Published on Sep 24, 2022 Updated 0 Hours ago

जब जलवायु संरक्षण की बात आती है तो अधिक यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाकर जलवायु सरलता जैसे बदलाव से अलग होने की ज़रूरत है.

जलवायु सरलता: एक आधुनिक चुनौती

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की नवीनतम रिपोर्ट कहती है कि औद्योगिक क्रांति के बाद से वैश्विक तापमान में लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है. साल 2000 और 2020 के बीच, फॉसिल फ्यूल से कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में 37.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. पहले से ही उच्च स्तर पर पहुंचने के बाद, वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में लगातार बढ़ोतरी जारी है, जिससे औसत तापमान में और वृद्धि होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में निश्चित रूप से जलवायु संरक्षण के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्यों की कमी नहीं है. दरअसल ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के उद्देश्य से राजनीतिक वादे भी ख़ूब किए गए हैं. फिर भी वैश्विक राजनीति और अंतरराष्ट्रीय शासन के बारे में एक संयमी दृष्टिकोण अपनाते हुए, इन वादों को पूरा करने का भरोसा “जलवायु सरलता” के तौर पर व्यक्त किया जा सकता है.

पहले से ही उच्च स्तर पर पहुंचने के बाद, वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में लगातार बढ़ोतरी जारी है, जिससे औसत तापमान में और वृद्धि होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है. 

वैश्विक सार्वजनिक हित के लिए जलवायु संरक्षण

हम दो प्रकार की जलवायु सरलता में अंतर देखते हैं. पहली डिग्री की जलवायु सरलता इस तथ्य को नज़रअंदाज़ करती है कि जलवायु संरक्षण वैश्विक सार्वजनिक बेहतरी के लिए है. भले ही नीति निर्माता अंतरराष्ट्रीय मंच पर जलवायु संरक्षण को लेकर संकल्प लेते हों, लेकिन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर ठोस और महंगे उपायों को अंजाम देने के लिए उनके पास बेहद कम प्रोत्साहन मौज़ूद हैं. कम से कम इस मामले में पांच कॉस्ट बेनिफिट विचार प्रासंगिक हैं.

  1. फ्री राइडिंग : वे देश जो अपने उत्सर्जन को कम करते हैं, वे जलवायु संरक्षण की लागत को उठाते हैं. चूंकि जलवायु संरक्षण एक वैश्विक सार्वजनिक हित का विषय है, इसलिए उनकी कटौती के लाभ दुनिया भर में असरदार हैं. मतलब, ख़ास तौर पर इससे दूसरे देशों को भी लाभ होगा.
  2. मायोपिया : उत्सर्जन में कमी की वज़ह से तत्काल लागत आती है लेकिन इसके अधिकांश लाभ भविष्य में ही मिलते हैं, क्योंकि वैश्विक जलवायु काफी हद तक निष्क्रिय है. राजनीतिक निर्णय लेने वाले और नागरिक आमतौर पर इसके उलट पसंद करते हैं : वे आज के लाभ और भविष्य के लिए लागतों का हस्तांतरण पसंद करते हैं.
    3. अनिश्चितता : जलवायु संरक्षण की लागत प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती हैं और निश्चित होती हैं. दूसरी ओर, जलवायु संरक्षण के लाभ तुरंत दिखाई नहीं देते हैं और अनिश्चित होते हैं. दुनिया में कहीं ना कहीं और भविष्य में कभी-कभी जलवायु से संबंधित नुक़सान की संभावना को कम करने से ही फायदा तय होता है.
  3. असमानता : जैसा कि हम ग्लोबल वार्मिंग के संभावित परिणामों के बारे में अधिक ज़िक्र करते हैं, इससे यह साफ हो जाता है कि इसका प्रभाव असमान रूप से पड़ेगा. जलवायु परिवर्तन से बड़े और छोटे नुक़सान होने की संभावना रहती है, हालांकि इससे कुछ राष्ट्रों को लाभ भी हो सकता है. यही वज़ह है कि जिन्हें इसका लाभ मिलने की संभावना होती है वो जलवायु संरक्षण को लेकर बेहद कम चिंतित होते हैं.
  4. मूल्य तंत्र : ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में किसी भी महत्वपूर्ण कमी को आमतौर पर फॉसिल फ्यूल के उपयोग में कमी से संबंधित होना चाहिए. हालांकि, अगर कुछ देश जलवायु संरक्षण के लिए कम फॉसिल फ्यूल का उपभोग करते हैं तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी क़ीमतों में गिरावट आएगी. इससे दूसरों को यह फायदा होगा, जो जलवायु संरक्षण में संलग्न नहीं हैं, कि वे फॉसिल फ्यूल की खपत को बढ़ा सकें जिससे जलवायु संरक्षण के लिए ज़ीरो एमिशन का लक्ष्य पूरा हो सके.

यह कॉस्ट-बेनिफिट विचार पब्लिक गुड्स की ट्रैजडी (सार्वजनिक वस्तुओं की विशिष्ट त्रासदी ) को जन्म देते हैं जो जलवायु परिवर्तन के मामले में वैश्विक सार्वजनिक हित के रूप में बढ़ जाती है: अगर दुनिया का एक बड़ा हिस्सा जलवायु संरक्षण में हिस्सेदारी नहीं लेता है तो ग्रीनहाउस गैस को कम करने के राष्ट्रीय प्रयास से कोई फायदा नहीं होता है बल्कि इससे लागत में बढ़ोतरी होती है. इस प्रकार, जलवायु संरक्षण में किसी देश के अकेले की कोशिशों को पहली डिग्री की जलवायु सरलता कही जा सकती है.

नागरिकों के हित को लेकर कम दिलचस्पी

पहली डिग्री की जलवायु सरलता से निपटने के लिए ज़रूरी है कि बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय संधियों को ख़त्म कर दिया जाए. ऐसी संधियों के पीछे तर्क यह है कि जलवायु संरक्षण की सार्वजनिक संपत्तियों के नुक़सान को रोकने के लिए देशों के बीच आवश्यक सहयोग को सक्षम बनाती हैं. दूसरे शब्दों में, अंतरराष्ट्रीय जलवायु संधियों के पीछे सराहनीय गर्वनेंस विचार की शर्त सहयोग है : अगर दूसरे लोग जलवायु की रक्षा के लिए सहयोग करते हैं, तो हम भी सहयोग करेंगे. ज़ाहिर है, जलवायु समझौते का मतलब तभी समझ में आता है जब कई देश इस विषय के साथ जुड़ते हैं और अगर वास्तव में ये देश ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करके जलवायु संरक्षण के काम में शामिल होते हैं.

अंतरराष्ट्रीय जलवायु समझौते जैसे कि पेरिस समझौता, प्रभावशाली देशों द्वारा पूरी की जाती है. हालांकि उनमें से कई ऐसी सरकारें हैं जो अपनी सीमाओं के भीतर लोकतंत्र, कानून के शासन या मानवाधिकारों को बहुत कम महत्व देती हैं. कुछ देश तो अपने नागरिकों को भी विषय की तरह मानते हैं, वे महत्वपूर्ण मीडिया पेशेवरों को ख़त्म कर देते हैं ; पूरे जातीय समूहों को कैद करना; या यहां तक कि अपने पड़ोसियों के ख़िलाफ़ आक्रामकता से जंग छेड़ते हैं. यह भरोसा कि जिन सरकारों ने जलवायु संधियों पर हस्ताक्षर किए हैं लेकिन अपने स्वयं के नागरिकों का शोषण करते हैं, वे पृथ्वी के भविष्य के नागरिकों की भलाई के लिए जलवायु संरक्षण में शामिल होंगी यह दूसरी डिग्री की जलवायु सरलता की मिसाल है.

अगर दुनिया का एक बड़ा हिस्सा जलवायु संरक्षण में हिस्सेदारी नहीं लेता है तो ग्रीनहाउस गैस को कम करने के राष्ट्रीय प्रयास से कोई फायदा नहीं होता है बल्कि इससे लागत में बढ़ोतरी होती है.

कोई यह तर्क दे सकता है कि यह पहले से ही आंशिक सफलता होगी यदि निरंकुश देशों के राजनीतिक नेता भविष्य के वैश्विक नागरिकों के कल्याण के प्रति थोड़ा अधिक उन्मुख होते हैं. हालाँकि, यह अधिक संभावना है कि ये नेता कम से कम आंशिक रूप से जलवायु संधियों पर अपने हस्ताक्षर करके अपने स्वयं के नागरिकों के प्रति अपनी दमनकारी और शोषक प्रवृत्ति को कवर करते हैं. इसके अलावा, एक संधि पर हस्ताक्षर करने से तथाकथित “हरे” उत्पादों के लिए उनके निर्यात के अवसरों में वृद्धि हो सकती है, चाहे वह सौर पैनल, बैटरी या प्राकृतिक गैस हो, जिन्हें यूरोपीय संघ द्वारा हरित संक्रमण प्रौद्योगिकियों के रूप में माना जाता है.

जलवायु सरलता के बदले यथार्थवाद

पहली डिग्री की जलवायु सरलता को देखते हुए यह आशा करना मूर्खता होगी कि कोई भी देश अपने दम पर जलवायु संरक्षण में पर्याप्त निवेश करेगा. जबकि अंतरराष्ट्रीय समझौतों को बाध्य करना एक समाधान हो सकता है लेकिन एक जोख़िम यह है कि दूसरी डिग्री की जलवायु सरलता के कारण अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण नाकाम हो जाएगी. लेकिन सवाल है कि इससे सुशासन के लिए क्या होता है ?

स्वतंत्र, लोकतांत्रिक देशों के नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए, जलवायु संरक्षण के लक्ष्य को लेकर अधिक यथार्थवाद की ओर जलवायु सरलता से दूर जाना आवश्यक होगा. अपेक्षित ग्लोबल वार्मिंग और इसके साथ आने वाले ख़तरों के लिए अनुकूलन ज़्यादा महत्वपूर्ण एज़ेंडा होना चाहिए. वैश्विक सार्वजनिक हित के तौर पर जलवायु संरक्षण के उलट, राष्ट्रीय, स्थानीय और यहां तक कि व्यक्तिगत स्तरों पर जलवायु अनुकूलन के फायदों को स्वतंत्र रूप से अन्य देश क्या कर रहे हैं यह समझकर महसूस किया जा सकता है. पर्याप्त निर्माण का काम कर तूफान के नुक़सान को कम किया जा सकता है, समुद्र के ऊंचे स्तर से बचाने के लिए डाइक बनाए जा सकते हैं, जंगलों को संरक्षित करने के लिए अधिक मजबूत पेड़ की प्रजातियां लगाई जा सकती हैं, और पर्यावरण के अनुकूल एयर कंडीशनिंग सिस्टम गर्मी से बचाने में मदद कर सकते हैं. क्योंकि अनुकूलन की प्रक्रिया से सीधे जनता लाभान्वित होती है, इसलिए वे इसकी फंडिंग में योगदान देने को लेकर इच्छुक होते हैं. यह कंपनियों को कम लागत वाली अनुकूलन तकनीक को तेजी से विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करती है. अच्छा राष्ट्रीय शासन अनुकूलन की लागत को कम करने में मदद कर सकता है.

स्वतंत्र, लोकतांत्रिक देशों के नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए, जलवायु संरक्षण के लक्ष्य को लेकर अधिक यथार्थवाद की ओर जलवायु सरलता से दूर जाना आवश्यक होगा.

जलवायु परिवर्तन को अपनाने का अर्थ इसके प्रति रक्षात्मक ताक़तों में निवेश करना होता है. जिन लोगों ने जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन किया है, उन्हें इससे डरने की ज़रूरत कम है. जिन लोगों में डर कम है वो वैश्विक मंच पर इसे लेकर अलग तरह से व्यवहार कर सकते हैं. अगर अच्छी तरह से शासित और अनुकूलित देश परोपकारी लक्ष्यों के लिए जलवायु संरक्षण की प्रक्रिया में शामिल होने के इच्छुक होंगे तो उनके व्यवहार को जलवायु सरलता के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Authors

David Stadelmann

David Stadelmann

Prof. Dr. David Stadelmann studied Economics (MA/BA) as well as Mathematics (MSc/BSc) at the University of Fribourg (Switzerland) where he received his PhD in 2010 ...

Read More +
Marco Frank

Marco Frank

Marco Frank is a research assistant and PhD student in economics at the University of Bayreuth (Germany). His research focuses on distributional consequences of political ...

Read More +