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Published on May 22, 2024 Updated 0 Hours ago

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सतत विकास को बरक़रार रखने एवं तमाम देशों द्वारा झेली जाने वाली एक समान दिक़्क़तों का समाधान करने के लिए विकास सहयोग बेहद अहम है. हालांकि, वर्तमान में यह बेहद पेचीदा होता जा रहा है और क्षेत्रीय साझेदारों के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है.

हिंद-प्रशांत क्षेत्र में विकास सहयोग की कूटनीति कितनी टिकाऊ?

वैश्विक स्तर पर विकास साझेदारियों में हाल के समय में उल्लेखनीय बदलाव देखने को मिला है. एक समय था जब कई देश पारंपरिक दाता थे, जबकि कुछ देश पारंपरिक प्राप्तकर्ता थे, लेकिन आज ऐसे देशों के बीच संबंध गुज़रे जमाने की बात हो गई है. वर्तमान दौर की बात की जाए, तो दुनिया के तमाम देश एक-दूसरे के साथ साझेदारी स्थापित करने एवं पारस्परिक सहयोग बनाने के लिए उत्साहित नज़र आते हैं, ताकि वे अपनी प्रगति सुनिश्चित कर सकें, इसके लिए ज़रूरी संसाधन जुटा सकें और ऐसा करके वैश्विक सार्वजनिक वस्तुओं यानी दुनिया में सभी के लिए सुलभ चीज़ों का लाभ उठा सकें. लेकिन वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय विकास का ढांचा कई वजहों से लड़खड़ा सा गया है. एक ओर कोविड-19 महामारी, जलवायु परिवर्तन के घातक दुष्प्रभावों ने वैश्विक विकास को पटरी से उतार दिया है, वहीं गाजा और यूक्रेन में चल रहे तनाव की वजह से खाने-पीने की वस्तुओं एवं ईंधन की क़ीमतों में इजाफ़ा हो रहा है, महंगाई में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है और कर्ज़ का बोझ भी बढ़ रहा है. ये जो भी चुनौतियां हैं वे दिखती अलग-अलग हैं, लेकिन आपस में जुड़ी हुई हैं और इन चुनौतियों ने मिलकर आपातकालीन हालात पैदा कर दिए हैं. इन विकट परिस्थितियों की वजह से सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) के लिए किया जाने वाला वित्तपोषण भी ख़तरे में पड़ गया है. आंकड़ों पर नज़र डालें, तो एसडीजी वित्तपोषण का यह अंतर जो वर्ष 2020 में 2.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर था, वह वर्ष 2023 में बढ़कर 4.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया है. इसके अलावा, कई विकासशील देश, ख़ास तौर पर सबसे कम विकसित देशों (LDCs), कम आय वाले देशों और छोटे द्वीपीय विकासशील राष्ट्रों (SIDS) के सामने विकट स्थितियां पैदा हो गई हैं और इन्हें इसका सबसे अधिक नुक़सान उठाना पड़ रहा है. ज़ाहिर है कि बढ़ते कर्ज़ के साथ  ऋण भुगतान की बढ़ती लागत ने भी कम विकसित देशों एवं अन्य विकासशील राष्ट्रों के सामने परेशानी खड़ी करने का काम किया है.

 आर्थिक मंदी के दौर में विकास सहायता कमेटी के सदस्य देशों द्वारा दी जाने वाली ओडीए ने OECD देशों में जीडीपी वृद्धि धीमी ज़रूर की है, लेकिन यह वृद्धि सकारात्मक है और देखा जाए तो इन राष्ट्रों ने इस दौरान अपनी उच्चतम विकास दर हासिल की है.

हालांकि, इन पेचीदा परिस्थितियों में देखा जाए तो आधिकारिक विकास सहायता यानी विकसित अर्थव्यवस्थाओं द्वारा कम विकसित राष्ट्रों को दी जाने वाली सहायता राशि में बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है. वैश्विक जीडीपी में कमी होने के बाद भी पारंपरिक दानदाता देशों, यानी ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) की विकास सहायता कमेटी (DAC) के सदस्य देशों द्वारा दी जाने वाली आर्थिक मदद वर्ष 2020 में 161 बिलियन अमेरिकी डॉलर के उच्चतम स्तर तक पहुंच गई थी. दरअसल, यह ODA की उस खूबी को प्रकट करता है, जो संकट के समय देशों को विपरीत हालातों से बाहर निकालने में मददगार साबित होती है. आर्थिक मंदी के दौर में विकास सहायता कमेटी के सदस्य देशों द्वारा दी जाने वाली ओडीए ने OECD देशों में जीडीपी वृद्धि धीमी ज़रूर की है, लेकिन यह वृद्धि सकारात्मक है और देखा जाए तो इन राष्ट्रों ने इस दौरान अपनी उच्चतम विकास दर हासिल की है. हालांकि, कोरोना महामारी के दौरान जिस प्रकार विपरीत परिस्थितियों से निपटने के लिए ओडीए का इस्तेमाल किया गया, उससे विकास सहयोग पर काफ़ी दबाव पड़ा है. यह वास्तविकता केवल इस विकास सहयोग के व्यावहारिक आर्थिक पहलू को सामने लाता है, बल्कि यह भी बताता है कि दूसरे मुद्दों के अलावा ग़रीबी, जलवायु परिवर्तन और भोजन एवं पानी की कमी जैसी समस्याओं का समाधान निकालने में यह ODA कितना महत्वपूर्ण है.



हिंद-प्रशांत की स्थिति 

सामरिक लिहाज़ से देखें, तो विकास साझेदारियां किसी भी देश की विदेश नीति को निर्धारित करने में बेहद अहम होती हैं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि विकास साझेदारियों से देशों को विदेश निति के लक्ष्यों की मज़बूती और उन्हें एक साथ लाने में मदद मिलती है. इसके अलावा, अगर आज के दौर की बात की जाए, तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो भी विकास साझेदारियां हैं, उनका मकसद सिर्फ़ एक देश द्वारा दूसरे देश को आर्थिक एवं दूसरी तरह की मदद उपलब्ध कराना एवं सेवाएं प्रदान करना नहीं है, बल्कि इन विकास साझेदारियों में काफ़ी कुछ शामिल होता है, यानी इनमें राजनीतिक दांव पेच शामिल होते हैं और अपने हितों को साधने के साथ ही दूसरे के हितों को प्रभावित करने का मकसद भी शामिल होता है. नतीज़तन, देशों को इन साझेदारियों के हमेशा मन मुताबिक़ नतीज़े हासिल नहीं हो पाते हैं. कुल मिलाकर विकास सहयोग के नाम पर जो भू-राजनीत की जाती है, उसमें विकासशील देशों के सामने काफ़ी मुश्किल खड़ी हो जाती है और ये देश वैश्विक स्तर पर महाशक्तियों की होड़ में खुद को फंसा हुआ महसूस करते हैं और दुविधा में पड़ जाते हैं कि उनके लिए क्या उचित है और क्या अनुचित है.

 

इन वास्तविकताओं के बीच हिंद-प्रशांत के हालात बेहद अहम हो जाते हैं. ज़ाहिर है कि भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक लिहाज़ से हिंद-प्रशांत क्षेत्र फिलहाल बहुत महत्वपूर्ण है और शायद इसीलिए पूरी दुनिया की निगाहें इस इलाक़े पर टिकी हुई हैं. सुरक्षा और स्थिरता से जुड़े मुद्दे भी इस क्षेत्र के लिए बहुत अहम हैं. हिंद-प्रशांत के लिए सुरक्षा का मसला व्यापक स्तर पर उभर कर सामने आया है. ऐसे वातावरण के बीच इस बात को लेकर गंभीर चिताएं पैदा हो गई हैं कि इस क्षेत्र के देश सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किस प्रकार से पारस्परिक सहयोग को आगे बढ़ा सकते हैं. यानी ऐसे क्षेत्र में जहां संसाधनों की बेहद कमी है और उन तक पहुंचने एवं उनके दोहन की क्षमताएं सीमित हैं, वहां ये विकास साझेदारियां किस प्रकार से मज़बूत हो सकती हैं, इसको लेकर चिंता बनी हुई है.

 ज़ाहिर है कि भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक लिहाज़ से हिंद-प्रशांत क्षेत्र फिलहाल बहुत महत्वपूर्ण है और शायद इसीलिए पूरी दुनिया की निगाहें इस इलाक़े पर टिकी हुई हैं.

जब किसी देश की रणनीति के बारे में व्यापक जानकारी उपलब्ध होती है, तो उससे यह पता लगाने में मदद मिलती है कि उसके द्वारा जो विकास सहायता दी जा रही है, उसके पीछे का उद्देश्य क्या है और वो कितनी कारगर है. इससे यह भी पता चलता है कि सहायता के पीछे राजनीतिक मंशा क्या है और कहीं वो ग़लत तो नहीं है या इसका परिणाम घातक तो नहीं होगा. कहने का मतलब है कि अगर सहायता के पीछे की रणनीति का पता होता है, तो इससे आम तौर पर सहायता की सफलता सुनिश्चित होती है. यानी कि जब क्षेत्र में भू-रणनीतिक ज़रूरतें एक तरह की होती हैं, तो सामरिक लक्ष्यों को विकास सहयोग के उद्देश्यों से जोड़ने में मदद मिलती है और ऐसा करने के बाद जो साझेदारियां विकसित होती हैं, वो पारस्परिक रूप से लाभदायक होती हैं.

 

वर्तमान में भू-राजनीतिक हितों एवं विकास सहयोग के बीच जो आपसी संबंध है, वो आज अंतर्राष्ट्रीय रिश्तों का एक अटूट हिस्सा बन चुका है. देखा जाए तो वैश्विक स्तर पर जो भी सहायता कार्यक्रम संचालित किए जाते हैं, उनकी क़ामयाबी इसी संबंध पर निर्भर करती है. OECD ने वर्ष 1996 में इस बात को माना था कि सहायता मुहैया कराने वाले देशों का अपना हित विकास सहयोग में एक प्रमुख भूमिका निभाता है, जो एक पक्ष के फायदे के बजाए, दोनों तरफ के लाभ को प्रमुखता देता है. यानि कि इन रणनीतियों में छिपे बुनियादी मकसद को बेहतर तरीक़े से समझने से केवल विकास सहायता कितनी असरकारक होगी इसका आकलन करने में सहायता मिलती है, बल्कि इससे विकास पहलों में शामिल सभी पक्षों की आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ ही भू-राजनीतिक हितों के बीच तालमेल बैठाने में भी मदद मिलती है. यही कारण है कि विकास साझेदारियों को सशक्त करने के लिए रणनीतिक और आर्थिक हितों को जोड़ना बेहद ज़रूरी हो गया है. इसीलिए, विकास सहयोग की सफलता के लिए इसमें रणनीतिक और आर्थिक हितों को समायोजित करना जितना ज़रूरी है, उतना ही आवश्यक इनमें समावेशी और लचीला रुख अपनाना भी है. ख़ास तौर पर हिंद-प्रशांत जैसे क्षेत्रों के लिए तो यह बहुत अहम है, क्योंकि यह ऐसा क्षेत्र है, जहां अमेरिका और चीन जैसी महाशक्तियों के बीच ज़बरदस्त होड़ है और इससे यहां देशों के बीच रिश्तों में उतार-चढ़ाव वाली स्थिति बनी रहती है. यही वजह है कि  हिंद-प्रशांत क्षेत्र में जो भी साझेदारियां की जाती हैं, उनके मूल में अमूमन क्षेत्रीय सुरक्षा चिंताओं का समाधान करना, आर्थिक विकास को बढ़ावा देना और विरोधी ताक़तों की काट ढूंढ़ना शामिल होता है.

 ख़ास तौर पर हिंद-प्रशांत जैसे क्षेत्रों के लिए तो यह बहुत अहम है, क्योंकि यह ऐसा क्षेत्र है, जहां अमेरिका और चीन जैसी महाशक्तियों के बीच ज़बरदस्त होड़ है और इससे यहां देशों के बीच रिश्तों में उतार-चढ़ाव वाली स्थिति बनी रहती है.

हालांकि, इस बात तो लेकर चिंता बनी हुई है कि क्षेत्रीय भागीदारों के लिए ये विकास साझेदारियां फायदेमंद की जगह पर कहीं नुकसानदायक बन जाए. उदाहरण के तौर पर सबसे पहले, अमेरिका और चीन के बीच भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा ज़ोरों पर है और इसके चलते उनके द्वारा जो भी रणनीतिक पहलें शुरू की जाती हैं, उनसे जुड़ने में छोटे देश खुद को सहज नहीं पाते हैं और इसके चलते वे इन पहलों से सामरिक दूरी बनाने को मज़बूर हो जाते हैं. ज़ाहिर है कि इससे सकारात्मक एवं लाभदायक क्षेत्रीय सहयोग स्थापित होने में रुकावटें पैदा हो सकती हैं. दूसरा, चीन और अमेरिका की इस होड़ से बनने वाली साझेदारियां क्षेत्र में अलग-अलग सहायता कार्यक्रमों को भी सामने ला सकती हैं, यानी जिनके उद्देश्य लगभग एक जैसे हों और जो बहुत प्रभावी हों. कहने का मतलब है कि जब विकास सहायता मुहैया कराने वाले कई देशों के बीच सामंजस्य नहीं होता है और वे एक ही परियोजना या पहल पर कार्य करते हैं, तो इससे केवल दोहराव की आशंका पैदा हो जाती है, बल्कि संसाधनों का प्रबंधन ठीक से नहीं होता है और सहायता हासिल करने वाले देशों में अनिश्चितता का माहौल बन सकता है. तीसरा, विकास सहायता देने वाले देशों की बीच मची यह होड़ क्षेत्र के साझेदार देशों को उलझन में डाल सकती है, क्योंकि उनके ऊपर सहायता देने वाले देशों की मांगें पूरी करने का दबाव पड़ सकता है, यानी ऐसी मांगें पूरी करने का दबाव पड़ सकता है, जिनका उनकी अपनी प्राथमिकताओं से कोई लेना देना नहीं हो. इस तरह के हालातों में निश्चित तौर पर प्राप्तकर्ता देशों की विकास सहायता में दिलचस्पी कम हो जाती है और ऐसे मे ये साझेदारियां अपने मूल उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाती हैं. चौथा, कुछ साझेदार देश ऐसे हो सकते हैं, जो विकास सहायता के रूप में मिली राशि को इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी परियोजनाओं में ज़ल्द से ज़ल्द निवेश करने को प्राथमिकता दे सकते हैं, ज़ाहिर है कि ऐसा होने पर सतत विकास और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों का ख्याल नहीं रखा जाएगा. ऐसा होने पर केवल पर्यावरण को नुक़सान पहुंच सकता है, बल्कि स्थानीय लोगों एवं समुदायों को भी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है, जिससे दीर्घकालिक विकास पर असर पड़ सकता है. पांचवां, प्रतिस्पर्धी साझेदारियों में बहुपक्षीय सहयोग को दरकिनार कर देशों के साथ द्विपक्षीय सहयोग को प्राथमिकता दी जाती है. ऐसा होने पर एक पक्ष को दूसरे पर हावी होने का मौक़ा मिलता है, जिससे शक्ति संतुलन प्रभावित होता है. शक्ति संतुलन पर असर पड़ने से क्षेत्रीय स्तर पर एकजुटता और सहयोगात्मक फ्रेमवर्क को बरक़रार रखने में क्षेत्रीय संस्थानों को दिक़्क़त हो सकती है. ऐसी स्थिति में दूसरे देशों की तरफ से पेश होने वाली चुनौतियों का सामना करने की उनकी क्षमता पर भी असर पड़ सकता है. आख़िर में, हिंद-प्रशांत रीजन जैसे क्षेत्रों में चीन और अमेरिका की होड़ के बीच यह विकास पहलें ऐसी परियोजनाओं को बढ़ावा दे सकती हैं, जो भेदभाव बढ़ाती हों, यानी कुछ ख़ास क्षेत्रों और सामाजिक समूहों के हितों को तवज्जो देती हों. ज़ाहिर है कि इससे इस क्षेत्र में फैली मौज़ूदा ऊंच-नीच, यानी असमानताओं को और बढ़ावा मिलेगा.

 

निष्कर्ष 

 

इन सारी चुनौतियों के बावज़ूद इसमें कोई शक नहीं है कि टिकाऊ आर्थिक प्रगति को आगे बढ़ाने एवं जलवायु परिवर्तन और आर्थिक परेशानी जैसे देशों के साझा मुद्दों का समाधान तलाशने के लिए विकास सहयोग बेहद महत्वपूर्ण है. इसके साथ ही विकास सहयोग लाभकारी हो और इससे कोई नुक़सान नहीं हो, इसके लिए भागीदार देशों को पारदर्शी, सामंजस्यपूर्ण एवं समावेशी नज़रिए को प्रमुखता देने की ज़रूरत है. इसके अलावा, भागीदार देशों को समय-समय पर साझा परियोजनाओं का अच्छी तरह से मूल्यांकन करने और अपनी साझेदारी में विविधता लाने की भी आवश्यकता है. साथ ही, सहायता प्राप्त करने वाले देश को किसी एक डोनर देश पर अधिक निर्भरता को कम करने के लिए पारस्परिक संबंधों में संतुलन बनाने की भी ज़रूरत है. इसके अलावा, विकास साझेदारियों में समावेशिता एवं स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए सिर्फ़ स्थानीय मुद्दों और हितधारकों की भागीदारी को प्रमुखता दी जानी चाहिए, बल्कि पारस्परिक सहयोग से चल रही परियोजनाओं को सूझबूझ एवं संवेदनशीलता के साथ संचालित किया जाना चाहिए.


स्वाति प्रभु ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं.

 प्रत्नाश्री बसु ओआरएफ के रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम में एसोसिएट फेलो हैं.

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Authors

Swati Prabhu

Swati Prabhu

Dr Swati Prabhu is Associate Fellow with the Centre for New Economic Diplomacy at the Observer Research Foundation. Her research explores the interlinkages between development ...

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Pratnashree Basu

Pratnashree Basu

Pratnashree Basu is an Associate Fellow, Indo-Pacific at Observer Research Foundation, Kolkata, with the Strategic Studies Programme and the Centre for New Economic Diplomacy. She ...

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