैं. बहरहाल समझदारी से ऋण देने की क़वायद ने संस्थागत रूप लिया है या नहीं, ये अभी साफ़ नहीं है. विकास पर बढ़ते ब्याज़ दरों के प्रभाव की रोकथाम करने के लिए RBI को बैंकों की ऑपरेटिंग मार्जिन की गुंजाइश पर और दबाव डालना होगा.

मुद्रास्फीति से जुड़े दबावों की रोकथाम

भले ही RBI ने चालू वित्त वर्ष में 6.7 प्रतिशत और 2023-24 में 5 फ़ीसदी महंगाई दर की उम्मीद जताई है, लेकिन महंगाई से जुड़े दबाव बढ़ रहे हैं. नीतिगत मसलों से मुद्रास्फीति का दबाव ऊंचे आयात करों से पैदा होता है. तेल, खाद और खाद्यान्न के सिलसिले में आयातित महंगाई को ख़ुदरा मूल्य की प्रशासकीय प्रणाली ने पूरी तरह से आगे नहीं बढ़ने दिया है. सरकार के विस्तृत राजकोषीय घाटे के आंकड़ों से ये दबाव ज़ाहिर होते हैं. केंद्र और राज्य सरकारों के संयुक्त स्तर पर ये आंकड़ा जीडीपी के 10 प्रतिशत से भी ज़्यादा है, जो बाहरी सतत स्तरों से 4 प्रतिशत अंक अधिक है. मूल्य वर्धित अप्रत्यक्ष करों (जीएसटी) से कर राजस्व में थोड़ी-बहुत उछाल देखने को मिली है. दरअसल वस्तुओं और सेवाओं की क़ीमतें महंगाई को सोख ले रही हैं, जिससे व्यापक अर्थव्यवस्था में स्थायित्व की बेहद उदार तस्वीर दिखाई दे रही है.

निर्यात की बढ़ोतरी पर टिका है बाहरी खाते का स्थायित्व    

रिज़र्व बैंक के गवर्नर ने बाहरी मोर्चे पर कुछ सकारात्मक बातें गिनाई हैं. विदेशी मुद्रा भंडार 537 अरब अमेरिकी डॉलर के स्तर पर है, जो 8 महीनों से ज़्यादा के आयात के लिए पर्याप्त है. दूसरे सकारात्मक संकेतकों में- जीडीपी में बाहरी कर्ज़ का निम्न अनुपात और अल्पकालिक ऋणों का छोटा हिस्सा शामिल हैं. 2022-23 की पहली तिमाही में व्यापार घाटा 8 प्रतिशत पर है. उधर चालू खाते का घाटा 2.58 प्रतिशत पर है, जो चिंता का सबब बना हुआ है. दरअसल विदेशों में कम मांग के चलते निर्यात की वृद्धि अटकी हुई है. उतार-चढ़ावों के बावजूद स्टॉक बाज़ार में मज़बूती क़ायम है, जबकि विदेशों में बर्बादी के दौर देखे जा रहे हैं. FDI और पोर्टफ़ोलियो की आवक उत्साहजनक बनी हुई है.

सौ बात की एक बात ये है कि घरेलू और विदेशी निवेशकों के लिए भारत आकर्षक बना हुआ है. इसके बावजूद, कर से अतिरिक्त राजस्व कमाने के विकल्प सीमित हैं. लिहाज़ा सार्वजनिक बजट आवंटनों को समेटने और कांट-छांट करने के लिए यही माकूल वक़्त है. इसके लिए सार्वजनिक ख़र्च की दक्षता में बढ़ोतरी करनी होगी. साथ ही विनिर्माण और नवीकरणीय ऊर्जा में बेहद सक्रिय औद्योगिक नीति की कार्यकुशलता और वित्तीय टिकाऊपन पर भी क़रीबी से नज़र डालनी होगी. GST को तर्कसंगत बनाने और आयात करों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहतरीन तौर-तरीक़ों के हिसाब से ढालने से अल्पकाल में राजस्व पर असर पड़ सकता है. बहरहाल घरेलू मोर्चे पर मूल्य पर दबाव की काट के लिए उपभोक्ता के हाथ में ज़्यादा बचत बनाए रखकर मांग को बढ़ावा देने और घरेलू उद्योग को ज़्यादा कार्यकुशल बनाने के लिए प्रतिस्पर्धी दबाव बनाने के लिए, ये अब भी बेहतरीन तरीक़ा बना हुआ है. ऐसे में सारी ज़िम्मेदारी अब सीधे-सीधे वित्तीय नीति पर आ गई है.

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