Published on Jan 28, 2021 Updated 0 Hours ago

देश में तेज़ी से बढ़ती शहरी बस्तियों को देखते हुए, भारत ने पिछले छह वर्षों के दौरान शहरी विकास के कार्यक्रमों में 10.57 लाख करोड़ रुपयों का निवेश किया है

लचीले शहरों का निर्माण: बजट का गुणा-गणित सही बिठाने की कोशिश

वर्ष 2030 के आते-आते भारत की 60 करोड़ आबादी शहरों में रहने लगेगी. हर साल, भारत के शहरों का दायरा 70 से 90 करोड़ वर्ग मीटर बढ़ता जा रहा है. यानी भारत के शहरों में हर साल एक नया शिकागो शहर जुड़ता जा रहा है. इसी तरह भारत में ऐसे क़स्बों की संख्या भी बढ़ेगी, जिन्हें हम शहर बनने के कगार पर खड़े क़स्बे कह सकते हैं. वर्ष 2001 से 2011 के बीच, देश में ऐसे क़स्बों की तादाद में 2532 का इज़ाफ़ा हुआ था. आज इन क़स्बों में देश की कुल शहरी आबादी का 14 प्रतिशत हिस्सा बसता है.

देश में तेज़ी से बढ़ती शहरी बस्तियों को देखते हुए, भारत ने पिछले छह वर्षों के दौरान शहरी विकास के कार्यक्रमों में 10.57 लाख करोड़ रुपयों का निवेश किया है. इनमें स्वच्छ भारत अभियान (देश भर में साफ सफाई और सैनिटेशन की योजना) और शहरी पुनर्जीवन के लिए अम्रुत (AMRUT) मिशन और देश में 100 स्मार्ट शहर बसाने की योजना जैसे कार्यक्रम शामिल हैं. इन सुधारों का मक़सद, देश के शहरों में रह रहे लोगों के लिए सम्मानजनक, सुरक्षित और स्वस्थ भविष्य का निर्माण करना है.

हालांकि, शहरों के विकास की ये योजनाएं सीधे ऊपर से आती हैं, और इनसे शहरों की वित्तीय स्वायत्तता को मज़बूती नहीं मिलती है. न ही ये योजनाएं, शहरी स्थानीय निकायों (Urban Local Bodies ULBs) की क्षमता का विकास करती हैं, जिससे कि वो शहर और उसके नागरिकों के बुनियादी ढांचे के विकास की बढ़ती ज़रूरतों और मांग को पूरा कर सकें. अब बड़ा सवाल ये है कि अपनी सीमित वित्तीय क्षमता के बूते पर भारत के शहर, वर्ष 2030 तक अपने नागरिकों की बुनियादी ढांचे और सेवाओं की ज़रूरत कैसे पूरी कर पाएंगे? ये वो वर्ष है जब संयुक्त राष्ट्र के स्थायी विकास के लक्ष्य और नए शहरी एजेंडा को अपनी मंज़िल तक पहुंचना है.

अपनी सीमित वित्तीय क्षमता के बूते पर भारत के शहर, वर्ष 2030 तक अपने नागरिकों की बुनियादी ढांचे और सेवाओं की ज़रूरत कैसे पूरी कर पाएंगे? 

केंद्र और राज्य से राजस्व प्राप्त

आमतौर पर नगर निगम अपने पूंजी और राजस्व संबंधी ख़र्च को अपने राजस्व की आमदनी के साथ-साथ राज्य और केंद्र सरकार की योजनाओं के ज़रिए मिलने वाली मदद और धन के आवंटन से करते हैं. वर्ष 2018 में भारत के शहरी स्थानीय निकायों का कुल जमा राजस्व डेढ़ लाख करोड़ रुपयों से भी कम था, और इसमें से भी शहरों ने इसके एक तिहाई हिस्से से भी कम पूंजी ख़ुद से जुटाई थी.

ये बहुत चिंता की बात है. क्योंकि, शहरी बुनियादी ढांचे की सेवाओं में निवेश की ज़रूरतों का आकलन करने के लिए बनी उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समिति (HPEC) ने अपनी वर्ष 2011 की रिपोर्ट ये अंदाज़ा लगाया था कि 2012-2031 के दौरान भारत को शहरों में बुनियादी ढांचे की कमियां पूरी करने के लिए 2009-2010 की क़ीमतों के हिसाब से लगभग 31 लाख करोड़ रुपयों (इसमें ज़मीन के दाम शामिल नहीं हैं) की ज़रूरत होगी. नए सिरे से मूल्यांकन के बाद अब ये अनुमानित रक़म बढ़कर 65 लाख करोड़ रुपए हो गई है. इस कमी को नगर निगमों के राजस्व के अंदरूनी और बाहरी स्रोतों से पूरा किया जा सकता है. इसमें नगर निगमों के ख़ुद के टैक्स के स्रोत, राज्यों और केंद्र सरकार से मिलने वाले राजस्व और मदद, केंद्र और राज्य सरकारों से मिलने वाले क़र्ज़ और बाज़ार से उधार लेने के विकल्प शामिल हैं.

देश के नगर निगमों के राजस्व के अंदरूनी स्रोत बेहद कमज़ोर हैं. इनके माध्यम से नगर-निगम स्वतंत्र रूप से अपनी मौजूदा राजस्व की मांग को पूरा नहीं कर सकते. इस समय नगर निगमों की आमदनी का सबसे बड़ा ज़रिया संपत्ति कर है, जो देश के सभी नगर निकायों की अपनी आमदनी का 60 प्रतिशत है 

देश के नगर निगमों के राजस्व के अंदरूनी स्रोत बेहद कमज़ोर हैं. इनके माध्यम से नगर-निगम स्वतंत्र रूप से अपनी मौजूदा राजस्व की मांग को पूरा नहीं कर सकते. इस समय नगर निगमों की आमदनी का सबसे बड़ा ज़रिया संपत्ति कर है, जो देश के सभी नगर निकायों की अपनी आमदनी का 60 प्रतिशत है और भारत की कुल GDP में इसका योगदान 0.5 प्रतिशत है. शहरों में संपत्ति कर की वसूली वैसे भी कम ही होती है. अब कोविड-19 की महामारी के चलते तमाम शहरों द्वारा संपत्ति कर की वसूली को और झटका लगा है.

वर्ष 2020 में केंद्रीय आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने शहरों द्वारा संपत्ति कर की वसूली का दायरा बढ़ाने के लिए तुरंत सुधार करने की मांग की थी. मंत्रालय ने इसके लिए नगर-निकायों को संबंधित सूचना के एकीकरण, संपत्ति का नियमित रूप से मूल्यांकन, रियायतों और छूट में कटौती करने, बिलिंग की प्रक्रिया सुधारने, कर अदायगी के माध्यमों को सुगम बनाने और संपत्ति कर वसूली को सख़्त बनाने जैसे सुझाव नगर निगमों को दिए थे. इन उपायों के बावजूद भी केवल संपत्ति कर की वसूली से नगर निगमों के अनुमानित राजस्व घाटे की पूर्ति नहीं की जा सकती है.

चीन और स्पेन जैसे देशों में नगर निकायों के राजस्व के संसाधनों में अन्य कई टैक्स भी शामिल होते हैं. इनमें कारोबार, रियल एस्टेट, संसाधनों, गाड़ियों और ज़मीन की बढ़ती क़ीमतों पर लगने वाले कर शामिल हैं. ब्राज़ील जैसे देशों में VAT के साथ साथ, इनकम टैक्स का एक हिस्सा, स्टांप शुल्क, गाड़ियों पर टैक्स और निर्माण कर वसूलने की ज़िम्मेदारी स्थानीय निकायों के हवाले कर दी गई है.

पहले शहरों को सबसे ज़्यादा राजस्व, चुंगी और स्थानीय निकाय कर से मिलता था. लेकिन GST लागू होने पर ये टैक्स केंद्र सरकार के खाते में चले गए. इससे स्थानीय निकायों के हाथ से उनकी अंदरूनी आमदनी का एक बड़ा ज़रिया निकल गया था. इसका एक नतीजा ये भी हुआ कि स्थानीय निकाय, केंद्र और राज्य सरकारों से मिलने वाले फंड पर और भी अधिक निर्भर हो गए. एक तरह से देखें तो GST लागू करने के कारण, स्थानीय निकायों को राजस्व संबंधी अधिकार सौंपने का काम और कम हो गया, जो संविधान के 74वें संशोधन की भावना के विपरीत है. जबकि, इस संविधान संशोधन के तहत शहरी स्थानीय निकायों को सरकार का तीसरा स्तर मानते हुए उन्हें सशक्त करने की बात कही गई थी. इस संविधान संशोधन के तहत 18 नगरीय कार्य शहरों को सौंप दिए गए थे. पर दिक़्क़त ये है कि बहुत से शहरों के पास ये ज़िम्मेदारियां निभाने लायक़ राजस्व के संसाधन ही नहीं हैं. अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार इस बारे में नए सिरे से विचार करे और कुछ कर राजस्व शहरों के हवाले करे, जिससे कि शहरों को ज़िम्मेदारियों के हिसाब से उसी तरह वित्तीय मदद मिल सके, जैसे दक्षिण अफ्रीका के शहरों को मिलती है. इससे शहरी निकाय अपने राजस्व घाटे को कम कर सकेंगे. शहरों को ये राजस्व मुआवज़े की शक्ल में नहीं दिया जा सकता, बल्कि व्यवस्था ये होनी चाहिए कि GDP का एक हिस्सा GST के रूप में शहरों को दे दिया जाए.

भले ही सरकार प्रक्रियाओं को सुगम बनाने का काम करे, फिर भी ऐसे बड़े सुधार कर पाने की संभावना बेहद कम दिखती है, जिससे शहर अपने अंदरूनी राजस्व को बढ़ाव सकें. इसकी एक वजह ये भी है कि शहरी निकायों के बजट का एक बड़ा हिस्सा, प्रशासनिक व्यय और कर्मचारियों को वेतन व पेंशन के भुगतान में ही ख़र्च हो जाता है. इसके बाद, शहरों के पास इतना पैसा नहीं बचता कि वो बुनियादी ढांचे के विकास जैसे संपत्ति निर्माण के कार्य कर सकें.

संसाधन की कमी और कर्ज़

ऐसे में शहरों के पास अपने विकास और अस्तित्व को बचाने के लिए बाहर से क़र्ज़ लेने के सिवा कोई और चारा नहीं बचता. उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समिति (HPEC) के मुताबिक़, नगर निगमों के कुल राजस्व में बाहर से क़र्ज़ लेने की हिस्सेदारी महज़ 2 से 3 प्रतिशत होती है. वर्ष 2017-18 में देश की GDP में नगर निकायों द्वारा लिए जाने वाले क़र्ज़ की हिस्सेदारी केवल 0.02 फ़ीसद थी. नगर निकायों द्वारा बाहरी संस्थाओं से इतना कम क़र्ज़ लेने के प्रमुख कारण ये हैं कि उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है. नगर निगमों द्वारा तय समय पर प्रोजेक्ट को पूरा कर पाने और तय मियाद के भीतर क़र्ज़ चुकाने की क्षमता पर सवाल खड़े होते रहे हैं.

शहरी स्थानीय निकायों के लिए क़र्ज़ जुटाना आसान बनाने के लिए क्रेडिट रेटिंग की व्यवस्था शुरू की गई है. सरकार इसके लिए अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और SEBI के म्युनिसिपल बोर्ड्स एडवाइज़री काउंसिल की मदद ले रही है, जिससे कि नगर निकायों की रेटिंग की व्यवस्था बनाई जा सके. 

हालांकि म्युनिसिपल बॉन्ड, क़र्ज़ या पूंजीगत बाज़ार से धन हासिल करने के अन्य संसाधनों तक शहर तभी अपनी पहुंच बढ़ा सकते हैं, जब वो अपने अंदरूनी राजस्व में सुधार कर सकें और उनका बेहतर प्रबंधन कर सकें. केंद्र सरकार की कई योजनाओं, जैसे कि स्मार्ट सिटी मिशन और अम्रुत (AMRUT) में ख़र्च होने वाली रक़म का एक हिस्सा केंद्र सरकार देती है. जबकि, इन योजनाओं के लिए बाक़ी की रक़म शहरों द्वारा क़र्ज़ के ज़रिए जुटाने की अपेक्षा की जाती है. ऐसे में नगर निकायों के लिए ज़रूरी है कि वो अपने राजस्व की स्थिति में सुधार करें.

शहरी स्थानीय निकायों के लिए क़र्ज़ जुटाना आसान बनाने के लिए क्रेडिट रेटिंग की व्यवस्था शुरू की गई है. सरकार इसके लिए अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और SEBI के म्युनिसिपल बोर्ड्स एडवाइज़री काउंसिल की मदद ले रही है, जिससे कि नगर निकायों की रेटिंग की व्यवस्था बनाई जा सके. दिसंबर 2020 तक अम्रुत योजना के अंतर्गत आने वाले 485 में से 469 शहरों को क़र्ज़ जुटाने में मदद करने के लिए उनकी रेटिंग की जा चुकी थी. 2015 में जब से अम्रुत (AMRUT) योजना की शुरुआत की गई थी, तब से अब तक 9 शहरों ने पूंजी बाज़ार से 3690 करोड़ रुपए जुटाए हैं.

शहरों की वित्तीय स्थिति सुधारने के लिए सरकार के हर स्तर पर एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत होगी. केंद्र और राज्यों की सरकारों को भी शहरी प्रशासन को स्वायत्त बनाने के लिए प्रयास करने होंगे. उन्हें अधिकार देने होंगे. इसी तरह, स्थानीय निकायों को भी अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करनी होगी, जिससे कि वो भविष्य में वित्तीय रूप से टिकाऊ शहरों का निर्माण कर सकें.


ये लेख  कोलाबा एडिट सीरीज़ का हिस्सा है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.