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कोविड के मामलों में हाल के दिनों में आए उछाल की वजह से चीनी अर्थव्यवस्था में छाई मंदी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को बेहद कमज़ोर कर दिया है.
दुनिया में कोविड-19 महामारी के क़रीब तीन साल पूरे हो गए हैं. कोरोना वायरस दुनिया भर में हवाई अड्डों, अस्पतालों, बाज़ारों और वैश्विक अर्थव्यवस्था, यहां तक की लोगों के दिमाग में परेशानी पैदा करता आ रहा है. वर्ष 2022 में विश्व अर्थव्यवस्था को और कमज़ोर करने के लिए बीजिंग की 'ज़ीरो-कोविड' पॉलिसी को अक्सर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से लेकर घरेलू मोर्चे पर विरोध एवं आलोचना का सामना करना पड़ा है. कोरोना महामारी पर लगाम लगाने के लिए सोच-समझ कर क़दम उठाने और लक्षित नज़रिए से आगे बढ़ने में चीन की अक्षमता ने स्थितियों को और बिगाड़ने का काम किया है. ऐसा करने के बजाए चीन ने बड़े पैमाने पर लॉकडाउन और प्रतिबंधों जैसे कड़े उपायों का सहारा लिया, जिसने वहां के रिटेल सेक्टर से लेकर ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में आर्थिक दुश्वारियों को नए सिरे से बढ़ा दिया है. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की प्रबंध निदेशक क्रिस्टालिना जॉर्जीवा ने नवंबर 2022 में बीजिंग से आग्रह किया था कि " चीन, दुनिया के बाक़ी हिस्सों पर पड़ने वाले आपूर्ति श्रृंखला के प्रभाव को देखते हुए महामारी को लेकर अपने समग्र दृष्टिकोण में बदलाव करे." दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन, जो कि ग्लोबल जीडीपी का लगभग 18 प्रतिशत कवर करता है, वहां हाल ही में कोविड के मामलों में आए उछाल ने एक बार फिर से वैश्विक आर्थिक ख़तरे की घंटी को ज़ोरों से बजा दिया है.
वर्ष 2022 में विश्व अर्थव्यवस्था को और कमज़ोर करने के लिए बीजिंग की 'ज़ीरो-कोविड' पॉलिसी को अक्सर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से लेकर घरेलू मोर्चे पर विरोध एवं आलोचना का सामना करना पड़ा है.
वर्ष 2020 के बाद से कोविड-19 महामारी के प्रकोप के पश्चात वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए अगर कोई सबक लिया गया है, तो उसमें दो सबक बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. सबसे पहला सबक था, चीनी अर्थव्यवस्था पर अत्यधिक निर्भरता को कम करना. इसमें कोई संदेह नहीं है कि वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं (GVCs) में चीनी सामानों की बहुतायत और उसकी पहुंच ने निश्चित तौर पर बीजिंग को आर्थिक और राजनीतिक तौर पर ताक़त प्रदान की है. इसलिए, शुरुआत में जब महामारी की वजह से लॉकडाउन जैसे उपाय शुरू हो गए थे, तो तमाम बाज़ार शक्तियों के उसकी चपेट में आने से दुनिया भर में प्रोडक्शन मार्केट्स पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, लेकिन उस दौरान सबसे बुरा असर चीन जैसे महत्त्वपूर्ण देश में आपूर्ति श्रृंखला में अवरोध की वजह से पड़ा था. परिणामस्वरूप संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) और जापान जैसे देशों ने चीन में स्थापित अपने मैन्युफैक्चरिंग बेस के विकल्प तलाशने को लेकर अपने प्रयासों को तेज़ कर दिया. विकल्प के रूप में इन देशों द्वारा किए जाने वाले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को आकर्षित करने के लिए वियतनाम, थाईलैंड, मलेशिया, ताइवान और भारत जैसे देश आपसी प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं.
Table 1: अंतर्राष्ट्रीय पॉलिसी संकेत
देश | पॉलिसी संकेतक |
जापान | अप्रैल 2020 की शुरुआत में जापान की सरकार ने अपने निर्माताओं को चीन से उत्पादन को वैकल्पिक स्थानों पर स्थानांतरित करने या फिर वापस जापान आने में मदद करने के लिए 2.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर का प्रोत्साहन पैकेज घोषित किया. |
अमेरिका | वर्ष 2018-20 के बीच 550 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य के चीनी सामानों पर विशेष रूप से टैरिफ लागू किया. पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने कई बयानों में सुझाव दिया कि अमेरिकी कंपनियां को अगर टैरिफ से बचना है तो वे अपनी उत्पादन इकाइयों के लिए तत्काल चीन के अलावा अन्य वैकल्पिक जगहों की तलाश करें. |
स्रोत: COVID-19: दक्षिण एशिया और दक्षिणपूर्व एशिया में FDI में वृद्धि, ORF
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि महामारी के दौरान परिवहन में तमाम बाधाओं का सामना करना पड़ा और इसने सरकारों को नए क़दम उठाने के लिए प्रोत्साहित किया. जैसे कि मूल्य श्रृंखलाओं में अंतर क्षेत्रीय और घरेलू क्षमता हासिल करने के लिए अंतर-देशीय तुलनात्मक लाभों का फायदा उठाने से अलग हटकर कुछ करना. इसने न केवल लचीली घरेलू क्षमताओं को लेकर रास्ता दिखाया है, बल्कि प्रतिस्पर्धी दामों पर ज़रूरी और गैर-ज़रूरी दोनों वस्तुओं की सोर्सिंग के मामले में चीन से आने वाले सामान के कई विकल्प भी तैयार किए हैं. सबसे अहम बात यह है कि महामारी के बाद की दुनिया में वैश्वीकरण के रुझानों में नए आयाम जोड़ते हुए देश आर्थिक समूहों और बहुपक्षीय प्लेटफार्मों पर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने को लेकर और भी ज़्यादा चौकन्ने हो गए हैं.
चीन में कोविड के उछाल की वजह से अन्य देशों के लिए व्यापार और आपूर्ति श्रृंखला की अव्यवस्था और ज़्यादा बढ़ेगी. कोविड महामारी का प्रकोप ऐसे समय में सामने आया है, जब वैश्विक आर्थिक संकट बढ़ रहा है
उदाहरण के लिए वर्ष 2020 में भारत ने विश्व के सबसे बड़े ट्रेडिंग समूह रीजनल कम्प्रहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (RECP) में शामिल नहीं होने का फैसला किया. ऐसा करके भारत एक तरफ अपने मज़बूत होते घरेलू बाज़ार के हितों की रक्षा करना चाहता था, वहीं दूसरी तरफ RECP में चीन की भागीदारी से खुद को अलग करना चहाता था. इसके अलावा, वर्ष 2022 की शुरुआत में नई दिल्ली और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के मध्य ऐतिहासिक कम्प्रहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट (CEPA) पर हस्ताक्षर किए गए. इससे भारतीय निर्यातकों को अफ्रीकी और अरब बाज़ारों तक पहुंच बढ़ाने में मदद मिलने की उम्मीद है, जिससे अगले पांच वर्षों में दो-तरफा व्यापार में वृद्धि वर्तमान के 60 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो जाएगी.
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए चीन ने जिस तरीक़े को अपनाया है, वो दुनिया में सबसे खराब तरीक़ों में से एक रहा है. वर्ष 2022 में सख़्त 'ज़ीरो-कोविड' उपायों की वजह से चीनी शहर चेंग्दू में भूकंप के दौरान लोगों के अपने परिवारों से अलग होने और क्वारंटीन कैंपों में रहने के लिए मज़बूर करने वाले हृदयविदारक दृश्य इंटरनेट पर छा गए थे. मानवाधिकारों के इस प्रकार के उल्लंघन के विरुद्ध नवंबर में चीनी नागरिकों ने बड़े पैमाने पर सड़कों पर विरोध प्रदर्शन किया. इन विरोध प्रदर्शनों ने एक हिसाब से लगभग अभेद्य मानी जाने वाली सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी को चुनौती दी. इसके बाद, चीनी सरकार को कम कोविड प्रतिरोधक क्षमता वाली आबादी के लिए लॉकडाउन के उपायों को ज़ल्दबाज़ी में ढील देनी पड़ी. इसका परिणाम यह हुआ कि महामारी की यह आपदा फिर से पैर पसारने लगी. दिसंबर 2022 के पहले 20 दिनों में ही लगभग 248 मिलियन लोगों (चीन की आबादी का लगभग 18 प्रतिशत) के कोरोना वायरस से संक्रमित होने का अनुमान लगाया गया है. इतनी बड़ी संख्या में लोगों को कोरोना वायरस की चपेट में आने ने इसे दुनिया में अब तक का सबसे बड़ा प्रकोप बना दिया है.
यह निश्चित है कि चीन में कोविड के उछाल की वजह से अन्य देशों के लिए व्यापार और आपूर्ति श्रृंखला की अव्यवस्था और ज़्यादा बढ़ेगी. कोविड महामारी का प्रकोप ऐसे समय में सामने आया है, जब वैश्विक आर्थिक संकट बढ़ रहा है और यह वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए और ज़्यादा परेशानी पैदा करने वाला है. एक ओर देखा जाए तो दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों में निरंतर परिवर्तन का दौर चल रहा है, जैसे कि श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से धराशायी हो चुकी है, म्यांमार में सैन्य तख्ता पलट और बड़े स्तर पर बेरोज़गारी की स्थिति है, भारत और बांग्लादेश में मुद्रास्फ़ीत और घरेलू मुद्रा डंवाडोल है, पाकिस्तान और नेपाल में राजनीतिक उथल-पुथल एवं वित्तीय आपातकाल के कारण व्यापार घाटा बढ़ रहा है, साथ ही विदेशी मुद्रा भंडार कम हो रहा है. वहीं दूसरी तरफ यूक्रेन-रूस युद्ध ने कई ग्लोबल साउथ देशों के एनर्जी मार्केट्स में पूरी तरह से अव्यवस्था का माहौल पैदा कर दिया है. इसके अलावा, खाद्य तेल निर्यात करने वाले देशों द्वारा आपूर्ति में कटौती करने और फूड प्राइज पर ऊर्जा मूल्य वृद्धि के असर ने विशेष रूप से समाज के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिए खाद्य सुरक्षा को एक बड़ी चिंता बना दिया है.
Figure 1: मार्च 2022 तक चुनिंदा देशों में खाद्य मुद्रास्फ़ीति में वार्षिक वृद्धि (प्रतिशत में)
(स्रोत : ट्रेडिंग इकोनॉमिक्स . *मैक्सिको और वियतनाम के आंकड़े अप्रैल 2022 से हैं)
ज़ाहिर है कि वर्ष 2022 में चीनी अर्थव्यवस्था में मंदी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को बेहद कमज़ोर कर दिया है. इसके साथ ही घरेलू मांग में गिरावट ने विदेशी निर्यातकों को नुकसान पहुंचाया है और सख़्त लॉकडाउन जैसे क़दमों ने निर्माताओं, विशेष रूप से दूसरे एशियाई देशों में आपूर्ति को बहुत बुरी तरह से प्रभावित किया है. इससे भी ज़्यादा, अमेरिका और यूरोप में बढ़ती ब्याज दरों और बढ़ती आर्थिक मंदी के साथ-साथ मुद्रास्फ़ीत के दबाव ने ग्लोबल मैक्रोइकोनॉमिक पैरामीटर्स के जटिल परस्परिक प्रभावों की दरारों को सामने लाकर रख दिया है. ऐसे में चीन की मौज़ूदा हेल्थ इमरजेंसी ने इस विकट परिस्थिति में आग में घी डालने का काम किया है, यानी हालात को और भी बदतर बना दिया है. यह कहना उचित होगा कि चीन में कोरोना महामारी के उछाल ने वर्ष 2022 के अंत में वैश्विक अर्थव्यवस्था को एक बेहद बुरे दौर में पहुंचाने का काम किया है.
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Soumya Bhowmick is a Fellow and Lead, World Economies and Sustainability at the Centre for New Economic Diplomacy (CNED) at Observer Research Foundation (ORF). He ...
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