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वैसे तो हम सभी इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि फासीवादी अतीत को याद करना यकीनन एक ऐसा इलाज है, जो बीमारी से भी बदतर है, लेकिन क्या यह बात दृढ़ता से नहीं कहनी चाहिए कि ऐसे हालात की जिम्मेदारी कुछ हद तक तो उन्हीं लोगों को लेनी चाहिए,जो इस बीमारी के लिये सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं?
अपनी हाल की जर्मनी की यात्रा के दौरान मुझे वहां शरणार्थियों और प्रवासियों के बारे में जारी चर्चाओं और भारत में रोहिंग्या को लेकर उठ रहे सवालों के बीच कुछ भयावह समानताएं देखने को मिलीं। सन् 2015 के बाद के जर्मनी के अनुभव कुछ ऐसी दिलचस्प जानकारी और सबक दे सकते हैं, जिन्हें नजरअंदाज करना हमारी नासमझी होगा। हालांकि मैं उस राजनीतिक संघर्ष का अनुसरण नहीं करता, जो इस समय देश में छिड़ता दिखाई दे रहा है, लेकिन न चाहते हुए भी मुझे ऐसा दुखद अहसास हो रहा है कि भारत में भी कुछ उसी तरह का परिदृश्य सामने आने जा रहा है। साथ ही यह भी वास्तविकता है कि हम अभी तक एक विकासशील देश ही हैं और कानून का शासन पूरी तरह दक्ष नहीं है और इसके परिणाम कहीं ज्यादा गंभीर हो सकते हैं।
ज्यूरी अब तक इस बात पर विचार कर रही है कि एंगला मार्केल ने ऐसा क्यों किया। कुछ इस तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं कि उन्होंने इस तरह का कदम यह सुनिश्चित करने के लिए उठाया कि जर्मनी की उम्रदराज हो रही आबादी और सिकुड़ता कार्यबल भविष्य में बोझ न बन जाए। अन्य लोगों का विचार हैं कि कोसोवो जैसे देशों के शरणार्थियों को प्रवेश देने के निरंतर दबाव का मुकाबला युद्धग्रस्त सीरिया के साथ बाल्कन लोगों की अपेक्षित सुरक्षा को सामने रखकर ही किया जा सकता था। अंत में, कुछ लोगों का तर्क है कि उन्होंने यह कदम विशुद्ध मानवीय चिंताओं के कारण उठाया है। कारण चाहे कुछ भी हो, उस समय दुनिया ने उनके फैसले की सराहना की।
सन् 2015 में, सीरिया में गृहयुद्ध भड़कते ही जमीन और समुद्र के रास्ते शरणार्थियों के यूरोप में दाखिल होने का सिलसिला शुरु हो गया। 1997 के डबलिन समझौते में सम्मिलित यूरोपीय संघ के मौजूदा प्रोटोकॉल में बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यूरोपीय संघ में शरण मांगने वाले व्यक्ति को उसी देश में रहना होगा, जहां वह सबसे पहले दाखिल होगा। इस समझौते का इस्तेमाल जर्मनी के मूलभूत कानून के अनुच्छेद 16 के प्रावधानों को विफल करने के लिए भी किया गया, जो अपने मूल देशों में अत्याचार का सामना कर रहे लोगों को ‘शरण पाने का अधिकार’ पूर्ण अधिकार प्रदान करता है। ऐसी स्थिति में, जर्मनी की चांसलर एंगला मार्केल ने लगभग एकपक्षीय फैसला लेते हुए डबलिन समझौते को रद्द कर दिया। इसके परिणामस्वरूप, जर्मनी शरणार्थियों का पसंदीदा स्थान बन गया। ज्यूरी अब तक इस बात पर विचार कर रही है कि एंगला मार्केल ने ऐसा क्यों किया। कुछ इस तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं कि उन्होंने इस तरह का कदम यह सुनिश्चित करने के लिए उठाया कि जर्मनी की उम्रदराज हो रही आबादी और सिकुड़ता कार्यबल भविष्य में बोझ न बन जाए। अन्य लोगों का विचार हैं कि कोसोवो जैसे देशों के शरणार्थियों को प्रवेश देने के निरंतर दबाव का मुकाबला युद्धग्रस्त सीरिया के साथ बाल्कन लोगों की अपेक्षित सुरक्षा को सामने रखकर ही किया जा सकता था। अंत में, कुछ लोगों का तर्क है कि उन्होंने यह कदम विशुद्ध मानवीय चिंताओं के कारण उठाया है। कारण चाहे कुछ भी हो, उस समय दुनिया ने उनके फैसले की सराहना की।
वैसे, उसके बाद जो तस्वीर उभरकर सामने आई वह मुश्किलों भरी थी। शरणार्थियों के प्रवाह के कारण स्थानीय लोगों में विदेशियों को नापसंद करने की भावना पनपने लगी,एएफडी पार्टी जैसी प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथी पार्टियों की बजाए फासीवादी संगठनों को खुलेआम प्रोत्साहित किया जाने लगा। जिसके कारण प्रांतों में पूर्व कम्युनिस्ट जीडीआर के चुनावी गढ़ स्थापित हुए। इसके अलावा, इसने डी लिंक जैसी वामपंथी पार्टियों को प्रोत्साहित किया। इस पार्टी के एक मध्यम स्तरीय नेता के अनुसार, इन जैसी पार्टियों के सदस्य, राष्ट्रीय सीमाओं या पुलिस बल की आवश्यकता पर यकीन नहीं रखते। ऐसा लिखे जाने के दौरान वहां ताजा राजनीतिक संघर्ष उफन रहा था: जर्मनी के गृह मंत्री (जिनका संबंध एंगला मार्केल की पार्टी सीडीयू की लम्बे अर्से से सहयोगी रही एसएसयू पार्टी से था)ने धमकी दी कि या तो चांसलर अन्य यूरोपीय देशों के पंजीकृत शरणार्थियों को लौटाने से संबंधित उनके प्रस्ताव पर सहमति प्रदान करें, नहीं तो वे इस्तीफा दे देंगे। इस तरह का प्रस्ताव प्रस्तुत करने की वजह सीएसयू को घोर दक्षिणपंथी एएफडी पार्टी की ओर से मिल रही चुनौती हो सकती है। पिछले संघीय चुनाव में, एएफडी पार्टी सबसे ज्यादा फायदे में रही और वह इस समय बंडस्टेग (जर्मनी की लोकसभा) का तीसरा बड़ा दल बनकर उभरी है और सत्तारूढ़ सीडीयू/सीएसयू गठबंधन के पास इस समय 33 प्रतिशत वोट है, जबकि इससे पहले उसके पास 41 प्रतिशत वोट थे।
जो भी कोई वाइमर गणराज्य के इतिहास से वाकिफ है, उसके लिए एएफडी का उदय, ऐसे मार्ग का अनुसरण प्रतीत होगा, जो पहले कभी नेशनल सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी का मार्ग रह चुका है। यह कहना बेमानी होगा कि इसके यूरोप साथ ही साथ दुनिया भर के लिए विनाशकारी नतीजे हो सकते हैं। एक के बाद एक हुई आतंकी वारदातों, खासतौर पर बर्लिन में हुई घटनाओं को कथित तौर पर ‘शरणार्थियों’ ने अंजाम दिया था, इन्हीं घटनाओं ने संभवत: एएफडी जैसी पार्टियों के उदय में भूमिका निभाई है। कोलोन में नए वर्ष की पूर्वसंध्या पर महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर हुई छेड़छाड़ की घटना भी विदेशियों को नापसंद करने का एक अन्य कारण हो सकती है। वैसे तो हम सभी इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि फासीवादी अतीत को याद करना यकीनन एक ऐसा इलाज है, जो बीमारी से भी बदतर है, लेकिन क्या यह बात दृढ़ता से नहीं कहनी चाहिए कि ऐसे हालात की जिम्मेदारी कुछ हद तक तो उन्हीं लोगों को लेनी चाहिए,जो इस बीमारी के लिये सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं?
वापस भारत के मुद्दे पर आते हैं, जहां प्रशांत भूषण जैसे वकील हैं, जो रोहिंग्या शरणार्थियों को भारत में बसने की इजाजत दिलाने के लिए कड़ी मशक्कत कर रहे हैं। उनकी दलील है कि भारत ने शरणार्थियों से संबंधित 1951 के संयुक्त राष्ट्र समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए थे, जो कि प्रचलित कानून की ताकत रही है। उनके लिए जम्मू के बाशिंदों की वाजिब चिंताएं ज्यादा मायने रखती प्रतीत नहीं होती, जो अपने क्षेत्र में रोहिंग्या लोगों की भरमार नहीं होने देना चाहते। ऊपर बताए गए चंद सीरियाई ‘शरणार्थियों’ की ही तरह कुछ रोहिंग्या लोगों के भी पूवर्ज काफी संदेहास्पद रहे हैं, इनमें एआरएसए के संबंधित रोहिंग्या लोग भी शामिल हैं। गौरतलब है कि विभाजन के मनोवैज्ञानिक प्रभाव और कश्मीरी पंडितों को जबरन जाने के लिए विवश किए जाने के घाव जम्मूवासियों में अब तक हरे हैं और क्षेत्र का सांप्रदायिक सद्भाव अब अनिश्चय की स्थिति में है। हालांकि यह मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है, लेकिन ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया के दौरान समान स्थिति वाले देशों के अनुभवों को ध्यान में रखा जाए।
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Mr. Raghav Awasthi is a graduate of the NALSAR University of Law and practises law before the Supreme Court of India. He is also a ...
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