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प्रधानमंत्री मोदी के रूस के हालिया दौरे ने चीन में एक नई बहस छेड़ दी है. चीन में इस बात पर चर्चा हो रही है कि मोदी की रूस यात्रा से भू-राजनीति स्थितियों में क्या बदलाव आए हैं. इसके अलावा चीन-रूस-अमेरिका, चीन-रूस-भारत और चीन-अमेरिका-भारत के राजनयिक समीकरणों में परिवर्तन पर बहस हो रही है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया रूस यात्रा ने दुनिया भर में काफ़ी सुर्खियां बटोरीं. हालांकि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में ज़्यादातर चर्चा इस बात पर ही हुई की मोदी के रूस दौरे पर पश्चिमी देशों ने क्या प्रतिक्रियाएं दी लेकिन चर्चा से ये बात गायब रही कि चीन में इस यात्रा को कैसे देखा गया. चीन को वर्तमान दौर की भू-राजनीति में रूस का सबसे करीबी भागीदार माना जाता है.
चीन के रणनीतिक और कूटनीतिक समुदाय ने मोदी-पुतिन की बैठक पर बारीकी से नज़र रखी. चीनी पक्ष इस बात पर खुश भी था कि मोदी के रूस दौरे ने किस तरह भारत और अमेरिका के बीच की दरार को खुले में ला दिया. हालांकि चीन के भीतर इस यात्रा को लेकर जो प्रमुख बहस और चर्चाएं हुईं, वो कहीं और केंद्रित थीं.
चीन में इस यात्रा को लेकर ज़्यादा चर्चा और विश्लेषण इस बात पर हुआ कि भारतीय प्रधानमंत्री मोदी अस्तना में हुई शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (SCO) की बैठक से अनुपस्थित रहे. ये सम्मेलन मोदी के रूस दौरे से कुछ ही दिन पहले यानी 3-4 जुलाई को हुआ था. चीनी पर्यवेक्षक इस बात से नाराज़ थे कि एससीओ की बैठक में जहां सभी आठ देशों के लीडर शामिल हुए, वहीं पीएम मोदी ही इकलौते ऐसे नेता थे जो इससे गैरहाज़िर रहे. चीन की सोशल मीडिया में ये अफवाहें भी फैली हुई हैं कि कज़ाकिस्तान ने भी पीएम मोदी से बैठक में कम से कम ऑनलाइन शामिल होने का अनुरोध किया था, लेकिन इसे खारिज़ कर दिया गया. पीएम मोदी की जगह भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर को शिखर सम्मेलन में शामिल होने के लिए भेजा गया.
चीन में इस यात्रा को लेकर ज़्यादा चर्चा और विश्लेषण इस बात पर हुआ कि भारतीय प्रधानमंत्री मोदी अस्तना में हुई शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (SCO) की बैठक से अनुपस्थित रहे. ये सम्मेलन मोदी के रूस दौरे से कुछ ही दिन पहले यानी 3-4 जुलाई को हुआ था.
चीन को ज़्यादा निराशा इस बात से हुई कि प्रधानमंत्री मोदी एससीओ शिखर सम्मेलन में तो शामिल नहीं हुए, लेकिन वो जी-7 की बैठक में हिस्सा लेने इटली चले गए, जबकि भारत इस ग्रुप का सदस्य ही नहीं है. चीन के ज़ख्मों पर मिर्च डालने वाली बात ये भी हो गई कि पीएम मोदी एससीओ की मीटिंग में तो शामिल नहीं हुए लेकिन रूस के राष्ट्रपति पुतिन के साथ मुलाकात के लिए मॉस्को चले गए. बीजिंग ने इसका निष्कर्ष ये निकाला गया कि भारत जानबूझकर चीन और चीन के नेतृत्व वाले बहुपक्षीय मंचों को नजरअंदाज़ कर रहा है, लेकिन रूस को खुश करने के लिए वो तैयार है.
इस संबंध में एक तथ्य ये भी है कि भारत ने पिछले साल SCO सम्मेलन को वर्चुअल तरीके से आयोजित किया था, लेकिन इस साल उसने ना सिर्फ एससीओ शिखर सम्मेलन में बल्कि ब्रिक्स विदेश मंत्रियों की बैठक में भी अपनी उपस्थिति कम कर दी. चीन में इस बात पर भी काफी चर्चाएं हुईं कि क्या भविष्य में इस तरह के मंचों में भारत की उपस्थिति कम होगी या फिर इस नियमित किया जाएगा. अगर ऐसा होता है तो इसका चीन के हितों पर क्या असर पड़ेगा. इन संगठनों के कामकाज पर क्या प्रभाव पड़ सकता है. चीन के विश्लेषक ख़ासकर इस बात को लेकर उत्सुक हैं कि अगले साल जब बीजिंग SCO शिखर सम्मेलन की मेजबानी करेगा तो भारत की प्रतिक्रिया क्या होगी.
इसी लाइन पर चलते हुए चीन के मीडिया ने अपने लेखों में भारत की कड़ी आलोचना की. उन्होंने आरोप लगाया कि भारत SCO को "आंतरिक रूप से अस्थिर या खोखला" करने के लिए नकारात्मक भूमिका निभा रहा है. चीन एससीओ को NATO का मुकाबला करने वाले संगठन के रूप में खड़ा करना चाहता है. कुछ लोगों ने भारत को इस संगठन से बाहर करने की भी मांग की.
दिलचस्प बात ये है कि चीन के पर्यवेक्षकों ने रूस की भी कड़ी आलोचना की. इनका कहना था कि चीन की आपत्ति के बावजूद रूस ने भारत को SCO में शामिल करने की सिफारिश की. चीन ने ये कहते हुए भी मॉस्को की आलोचना की है कि रूस का सारा ध्यान यूक्रेन के साथ युद्ध पर है. उसे इस बात की कोई चिंता नहीं है कि एससीओ कैसे काम कर रहा है लेकिन भारत के साथ संबंध अच्छे बनाए रखने के लिए रूस के पास बहुत वक्त है.
इस बीच कई लोग ये अंदाज़ा लगा रहे हैं कि क्या मध्य एशिया को लेकर रूस और चीन के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा SCO जैसे मंचों पर रूस की बढ़ती उदासीनता की एक वजह हो सकती है. एससीओ को लेकर चीन के पास कई बड़ी योजनाएं हैं, विशेष रूप से मध्य एशिया में अपने बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (BRI) के विस्तार को लेकर. चीन इस क्षेत्र में अपनी अगुवाई में कलेक्टिव सिक्योरिटी ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन (CSTO) जैसा सुरक्षा तंत्र स्थापित करना चाहता है और अगर ये सब होता है तो यहां रूस का असर कम होने लगेगा.
चीन ने ये कहते हुए भी मॉस्को की आलोचना की है कि रूस का सारा ध्यान यूक्रेन के साथ युद्ध पर है. उसे इस बात की कोई चिंता नहीं है कि एससीओ कैसे काम कर रहा है लेकिन भारत के साथ संबंध अच्छे बनाए रखने के लिए रूस के पास बहुत वक्त है.
उदाहरण के लिए रूस के विदेश मंत्री लावरोव ने 25 जून को सार्वजनिक रूप से ये घोषणा की थी कि ब्रिक्स में नए सदस्य देशों को शामिल करने की प्रक्रिया को निलंबित कर दिया गया है. चीन ने इस बात को पूरी तरह नोटिस किया. यही वजह है कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कज़ाकिस्तान में एक संवाददाता सम्मेलन में इस बात का खुलकर विरोध किया. उन्होंने कज़ाकिस्तान के ब्रिक्स में शामिल होने का समर्थन किया था.
इसी संदर्भ में चीन की मीडिया में SCO में सुधारों को लेकर, धीरे-धीरे कामकाज के एक वैकल्पिक तंत्र को विकसित करने के बारे में कई चर्चाएं हुईं, जहां अल्पसंख्यक को बहुमत के निर्णयों का पालन करना होगा. शंघाई एकेडमी ऑफ सोशल साइंसेज के निदेशक प्रोफेसर पैन गुआंग ने एससीओ के भीतर "चीन-मध्य एशिया 1 + 5" कोर ग्रुप का सुझाव दिया. उनका ये कहना था कि भारत और रूस SCO के उदासीन सदस्य हैं, इसलिए चीन को इनकी सक्रिय भागीदारी के बिना भी एससीओ के संचालन के बारे में सोचना चाहिए.
प्रधानमंत्री मोदी की रूस यात्रा के बाद चीन के मीडिया में एक और दिलचस्प नैरेटिव ने ज़ोर पकड़ा है. कई लोगों ने रूस-भारत-चीन के बीच संभावित त्रिपक्षीय वार्ता पर रुचि दिखाई है.
मोदी की मॉस्को यात्रा से ठीक पहले, 26 जून को रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने 10वें "प्रिमाकोव रीडिंग" अंतर्राष्ट्रीय मंच पर कहा कि उनका देश रूस, भारत और चीन के बीच त्रिपक्षीय बैठक बुलाने की योजना पर काम कर रहा है. उन्होंने कहा कि हालांकि पश्चिमी देशों को उम्मीद है कि "ट्रोइका" यानी रूस-चीन-भारत कभी एकजुट नहीं होंगे लेकिन रूस की रुचि इसे पुनर्जीवित करने में है. हालांकि इस मुद्दे पर भारत में ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया, लेकिन चीन के रणनीतिक हलकों में इस पर काफी चर्चा हुई.
इस पूरे घटनाक्रम को सही परिप्रेक्ष्य से देखे जाने की ज़रूरत है. चीन की मीडिया में आ रही ख़बरों को पढ़ने से ये पता चलता है कि चीन और रूस के संबंधों में काफी बारीक बदलाव हो रहे हैं. इसकी एक बड़ी वजह अमेरिका में राजनीतिक बदलाव की संभावना और डोनाल्ड ट्रंप का ये दावा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर वो राष्ट्रपति बने तो 24 घंटे के भीतर रूस और यूक्रेन के बीच के युद्ध को रुकवा देंगे. "कूटनीतिक लचीलापन, संबंधों में विविधीकरण और संतुलन" जैसे शब्द राजनयिक चर्चाओं में वापसी करते दिख रहे हैं. यही वजह है कि एक तरफ हमने पुतिन को उत्तर कोरिया की यात्रा और उसके साथ आपसी रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर करते हुए देखा, वहीं दूसरी तरफ रूस ने दक्षिण चीन सागर में संयुक्त रूप से समुद्री संसाधनों को विकसित करने के लिए वियतनाम के साथ समझौता किया है. इस समझौते से चीन खुश नहीं है. इस पूरे घटनाक्रम का चीन के विश्लेषकों ने ये निष्कर्ष निकाला कि रूस का मक़सद अमेरिका और पश्चिमी देशों का ध्यान फिर से चीन से लगे एशिया-प्रशांत क्षेत्र की तरफ लाना है जिससे यूक्रेन युद्ध की वजह से रूस पर पड़ रहे दबाव को कम किया जा सके.
इस सारी पृष्ठभूमि में देखें तो पीएम मोदी की रूस यात्रा ने चीनी रणनीतिक गलियारों में एक खतरे की घंटी बजाई है. उनकी बड़ी चिंता ये है कि रूस के साथ अपने पारंपरिक रिश्तों का इस्तेमाल करके भारत की कोशिश चीन को रोकने और शक्ति संतुलन पर काबू पाने की होगी.
विश्लेषकों के मुताबिक रूस इस बात को जानता है कि उसकी इस कार्रवाई का मतलब चीन के लिए ज़्यादा दबाव और उकसावा होगा. दूसरी तरफ चीन ने भी जैसे को तैसा वाली नीति अपना ली है. यही वजह है कि उसने 9 साल बाद दक्षिण कोरिया के साथ उप-मंत्री स्तर की 2+2 वार्ता को फिर शुरू किया है. यही नहीं चीन अब पोलैंड के राष्ट्रपति आंद्रेज डूडा की मेज़बानी भी कर रहा है. डूडा को "यूरोप में रूस विरोधी गुट" का अगुआ माना जाता है. इतना ही नहीं चीन ने यूक्रेन के साथ अपने तनावपूर्ण संबंधों को सुधारने की कोशिश भी शुरू कर दी है. इस सारी पृष्ठभूमि में देखें तो पीएम मोदी की रूस यात्रा ने चीनी रणनीतिक गलियारों में एक खतरे की घंटी बजाई है. उनकी बड़ी चिंता ये है कि रूस के साथ अपने पारंपरिक रिश्तों का इस्तेमाल करके भारत की कोशिश चीन को रोकने और शक्ति संतुलन पर काबू पाने की होगी.
अब ऐसा लग रहा है कि रूस की तरफ से “आश्वासन” बहुत ही महत्वपूर्ण समय पर आया है. यहां पर इस बात को ध्यान में रखना ज़रूरी है कि चीन और भारत के बीच एक शांतिदूत के रूप में रूस की भूमिका को लेकर बीजिंग में हमेशा गहरा संदेह रहा है. चीन अक्सर रूस पर भारत के लिए लॉबिंग करने या संभावित भारत-चीन संघर्ष में अपने हित साधने का आरोप लगाया है. चीन का मानना है कि भारतीय बाज़ार में अपने हथियारों की मांग पैदा करने के लिए रूस ऐसा कर सकता है. हालांकि, अब चीन के सामरिक रणनीतिकारों के एक वर्ग ने भारत-रूस के संबंधों को नए सिरे से देखना शुरू कर दिया है. वो इस बात को समझने लगे हैं कि चीन और भारत के बीच सुलह कराने में रूस की नीयत सही हो सकती है. उनको लगता है कि अगर रूस ऐसा करने में कामयाब होता है तो वो पश्चिमी देशों की नाकेबंदी को तोड़ने में कुछ हद तक सफल होगा. आर्थिक रूप से भी और राजनयिक तौर पर भी. दूसरी बात, चीन की मीडिया के कुछ विश्लेषणों में ये भी कहा जा रहा है कि 'अमेरिका और कनाडा सिख अलगाववादी आंदोलन (खालिस्तान) का खुलेआम समर्थन कर रहे हैं, अमेरिका ख़ुफिया एजेंसी सीआईए भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में हिंसा के लिए उकसाने और भड़काने का काम कर रही है', ऐसे में ये त्रिपक्षीय वार्ता प्रारूप में नई जान फूंकने का बिल्कुल सही समय है. तीसरी बात, चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेम्पररी इंटरनेशनल रिलेशंस के साउथ एशियन स्टडीज़ इंस्टीट्यूट के कार्यकारी निदेशक लू चुनहाओ जैसे चीनी विद्वानों का मानना है कि मौजूदा दौर में जब चीन और भारत के बीच द्विपक्षीय संबंधों में गतिरोध बना हुआ है, बहुपक्षीय स्तर पर ब्रिक्स/SCO में चीन के साथ सहयोग करने का भारत का उत्साह कम हो रहा है. ऐसे वक्त में चीन को त्रिपक्षीय विकल्प को पूरी तरह ख़ारिज नहीं करना चाहिए.
कुल मिलाकर आखिर में ये कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी की हालिया रूस यात्रा वैश्विक भू-राजनीति में चल रहे जटिल परिवर्तनों का प्रतीक है. फिर चाहे इसे चीन-रूस-अमेरिका के स्तर से देखें, चीन-रूस-भारत के स्तर या फिर चीन-अमेरिका-भारत के स्तर से देखा जाए. संबंधों में ये बदलाव आने वाले समय में ही स्पष्ट हो सकते हैं.
अंतरा घोषाल सिंह ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फैलो हैं
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Antara Ghosal Singh is a Fellow at the Strategic Studies Programme at Observer Research Foundation, New Delhi. Her area of research includes China-India relations, China-India-US ...
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