Author : Nilanjan Ghosh

Published on Aug 21, 2023 Updated 0 Hours ago

ये सोच बदलने की आवश्यकता है कि संरक्षण विकास के ख़िलाफ़ है; वास्तव में संरक्षण ग्लोबल साउथ में विकास के केंद्र में है 

एंथ्रोपोसीन में संरक्षण: हमारी स्वार्थी ज़रूरतों के लिये प्रकृति को दिया जाने वाला एक भेंट!

संरक्षण (कंज़र्वेशन) एक स्वार्थी मानवीय आवश्यकता है. इसे बढ़ावा देना हमारे लिए ज़रूरी है. हम इंसानों को खुद को ज़िंदा रखने के लिए जैव विविधता (बायोडायवर्सिटी) को सुरक्षित रखने की आवश्यकता है. लेकिन इस दलील का नतीजा एक और अतिरिक्त शर्त है- वर्तमान और भविष्य का विकास से जुड़ा उदाहरण विकास और संरक्षण के लक्ष्यों के बीच परंपरागत समझौते से अनजान नहीं बना रह सकता है बल्कि कंज़र्वेशन को विकास की प्रक्रिया का एक अभिन्न हिस्सा बने रहने की आवश्यकता है और इस तरह समझौते को पलटा जा सकता है. 

इतिहास प्रकृति के दोहन के ज़रिये मानव सभ्यता की प्रगति का पर्याप्त सबूत देता है. पानी की धाराओं और नदियों के प्रवाह में फेरबदल करने वाली विशाल इंजीनियरिंग संरचनाओं का निर्माण और व्यापक तौर पर ज़मीन का इस्तेमाल प्राकृतिक वनस्पति से कृषि और फिर शहरीकरण के लिए होने को विकास की पहचान के तौर पर माना गया. ये अटूट विश्वास बना हुआ था कि आर्थिक विकास सर्वोच्च है और ये किसी भी कीमत पर होना चाहिए. इसका नतीजा विकास की कीमत के रूप में सामने आया. प्रगति की दीर्घकालीन कीमत को विशेष रूप से या तो अस्तित्वहीन या अदृश्य माना गया. यहां तक कि एक प्रचलित धारणा ये थी कि कंज़र्वेशन का लक्ष्य विकास के ख़िलाफ़ खड़ा है. 

प्रगति की दीर्घकालीन कीमत को विशेष रूप से या तो अस्तित्वहीन या अदृश्य माना गया. यहां तक कि एक प्रचलित धारणा ये थी कि कंज़र्वेशन का लक्ष्य विकास के ख़िलाफ़ खड़ा है.

लेकिन ये सोच 70 के दशक में बदलने लगी क्योंकि कुदरत, अर्थव्यवस्था और समाज के बीच संबंध की जानकारी और वैज्ञानिक समझ में सुधार आ गया. विज्ञान के इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति की वजह से ये एहसास हुआ कि इकोसिस्टम और इकोनॉमी के बीच एक पारस्परिक कारण और प्रभाव का संबंध है. 1972 में क्लब ऑफ रोम नाम के संगठन की द लिमिट्स टू ग्रोथ थीसिस, जिसने आने वाले सर्वनाश की भविष्यवाणी की थी, ने आ रहे संकट के जवाब में व्यापक रिसर्च, वैश्विक आकलन और सम्मेलनों की शुरुआत की थी. 1992 में पृथ्वी शिखर सम्मेलन ने “सतत विकास” (सस्टेनेबल डेवलपमेंट) की धारणा को अपनाया जैसा कि ब्रंटलैंड कमीशन की रिपोर्ट आवर कॉमन फ्यूचर में बताया गया था. जैविक विविधता पर सम्मेलन (CBD) ने पहली बार अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत बायोलॉजिकल डायवर्सिटी के कंज़र्वेशन को विकास की प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा स्वीकार किया. दूसरी तरफ 1989 में डेविड पीयर्स और केरी टर्नर द्वारा शुरू टर्म “सर्कुलर इकोनॉमी” ने पर्यावरण और विकास के बीच परस्पर क्रिया के इर्द-गिर्द चर्चा में तेज़ी से लोकप्रियता हासिल की. सर्कुलर इकोनॉमी “लेने, बनाने, फेंकने” की सामान्य विकास की मानसिकता से हटकर थी. इसने एक अधिक समग्र दृष्टिकोण को अपनाया और अर्थव्यवस्था को इकोसिस्टम से जुड़ा हुआ माना. इसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी (इकोलॉजी) के बीच दो तरफा कारणों को बेहतर ढंग से स्वीकार किया गया. 

1997 में दो बड़े वैज्ञानिक प्रकाशन सामने आए: पहला ग्रेटचेन डेली का नेचर्स सर्विसेज़ और दूसरा बॉब कॉस्टान्ज़ा का नेचर में सेमिनल पेपर. पहले प्रकाशन में इकोसिस्टम सेवाओं पर इंसानों की निर्भरता की बात की गई यानी प्राकृतिक इकोसिस्टम के द्वारा अपनी जैविक (ऑर्गेनिक) प्रक्रियाओं के माध्यम से मानवीय समाज को मुफ्त में दी गई सेवाएं. दूसरे प्रकाशन में पहली बार इकोसिस्टम सेवाओं की कीमत का आकलन पैसे में किया गया जो सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का तीन गुना थी. 2005 में मिलेनियम इकोसिस्टम असेसमेंट (MA) ने मानव समाज को आवश्यक इकोसिस्टम सेवाएं मुहैया कराने में इकोसिस्टम के अनूठे काम-काज के बारे में हमारी समझ को और बढ़ाया. इन सेवाओं में प्रोविज़निंग सर्विसेज़ (जैसे कि खाद्य, कच्चा माल, पानी, ऊर्जा), रेगुलेटिंग सर्विसेज़ (जैसे कि जलवायु नियंत्रण, पेस्ट मैनेजमेंट), कल्चरल सर्विसेज़ (जैसे कि पर्यटन, आध्यात्मिक मूल्य) और सपोर्टिंग सर्विसेज़ (जैसे कि पोषक तत्वों की साइक्लिंग, मिट्टी का निर्माण) शामिल हैं. ये सभी सेवाएं अन्य पारिस्थितिकी सेवाओं के उत्पादन के लिए आवश्यक हैं. इकोसिस्टम सेवाओं के लिए एक स्पष्ट रूप-रेखा के साथ अर्थव्यवस्था और इकोसिस्टम के बीच संपर्क और स्पष्ट हो गया है. 

ग्लोबल साउथ की चिंताएं 

ऐसी वैश्विक मान्यता के बावजूद ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) में मौजूदा लेन-देन को उलट कर विकास के लक्ष्यों के साथ संरक्षण के लक्ष्यों को जोड़ने के बारे में अभी भी काफी संदेह बना हुआ है. बल्कि संरक्षण और विकास के लक्ष्यों के बीच उलटा संबंध अभी भी मौजूद है जिसमें आर्थिक विकास को सर्वोच्च लक्ष्य माना जाता है जो कि कुदरत की कीमत पर हासिल किया जाना है. ब्रिक्स देशों की अगुवाई में उभरती अर्थव्यवस्थाएं इस घटना का उदाहरण पेश करती हैं. UNEP की तरफ से प्रकाशित रिपोर्ट इनक्लूज़िव वेल्थ (समावेशी संपत्ति) तीन पूंजी संपत्ति- प्राकृतिक पूंजी (या जैव विविधता), मानव पूंजी और उत्पादित या भौतिक पूंजी- के सामाजिक मूल्य में 1990 से 2014 के बीच बदलाव के बारे में बताती है. इस रिपोर्ट के अनुसार 1990 से 2014 के बीच भौतिक पूंजी और स्वास्थ्य एवं शिक्षा से प्रेरित मानव पूंजी वैश्विक स्तर पर हर साल क्रमश: 3.8 प्रतिशत और 2.1 प्रतिशत की दर से बढ़ी. इन दोनों में बढ़ोतरी प्राकृतिक पूंजी की कीमत पर हुई जिसमें हर साल 0.7 प्रतिशत की दर से गिरावट आई. 

ऐसी वैश्विक मान्यता के बावजूद ग्लोबल साउथ (विकासशील देशों) में मौजूदा लेन-देन को उलट कर विकास के लक्ष्यों के साथ संरक्षण के लक्ष्यों को जोड़ने के बारे में अभी भी काफी संदेह बना हुआ है.

भारत की “इनक्लूज़िव वेल्थ” (IW) इस अवधि के दौरान हर साल 1.6 प्रतिशत की दर से बढ़ी जिसमें मानव पूंजी (HC) और भौतिक पूंजी (NC) का बड़ा योगदान रहा. इसी तरह ब्राज़ील में इन्क्लूज़िव वेल्थ 0.7 प्रतिशत की दर से बढ़ी जिसमें मानव पूंजी और भौतिक पूंजी (दोनों हर साल 0.5 प्रतिशत की दर से बढ़ी) का बड़ा योगदान रहा जबकि प्राकृतिक पूंजी में हर साल 0.3 प्रतिशत की गिरावट आई. चीन में भी हम इसी तरह की तस्वीर देखते हैं: इन्क्लूज़िव वेल्थ में 2.4 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई (ब्रिक्स देशों में सबसे अधिक) जिसमें मानव पूंजी (1.4 प्रतिशत) और भौतिक पूंजी (1.1 प्रतिशत) का बड़ा योगदान रहा जबकि प्राकृतिक पूंजी में हर साल गिरावट (-0.2 प्रतिशत) आई. दक्षिण अफ्रीका ने इनक्लूज़िव वेल्थ में 1.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी और इस अवधि के दौरान प्राकृतिक पूंजी में 0.1 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई. अगर समावेशी संपत्ति को विकास के लिए कारक या मूल आधार माना जाए तो प्राकृतिक पूंजी में इस तरह की गिरावट विकास की प्रक्रिया की वहनीयता (सस्टेनेबिलिटी) के बारे में गंभीर सवाल खड़े करती है. केवल रूसी संघ में समावेशी संपत्ति में मामूली 0.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी दिखती है और इसके परिणामस्वरूप प्राकृतिक पूंजी की 0.1 प्रतिशत की विकास दर. इस प्रकार इस लेन-देन को उलटा किया गया है. 

प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को बर्बाद करके ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव या प्राकृतिक पूंजी की कीमत पर भौतिक या उत्पादित पूंजी का विकास इकोसिस्टम के द्वारा सेवा मुहैया कराने की क्षमता को केवल कम करता है और इस तरह ग़रीबों की GDP को घटाता है. 

जैव विविधता का संरक्षण ग्लोबल नॉर्थ (विकसित देशों) की तुलना में ग्लोबल साउथ के लिए विशेष महत्व क्यों रखता है? इसका कारण पारिस्थितिकी तंत्र और आजीविका के बीच अटूट संबंध है, ख़ास तौर पर ग्लोबल साउथ के अविकसित क्षेत्रों के ग़रीबों के लिए. 2009 में पवन सुखदेव के लेख कॉस्टिंग द नेचर में इकोसिस्टम सेवाओं की व्याख्या “ग़रीबों की GDP” के रूप में की गई है. दक्षिण एशिया में पवन सुखदेव ने इकोसिस्टम डिपेंडेंसी इंडेक्स (EDI) की धारणा को विकसित किया जिसमें EDI को मानव समुदाय की आमदनी और इकोसिस्टम सेवाओं की कीमत के अनुपात के रूप में परिभाषित किया गया है. दक्षिण एशिया में पवन सुखदेव का अपना आकलन बताता है कि इकोसिस्टम पर ग़रीबों की निर्भरता न सिर्फ औसत प्रति व्यक्ति आमदनी अर्जित करने वाले परिवार से काफी ज़्यादा है बल्कि ग़रीब अर्थव्यवस्था में अपनी औपचारिक और अनौपचारिक भागीदारी की तुलना में प्राकृतिक इकोसिस्टम से अधिक कमाता है. ये इस तथ्य से पता चलता है कि कई मामलों में EDI एक से ज़्यादा रहा है. इसलिए प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को बर्बाद करके ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव या प्राकृतिक पूंजी की कीमत पर भौतिक या उत्पादित पूंजी का विकास इकोसिस्टम के द्वारा सेवा मुहैया कराने की क्षमता को केवल कम करता है और इस तरह ग़रीबों की GDP को घटाता है.  

एंथ्रोपोसीन में संरक्षण

इसके साथ-साथ जंगल की जगह सड़क, रेल जैसे बुनियादी ढांचे के लिए ज़मीन के उपयोग में बदलाव ने इकोसिस्टम के द्वारा प्राकृतिक रूप से कार्बन को अलग करने और कार्बन जमा करने की क्षमता में रुकावट डाली है. ये इकोसिस्टम की महत्वपूर्ण रेगुलेटिंग सेवाएं हैं जो जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने में मदद करती हैं. इस तरह जलवायु परिवर्तन काफी हद तक एक विकास से जुड़ी समस्या है जो प्रगति को लेकर लोगों की बेलगाम महत्वाकांक्षी से पैदा होती है और जो अल्पकालिक आर्थिक विकास के लिए लगातार दिलचस्पी से दिखती है. वैसे तो इस प्रक्रिया की सबसे बड़ी पीड़ित प्रकृति है लेकिन इसका असर पर्यावरण के माध्यम से भी दिखाई देता है और ये विकास को लेकर मानवता की दीर्घकालीन चिंताओं को प्रभावित करने तक जाती है. उदाहरण के लिए, भारत के पश्चिम बंगाल में नावों/जहाज़ों को चलाने के उद्देश्य से गंगा नदी के ऊपर फरक्का बांध के निर्माण की वजह से न केवल धारा के प्रवाह में गिरावट आई है बल्कि डेल्टा में तलछट (सेडिमेंट) प्रवाह में भी कमी आई है. इसके नतीजतन भारतीय सुंदरबन के डेल्टा (ISD) में कमी आई है जो नदी के ऊपरी हिस्से से बहने वाली तलछट से सिंचित होता था. दूसरी तरफ ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से बंगाल की खाड़ी में समुद्र-सतह के तापमान और समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी हुई है. इस तरह डेल्टा में खारा पानी चला गया है जिससे खेती करना व्यावहारिक नहीं रह गया है. इसने ग़रीब मछुआरा समुदाय को भी प्रभावित किया है क्योंकि मछली पकड़ने में कमी आई है. जब से अमेरिका के पश्चिमी क्षेत्र में पानी की सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए नदी के ऊपरी हिस्से में निर्माण किया गया है तब से इसी तरह की परेशानी मेक्सिको के कोलोराडो डेल्टा में भी देखी गई है. इसलिए इकोसिस्टम और विकास के बीच संपर्क पर विचार नहीं करने की वजह से अल्पकालिक महत्वाकांक्षा ने दीर्घकालिक विकास में रुकावट डाली है.  

एंथ्रोपोसीन के इस युग- यानी मौजूदा समय जहां मानवीय गतिविधियां जलवायु और प्राकृतिक इकोसिस्टम पर सबसे ज़्यादा असर डालती हैं- में लंबे समय का मानव विकास और आजीविका कंज़र्वेशन के लक्ष्यों से जुड़ी हुई हैं.

ये दिखाता है कि कंज़र्वेशन को नैतिकता की किताब से निकलने वाले निर्देशात्मक नीति संबंधी बयान के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए. एंथ्रोपोसीन के इस युग- यानी मौजूदा समय जहां मानवीय गतिविधियां जलवायु और प्राकृतिक इकोसिस्टम पर सबसे ज़्यादा असर डालती हैं- में लंबे समय का मानव विकास और आजीविका कंज़र्वेशन के लक्ष्यों से जुड़ी हुई हैं. हम विकास को जिस नज़रिये से देखते हैं, उसे बदलने की ज़रूरत है: हम इंसानों को विकास की तरफ स्थानिक पैमाने पर अधिक समग्र रूप से और अस्थायी पैमाने पर लंबे समय के अनुसार देखने की आवश्यकता है. समय और जगह के साथ इस एकीकरण से ही हम समझेंगे कि विकास के लिए संरक्षण आवश्यक है और इनके बीच कोई समझौता नहीं हो सकता है. दूसरे शब्दों में कहें तो एंथ्रोपोसीन में कंज़र्वेशन एक मतलबी मानवीय आवश्यकता है.

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