Author : Ramanath Jha

Published on Sep 28, 2023 Updated 0 Hours ago

हाल के विरोध प्रदर्शनों और उनसे मिली सीख ने लोकतांत्रिक देशों में चिंता पैदा किया है. 

व्यापक संगठित विरोध के केंद्र में शहरें!

सरकार विरोधी विरोध प्रदर्शन तेज़ी से दुनिया भर के लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की एक विशेषता बनती जा रही है, जो शायद आवृत्ति, दायरे और आकार में अद्वितीय है, इसलिए मौजूदा दशक और पिछले दशक को “जन विरोध का युग भी कहा  जाता है. चंद सबसे बड़े सामूहिक प्रदर्शन जो दुनिया भर का ध्यान अपनी तरफ खींचने में सफल रहे हैं, उनमें अन्ना हजारे का आंदोलन भी शामिल है, जिसने सार्वजनिक भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सबका ध्यान आकर्षित किया था और जो एक राजनीतिक दल की उत्पत्ति के पीछे की प्रेरणा रही थी; पुलिस की ज्य़ादतियों के खिलाफ संयुक्त राज्य अमेरिका और दुनिया भर में  किया गया प्रदर्शन; कोविड-19 लॉकडाउन विरोधी प्रदर्शन; यूनाइटेड किंगडम में वैक्सीन रोल आउट और मज़दूरी संबंधी (पगार) विरोध प्रदर्शन, कनाडा में वैक्सीन जनादेश के खिलाफ़ हुआ प्रदर्शन, फ़्रांस में हुए पुलिस शूटिंग के विरोध में दंगे, ईरान में महिलाओं के ड्रेस कोड की मजबूरी के खिलाफ़ हुआ विरोध प्रदर्शन, हॉन्गकॉन्ग और पकिस्तान में राजनैतिक विरोध प्रदर्शन, बांग्लादेश में नए सिरे से चुनावों की मांग, अफ्रीकी देशों (दक्षिण अफ्रीका, केन्या, ट्यूनीशिया, सेनेगल और नाइजीरिया) के एक समूहों में न्यायिक सुधारों और आंदोलनों के खिलाफ इस्राइल में लंबे प्रदर्शन आदि शामिल हैं.  

लोकतंत्र में नागरिकों को दी जाने वाली स्वतंत्रता, प्रतिस्पर्धी हितों और मुद्दों की जटिलता लोगों को कानूनी रूप से अपने असंतोष को खुले तौर पर व्यक्त करने और निर्णयकर्ताओं के सामने अपनी जवाबी मांगों को रखने की अनुमति देती है.

विरोध प्रदर्शनों को बड़े पैमाने पर झेलने वाले देशों में गैर-लोकतांत्रिक देश भी शामिल हैं, जैसे कि लॉकडाउन के खिलाफ चीन के कई शहर, लेकिन इस लेख का उद्देश्य सिर्फ लोकतंत्रों में होने वाले विरोध प्रदर्शनों पर चर्चा करना है. लोकतंत्र में नागरिकों को दी जाने वाली स्वतंत्रता, प्रतिस्पर्धी हितों और मुद्दों की जटिलता लोगों को कानूनी रूप से अपने असंतोष को खुले तौर पर व्यक्त करने और निर्णयकर्ताओं के सामने अपनी जवाबी मांगों को रखने की अनुमति देती है. लोकतंत्र, विशेष रूप से भारत समेत विशाल और कई अन्य वैविध्य से भरे देशों में, इस तरह की घटनाएं स्वाभाविक है. हालांकि, ये भी स्पष्ट है कि लोकतंत्र की बहुलता ने असहमति की अनुमति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रोत्साहित ही किया है, इसलिए इसकी बहुलता, चिंता का विषय नहीं होनी चाहिए. भारत में ये विशेष है क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत सभी नागरिकों को बग़ैर हथियारों के शांतिपूर्ण तरीके से एकत्रित होने और बोलने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है. 

इन घटनाओं द्वारा अर्जित कुछ नई विशेषताओं के कारण विरोध के बारे में चिंता ने जन्म लिया है. सर्वप्रथम तो, बड़े शहर प्रदर्शनों के प्रमुख केंद्रबिन्दु बन गए हैं. एक ऐसे युग में जब एक स्थानीय मुद्दे को वैश्विक आकर्षण का केंद्र बनाना आसान है, तो विरोध के आयोजक भी दिखे जाने के अवसर को यूं ही छोड़ नहीं सकते हैं. यह विशिष्टता ही है जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी संख्या में लोगों का ध्यान आकर्षित करती है. भले ही लोगों का एक हिस्सा समाचार चैनलों या सोशल मीडिया पर प्रसारित होने वाले समाचार अथवा वीडियो पर दिखाई देने वाली सूचनाओं को देखता है और अपनी टिप्पणियों के साथ और उसे अधिक वज़नदार बनाता है. अधिकांशत: ये प्रशासन को परेशान करने के लिए पर्याप्त साबित होते हैं. ज़रूरत की सामग्री आसानी से उपलब्ध करा पाने की क्षमता की वजह से शहर इन प्रदर्शनकारियों को काफी सक्षम और प्रभावकारी बना देते हैं, जो इन्हें सहजता से लोगों की निगाह में आ पाने में सहायता प्रदान करती है. ज्य़ादातर मीडिया चैनल और प्रेस, शहरों में ही सबसे ज्य़ादा सक्रिय होते हैं, और अपनी घनी आबादी की वजह से वो आबादी की ज्य़ादा से ज्य़ादा बड़ी संख्या को अपने विरोध प्रदर्शनों से प्रभावित कर पाने में सफल रहते हैं. चिंतनीय विषय यह है कि राजनैतिक रूप से प्रेरित कई लोग विरोध प्रदर्शनों की मदद से इन आंदोलनों को हथियार के रूप में बदलने और इस्तेमाल करने का प्रयास करते हैं ताकि सत्तारूढ़ व्यवस्था पर हमला करके उनको अपनी मांगों को स्वीकार करने के लिये विवश किया जा सके. 

प्रशासन की मंज़ूरी

शस्त्रीकरण की इस प्रक्रिया में, फिरौती के लिए नागरिकों को पकड़ कर अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिये उन्हें गोली मारने की धमकी देना और उन्हें बंधक बनाकर मोल-भाव करना लक्ष्य बन चुका है. चूंकि, प्रदर्शनकारियों के लिए, बड़े शहरों में सड़कों पर बैठकर या सड़कों एवं रेलवे जैसी राष्ट्रीय संपत्तियों एवं परिवहन के ढांचों को रोक कर अथवा गतिरोध पैदा कर, लाखों नागरिकों को असुविधा पहुंचाया जा सकता है. बड़े पैमाने पर होने वाले विरोध प्रदर्शनों पर देश के भूमि कानून के अंतर्गत ‘उचित प्रतिबंध’ लगाए जाते हैं. राष्ट्र की एकता और संप्रभुता से समझौता नहीं किया जा सकता है; सार्वजनिक व्यवस्था को बाधित होने से बचाए रखा जाना चाहिए ताकि सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डाला जा सके. इन सारी शर्तों का ज़िक्र भारतीय दंड संहिता, पुलिस अधिनियम और दंड प्रक्रिया संहिता में विस्तारपूर्वक किया गया है. इसीलिए यातायात के प्रवाह को बाधित करने या सार्वजनिक स्थानों पर उपद्रव पैदा करने वाले कोई भी घटना या प्रयास कानून के दायरे में नहीं आते हैं. 

इस मामले में प्रोद्यौगिकी या तकनीक़ की भूमिका भी काफी प्रमुख रही है. टेक्नोलॉजी की वजह से लोगों की भावनाओं को जगाना, भीड़ में उत्तेजना और आक्रोश फैलाना, और फर्ज़ी ख़बर और सामग्रियों को बांटना और फैलाना दोनों ही काफी सहज हो जाता है.

   

अमूमन सभी शहरों में, विरोध प्रदर्शनों के लिए एक निश्चित जगह पूर्व-निर्धारित ही होती है, या फिर किसी अमुक स्थान पर आयोजित किए जाने वाले, बड़े स्तरों पर होने वाले विरोध प्रदर्शनों के लिए शहर की पुलिस/प्रशासनिक व्यवस्था की पहले से मंज़ूरी लेनी पड़ती है. ऐसा कोई भी जन आंदोलन जो शहर की व्यवस्था और सार्वजनिक शांति को रोकती है, वे कानून के दायरे के बाहर माने जाते है. हालांकि, ऐसे किसी भी पूर्व निर्धारित आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य ही कानून की अवहेलना करना होता है, ताकि उनपर दबाव बनाया जा सके. 

इस मामले में प्रोद्यौगिकी या तकनीक़ की भूमिका भी काफी प्रमुख रही है. टेक्नोलॉजी की वजह से लोगों की भावनाओं को जगाना, भीड़ में उत्तेजना और आक्रोश फैलाना, और फर्ज़ी ख़बर और सामग्रियों को बांटना और फैलाना दोनों ही काफी सहज हो जाता है. आज सोशल मीडिया और मोबाइल फोन एक काफी शक्तिशाली साधन बन चुके हैं. आज इन आंदोलनों के रिंग लीडर और एजेंट्स काफी हद तक परिष्कृत उपकरणों और तरीकों का इस्तेमाल करके, परदे के पीछे से प्रभावशाली तरीके से कार्य करते हैं. यह देश की अत्यंत विभाजित राजनीति,  कठोर तरीकों का इस्तेमाल करके अन्तराष्ट्रीय धन और समर्थन प्राप्त करने की इच्छा से सहायता प्राप्त करना चाहते हैं, जिसका एकमात्र उद्देश्य देश में अशांति फैलाना होता है. अमूमन ऐसा देखा गया है कि इन हिंसक बेलागम ऑनलाइन अपराधियों के समूह के द्वारा ही सत्तारूढ़ दलों और सरकार को हाशिये पर डाल दिया जाता है, जो किसी भी प्रकार की अकथित और अनकही क्षति के लिए भी तैयार रहते है. ये हाल-फिलहाल का एक नई बनती हुई परिघटना है.     

कोई भी विरोध प्रदर्शन के किसी उपद्रव में बदल जाने की सूरत में उसके दो परिणाम सामने आ सकते है. प्रशासन पर इन प्रदर्शनकारियों के साथ बातचीत करने का दबाव बन सकता है जहां उनके चंद अथवा पूरी उचित/अनुचित मांगों को माने जाने की संभावना बढ़ जाती है. हालांकि, वैकल्पिक तौर पर, प्रशासन अगर चाहती है तो इन प्रदर्शनकारियों की अनदेखी भी कर सकती थी. परंतु ऐसी स्थिति में बड़े पैमाने पर हिंसा, आगज़नी और संपत्ति का नुकसान हो सकती है. पुलिस को ऐसी स्थिति में बल प्रयोग के लिए भी बाध्य होना पड़ता है, जिसके दौरान प्रदर्शनकारियों की इस बलप्रयोग के क्रम में मृत्यु भी हो सकती है, और वे घायल भी हो सकते हैं. इस आधार पर प्रदर्शनकारी, पुलिस और प्रशासन व्यवस्था को समाज के सामने संवेदनहीन, क्रूर और बर्बर दिखा सकने में कामयाब होते हैं और इस आधार पर उन्हें आमजनों की संवेदना प्राप्त होती है और वे अपनी मनचाही मांगों को मनवा पाने में सफल हो जाते हैं. इसके परिणाम स्वरूप, सत्ता में बैठी सरकार, राजनैतिक दलों के खिलाफ़ सार्वजनिक घृणा का बाज़ार बनता है और फिर उन्हें इन घटनाओं के द्वारा प्राप्त अनुभव की कीमत पर संभवतः चुनाव के दौरान भारी कीमत चुकानी पड़ती है. यह तय है कि इन आधुनिक विरोध प्रदर्शनों से सफलतापूर्वक निपटने के लिए उच्च स्तरीय तैयारी और पुलिस बलों का प्रशिक्षण और बड़ी संख्या में इनकी उपलब्धता की आवश्यकता पड़ती है.   

किसान आंदोलन व NRC का विरोध

भारत में हाल ही में हुए दो ध्यान देने लायक सामूहिक विरोध प्रदर्शन/आंदोलन, ऊपर दिये गये विश्लेषण की पुष्टि करते हैं. पहला दिसम्बर 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ़ किया गया विरोध प्रदर्शन था. और दूसरा 2020-21 में किसानों का विरोध प्रदर्शन था. पहले वाले का आयोजन, संसद में नागरिकता संशोधन बिल के पारित किए जाने के विरोध में था. यहाँ प्रदर्शनकारियों ने सीएए कानून को लागू न किए जाने और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की होने वाली तैयारी को बंद किए जाने की मांग के समर्थन में विरोध प्रदर्शन किया था. किसानों का आंदोलन अनिवार्य रूप से तीन कृषि कानूनों के खिलाफ़ था, जो आंदोलनकारियों की नज़र में किसानों के नुकसान के लिए कृषि ‘निगमीकरण’ की मांग कर रहा था. भारी विरोध के कारण, सरकार को इन दोनों कानूनों को निरस्त करना पड़ा था. इन दोनों घटनाओं नें विरोध प्रदर्शनों के बीच फंसे नागरिकों के लिए हिंसा और लंबे समय के लिये पैदा हुई संपत्ति के नुकसान के अलावा होने वाली मौतों की वजह से, लोगों को काफी दुख उठाना पड़ा.

यह सच है कि देश के महत्वपूर्ण रास्तों पर चल रहे इस आंदोलन को काफी लंबे समय तक चलते रहने दिया गया था, और इसने एक ऐसी धारणा कायम की है कि, शासन-प्रशासन ने बिना वजह काफी लंबे समय तक समाधान का इंतज़ार करने का फैसला किया.

चिंता की बात यह थी की प्रशासन लंबे वक्त तक इस दुविधा में था कि क्या उन्हें इनमें हस्तक्षेप करना चाहिए और प्रदर्शनकारियों (जिन्होंने स्पष्ट रूप से कानूनी सीमाओं का उलंघन कर रखा था) की भीड़ को तोड़ने के प्रयास करना चाहिए अथवा सुरक्षित रूप से इनका सामना करना चाहिए और स्थिति को सामान्य होने का समय देना चाहिए था. यह सच है कि देश के महत्वपूर्ण रास्तों पर चल रहे इस आंदोलन को काफी लंबे समय तक चलते रहने दिया गया था, और इसने एक ऐसी धारणा कायम की है कि, शासन-प्रशासन ने बिना वजह काफी लंबे समय तक समाधान का इंतज़ार करने का फैसला किया. हरियाणा में जाट आंदोलन के संदर्भ में प्रकाश सिंह समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि राज्य स्तर पर प्रशासनिक लापरवाही थी और ज़िला स्तर पर बलप्रयोग करने में हिचकिचाहट,  दिखाई गई थी. कानून व्यवस्था बनाए रखने के प्रशासन की संवैधानिक ज़िम्मेदारी के त्याग का संदेश देती है. उपरोक्त दोनों मामलों का निष्कर्ष एक जैसा ही निकलता है. स्पष्ट तौर पर ये दिखता है कि वहाँ पुलिस – प्रशासन द्वारा राजनैतिक समेत सभी तरह के जोख़िम उठाने की अनिच्छा थी, जो किसी भी तरह के बलप्रयोग के बाद पैदा हो सकता था.      

इस परिस्थिति में, अंतिम निर्णय लेने से पहले सामूहिक विरोध प्रदर्शनों को कई दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है, जिसमें सार्वजनिक सौहार्द भी एक है. प्रशासन की तरफ से कार्रवाई करने से बचना भविष्य में और भी आंदोलन खड़ा कर सकता है. 

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