Published on Aug 02, 2017 Updated 0 Hours ago
भारतीय परीक्षा प्रणाली की बड़ी विफलता

‘परीक्षाओं में छात्रों को एक समान नंबर देने यानी अंकों को अंतिम रूप देने या उनके अनुकूलन (मार्क्स मॉडुरेशन) पर बहस इन गर्मियों में सुर्खियों में रही।  [1] शुरु शुरु में इसे लेकर लोगों में काफी उत्साह दिखा लेकिन इसका नतीजा वही निकला, ढाक के तीन पात। इसका मीडिया कवरेज भी कमोबेश अधूरा ही रहा। इसे लेकर मुकदमेबाजी भी हुई, जिसकी वजह से केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई), भारतीय विद्यालय प्रमाणपत्र परीक्षा परिषद (सीआईएससीई) एवं विभिन्न राज्य बोर्डों के छात्रों के उच्च विद्यालय के परीक्षा परिणामों की घोषणा पर विराम लग गया। इस संक्षिप्त विवरण का उद्वेश्य यह प्रदर्शित करना है कि किस प्रकार प्रत्येक विषय में पूर्ण अंक देने के लिए एक सरल पद्धति-101 अंक (0-100) की माप पर निर्भरता का नतीजा भारतीय बोर्ड परीक्षाओं में मूल्यांकन मानकों के पूरी तरह ध्वस्त हो जाने के रूप में सामने आया है। मुख्य रूप से इसका कारण कई प्रकार की प्रणालियों का अस्तित्व रहा है। बोर्डों के बीच ज्यादा से ज्यादा अंक देने के जरिये अपनी प्रासंगिकता को बचाये रखने की होड़ लगी है जिसके चक्कर में शैक्षणिक मानकों का नाश हो रहा है और मूल्यांकन प्रणाली के प्रति लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है।

भूमिका

देश की परीक्षा प्रणाली की अखंडता चर्चाओं में है और ऐसी किसी भी चर्चा की शुरुआत के लिए बिहार एक आदर्श उदाहरण साबित हो सकता है। 2016 में, बिहार के राज्य विद्यालय बोर्ड में विज्ञान विषय के लिए उच्च विद्यालय उत्तीर्ण दर 67 प्रतिशत थी; 2017 में यह गिर कर 30 प्रतिशत पर आ गई। [2] पंजाब में, इस अवधि के दौरान उच्च विद्यालय उत्तीर्ण दर में 15 प्रतिशत अंकों की गिरावट आई जो 77 से गिर कर 62 प्रतिशत पर आ गई। [3] 2016 तक उच्च उत्तीर्ण दरें बोर्डों द्वारा मानकीकरण या कहें अनुकूलन (moderation)‘ की आड़ में अत्यधिक अंक दिए जाने के कारण थीं। अप्रैल 2017 में भारत के सभी बड़े 40 परीक्षा बोर्डों द्वारा अनुकूलन के इस रूप को समाप्त करने के एक संयुक्त निर्णय के बाद बिहार एवं पंजाब जैसे जिन राज्य बोर्डों ने इस निर्णय का वास्तव में कार्यान्वयन किया, उसका नतीजा वहां उत्तीर्ण होने की दरों में नाटकीय रूप से कमी होने के रूप में सामने आई। कुछ लोगों को इसके लिए जिम्मेदार माना गया है। उदाहरण के लिए, पंजाब विद्यालय परीक्षा बोर्ड के प्रमुख पर मुख्यमंत्री द्वारा इस्तीफा देने का दबाव डाला गया। [4] आखिर, ऐसी घटनाएं सत्तारूढ़ सरकार की छवि पर धब्बा जो लगाती हैं। बदकिस्मती से, सरकार के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोग भी यह महसूस नहीं करते कि यह सारा कुछ अंकों की गलत जानकारी और भ्रामक व्याख्या है जो वास्तविक अनुकूलन (moderation ) से, जोकि एक मजबूत सांख्यिकीय प्रक्रिया है, बहुत अलग है।

आंकडों से प्रदर्शित होता है कि माध्यमिक शिक्षा स्नातक औसतन लगभग 18 वर्ष की उम्र के हैं और इस प्रकार वे देश के बहुमूल्य मतदाता हैं या शीघ्र होने वाले मतदाता हैं। कुछ राजनीतिक दल इसका लाभ उठाने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए सारिणी 1 में प्रदर्शित किया गया है कि किस प्रकार उत्तर प्रदेश उच्च विद्यालय बोर्ड परीक्षा में उत्तीर्ण होने वालों की दरों ने राज्य में सत्ता में बदलाव को अंजाम दिया। 1992 में, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की नवनिर्वाचित सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के तहत परीक्षाओं में नकल को रोकने के लिए परीक्षा केन्द्रों पर पुलिस बल लगाया गया था जिसका परिणाम यह हुआ कि उत्तीर्ण होने की दर में 57 प्रतिशत से 14.7 प्रतिशत की नाटकीय गिरावट आई। जाहिर है कि जब कभी समाजवादी पार्टी (सपा) सत्ता में आती है तो उच्च विद्यालय बोर्ड परीक्षा में उत्तीर्ण होने वालों की दरों में बहुत अधिक वृद्धि होती है जो उन वर्षों की तुलना में लगभग दोगुनी हो जाती है जब अन्य किसी दल की सरकार सत्ता में होती है।

सारिणी 1: उत्तर प्रदेश उच्च विद्यालय बोर्ड परीक्षा में उत्तीर्ण होने वालों की दरें

वर्ष उत्तीर्ण होने वाले परीक्षार्थियों का प्रतिशत सत्ता में राजनीतिक दल
1988 46.6
1989 44.8
1990 44.2
1991 57.0 जनता दल
1992 14.7 भाजपा*
1997 47.9 बसपा
2002 40.2 भाजपा
2007 74.4 सपा
2008 40.1 बसपा
2013 86.6 सपा
2016 87.7 सपा

स्रोतः समाचार पत्रों की रिपोर्ट, विभिन्न वर्ष

जिन बोतल से बाहर आ चुका है

अपरिष्कृत अंकों (Raw scores) के उपयोग के खतरों के बारे में 1971 में ही, अंकों को बढ़ाने और घटाने पर प्रकाशित एक रिपोर्ट में आगाह कर दिया गया था। [5] इस अध्ययन की अगुवाई ए. ई.टी बैरो द्वारा की गई थी, जिन्होंने जोरदार तरीके से मूल्यांकन के लिए सख्त सांख्यिकी पद्धतियों के उपयोग की वकालत की थी। बहरहाल, इन अनुशंसाओं को कभी भी कार्यान्वित नहीं किया जा सका।

दशकों तक अस्पष्ट मूल्यांकन प्रक्रियाओं के बाद, पहली बार 2013 में दो डाटा विश्लेषकों: प्रशांत भट्टाचार्जी (इस लेख के दो लेखकों में से एक) और देबारघ्या दास द्वारा -दो बड़े भारतीय विद्यालय परीक्षाओं में जांच की अंक तालिकाओं को संग्रहित किया गया और उनका विश्लेषण किया गया। बाद के वर्षों में भी डाटा का विश्लेषण किया गया। भट्टाचार्जी एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर रहेे हैं जिन्होंने माइक्रोसॉफ्ट कॉरपोरेशन एवं लेहमैन ब्रदर्स में काम किया था और दास कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में सोफोमोर (द्वितीय वर्ष के छात्र थे जो गूगल में इंटर्न कर रहे थे। इन दोनों ने क्रमशः सीबीएसई [6] एवं सीआईएससीई [7] परीक्षाओं में विसंगतियों से परदा उठाया। उदाहरण के लिए, ऐसा पाया गया कि सीबीएसई 2008 से ही अंक तालिका मेंगड़बड़ी कर रहा था। [8]

तालिका 1 एवं 2 एक नेशनल स्कूल बोर्ड , सीआईएससीई द्वारा संचालित 2015 ग्रेड 12 (ए लेवेल समरूप) परीक्षाओं में गणित एवं कंप्यूटर साईंस के हिस्टोग्राम हैं। चित्र में अनियमित अंतराल पर गौर करें; 81, 82 एवं 84 जैसे कुछ विशिष्ट स्कोर हैं जिसे किसी भी छात्र ने किसी भी विषय में कभी भी प्राप्त नहीं किया था।

इस बीच, चित्र 3 एवं चित्र 4 सीबीएसई द्वारा क्रमशः 2013 एवं 2015 में संचालित गणित परीक्षा में स्कोर के हिस्टोग्राम को प्रदर्शित करते हैं। हिस्टोग्राम अजीब प्रतीत हो सकता हैः इस अवधि के दौरान, औसत लगभग 5 प्रतिशत तक उछल गया है जो परीक्षाओं में दुहराव और विश्वसनीयता की कमी का संकेत देता है। इसके बाद चित्र 5 एवं चित्र 6 में भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान में स्कोर वितरणों का स्थान आता है।

अंकों का ‘अनुकूलन‘: नुकसान किसका

देश में 60 से अधिक विद्यालय बोर्ड हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे कई विश्वविद्यालय पूर्व स्नातक छात्रों का नामांकन पूर्व-स्नातक कक्षाओं में ग्रेड 12 परीक्षा में उनके कुल प्राप्तांक (स्कोर) के आधार पर करते हैं। नामांकन की यह एक अनुचित प्रक्रिया है क्योंकि अलग अलग बोर्ड के अंक देने के विभिन्न मानक होते हैं। 80 प्रतिशत का स्कोर तमिलनाडु, सीबीएसई एवं पश्चिम बंगाल जैसे अलग अलग बोर्डों में शैक्षणिक उपलब्धियों प्रतिभा के विभिन्न उच्च स्तरों के द्योतक होते हैं।

एक सामान्यीकृत पद्धति की कमी ने विद्यालय बोर्डों के सामने अपने छात्रों के अंकों को बढ़ाने एवं गलत रिपोर्टिंग करने के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण प्रोत्साहन देने की स्थिति पैदा कर दी है। जो बोर्ड ऐसा करने में विफल रहते हैं, उनके विद्यालय वैसे बोर्डों का रुख कर लेते हैं जहां ग्रेडिंग प्रक्रिया ज्यादा उदार है। उदाहरण के लिए, पश्चिम बंगाल में ऐसे कई मामले हुए हैं जहां विद्यालयों ने स्थानीय राज्य बोर्डों को छोड़ कर अखिल भारतीय बोर्डों को अंगीकार कर लिया क्योंकि स्थानीय राज्य बोर्डों में ग्रेडिंग की प्रक्रिया बेहद सख्त थी।

2004 एवं 2016 के बीच, सीबीएसई के विद्यालय परीक्षा बोर्ड में मध्यम प्रतिशत स्कोर में 8 प्रतिशत का उछाल आया। भाषाओं, प्रैक्टिकल कार्य एवं प्र्रोजेक्ट वर्क के स्कोर पर स्कोर में बेतहाशा तेजी (स्कोर-मुद्रास्फीति) की अवधारणा का सबसे खराब असर पड़ा।

लगभग 525,000 छात्रों के भौतिक विज्ञान के स्कोर के एक विश्लेषण से पता चला कि 2017 की सीबीएसई ग्रेड 12 परीक्षाओं में 40 प्रतिशत से अधिक छात्रों को 30 के कुल प्राप्तांक में से पूरे 30 अंक दिए गए। इसके अतिरिक्त, 88 प्रतिशत से अधिक छात्रों को प्रैक्टिकल परीक्षा में 90 प्रतिशत या इससे अधिक अंक (30 में 27 या इससे अधिक) दिए गए। इसी प्रकार के रुझान रसायन विज्ञान और कंप्यूटर साईंस जैसे विज्ञान के अन्य विषयों से संबंधित प्रैक्टिकल परीक्षा में भी दर्ज किए गए हैं। मानकों की ऐसी विषमता स्कूली प्रणाली को निष्प्रभावी बना देती है और अंततोगत्वा यह प्रणाली रोजगार न पाने योग्य इंजीनियरों एवं तकनीकविदों का ही निर्माण कर पाती है। विज्ञान की अनुभवजन्य प्रकृृति एवं प्रौद्योगिकी केंद्रित विषयों की व्यावहारिक प्रकृति के कारण विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी -दोनों में ही देश की प्रगति बाधित हो रही है और इसकी वजह उन छात्रों को अव्यावहारिक रूप से ऊंचा स्कोर दिया जाना है जो माध्यमिक विद्यालय के दिनों में प्रयोगशालाओं का रुख बमुश्किल से करते रहे होंगे।

जहां अनुकूलन (मोडेरेशन) सांख्यिकी प्रक्रिया के रूप में पूरी तरह उचित है, वहीं अंकों को बढ़ा चढ़ा कर दिया जाना न्यायसंगत नहीं माना जा सकता। देश के बोर्ड अंकों को बढ़ा चढ़ा कर देने में संलिप्त हैं और उनके पास अनुकूलन के लिए कोई उचित प्रणाली नहीं है। दुर्भाग्य से, भारत में स्कूली प्रणाली में जो शीर्ष स्तर पर बैठे हैं, वे भी इन दोनों के बीच के अंतर [9] से वाकिफ नहीं हैं।

अंकों के अनुकूलन की एक प्रक्रिया होती है जिसमें दुनिया भर के शिक्षा बोर्ड अपरिष्कृत अंकों को बढ़ाने या कम करने के लिए सांख्यिकीय प्रक्रियाओं का उपयोग करते हैं और इसका उद्वेश्य उन्हें किसी वक्र रेखा ( ं बनतअम ) के उपयुक्त बनाने या परीक्षकों के बीच के अंतर की क्षतिपूर्ति करने के लिए उन्हें समायोजित करना होता है। कभी कभार, ऐसा प्रश्न पत्रों के कठिनाई स्तरों में वर्ष दर वर्ष की विविधताओं में समायोजन के द्वारा परीक्षा की दुहराव क्षमता को सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है।

पिछले दशक के दौरान, भारतीय परीक्षा बोर्डों ने इस प्रचलन का दुरुपयोग करना शुरु कर दिया है और इसे एक बेहद अपारदर्शी मामले में तबदील कर दिया है जिससे अंकों में एक कृत्रिम तेजी और गलतबयानी देखने में आ रही है। उदाहरण के लिए, 2016 एवं 2017 में पता लगा कि सीबीएसई ने गणित के अंकों में क्रमशः 16 और 11 अंक बढ़ा दिए, लेकिन इन दोनों वर्षों में इसने उन्हें कम कर ( जतनदबंजम ) 95 पर सीमित कर दिया। इसका अर्थ यह हुआ कि 79 अंक पाने वाले एक छात्र और 94 अंक पाने वाले एक दूसरे छात्र दोनों को ही उनके मार्कशीट में 95 का ही अंतिम अंक प्राप्त होगा जबकि न तो उन छात्रों को और न ही अन्य किसी को इसकी कोई जानकारी मिल पाएगी कि आखिर किस आधार पर उनके अंक बढ़ाए गए।

सीआईएससीई परीक्षाओं के मामले में, जब यह मुद्वा उठा कि 81, 82, 85 एवं 87 जैसे विशिष्ट अंक दिए गए थे जोकि दशकों से किसी भी विषय में किसी के द्वारा भी उनकी परीक्षाओं में नहीं प्राप्त किया गया था, बोर्डों ने शांतिपूर्वक इस मुद्वे का 2017 के परिणामों में समाधान कर दिया और उसमें सुधार कर दिया जोकि संभवतः एक त्रृटिपूर्ण कंप्यूटर प्रोग्राम द्वारा अपरिष्कृत अंकों पर एक पोस्ट-प्रोसेसिंग ऑपरेशन के संचालन का मामला था। छात्रों के औसत अंकों को बढ़ाने की होड़ में, विभिन्न परीक्षा बोर्डों ने विश्वविद्यालय के प्रवेश अधिकारियों के लिए औसत छात्रों से असाधारण छात्रों तथा अन्य छात्रों के बीच फर्क करना कठिन बना दिया है।

जो स्वीकार्य है, उससे और आगे

एक सटीक समान वितरण ( इमसस बनतअम) में कुछ परिवर्तन स्वीकार्य है और उत्तीर्ण अंकों ( जहां मूल्यांकनकर्ता परीक्षार्थियों को संदेह का लाभ दे देते हैं) और ग्रेड-सीमाओं ( जहां परीक्षा स्क्रिप्ट मार्कर्स को दुविधा का सामना करना पड़ता है) के करीब हुई कुछ स्पष्ट बढ़ोतरी की कुछ विश्वसनीय व्याख्या की जा सकती है। बहरहाल, विभिन्न सीबीएसई एवं सीआईएससीई परीक्षाओं से हिस्टोग्राम में देखी गई विषमताओं या विकृतियों के स्तर के लिए कोई अनुकूल व्याख्या या स्वीकार्य औचित्य ढूंढ़ पाना कठिन है।

अभी तक अंकों को संपादित एवं रूपांतरित करने की सभी योजनाएं मनमाने तरीके से चलती रही हैं, जिन्हें सार्वजनिक नजर से छुपा कर रखा गया है और मुख्य रूप से प्रतिस्पर्धी स्कोर बढ़ोतरी के बेईमानी भरे खेल में उपयोग किया गया है। स्कोर में तो मनमानी वृद्धि की ही गई, ऐसा करने के लिए उपयोग में लाई गई अनौपचारिक योजनाएं संबंधित आपूर्ति के लिए भी एक गंभीर चुनौती पैदा कर रही हैं। कुछ बोर्डों ने विशिष्ट विषयों में 20 प्रतिशत तक अतिरिक्त अंक प्रदान किए हैं जिससे कि विफल रहने वाले छात्र उत्तीर्ण होने के लिए आवश्यक अंक हासिल कर सकें। इस शोध पत्र के दो लेखकों में से एक लेखक एक भारतीय राज्य परीक्षा बोर्ड की परीक्षा समिति की एक सदस्य है जहां उन्होंने 100 प्रतिशत तक का ‘अनुकूलन‘ देखा है।

सुधार के लिए सुझाव

पहला, देश को ब्रिटेन के ऑफक्युअल ( ऑफिस ऑफ क्वालीफिकेशंस एंड एक्जामिनेशंस रेगुलेशन यानी योग्यताओं और परीक्षाओं के विनियमन का कार्यालय) की तर्ज पर परीक्षा के एक निगरानीकर्ता की जरुरत है जो विविध परीक्षा संगठनों के मूल्यांकन मानकों पर नजर रखेगा।

दूसरा, परीक्षा बोर्डों को न केवल पूर्ण अंक की रिपोर्ट करनी चाहिए बल्कि संबंधित क्रम (ऑर्डरिंग) की भी रिपोर्ट करनी चाहिए जो या तो प्रतिशतक (पर्सेंटाइल) स्कोर से या जीरो-स्कोर से इंगित हो और आदर्श स्थिति यह होगी कि यह एक सामान्यीकृत ग्रेड अंक से इंगित हो। अस्पष्ट अंक अक्सर मनमाने तरीके से श्रेष्ठता का स्तर स्थापित कर देते हैं और मूल्यांकन में शामिल आत्मनिष्ठता को नजरअंदाज कर देते हैं।

ग्रेड-अंक प्रणाली में एक गहरी जमीनी (कोर्सर) फिल्टर के रूप में मददगार बनने की क्षमता है। लेकिन यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि विभिन्न बोर्डों की ग्रेडिंग योजनाओं में निरंतरता और एकरूपता हो। इसके अतिरिक्त, दो या तीन प्रतिशत से अधिक छात्रों द्वारा उच्चतम स्कोर प्राप्त नहीं किए जाने चाहिए जिससे कि वास्तविक श्रेष्ठ बच्चों से दूसरे सामान्य बच्चों में अंतर किया जा सके। किसी परीक्षा का संकल्प या उद्वेश्य और इस प्रकार औचित्य ही समाप्त हो जा सकता है, अगर लाखों (या यहां तक कि सैकड़ों भी) छात्र सर्वोच्च अंक प्राप्त कर लेते हैं। [10]

तीसरा, अमेरिका के एसएटी ( स्कोलिस्टिक ऐप्टीच्यूड टेस्ट या सैट) की तर्ज के साथ एक सामान्य शैक्षिक परीक्षा की रूपरेखा तैयार की जानी चाहिए जिसके परिणामों को सभी बोर्डों में छात्रों के प्रदर्शन को एक मानदंड (बेंचमार्क) के रूप में उपयोग में लाया जाना चाहिए। ऐसी शैक्षिक परीक्षा के नतीजों का उपयोग केंद्रीय विश्वविद्यालयों द्वारा छात्रों के लिए एक प्रोत्साहन के रूप में भी किया जा सकता है जो इसे चुनते हैं। यह वैसे छात्रों की पहचान करने में सहायता करने के लिए एक बोर्ड-अज्ञेय (board-agnostic) ‘पास प्रमाणपत्र‘ साबित हो सकता है जिनके पास वास्तव में मौलिक रूप से पढ़ने, लिखने एवं संख्यात्मक कौशल हैं। राजनीतिक या व्यावसायिक कारणों से, भारत की स्कूल परीक्षाएं ऐसा करने में विफल हैं।

चौथा, एक एकमुश्त (वन टाइम) ‘करेक्शन‘ (अंकों में बढोतरी को रोकने के लिए) किए जाने की आवश्यकता है जिसे सभी परीक्षा बोर्डों द्वारा एकसाथ मिल कर किया जाए, बजाये कि अलग अलग वर्षों में विभिन्न परीक्षा बोर्डों द्वारा धीरे-धीरे अगले कुछ सालों में, कार्यान्वित किया जाए। इसके अतिरिक्त, चूंकि परीक्षार्थियों की संख्या बहुत अधिक होती है, इसलिए परीक्षाओं में कई विकल्प वाले (मल्टीपल च्वॉयस) प्रश्नों का एक अच्छा अनुपात होना चाहिए जिसे ओएमआर उत्तरपत्रकों (आंसरशीट) द्वारा (बजाये कि व्याख्यात्मक उत्तर मांगने वाले सभी प्र्रश्नों के) इलेक्ट्रॉनिक तरीके से मार्क किया जा सके। इससे परीक्षकों की कमी के कारण होने वाली निम्न गुणवत्ता की स्क्रिप्ट मार्किंग से बचा जा सकेगा।

निष्कर्ष के रूप में, छात्रों के नामांकन के दौरान, सभी महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के पास अनिवार्य रूप से विद्यालय परीक्षाओं से आगे मूल्यांकन के एक स्तर का संचालन करने की स्वायतता होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, वर्तमान में, रामजस एवं श्री राम कॉलेज ऑफ कॉमर्स [11] जैसे कई महाविद्यालय ऐसा करने में विफल हैं क्योंकि आम तौर पर प्रशासनिक स्वायतता की इस अवस्था के लिए एक अल्पसंख्यक दर्जे की आवश्यकता होती है। इसलिए, ये महाविद्यालय खुद को एक ऐसी असहाय स्थिति में पाते हैं जहां उनकी सीटों के एक असमानुपातिक हिस्से पर उन बोर्डों के छात्र काबिज हो जाते हैं जो सबसे खुले हाथों से अंक बंाटने में यकीन रखते हैं।


लेखकों के बारे में

प्रशांत भट्टाचार्जी एक डाटा विश्लेषक हैं ([email protected]).

गीता किंगडॉन यूसीएल इंस्टीच्यूट ऑफ एजुकेशन में एक प्राध्यापक हैं; ([email protected])


एंडनोट्स

[1] FP Staff. “CBSE moderation row: Board awarded up to 11 extra marks in this year’s Class 12th exams.” Firstpost, 2 June 2017. Accessed 17 July 2017. http://www.firstpost.com/india/cbse-moderation-row-board-awarded-up-to-11-grace-marks-in-this-years-class-12th-exams-3508967.html. 

[2] PTI. “Bihar Board Class 12 results 2017 sees 64% students fail in their exams.” Livemint, 30 May 2017. Accessed 17 July 2017. “http://www.livemint.com/Education/HbiMixK07K2LknJIPPZ6VK/Bihar-Class-12-Board-results-2017-sees-64-students-fail-in.html. 

[3] Deep, Jagdeep Singh. “Punjab Class XII results: No grace marks lead to 14 per cent dip in pass percentage.” The Indian Express, 14 May 2017. Accessed 17 July 2017. http://indianexpress.com/article/india/punjab-class-xii-results-no-grace-marks-lead-to-14-per-cent-dip-in-pass-percentage-4654738/. 

[4] FE Online. “PSEB Results: Balbir Singh Dhol quits as chairman after CMO asked to resign following poor board results.” The Indian Express, 26 May 2017. Accessed 17 July 2017. http://www.financialexpress.com/education-2/pseb-10th-result-2017-pseb-ac-in-balbir-singh-dhol-quits-as-chairman-after-cmo-asked-to-resign-following-poor-board-examination-results/686413/. 

[5] Barrow, A. E. T. “Principles of scaling and the use of grades in examinations.” Teacher Education (India), January 1971. Accessed 17 July 2017. http://www.teindia.nic.in/mhrd/50yrsedu/g/52/76/52760I01.htm. 

[6] Bhattacharji, Prashant. “Exposing CBSE and ICSE: A follow-up (2015 Results) after 2 years.” The Learning Point, June 2015. Accessed 17 July 2017. http://www.thelearningpoint.net/home/examination-results-2015/exposing-cbse-and-icse-a-follow-up-after-2-years. 

[7] Das, Debarghya. “Hacking into the Indian Education System.” Quora, 4 June 2013. Accessed 17 July 2017. https://deedy.quora.com/Hacking-into-the-Indian-Education-System. 

[8] Bhattacharji, Prashant. “A Shocking Story of Marks Tampering and Inflation: Data Mining CBSE Scoring for a decade.” The Learning Point, June 2013. Accessed 17 July 2017. http://www.thelearningpoint.net/home/examination-results-2013/cbse-2004-to-2014-bulls-in-china-shops.

[9] Kunju S., Shihabudeen. “CBSE, State Boards Agree To Scrap ‘Marks Moderation’, Degree Cut-Offs To Drop.” NDTV, 25 April 2017. Accessed 17 July 2017. http://www.ndtv.com/education/cbse-state-boards-agree-to-scrap-marks-moderation-degree-cut-offs-to-drop-1685742.

[10] Sebastian, Kritika Sharma. “Over 1.6 lakh score ‘perfect 10’ CGPA.” The Hindu, 29 May 2016. Accessed 17 July 2017. http://www.thehindu.com/news/cities/Delhi/over-16-lakh-score-perfect-10-cgpa/article8662008.ece.

[11] Gohain, Manash. “Tamil Nadu students grab up to 80% of seats in SRCC so far.” The Times of India, 2 July 2016. Accessed 17 July 2017. http://economictimes.indiatimes.com/industry/services/education/tamil-nadu-students-grab-up-to-80-of-seats-in-srcc-so-far/articleshow/53017636.cms.

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