WHO के अनुमान के मुताबिक ८० के दशक में ज़्यादातर देशों में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली ८० फीसदी आबादी को आधुनिक मेडिकल सेवा या डॉक्टर की सुविधा उपलब्ध नहीं थी। वो स्वास्थ्य सेवाओं के लिए पारंपरिक तरीके और पुराणी पद्धति से इलाज करने वालों पर निर्भर थे। लेकिन उसके बाद के दशक में आधुनिक दवाओं का तेज़ी से विकास और फैलाव हुआ जिसे एलॉपथी के नाम से जाना गया। ग्रामीण क्षेत्रों में गरीब और मध्य वर्ग तक ये आधुनिक दवाएं पहुंचनें लगीं और पारंपरिक और वैकल्पिक दवाओं के इस्तेमाल करने वाली आबादी की संख्या में कमी आई। इसके बावजूद भारत और चीन जैसे विशाल देशों में ट्रेडिशनल और अल्टरनेटिव मेडिसिन (TCAM) यानी पारंपरिक पद्धति कि और वैकल्पिक दवाएं नीतियों पर काफी असर डालती हैं।
२०१५ में चीन में वैकल्पिक चिकित्सा पद्दति स्वास्थ्य सेवाओं का १६ फीसदी थी जो २०११ में ११ फीसदी से बढ़ कर १६ फीसदी हो गया था। नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक भारत में ये काफी कम है, ३.९ फीसदी। और अगर ये मरीज़ अस्पताल में भर्ती हो जाते हैं तो ये संख्या और भी कम हो जाती है, १ फीसदी से भी कम। भारत और चीन दोनों ही देशों में आधुनिक दवाओं को वैकल्पिक और परंपरागत दवाओं पर तरजीह मिलती है। लेकिन फिर भी पारंपरिक दवाओं को सरकारी समर्थन मिलता है।
जनसँख्या के बड़े हिस्से में इसकी पहुँच सीमित है फिर भी वैकल्पिक व्यवस्था जिसे आयुष के नाम से जाना जाता है (आयुर्वेद, योग, नेचुरोपैथी, युनानी, सिद्धा, होमियोपैथी, सोवा रिग्पा) इन सबके लिए एक अलग मंत्रालय है। आयुष मंत्रालय २०१४ में केंद्रीय मंत्रालय की तरह स्थापित हुआ और इसकी ज़िम्मेदारी है नीति बनाना,और वैकल्पिक अवाओं के विकास और प्रसार के लिए काम करना।
भारत और चीन कि स्वास्थ्य प्रणाली पारंपरिक दवाओं से ज्यादा आधुनिक जैविक दवाओं पर तरजीह देती है। लेकिन फिर भी प्राचीन पद्दति को सरकार से मान्यता भी प्राप्त है और सरकारी सहायता भी मिलती है।
१९८३ में भारत की पहली राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनी जिसमें कहा गया कि सभी मेडिकल क्षेत्र से जुड़े सभी लोगों के काम को सही तरीके से नियोजित करने के लिए कोशिश कि ज़रूरत है। साथ ही अलग अलग चिकित्सा प्रणाली को एक साथ हेल्थ केयर सिस्टम के अंतर्गत लाने की ज़रूरत है। इस के लिए सोंच समझ कर क़दम उठाया जाना चाहिए ताकि सिलसिलेवार तरीके से अलग अलग फेज में पारंपरिक और आधुनिक दवाओं को एक प्रणाली के अंतर्गत लाया जा सके। लेकिन व्यवहारिक रूप से इस तरह का विलय भारत में नहीं हो सका। वैकल्पिक और पारंपरिक दवाओं के लिए एक अलग मंत्रालय बनाना पड़ा। पहले से ही फण्ड कि कमी झेल रहे क्षेत्र में एक सामानांतर ढाँचे को खड़ा किया गया।
चीन का तजुर्बा
भारत और चीन कि स्वास्थ्य प्रणाली में कई दिलचस्प समानताएं हैं। १९९१ में Roemer का कहना था की १९४७ में भारत की स्वतंत्रता के बाद विदेशी सलाह के साथ भारत ने अपने स्वयं के पौधे उगाने शुरू किये जिनसे औषधि बनाई जा सके। १९४९ कि सामजिक क्रांति के बाद चीन ने भी ठीक ऐसा ही किया। ठीक इसी तरह दोनो देश में परंपरागत और वैकल्पिक (TCAM ) प्रणाली का सरकारी नीति पर बड़ा असर है। लेकिन चीन ने इन दशकों में कोशिश की है कि बिना किसी अड़चन के (TCAM) यानी वैकल्पिक और पारंपरिक प्रणाली उसके राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में घुल मिल जाए। Raffel (१९८४) के मुताबिक विकासशील देशों में चीन की स्वास्थ्य नीति सबसे ख़ास रही। चीन ने अपना हेल्थ सिस्टम ४ मूल सिधान्तों पर आधारित रखा।
- निवारण को सर्वप्रथम रखना,
- पश्चिमी और पारंपरिक दवाओं का समन्वय,
- स्वास्थ्य को जन आन्दोलन से जोड़ना,
- ग्रामीण क्षेत्रों पर फोकस रखना।
इन्ही मूल सिद्धांतों के अंतर्गत चीन ने अपनी स्वास्थ्य प्रणाली में मौजूद सभी समस्याओं का हल ढूँढा। सबसे बड़ी समस्या थी चिकित्सकों की कमी। चीन की रणनीति ये रही कि जितने भी सीमित संसाधन हैं यानी चिकित्सक उन्हें दूर दराज़ तक तैनात किया जाए, उनका फैलाव हो और कम कौशल वाले श्रम की जगह एडवांस कौशल और संसाधन का इस्तेमाल किया जाए। चीन की इसी रणनीति का एक हिस्सा जो बहुत चर्चित हुआ वो है बेयरफुट डॉक्टर जिसके तहत चीन ने किसानो और ग्रामीण लोगों को ज़रुरत के लायक बुनियादी मेडिकल सेवाओं की ट्रेनिंग दी और ये नीति बहुत सफल रही। लेकिन इसमें भी बहुत महत्वपूर्ण वैकल्पिक और पारंपरिक प्रणाली को नज़रंदाज़ किया गया।
चीन के मामले में TCAM डॉक्टर आधुनिक डॉक्टरों के सहायक के रूप में रहे। TCAM के लिए अलग से अस्पताल और ख़ास वार्ड बनाये गए साथ ही मौजूदा सुविधायों में ही अलग वार्ड तैयार किया गए जिस से हेल्थ केयर का बेहतर इस्तेमाल हो सका।
चीन में पारंपरिक स्वास्थ्य प्रणाली का राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली में एकीकरण उस राष्ट्रीय योजना के तहत हो रहा था जिसके तहत पूरी जनसँख्या को एक स्वाथ्य सेवा देना था। पारंपरिक दवाओं को शाही विरासत के तौर पर भी देखा जा रहा था जिसे एक धर्म निरपेक्ष स्वास्थ्य सेवा से बदलना था जिस में पारंपरिक दवाओं का आधुनिक दवाओं के साथ विलय करना था। आधुनिक मेडिकल सिस्टम में प्रशिक्षित डॉक्टर इस एकीकरण की प्रक्रिया का दिशानीर्देश कर रहे थे। परंपरागत चीनी दवाओं की पढाई में विज्ञानं के आधार पर रिसर्च पर जोर दिया गया।
भारत में विलय की पहल
हालाँकि कई सरकारी अस्पतालों में आधुनिक दवाओं के साथ TCAM सुविधाएं भी हैं, ये साल २००५ में जाकर मुमकिन हो पाया की सरकार आयुष को मुख्यधारा में ला पाई और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NHRM) के तहत स्थानीय और पारंपरिक दवाओं में फिर से जान डाली गयी। हालाँकि राष्ट्रीय हेल्थ प्रोग्राम का हिस्सा होने के अलावा वौकल्पिक और आधुनिक दवाओं का समागम ठीक तरह से नहीं हो पाया है। ये मरीज़ पर छोड़ दिया जाता है कि वो किस तरह का इलाज पसंद करता है। हालाँकि कागजों पर आधुनिक और पुराणी पद्दति कि दवाएं दो अलग खांचों में बांटी हुई हैं लेकिन व्यवहारिक तौर पर स्थिति अलग रही है। एक ऐसी व्यवस्था जहाँ स्टाफ की भारी कमी रही है अक्सर देखा जाता है की परंपरागत प्रणाली के चिकित्सक अक्सर आधुनिक दवाओं के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। लेकिन भारत के सरकारी अस्पतालों में अगर ये स्थिति ही तो इसे रिपोर्ट कम ही किया जाता है क्यूंकि ये सही नहीं की TCAM स्टाफ आधुनिक प्रणाली में प्रैक्टिस करे।
ये भी डर बना रहता है कि जो डॉक्टर इस प्रणाली में प्रशिक्षित नहीं हैं उनके काम से मरीजों को नुकसान हो सकता है। लेकिन ये हो रहा है और सरकार इसे स्वीकार भी करती है। “स्वाथ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की एक स्टडी में कहा गया की जहाँ कोई डॉक्टर नहीं है वहां आयुष के डॉक्टर एलॉपथी और आयुष दोनों के लिए काम करते हैं ये ख़ास तौर पर प्राइमरी हेल्थ सेंटर के स्तर पर हो रहा है।” सरकारी रिपोर्ट्स ये अक्सर मानती हैं कि कई अस्पतालों में इलाज आयुष के डॉक्टर कर रहे है लेकिन कागजों में एलोपैथिक डॉक्टर का नाम दिया जाता है। ऐसा कानूनी कारणों से हो रहा है। इस में समस्या ये भी है की TCAM डॉक्टर जो काम कर रहे है उसे पहचान भी नहीं मिल रही है जो नैतिक तौर पर भी सही नहीं है। आधुनिक दवाएं और पारंपरिक दवाओं को एक साथ लाने की ज़रूरत है जिस से ये ज्यादा लोगों तक पहुँच पाए और नतीजे मिल सकें। इस के लिए एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तरीके की ज़रूरत है। सेंट्रल कौंसिल फॉर रिसर्च इन आयुर्वेदिक साइंस के अंतर्गत एक दिलचस्प ट्रायल चल रहा है जिसमें डेंगू के आयुर्वेदिक इलाज पर काम किया जा रहा है। ये आयुष और आधुनिक चिकित्सा को साथ लाने की दिशा में उठाया गया अच्छा कदम है।
लेकिन हेल्थ राज्य का विषय है। इसलिए केंद्रीय स्तर पर किसी भी पहल में जटिलताएं आती रहती हैं। फिर भी महाराष्ट्र जैसे राज्य भी हैं जिन्हों ने ज्यादा व्यवहारिक नजरिया अपनाया और TCAM अधिकारीयों को आधुनिक प्रणाली में काम करने की इजाज़त दी गयी लेकिन इसके लिए उन्हें १ साल का कोर्स करना होता है। लेकिन ऐसी किसी भी पहल का आधुनिक प्रणाली की तरफ से काफी विरोध होता है।
महाराष्ट्र जैसे राज्य भी हैं जिन्हों ने ज्यादा व्यवहारिक नजरिया अपनाया और TCAM अधिकारीयों को आधुनिक प्रणाली में काम करने की इजाज़त दी गयी लेकिन इसके लिए उन्हें १ साल का कोर्स करना होता है।
दुर्भाग्य से स्वस्थ्य सेवाओं को जन जन तक ले जाने में TCAM के इस्तेमाल कि केंद्र सरकार की हर कोशिश को रोका गया। २०१७ में मेडिकल कमिशन बिल के तहत एक ऐसा प्रोग्राम लाने की कोशिश हुई जो चिकित्सा की अलग अलग प्रणाली के बीच पुल का काम कर सके ताकि चिकित्सा पद्दति में विविधता आ सके। लेकिन इसका जम कर विरोध किया गया। इसके बाद एक संसदीय पैनल ने सरकार से सिफारिश की कि ऐसी कोशिश करने वाले प्रस्ताव को ख़त्म किया जाए जिसमें आयुष के चिकित्सकों को आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में काम करने की इजाज़त दी जा रही थी, इसका कारण बताया गया मरीजों की सुरक्षा। लेकिन कई अध्यन ये बताते हैं की अगर मरीजों की सुरक्षा के लिए नीति बनानी है तो सबसे पहले आधुनिक चिकित्सा प्रणाली को नियमित करने की ज़रूरत है, क्यूंकि WHO की एक स्टडी के मुताबिक २००१ की जनगणना आंकड़े से पता चलता है कि २००१ में एक तिहाई लोग जो खुद को एलोपैथिक डॉक्टर कह रहे थे वो सिर्फ सेकंड्री स्कूल तक पढ़े हुए थे। और इस में से ५७.३ फीसदी के पास कोई मेडिकल डिग्री नहीं थी। ग्रामीण इलाकों में सिर्फ १८.८ फीसदी एलोपैथिक डोक्टरों के पास किसी तरह कि मेडिकल डिग्री थी।
आयुष्मान भारत ही भविष्य है
नेशनल फॅमिली हेल्थ सर्वे ४ के मुताबिक टीकाकरण जैसे अहम् सूचक भी बहुत कम रफ़्तार पर चल रहे हैं। इसलिए एक ऐसे स्वास्थ्य सिस्टम और कर्मचारियों की आवश्यकता है जो राष्ट्रीय स्वास्थ्य के लक्ष्य को जानते हों , जो एक वैज्ञानिक प्रक्रिया के अंतर्गत मिल कर काम करें। अगर सिस्टम में ही एकजुटता नहीं होगी औए कर्मचारी अलग अलग दिशा में विपरीत काम करेंगे तो ये एक बड़ा संकट है जिसे सही करना ज़रूरी है। चीन ने २०११ में पूरे देश के लिए रास्ट्रीय स्वास्थय बीमा का लक्ष्य कामयाबी से हासिल कर लिया। ये मानव इतिहास में सबसे व्यापक बीमा योजना है। ऐसे समय में जब भारत आयुष्मान भारत के तहत यूनिवर्सल बीमा करने की कोशिश कर रहा है उसे चीन के TCAM सिस्टम से सीख लेनी चाहिए जिसे interpenetrative pluralism के नाम से जाना जाता है यानी एक ऐसा बहुलवाद जिसमें कई प्रणाली एक दूसरे के साथ मिल कर काम कर रही हों। जैसा चीन ने कर दिखाया है पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली को राष्ट्रीय स्वस्थ्य कार्यक्रम में शामिल करने के लिए स्वस्थ्य सेवा से जुड़े लोगों का प्रशिक्षण भी ज़रूरी है। इसे सरकारी मान्यता मिलना भी ज़रूरी है। अगर इसके लिए एक वैज्ञानिक तरीका अपनाया जाए तो देश भर में असंक्रामक बिमारियों के बचाव और इलाज में TCAM बड़ा रोल अदा कर सकता है। नेशनल हेल्थ प्रोटेक्शन मिशन में TCAM को साथ लाना आधुनिक चिकित्सा में पारंपरिक प्रणाली को साथ लाने का अच्छा मौक़ा होगा।
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