Published on Jan 21, 2021 Updated 0 Hours ago

मेडॉग परियोजना पूरी तरह संभावित थी- उसकी घोषणा चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की पांचवी विस्तृत बैठक के दौरान तय रूप से की गई है.

यारलुंग/ब्रह्मपुत्र नदी के उपर चीन ने शुरु की गई धरती की सबसे बड़ी जलविद्युत परियोजना: एक विश्लेषण

नामचा बारवा (दांए) और ग्याला पेरी (बांए) पर्वत श्रंखलाओं के बीच से निकलती यारलुंग नदी. स्रोत: गूगल अर्थ

दुनिया भर के लिए स्पष्ट रूप से आश्चर्य की एक वजह बनते हुए पिछले हफ्त़े यह ख़बर आई कि चीन ने अपनी तरफ के यारलुंग ज़ांगबो नदी इलाके (जो भारत में ब्रह्मपुत्र नदी से मिलता है) में जलीय बहाव का फ़ायदा उठाने के लिए जलविद्युत संबंधी विकल्प तलाशने की पहल की है और इसे चीन की 14वीं पंचवर्षीय योजना (2021-2025) के मसौदे में एक प्रस्ताव के रूप में शामिल किया गया है. यह बेहद आश्चर्यजनक है, और ऐसा अक्सर नहीं होता कि हिमालय का एक दुर्गम और काफ़ी हद तक अनजाना समझा जाना वाला कोई इलाक़ा, अचानक दुनिया भर में ख़बरों और सुर्खियों में आ जाए, इसलिए कि वहां इंसानी हस्तक्षेप हो रहा है, और वह भी ऐसा जिस की मानवीय इतिहास में अब तक कोई समानता नहीं है. यह परियोजना यारलुंग ज़ांगबो नदी पर एक ‘ऐतिहासिक’ बांध बनाने की परिकल्पना से जुड़ी है, जो ब्रह्मपुत्र नदी की सबसे लंबी और सबसे महत्वपूर्ण सहायक नदी है, और गुवाहाटी में नदी के कुल प्रवाह का लगभग 38 प्रतिशत हिस्सा (पासीघाट में लिए गए माप के मुताबिक) इस से आता है. लगभग 60 गीगावाट की इस विशालकाय परियोजना को यारलुंग ज़ांगबो ग्रैंड कैन्यन (Yarlung Zangbo Grand Canyon-YZGC) पर शुरू करने की योजना है, जो एक शानदार भूगर्भीय निर्माण हैं, जहां नदी एक ‘विशाल चमत्कारी मोड़ लेती है’. सियांग या दिहांग नदी के रूप में अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करने से पहले तिब्बती प्लैट्यू पर यारलुंग बेहद ऊंचाई से गिरती है.

यह परियोजना यारलुंग ज़ांगबो नदी पर एक ‘ऐतिहासिक’ बांध बनाने की परिकल्पना से जुड़ी है, जो ब्रह्मपुत्र नदी की सबसे लंबी और सबसे महत्वपूर्ण सहायक नदी है, और गुवाहाटी में नदी के कुल प्रवाह का लगभग 38 प्रतिशत हिस्सा (पासीघाट में लिए गए माप के मुताबिक) इस से आता है. 

इस के मद्देनज़र इस मोड़ के लगभग 50 किलोमीटर के इलाक़े को इस्तेमाल किया जाएगा, जिससे पानी 2,000 मीटर की ऊंचाई से गिरे और जिस के ज़रिए पनबिजली पैदा की जा सके. माना जा रहा है कि पानी से बिजली बनाने की यह परियोजना चीन द्वारा इस तर्ज पर बनाए जा चुके ‘थ्री गॉर्जेस डैम’ (Three Gorges Dam) की तुलना में तीन गुना अधिक प्रभावशाली है.

उलझे भू-राजनीतिक तारों को सुलझाना

इस क़दम को तुरंत ही चीन द्वारा भारत के साथ ‘जल युद्ध’ छेड़ने के संदर्भ में देखा जाने लगा और विश्लेषित किया गया. माना जा रहा है कि इसके ज़रिए चीन ने हिमालय क्षेत्र में भारत के साथ जारी सैन्य गतिरोध और भारतीय महासागर में चीन की बढ़ती समुद्री उपस्थिति को लेकर भारत की आपत्तियों के बीच, जलविद्युत के आयाम को भी जोड़ दिया है. इस क़दम को चीन की त्वरित कार्रवाई और भारत के साथ युद्ध छेड़ने के संबंध में देखे जाने और परिभाषित किए जाने के दौरान, एक तथ्य जो लगातार अनदेखा किया जा रहा है वह है कि इस परियोजना को अमली जामा पहनाने के लिए ज़रूरी तकनीकी ताक़त, चीन ने रातों-रात हासिल नहीं की है. हाइड्रोचाइना द्वारा हाइड्रोपावर परियोजनाओं के लिए तैयार किए गए एक विशेष इन्वेंट्री मैप ने लगभग दो दशक पहले इस ‘ग्रेट बेंड’ को बांधों की एक श्रृंखला बनाने के लिए सही जगह के रूप में पहचाना था. चीन लंबे समय से जल प्रवाह की ऊर्जा का दोहन करने की तकनीक पर काम कर रहा था और थ्री गॉर्जेस डैम और बैथेन हाइड्रोपावर स्टेशन इस दिशा में चीन को मिली क़ामयाबी और तकनीकी प्रगति के बेहतरीन उदाहरण हैं.

मेडॉग परियोजना अपेक्षित थी और सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा के लिए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के पांचवें विस्तृत अधिवेशन को चुना गया है. ऐसे में भारत को इसे चीन के साथ अन्य मसलों पर चल रहे गतिरोध से जोड़कर नहीं देखना चाहिए और इसे भारत-चीन संबंधों में घटे एक और महत्वपूर्ण घटनाक्रम की तरह समझना चाहिए. 

इसलिए, इस बात की संभावना थी कि चीन का ध्यान अंततः इस आकर्षक जगह पर पड़ेगा और वह अपने हित में इसका इस्तेमाल करने की हर संभव कोशिश करेगा. आंकड़ों के अनुसार, यारलुंग नदी, चीन में अब तक इस्तेमाल में लाई गई सभी नदियों में से सबसे कम प्रयोग में लाई गई है, यानी इस का विकास स्तर केवल 0.3 फीसदी ही है. चीन की सभी प्रमुख नदियों के मुक़ाबले इससे होने वाला जलविद्युत दोहन सबसे कम है, जबकि यांग्त्ज़ी, येलो और पर्ल नदियों के संबंधित आंकड़े क्रमशः 24.6 फ़ीसदी, 34.2 फ़ीसदी, और 58 फ़ीसदी हैं, मेडॉग इलाक़े के पास की यह साइट वह अंतिम सीमांत है, जो चीन के पास मौजूद सर्वश्रेष्ठ तकनीकी और इस दिशा में की गई प्रगति का परीक्षण करेगा. यह पृथ्वी पर किसी भी नदी के सबसे प्राकृतिक और दुर्गम हिस्से पर इंसानी कब्ज़े का पहला मामला होगा. एक तथ्य यह भी है कि कथित निर्माण स्थल के पास मौजूद सबसे नज़दीकी शहर- मेडॉग ऑफ मोतोउ जो निंगची प्रीफेक्चर में स्थित एक काउंटी है, और जिसे हाल ही में देश के बाकी हिस्सों से जोड़ा गया है, जिससे यह यातायात के लिए खोला जाने वाला अंतिम रोडलेस काउंटी बना गया है. कुलमिलाकर, मेडॉग परियोजना अपेक्षित थी और सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा के लिए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के पांचवें विस्तृत अधिवेशन को चुना गया है. ऐसे में भारत को इसे चीन के साथ अन्य मसलों पर चल रहे गतिरोध से जोड़कर नहीं देखना चाहिए और इसे भारत-चीन संबंधों में घटे एक और महत्वपूर्ण घटनाक्रम की तरह समझना चाहिए.

परिवर्तित प्रवाह का संचालन

इस इलाक़े में यदि बांध का निर्माण किया जाना है, तो इस संबंध में भारत के पास निश्चित रूप से कुछ वैध चिंताएं हैं. लेकिन, इस मसले पर फैली आशंकाओं और विलाप के विपरीत, यह परियोजना पूरे पूर्वोत्तर भारत के लिए पानी की कमी और जल आपूर्ति के क्षेत्र में असुरक्षा से संबंधित नहीं है. निर्माण की कथित जगह के कारण, यानी मेडॉग शहर के पास स्थित नदी के उस दुर्गम मोड़ पर, यह परियोजना पिछले परियोजनाओं के विपरीत यारलुंग के मध्य-खंड पर मानसून के वर्चस्व वाली वर्षावधि का फ़ायदा उठाने की ओर इंगित है. नतीजतन, यह डाउनस्ट्रीम में नदी के प्रवाह को महत्वपूर्ण रूप से बदल सकती है, यदि बांध को हाइड्रोपीकिंग को ध्यान में रखते हुए संचालित किया जाता है, यानी ऊर्जा की मांग को ध्यान में रखते हुए पानी के बहाव को अलग अलग स्तर पर रोकना. यह पूर्णचक्र पर पानी के प्रवाह में बेहद उतार चढ़ाव भी ला सकती है, भले ही यह केवल एक रन-ऑफ-द-रिवर-परियोजना हो, खास तौर पर उस दौरान जब बारिश अधिक न हो. पानी की उपलब्धता को लेकर यह मुमकिन है कि, ग्लेशियर और हिमपात के साथ-साथ झरनों और भू-जल के योगदान के साथ, नदी की स्थापित क्षमता पर संयंत्र चलाना, हाइड्रोपीकिंग के दौरान मुश्किल हो. साथ ही यह परियोजना की पूरी क्षमता के तहत प्लांट को चलाने के लिए पर्याप्त नहीं हो. इसलिए, पानी को एक जलाशय में जमा करना होगा और हो सकता है कि केवल पर्यावरणीय प्रवाह ही जारी किया जाए. परिणामस्वरूप, यारलुंग/ सियांग में साल के न्यूनतम प्रवाह के दिनों में दिन के कुछ घंटों के दौरान अपेक्षाकृत कम पानी होगा, जबकि बाक़ी दिनों के लिए, यह लंबे समय तक एक समान प्राकृतिक मानसूनी प्रवाह को बनाए रख सकता है, जब तक कि इकाईयां या टर्बाइन पनबिजली पैदा करती रहें.

भारत, इस प्रभाव को कम करने के बजाय, चीन की यारलुंग परियोजना के मुक़ाबले सियांग पर बनने वाली परियोजना में तेज़ी लाने की रणनीति बना रहा है, ताकि इस से पहले की चीन अपनी परियोजना को पूरा करे, भारत इस क्षेत्र में जल संसाधनों को जितना हो सके साध ले. 

पारिस्थितिकीय व्यवधान

बांध से पैदा हुआ अवरोध न केवल नदी के देशांतर संपर्क को बाधित करेगा, बल्कि लंबी अवधि में इस के चलते नदी के पारिस्थितिकी तंत्र और नदी की जैव विविधता पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ना तय है. चीन की सरकार की इस परियोजना के जवाब में भारत सरकार के माध्यम से अपने हिस्से में 10 गीगावाट का एक बांध बनाए जाने की रणनीति जो सरकार के दावे के मुताबिक कथित रूप से चीन की इस परियोजना के प्रभाव को कम करने की रणनीति के रूप में काम करेगी, भी अधिक कारगर नहीं होगी, क्योंकि भारत सरकार की परियोजना भी हाइड्रोपीकींग के सिद्धांत पर ही काम करेगी. इन दो मेगाप्रोजेक्ट्स का मिलाजुला प्रभाव इस इलाक़े में पारिस्थितिकी नुकसान को और बढ़ा सकता है, जिससे कि इस इलाक़े का स्वच्छ जल पारितंत्र बदल सकता है. पूरी संभावना है कि बहता हुआ जल पारितंत्र (lotic system) स्थिर जल पारितंत्र (lentic system) में बदल जाए. मेरा मानना है कि भारत, इस प्रभाव को कम करने के बजाय, चीन की यारलुंग परियोजना के मुक़ाबले सियांग पर बनने वाली परियोजना में तेज़ी लाने की रणनीति बना रहा है, ताकि इस से पहले की चीन अपनी परियोजना को पूरा करे, भारत इस क्षेत्र में जल संसाधनों को जितना हो सके साध ले.

इस इलाक़े में नदी की तलहटी में बड़ी मात्रा में मौजूद तत्व यानी सेंडिमेंट्स भी बहुत अधिक वर्षा के कारण ही पैदा होते हैं. एक अनुमान के अनुसार, सियांग 7,694 हेक्टेयर प्रति मीटर की दर से नदी की तलहटी में सेडिमेंट पैदा करता है जिसे तलछट भार के रूप में समझा जाता है और यह मात्रा पासीघाट के आस-पास मापी गई है. यह ब्रह्मपुत्र घाटी के भीतर पाए जाने वाले सेडिमेंट का कुल 32 फीसदी हिस्सा है. यारलुंग/ सियांग की तलछट का एक बड़ा हिस्सा चीन और भारत द्वारा बनाए जाने वाले बांधों की दीवारों में फंस सकता है, जब तक कि इस से निपटने के लिए कोई खास तकनीकी इनोवेशन इस्तेमाल न की जाए. इसके अलावा, नदी में साफ़ पानी का बहाव डाउनस्ट्रीम में नदी की तलहटी और नदी के किनारे से भू-क्षरण को और बढ़ाएगा, जैसा कि थ्री गोरजेस डैम के मामले में भी देखा गया है. यह प्रभाव किस हद तक डाउनस्ट्रीम को बढ़ाएगा, यह परियोजनाओं की विशिष्टताओं और उनकी सटीक जगह पर निर्भर करेगा. पासीघाट का बहाव-क्षेत्र पहले से ही नियोटेक्टॉनिक कारणों से भू-क्षण का शिकार है. नदी भी इस इलाक़े में तलछट को बढ़ावा देते हुए, समृद्ध जैव विविधता का संचार और पोषण करती है. इस मायने में नदी के बहाव को लंबे अंतराल या हमेशा के लिए बदले जाने, बढ़े हुए भू-क्षरण और तलछट में लगातार कमी का प्रभाव, व्यापक और दूरगामी होगा, क्योंकि यहां पानी के एक बहुत बड़े अनुपात की बात हो रही है, और इसमें सियांग के बढ़े सेडिमेंट यानी तलछट भार का भी योगदान है.

‘ग्रेट बेंड’ के इस दुर्गम इलाक़े में बांध बनाने से संबंधित एक बड़ी चिंता, प्राकृतिक ख़तरों के बढ़ने से भी जुड़ी है. प्राकृतिक आपदाओं के कारण उनके चलते पैदा होने वाली आपात स्थितियों के सामने आने पर बांध के फटने का जोखिम भी है. यह क्षेत्र भूकंपीय रूप से सक्रिय है, और एंडोजेनिक बलों के परिणामस्वरूप अलग-अलग माप के भूकंप यहां लगातार महसूस किए जाते हैं. इसके अलावा, इस गलियारे में नमी की एक सुव्यवस्थित स्थिति लगातार बनी रहती है, और तेज़ बारिश के कारण उष्मा का दबाव भी रहता है. इनसे हिमस्खलन, भूस्खलन, और मलबे के बहाव जैसी स्थितियां बार-बार पैदा होने का ख़तरा रहता है. दोनों देशों ने अतीत में नक्सिया के क्षेत्र में भूस्खलन की स्थिति पैदा करने वाले जल के बहाव को लेकर आपातकालीन प्रतिक्रिया व्यवस्था बनाने के लिए समन्वय किया है.

भारत के पास, यारलुंग के निचले इलाक़ो में बांध या बांधों की श्रंखला की जगहों, डिज़ाइन और अन्य तकनीकी विवरणों के बारे में कई चिंता और सवाल हैं. ऐसे में पड़ोसी देश होने के नाते चीन के लिए उन प्रोटोकॉल्स का खुलासा करने की आवश्यकता है, जिन्हें वह उन जोख़िमों से निपटने के लिए अमल में लाने की योजना बना रहा है जो संबद्ध तौर तरीकों के कारण पैदा हो सकते हैं.

इसी तर्ज पर चीन के लिए यह ज़रूरी है कि वह इस परियोजना को लेकर भी भारत को विश्वास में ले यानी दोनों देश आपसी सहयोग को बढ़ावा देते हुए, इस परियोजना की शुरुआत से ही एक दूसरे को विश्वास में लेकर चलें. इस मामले को लेकर चीनी दूतावास द्वारा महज़ औपचारिकता के रूप में किया गया संवाद ‘पर्याप्त’ नहीं हो सकता है. भारत के लिए यह ज़रूरी है कि वह अपनी आशंकाओं और आपत्तियों को पहले से स्थापित चैनलों जैसे, ट्रांसबार्डर नदियों पर बातचीत के लिए बनाए गए, विशेषज्ञ-स्तरीय तंत्र, ईएलएम (Expert-level Mechanism-ELM) के माध्यम से सामने रखना जारी रखे. भारत के पास, यारलुंग के निचले इलाक़ो में बांध या बांधों की श्रंखला की जगहों, डिज़ाइन और अन्य तकनीकी विवरणों के बारे में कई चिंता और सवाल हैं. ऐसे में पड़ोसी देश होने के नाते चीन के लिए उन प्रोटोकॉल्स का खुलासा करने की आवश्यकता है, जिन्हें वह उन जोख़िमों से निपटने के लिए अमल में लाने की योजना बना रहा है जो संबद्ध तौर तरीकों के कारण पैदा हो सकते हैं. यहां तक कि अत्यधिक बारिश के हालात में बड़ी मात्रा में पानी को छोड़ने की अनुमति देने का एक अकेला फ़ैसला, जिसकी संभावना यारलुंग ज़ांगबो ग्रैंड कैन्यन (चित्र-2 को देखें) में काफ़ी अधिक है, निचले इलाक़ो में तबाही का कारण बन सकता है. यह सभी बातें इस ओर इशारा करती हैं कि भारत द्वारा बनाए जाने वाले सियांग बांध की योजना और संचालन, यारलुंग पर बन रहे बांध के समकक्ष और उसी तालमेल में होना ज़रूरी और ऐसे में आज नहीं तो कल, दोनों देशों को आपसी सहयोग की ज़रूरत होगी.

हालांकि, यह सब कुछ कहने और किए जाने के बाद भी, इस तरह के बड़े पैमाने पर होने वाले निर्माणों का पारिस्थितिकीय प्रभाव अपरिवर्तनीय हो सकता है और दोनों देशों के लिए यह ज़रूरी है कि इस योजना को ले कर आगे बढ़ने से पहले, अपने अपने स्तर पर, व मिलकर वह इससे जुड़े सभी आयामों पर विचार करें. नदी के किनारे और उस के भीतर मौजूद इकोसिस्टम एक एकल इकाई है और इस से जुड़े हर आयाम के संचयी प्रभाव का मूल्यांकन ही इस मामले में सही हो सकता है.

अंत में, यह विश्लेषण इस इलाक़े और इन योजनाओं को ले कर, जो भी दुर्लभ डेटा सार्वजनिक रूप से मौजूद है उस के आधार पर किया गया है, और आंकड़ों की कमी इस लेख की एक बड़ी सीमा है! इसलिए, इस विश्लेषण को बहुत हद तक सांकेतिक माना जाना चाहिए. सुरक्षा कारणों से, दोनों देश हाइड्रोलॉजिकल डेटा के प्रसार पर मज़बूत नियंत्रण रखते हैं, जो लगातार इस तरह के मुद्दों, उनके उद्देश्य और उनके प्रभाव को लेकर सटीक विश्लेषण की दिशा में एक बड़ी रुकावट के रूप में सामने आया है. डेटा का विकेन्द्रीकरण और दोनों देशों की सभी परियोजनाओं के विवरणों के साथ, सभी पक्षों के लिए इस डेटा को उपलब्ध कराना, हिमालय क्षेत्र के इन दो पड़ोसियों के बीच आपसी संबंधों में विश्वास दिखाने की दिशा में एक बड़ा क़दम हो सकता है. एक ऐसे समय में जहां दोनों देशों के बीच माहौल गर्म है, जलवायु और पर्यावरण का यह मसला एक साझा हित के रूप में उभर सकता है.


[i] Following Bookhagen (2010), an extreme event is defined as the daily rainfall magnitude whose probability of occurrence exceeds the 90th percentile, with percentiles being identified from the probability density function of the 3-hour rainfall data collected over a 11-year period (1998 – 2009).

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