Published on Dec 08, 2022 Updated 0 Hours ago

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन के पांचवें बजट के सामने वैश्विक चुनौतियों की भरमार है. उन्हें इस मौक़े का लाभ उठाते हुए इनसे मज़बूती से निपटना चाहिए.

वर्ष 2023 का बजट: भू-आर्थिक कारकों पर ध्यान देने की बेहद ज़रूरत!

इस वक़्त दुनिया में एक ऐसा संघर्ष चल रहा है जिससे भारत का कोई लेना-देना नहीं है. हालांकि, उसी टकराव की वजह से हमारे देश में महंगाई की घुसपैठ हो रही है. पूरेविश्व में ब्याज़ दरों में उछाल के चलते जोख़िम पूंजी के प्रवाह में स्थिरता का दौर आ जाने का ख़तरा मंडरा रहा है. ऐसे में हर कोई सुस्त विकास के समंदर में गोते लगा रहा है और कई क्षेत्रों में संकुचन के हालात भी दिख रहे हैं. इन हालातों में राष्ट्रीय बजट में घरेलू सार्वजनिक वित्त के प्रबंधन से कोई ख़ास दख़ल नहीं डाला जा सकता. ऐसे में राष्ट्रीय बजट से जिस इकलौती क़वायद को अंजाम दिया जा सकता है, वो है घरेलू विकास की निरंतरता सुनिश्चित करना. लिहाज़ा भारत के संदर्भ में बजट 2023 के ज़रिए व्यापक आर्थिक नीति की ख़ामियों को दूर करना आवश्यक हो जाता है. हालांकि इनकी जड़ और शाखाएं वित्त मंत्रालय के दायरे से परे हैं.

सबसे पहले महंगाई

असलियत में महंगाई से ज़्यादा कोई और विचार सत्ता पर असर नहीं डालती है. बेशक़ ऐसा लोकतंत्रों में ही देखा जाता है,चीन जैसी एकाधिकारवादी हुकूमतों में नहीं. ऊंची क़ीमतें सत्तारूढ़ गठबंधनों को व्यक्तिगत और घरेलू स्तर पर असंतोष के प्रति नाज़ुक बना देती हैं, साथ ही उन्हें अंदरुनी राजनीतिक दबावों का भी सामना करना पड़ता है. ऐसे में अगले चुनावी चक्र में ये बदलाव के नारों के तौर पर दिखाई देते हैं.

ऊंची क़ीमतें सत्तारूढ़ गठबंधनों को व्यक्तिगत और घरेलू स्तर पर असंतोष के प्रति नाज़ुक बना देती हैं, साथ ही उन्हें अंदरुनी राजनीतिक दबावों का भी सामना करना पड़ता है. ऐसे में अगले चुनावी चक्र में ये बदलाव के नारों के तौर पर दिखाई देते हैं.

लिहाज़ा ये कहना कि तथ्यात्मक रूप से सही है कि भारत की महंगाई दर गंभीर स्तर पर नहीं है. आज ये दर औसतन 5 प्रतिशत के मुक़ाबले 7 प्रतिशत पर है. हालांकि इस सच्चाई के भीतर कई तरह के ख़तरे छिपे हैं. इन जोख़िमों पर लगाम लगाना और आगे नकेल कसे रखना सरकार के लिए बड़ी चुनौती है. इस कड़ी में सबसे गंभीर चुनौती ऊर्जा के मोर्चे पर मचने वाली उथल-पुथल पर क़ाबू पाना है.

मार्च में कच्चे तेल की क़ीमत में तक़रीबन 130 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल तक की शुरुआती बढ़त (महज़ महीने भर में 85 प्रतिशत की उछाल) के बाद अब तेल की क़ीमतें गिरकर 80 डॉलर (81.45 अमेरिकी डॉलर) के दायरे में आ गई हैं. इस उथल-पुथल के पीछे वो टकराव है जिसमें एक तरफ़ ऊर्जा उत्पादक रूसी संघ है तो दूसरी ओर यूक्रेन, जिसेयूरोप और अमेरिका का समर्थन हासिल है. इस संघर्ष के चलते लागू पाबंदियों से रूस के मुक़ाबले यूरोप को कहीं ज़्यादा चोट पहुंच रही है.

भारत की स्थिति इन दोनों के बीच की है. टकराव में शामिल दोनों पक्षों के साथ उसके ताल्लुक़ात हैं. अमेरिका और यूरोप, मूल्यों यानी लोकतंत्र, क़ानून का राज और साझा प्रतिद्वंदी चीन के स्तर पर भारत के हिस्सेदार हैं. उसी तरह रूसी संघ हमेशा से भारत को हथियारों का बेहद अहम आपूर्तिकर्ता रहा है. ख़ासतौर से जब अमेरिका और पश्चिमी जगत ने भारत के ख़िलाफ़ आतंकी राष्ट्र पाकिस्तान को समर्थन देने का फ़ैसला किया, उस वक़्त रूस ही हमारी मदद में सामने आया. मूल्यों और भारत के लिए अहमियत रखने वाली क़वायदों के बीच के इसी संतुलन से भारत को सतर्कता से निपटना है. पूरी शिद्दत से अमन की वक़ालत करते हुए भी रूस से तेल ख़रीदना और अल्पकाल में उसे भारत का सबसे बड़ा ऊर्जा आपूर्तिकर्ता बनाना, उसी संतुलनकारी प्रयासों की ओर एक क़दम है. भारत को ऊर्जा के मोर्चे पर शर्मिंदा करने की रणनीति अब तक कारगर नहीं रही है. आगे भी ये नीति नाकामयाब रहने वाली है.

बजट 2023 के ज़रिए आपूर्ति पक्ष पर महंगाई के दबावों को क़ाबू में रखना सुनिश्चित करना होगा. इस दिशा में क़ीमतों में उछाल के रुझान को ईंधन के अलावा दूसरे क्षेत्रों में फैलने से रोकने की मुश्किल चुनौती सामने खड़ी है. यहां भी उसके सामने कर संग्रहणों में संतुलन क़ायम करने की ज़िम्मेदारी है. इनमें ईंधन की बिक्री से हासिल होने वाले कर भी शामिल हैं. इस दिशा में ये भी सुनिश्चित करना होगा कि क़ीमतें इस क़दर क़ाबू के बाहर ना हो जाएं कि परिवारों पर उसका असर होने लगे. बजट 2023 के सामने घरेलू आर्थिक जोख़िमों को नियंत्रण में रखने की जवाबदेही है. वैसे सरकार तेल और गैस के आपूर्ति क्रमों को चालू रखने के लिए हर मुमकिन क़वायद कर ही रही है.

व्यापक अर्थव्यवस्था के ऐसे वातावरण में भारत के लिए एक ही बचावकारी उपाय है. वो है- विकास के पहिए को और तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ाना. भारत दुनिया में सबसे तेज़ गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है, लिहाज़ा उसे तरक़्क़ी की इस रफ़्तार को बरक़रार रखना होगा.

खाद्य मुद्रास्फीति के नज़रिए से भारत सुविधाजनक स्थिति में है. हालांकि ये सुनिश्चित करना बेहद ज़रूरी है कि उपज का कोई भी हिस्सा बर्बाद ना जाए. बजट 2023 में खाद्य भंडारण में दक्षता पर ज़ोर दिया जाना चाहिए और अगर ज़रूरी हो तो नए भंडारों के निर्माण के लिए कोष का आवंटन भी किया जाना चाहिए. खाद्य क़ीमतें आज महज़ आर्थिक संकेतक नहीं हैं और सामरिक स्थायित्व सूचकांकों में भी उनकी समान अहमियत है.

दूसरा कारक, ब्याज़ दरें

पारिवारिक उपभोग घटाने और क़ीमतों में स्थिरता लाने के मक़सद से ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी करने और अर्थव्यवस्था में मुद्रा प्रवाह में कटौती करने के अलावा रिज़र्व बैंक शायद ही कुछ और कर सकता है. मौजूदा वक़्त में हिंदुस्तानतरक़्क़ी के रास्ते पर आगे बढ़ रहा है. वो तेज़ विकास की नींव तैयार कर रहा है और यहां घरेलू अर्थव्यस्था का विस्तार हो रहा है. ऐसे मौक़े पर ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी से बाहरी मोर्चे पर इस तरह के प्रदर्शन पर चोट पड़ सकती है. ग़ौरतलब है किविकास के क्षितिज पर पहले से ही रुकावटों के काले घने बादल मंडरा रहे हैं.

अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के अनुमानों के मुताबिक 2022-23 में 5 में से 2 से भी ज़्यादा अर्थव्यवस्थाओं (दुनिया की 43 फ़ीसदी अर्थव्यवस्थाएं, यानी 72 में से 31) में वास्तविक जीडीपी के संदर्भ में संकुचन देखने को मिलेगा. 1 खरब अमेरिकी डॉलर से ज़्यादा की जीडीपी वाले तीन देशों पर संकुचन की ये मार सबसे तगड़ी रहेगी. रूसी संघ की अर्थव्यवस्था में 2.3 प्रतिशत, जर्मनी में 0.3 प्रतिशत और इटली में 0.2 प्रतिशत का संकुचन आने का अंदेशा है.

नतीजतन दुनिया भर के केंद्रीय बैंक, ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी करने लगे हैं. पिछले साल सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं ने ब्याज़ दरों में इज़ाफ़ा किया है. अकेले सितंबर 2022 में ही अमेरिका और यूरोप ने दरों में 75 बेसिस प्वाइंट की बढ़ोतरी की है जबकि भारत और यूके में 50 बेसिस प्वाइंट का इज़ाफ़ा देखने को मिला है. ब्राज़ील में दरें 13.75 फ़ीसदी हैं. दुनिया के अपेक्षाकृत छोटे देशों में भी ब्याज़ दरों में बढ़ोतरी देखी जा रही है. यूरोप के देश हंगरी में ब्याज़ दर उछलकर 13.0 फ़ीसदी तक पहुंच गई है जबकि दक्षिण अमेरिकी देश चिली में मौजूदा ब्याज़ दरें 10.75 फ़ीसदी के आसपास हैं. इस दिशा में चीन, जापान, इंडोनेशिया, रूस और टर्की ही अपवाद बचते हैं.

बजट 2023 को लोकप्रियतावादी होने के मोह से परहेज़ करना चाहिए. बजट में करों में कटौती केवल तभी होनी चाहिए जब उनसे रोज़गार के ज़्यादा अवसर तैयार हो रहे हों या फिर बुनियादी ढांचे में बढ़ोतरी हो रही हो.

ब्याज़ दरों के नज़रिए से जोख़िम के सबसे गंभीर हालात अमेरिका में हैं. अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व ने ब्याज़ दरों में क़रीब-क़रीब पांच गुणा की बढ़ोतरी कर दी है. वहां ब्याज़ दरें शून्य के आसपास थीं, जो अब बढ़कर 4 फ़ीसदी तक पहुंच गई हैं. इसके मायने ये हैं कि जोख़िम मुक्त रिटर्न की तलाश में रहने वाले वैश्विक धन का एक बड़ा हिस्सा अमेरिकी ख़ज़ानों की ओर रुख़ कर लेगा. नतीजतन वाणिज्यिक बैंकों को 7 से 9 प्रतिशत के बीच रिटर्न का प्रस्ताव करना होगा. ऐसे में इक्विटी बाज़ारों से 14 से 18 फ़ीसदी रिटर्न की उम्मीद की जाने लगेगी. आगे चलकर इसका ऊंची-जोख़िम वाले वेंचर निवेशों से हासिल होने वाले रिटर्न की उम्मीदों पर भी असर होगा और वो बढ़कर 23 से 25 प्रतिशत के बीच चली जाएगी. संकुचन की ओर बढ़ रही या सुस्त पड़ रही अर्थव्यवस्थाओं के लिए ये एक नामुमकिन क़वायद है. हालांकि इस पूरी प्रक्रिया में कुछ सकारात्मक पहलू भी हैं,जैसे- सुरक्षित ठिकाने की ओर पलायन से व्यवस्था में जोख़िम पूंजी का ख़ात्मा हो जाएगा और इसके ज़रिए स्टार्ट-अप इकोसिस्टम का भी निपटारा हो जाएगा.व्यापक अर्थव्यवस्था के ऐसे वातावरण में भारत के लिए एक ही बचावकारी उपाय है. वो है- विकास के पहिए को और तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ाना. भारत दुनिया में सबसे तेज़ गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था है, लिहाज़ा उसे तरक़्क़ी की इस रफ़्तार को बरक़रार रखना (भले ही गतिमें बढ़ोतरी ना हो) होगा. 2023 के बजट में विकास के रास्तों की रुकावटों को दूर कर इस दिशा में क़दम बढ़ाए जा सकते हैं. करों में कटौतियों और प्रोत्साहनों के उपाय किए जा सकते हैं. इसके अलावा भारतीय अफ़सरशाही में लालफ़ीताशाही को ख़त्म करने की पहल करते हुए इसे ग्रीन कारपेट में तब्दील किया जा सकता है, यानी एक ऐसी व्यवस्था जो ना केवल वित्तीय बाज़ारों में प्रवाहित होने वाली दौलत (hot money), बल्कि कंपनियों के दीर्घकालिक निवेशों का भी स्वागत करती हो. इस कड़ी में ख़ासतौर से कॉरपोरेट जगत के उन शरणार्थियों को सहूलियत दी जानी चाहिए जो चीन से पलायन करते हुए लोकतांत्रिक और क़ानून के राजवाले बड़े भौगोलिक क्षेत्रों में अपना ठिकाना ढूंढ रहे हैं.

आख़िर में, आगे का रास्ता

वित्त मंत्रालय के मातहत आर्थिक मामलों के विभाग ने ‘जन भागीदारी’ के तहत बजट-निर्माण की प्रक्रिया को समावेशी और सहभागी बनाने के लिए नागरिकों से सुझाव आमंत्रित किए हैं. इसी भावना के साथ यहां बजट 2023 के लिए कुछ सुझाव पेश किए गए हैं. पहला, बजट 2023 को निश्चित रूप से एक ऐसी व्यवस्था तैयार करनी चाहिए जो घरेलू और विदेशी, दोनों तरह की पूंजी के लिए आकर्षक हो. सिर्फ़ करों की निम्न दरों से कामनहीं चलेगा, करों के साथ-साथ नीतिगत संरचनाओं की ताक़त भरनी भी ज़रूरी है. ये एक ऐसी क़वायद है जो पूंजी का स्वागत करती है, नौकरियों के अवसर तैयार करती है, उद्यमिता को आगे बढ़ाती है और साथ ही दौलत पैदा करती है. साथ ही बीते ज़माने के घिसे-पिटे क़ानूनों के ज़रिए व्यवस्था में ख़ामियां पैदा करने की गतिविधियों से भी दूरी बना लेती है.

दूसरा, बजट 2023 तो सिर्फ़ संघीय सरकार की सार्वजनिक वित्त का प्रबंधन कर सकता है. नीति-निर्माण करना और उनको नई-नई (greenfield) परियोजनाओं में तब्दील करना राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी है. इस वक़्त बीजेपी के शासन वाले चार बड़े राज्य हैं जिनके पास निवेशों को आकर्षित करने और उन्हें अपने यहां इकट्ठा करने की क़ाबिलियत है. ये राज्य हैं- उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा और मध्य प्रदेश. ऐसे में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन को यहां के मुख्यमंत्रियों योगी आदित्यनाथ, भूपेंद्रभाई पटेल (या जो कोई भी चुनाव के बाद कमान संभाले), मनोहर लाल खट्टर और शिवराज सिंह चौहान के विचारों को गंभीरता से सुनकर इन सरकारों के साथ तालमेल बिठाते हुए कारोबारों के लिए भौतिक, नियामक और बाज़ार दायरों का निर्माण करना चाहिए.

तीसरा, बजट 2023 पर वित्तीय संतुलन का दबाव नहीं रहना चाहिए. बाली में जी20 के नेताओं के घोषणापत्र के मुताबिक सरकारों को एकजुट होकर “बारीक़ी से तालमेल वाले, सुनियोजित और ठीक से संचारित नीतियां तैयार करनी चाहिए और इस सिलसिले में अलग-अलग देशों के हालातों पर पर्याप्त तवज्जो दी जानी चाहिए.”इसके मायने हैं वित्तीय नीति प्रतिक्रिया में लोच दिखलाना और ये सुनिश्चित करना कि ईंधन और खाद्य क़ीमतें क़ाबू में रहें. साथ ही महंगाई की दर नीची बनी रहे. भारत के लिए इसका अर्थ है सार्वजनिक वित्त के प्रयोग से बुनियादी ढांचा तैयार करना, ठीक वैसे ही जैसा 2020 में कोविड-19 संकट पर क़ाबू पाने के लिए किया गया था. बहरहाल भारत-विरोधी पूर्वाग्रह रखने वाली क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां अपने कारनामे जारी रखेंगी.2020-21 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक“यही वजह है कि भारत की वित्तीय नीति को शोरशराबे भरेऔर भारत की बुनियादी ताक़तों के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त क़वायदों से बंधा नहीं रहना चाहिए. उसे इस सिलसिले में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की निडरता भरी मनोभावना के विचारों से प्रेरणा लेनी चाहिए.”

चौथा, बजट 2023 को विनिवेश के मोर्चे पर तेज़ी दिखानी चाहिए. दुनियाभर में छाई मायूसी और पसरी तबाहियों के बावजूद भारतीय बाज़ार शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं. निफ़्टी और सेंसेक्स अपने अब तक के सर्वोच्च स्तरों पर हैं और बजट महज़ 2 महीने दूर है. ऐसे में अतीत में विनिवेश से जुड़ी घोषणाओं को अब ज़मीन पर उतारा जा सकता है. चालू वित्तीय वर्ष में ही ऊंची क़ीमतों पर विनिवेश को अंजाम दिया जा सकता है.

पांचवा, बजट 2023 में कंपनियों के लिए पहचान के मोर्चे पर आधार-सरीख़े बुनियादी ढांचे की नींव रखी जानी चाहिए. ऋषि अग्रवाल की दलील है कि हरेक कारोबार को एक अनोखा उद्यमिता नंबर दिया जाना चाहिए जो उसकी पहचान के तौर पर काम करे. इसके ज़रिए नियम पालनाओं से जुड़े सभी 69,233 प्रावधानों पर अमल सुनिश्चित कराया जाना चाहिए. इनमें से 26,134 प्रावधानों में दंडनीय शर्तें भी मौजूद हैं. ये नंबर संघ और राज्यों के स्तर पर सभी क़ानूनों, नियमावलियों और नियमनों के तहत स्वीकार्य होना चाहिए और उन सबपर लागू होना चाहिए. कारोबार की ऐसी प्रणाली G2C (सरकार से कंपनी) संचारों की गति और दक्षता को बढ़ावा देगी. बात चाहे संयंत्र स्थापित करने से जुड़ी हो, बार लाइसेंस लेने की हो या कर अदा करने की- एक देश, एक नंबर, एक कंपनी की क़वायद फ़ायदेमंद साबित होगी.

आख़िर में, बजट 2023 को लोकप्रियतावादी होने के मोह से परहेज़ करना चाहिए. बजट में करों में कटौती केवल तभी होनी चाहिए जब उनसे रोज़गार के ज़्यादा अवसर तैयार हो रहे हों या फिर बुनियादी ढांचे में बढ़ोतरी हो रही हो.फ़िलहाल भारत की अर्थव्यवस्था में उछाल भरा रुख़ है, जो दुनिया में और कहीं,विरले ही देखने को मिल रहा है. आगे भी भारतीय अर्थव्यवस्था के और बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है. लिहाज़ा यहां प्रोत्साहन के तौर पर करों में कटौती की दरकार नहीं है. भविष्य में अगर अर्थव्यवस्था लड़खड़ाती है तो उसपर विचार किया जा सकता है. जहां तक व्यक्तिगत करों का सवाल है तो मौजूदा 11 स्तरों वाली प्रणाली से तीन-स्तरों वाले ढांचे की ओर वापस जाने पर निश्चित रूप से विचार किया जाना चाहिए. दरअसल करदाताओं के लिए पेचीदगी से बेहतर सरलता होती है, ऐसे में 3 का आंकड़ा 11 से कहीं बेहतर है.

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