Author : Kabir Taneja

Published on Nov 01, 2023 Updated 0 Hours ago

वैश्विक आतंकवाद के पैमाने पर हमास के उभार के बावजूद भारत द्वारा इस समूह को प्रतिबंधित करने की वजहें बेहद पेचीदा हैं. 

भारतीय सुरक्षा के परिदृश्य और दृष्टिकोण से फिलिस्तीनी आतंकी संगठन ‘हमास’ का आकलन!

अक्टूबर को इज़रायल के ख़िलाफ़ हमास के आतंकी हमले का पैमाना अब भी सामने आ रहा है. फ़िलिस्तीनी समूह द्वारा हवा, समंदर और ज़मीन का इस्तेमाल करके अंजाम दिए गए इस दुस्साहसी हमले में 1400 से ज़्यादा इज़रायली नागरिकों और सैनिकों की जान चली गई. इससे भी ज़्यादा चिंताजनक बात इस ख़बर की पुष्टि है कि हमास ने गाज़ा में तक़रीबन 199 नागरिकों को बंधक बनाकर रखा है. अपने ख़ुफ़िया तंत्र की इस ज़बरदस्त नाकामी के झटके से उबर रहे इज़रायल ने बड़े स्तर पर बदला लेने का अभियान छेड़ दिया है. वो गाज़ा के 40 किमी लंबे और ज़्यादा से ज़्यादा 12 किमी चौड़े भूक्षेत्र पर लगातार बमबारी कर रहा है. इतना ही नहीं ख़बरों की मानें तो उसने ज़मीनी स्तर पर भी पूरी तरह से चढ़ाई करने की तैयारी कर ली है. 

अनेक पश्चिमी देशों द्वारा प्रतिबंधित ये समूह एक आतंकी संगठन होने और फ़िलिस्तीन के लिए “प्रतिरोध” आंदोलन का मुखौटा लगाए रहने के बीच के दरार में आता है. इसकी लड़ाका शाखा को अल-क़ासिम ब्रिगेड के नाम से जाना जाता है, जिसने सालों तक इज़रायल के ख़िलाफ़ हमलों को अंजाम दिया है.

हमले के बाद से हमास नए सिरे से सुर्ख़ियों में आ गया है. अनेक पश्चिमी देशों द्वारा प्रतिबंधित ये समूह एक आतंकी संगठन होने और फ़िलिस्तीन के लिए “प्रतिरोध” आंदोलन का मुखौटा लगाए रहने के बीच के दरार में आता है. इसकी लड़ाका शाखा को अल-क़ासिम ब्रिगेड के नाम से जाना जाता है, जिसने सालों तक इज़रायल के ख़िलाफ़ हमलों को अंजाम दिया है. दूसरी ओर, इसका राजनीतिक बुनियादी ढांचा एक संप्रभु फ़िलिस्तीनी राज्यसत्ता के व्यापक लक्ष्य में इस समूह की केंद्रीयता और यहूदी सत्ता के पराजय के विचार को बढ़ावा देता आ रहा है.

शुरुआती दौर में, इन आंदोलनों के ‘इस्लामवादी’ हिस्से के केंद्र में अब्दुल्लाह यूसुफ़ अज़्ज़ाम जैसे विचारक थे. वो फ़िलिस्तीनी सलाफ़ी जिहादी थे, जिन्होने 1950 के दशक में मुस्लिम ब्रदरहुड में शिरकत की थी. इस तरह वो फ़िलिस्तीन मुक्ति संगठन के क्रांतिकारी-मार्क्सवादी झुकावों से अलग हो गए थे. 1948 के अरब-इज़रायल युद्ध के दौरान फिलिस्तिनियों के विस्थापन (जिसे नक़बा के नाम से भी जाना जाता है) के समय अज़्ज़ाम एक बच्चा था. 1980 के दशक में अज़्ज़ाम के वैचारिक प्रयासों ने उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ जिहाद का लोकप्रिय प्रचारक बना दिया था. 1989 में पाकिस्तान के पेशावर में अज़्ज़ाम की हत्या तक ये सिलसिला बदस्तूर जारी रहा. इसमें कोई शक़ नहीं कि फ़िलिस्तीनी मुस्लिम ब्रदरहुड ही वो बुनियादी थी जिसपर हमास खड़ा किया गया था. भारत में मुख्यधारा के विमर्श में हमास की ही तरह अज़्ज़ाम को भी शायद ही कोई जानता हो, लेकिन दोनों का उन व्यापक इस्लामिक विचारों पर भारी प्रभाव है जो ना सिर्फ़ अरब राज्यसत्ताओं, सरकारों, भौगोलिक क्षेत्रों या राजशाहियों बल्कि इस्लाम और मुसलमानों की रक्षा के लिए जंग को प्राथमिकता देते हैं.

अमेरिका का एलान

वैसे तो फ़तेह और फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण समेत कई अन्य फ़िलिस्तीनी नेता और सियासी इकाइयां भी दशकों से सक्रिय रहे हैं, लेकिन हमास ने हथियारबंद संघर्ष को अपने विचारों के केंद्र में बरक़रार रखा है. हमले के बाद से इज़रायल और अमेरिका दोनों ने हमास की तुलना इस्लामिक स्टेट (ISIS या अरबी में दाएश) और अल-क़ायदा से की है. ये तुलना 7 अक्टूबर को अंजाम दिए गए हमले में हमास की बर्बरता और हमले के पैमाने, दोनों के चलते की गई है. अकेले इस तुलना ने विश्व बिरादरी के सामने हमास का नाम ला दिया है, इनमें से कई या तो इस समूह के बारे में बेख़बर थे या इसके बारे में कभी-कभार सुन रखा था. हमास के ख़िलाफ़ प्रतिबंध मोटे तौर पर या तो बहुपक्षीय व्यवस्थाओं (जैसे संयुक्त राष्ट्र यानी UN) या व्यापक रूप से उन पश्चिमी देशों की ओर से आए हैं, जो पश्चिम एशिया या मध्य पूर्व की भूराजनीति से प्रत्यक्ष या परोक्ष, समसमायिक रूप से या ऐतिहासिक तौर पर जुड़े रहे हैं. अमेरिका ने अक्टूबर 1997 में हमास को विदेशी आतंकवादी संगठन (FTO) घोषित किया था, और तब से इस समूह के नेतृत्व, वित्त और इकोसिस्टम की ज़बरदस्त जांच-पड़ताल की जा रही है. इसे परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए ये बताना ज़रूरी है कि अमेरिका ने अल क़ायदा को 1999 में विदेशी आतंकवादी संगठन के तौर पर प्रतिबंधित किया था. 

हमले के बाद से इज़रायल और अमेरिका दोनों ने हमास की तुलना इस्लामिक स्टेट और अल-क़ायदा से की है. ये तुलना 7 अक्टूबर को अंजाम दिए गए हमले में हमास की बर्बरता और हमले के पैमाने, दोनों के चलते की गई है.

इज़रायल के ख़िलाफ़ आतंकी हमले की निंदा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्वीट ने बहुत ध्यान आकर्षित किया है. इस बात के विश्लेषण हो रहे हैं कि फ़िलिस्तीन के मसले पर भारत के ऐतिहासिक रुख़ के लिए इसके क्या मायने हैं. साथ ही हाल के अर्से में आतंकवाद को वैश्विक नासूर के तौर पर रेखांकित किए जाने को लेकर भारत की पहले से ज़्यादा प्रत्यक्ष कूटनीति के लिए भी इसके मतलब तलाशे जा रहे हैं. वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी की सार्वजनिक टिप्पणी आतंकी हमलों का बिना किसी लाग-लपेट के निंदा करने वाली शब्दावली में ही आनी थी. भारत ने 2022 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद आतंक-निरोधी समिति की बैठक की मेज़बानी की थी. इस क़वायद के बाद संयुक्त राष्ट्र जैसे मंच पर भारत ने आतंकवाद के मसले में काफ़ी कामयाबी हासिल की थी. ऐसे में भारत राजनीतिक तौर पर आतंकवाद पर बीच का रास्ता लेते हुए नहीं दिख सकता. इसके अलावा अफ़ग़ानिस्तान (जहां तालिबान की सत्ता में वापसी हो चुकी है) जैसे नाज़ुक मसलों पर भारत को इसे अग्रणी एजेंडे के तौर पर क़ायम रखे जाने पर ज़ोर देना पड़ा है क्योंकि ‘आतंक के ख़िलाफ़ जंग’ की समाप्ति से जुड़ा विमर्श जड़ें जमाने लगा है. प्रधानमंत्री मोदी के ट्वीट के कुछ ही दिनों बाद भारत के विदेश मंत्रालय ने आतंक को कतई बर्दाश्त ना किए जाने का अपना रुख़ दोहराया. हालांकि इसके साथ ही दो-राज्य समाधान (टू-स्टेट सॉल्यूशन) को लेकर भारत के ऐतिहासिक समर्थन के जारी रहने की बात भी दोहराई गई. 

भारत ने 2022 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद आतंक-निरोधी समिति की बैठक की मेज़बानी की थी. इस क़वायद के बाद संयुक्त राष्ट्र जैसे मंच पर भारत ने आतंकवाद के मसले में काफ़ी कामयाबी हासिल की थी. ऐसे में भारत राजनीतिक तौर पर आतंकवाद पर बीच का रास्ता लेते हुए नहीं दिख सकता.

2017 में हमास ने ब्रदरहुड के दर्शन से एक क़दम दूर हटते हुए नरमपंथ की ओर झुकाव दिखाया था, जिसे स्कॉलर डेवोरा मारगोलिन ने समूह का “मध्यमार्गी” रुख़ क़रार दिया है. हमास ने सोशल मीडिया साइट ट्वीटर (जिसे अब ‘X’ के नाम से जाना जाता है) के इस्तेमाल से अपने सार्वजनिक संपर्क कार्यक्रम के ज़रिए मानव अधिकारों की पालना की भी बात कही थी. सितंबर 2023 के अंत में इज़रायली अधिकारियों का आकलन था कि वास्तव में हमास पूर्ण-कालिक युद्ध से बचना चाहता था. हालांकि अब ये बात सच नहीं रह गई है, और हमास ने स्पष्ट रूप से टकराव और तनाव बढ़ाने का रास्ता चुना है. हालांकि, ISIS और अल क़ायदा से तुलनाओं के बावजूद हमास फ़िलहाल फ़िलिस्तीनी मसले और मध्य पूर्व की भू-राजनीति के साथ मज़बूती से जुड़ा हुआ है.  

भारत के लिये पेचीदा मुद्दा

वैश्विक आतंकवाद के पैमाने पर हमास के उभरने के बावजूद भारत जैसे देश द्वारा इसे प्रतिबंधित करना काफ़ी पेचीदा क़वायद है. भारत के गृह मंत्रालय द्वारा प्रतिबंधित आख़िरी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय और बहु-देशीय आतंकी संगठन ISIS था, जिस पर भारत ने 2015 में पाबंदी लगाई थी. ऐसे समूहों को प्रतिबंधित सूची में डालने के लिए भारत ग़ैर-क़ानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (UAPA) का इस्तेमाल करता है. मार्च 2023 तक इस सूची में कुल 44 संगठन थे, जिनमें इस्लामवादी, धुर-वामपंथी (माओवादी) और खालिस्तान समर्थक समूहों के साथ-साथ विशेष रूप से उत्तर पूर्व भारत के अन्य अलगाववादी आंदोलनों का मिश्रण शामिल है. आतंकी सूची में ऐसे समूहों को जोड़ने के लिए ख़ुद UAPA में ही अनेक स्थानीय शर्तें हैं. इन शर्तों में भारतीय क्षेत्रों (जहां भारतीय क़ानून लागू हैं) के भीतर संचालन, वित्त और भर्ती जैसी गतिविधियां शामिल हैं. भारत में हमास का ऐसा कोई ज्ञात इतिहास नहीं रहा है.

अभी इज़रायल ख़ुद को ऐसी स्थिति में पाता है जहां प्रतिशोध एक ज़रूरत हो सकती है, ज़रूरी नहीं है कि ये कार्रवाई शोकग्रस्त आबादी को शांत करने के लिए हो, बल्कि ज़्यादा अहम तौर पर ये अपने राष्ट्र में सुरक्षा की भावना बहाल करने की क़वायद होगी.

हालांकि महज़ दिखावे के नज़रिए से भी भारत में हमास को प्रतिबंधित सूची में शामिल करने की राजनीति जितना दिखती है, उससे कहीं ज़्यादा पेचीदा हो सकती है. मुस्लिम आबादियों में फ़िलिस्तीन के लिए दृढ़ समर्थन जारी है, इसमें दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी मुस्लिम जनसंख्या वाला देश भारत भी शामिल है. फिर भी, हमास के साथ “प्रतिरोध” का विचार जोड़ने से परहेज़ करने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है. इस जोड़ (हाइफनेशन) ने हमास और फिलिस्तान-समर्थक भावनाओं में भेद के किसी भी विचार पर पर्दा डाल दिया है, जिससे आख़िरकार फ़िलिस्तीनी नज़रिया ही कमज़ोर हुआ है. हमास के कुछ विदेशी संरक्षकों द्वारा इस दृष्टिकोण को मज़बूत किए जाने के बावजूद ऐसे हालात बने हैं. “प्रतिरोध” और आतंकवाद को अलग-अलग करने (डि-हाइफनेशन) के लिए इज़रायल और फ़िलिस्तीन के वार्ताकारों के बीच सक्रिय राजनीतिक तंत्र की दरकार होगी, जो फ़िलहाल वजूद में नहीं है.     

अभी इज़रायल ख़ुद को ऐसी स्थिति में पाता है जहां प्रतिशोध एक ज़रूरत हो सकती है, ज़रूरी नहीं है कि ये कार्रवाई शोकग्रस्त आबादी को शांत करने के लिए हो, बल्कि ज़्यादा अहम तौर पर ये अपने राष्ट्र में सुरक्षा की भावना बहाल करने की क़वायद होगी. दशकों से इज़रायल की सुरक्षा, सामरिक नीति, रणनीति और टेक्नोलॉजी के बारे में ये धारणा बनी थी कि वो अपने शत्रुओं के सामने अजेय है. हमास ने इज़रायल के शेर होने की इस धारणा में सेंध लगाई है. इस संघर्ष का भविष्य समूचे मध्य पूर्व के लिए लंबा-खिंचने वाला और बेहद अशांत हो सकता है, क्योंकि इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू हमास के सामरिक “अंत” को लक्ष्य बनाए हुए हैं, जबकि ‘पुराने’ और ‘नए’ को लेकर क्षेत्र का नज़रिया आपस में टकराता है. 


कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं

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