Author : Roshni Kapur

Published on Jun 23, 2022 Updated 0 Hours ago

तालिबान के ख़िलाफ़ विरोध के नये ठिकानों का उदय हो रहा है. इनमें वो क्षमता है कि वो तालिबान के ख़िलाफ़ छोटे स्तर पर अभियान चला सकते हैं

अफ़ग़ानिस्तान में खड़ा होता तालिबान विरोधी मोर्चा: क्या यह एक छोटे स्तर के संघर्ष की शुरूआत है?

वैसे तो अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी के 10 महीने बीत चुके हैं लेकिन ज़्यादातर अफ़ग़ानी नागरिक अभी भी इस संगठन की वैधता को स्वीकार नहीं कर रहे हैं. ये साबित हो गया है कि तालिबान 2.0 अत्यंत रूढ़िवादी विचारधारा, नीतियों और परंपराओं के मामले में अपने पहले के रूप से बहुत अलग नहीं है. तालिबान सत्ता पर अपनी पकड़ और भी मज़बूत बनाने के लिए नीतियों को लागू कर रहा है जबकि ये नीतियां अच्छी शासन व्यवस्था और क़ानून के शासन को खोखला कर रही हैं. सार्थक बातचीत शुरू करने और सुरक्षा मुहैया कराने के बदले तालिबान के कट्टरपंथी सरकार का रुख़ अपने नागरिकों, ख़ास तौर पर महिलाओं और लड़कियों, की ज़िंदगी को नियम-क़ानून के दायरे में रखने की तरफ़ ले गए हैं. तालिबान की पीछे की ओर ले जाने वाली और एक धर्म-संप्रदाय की नीतियों ने देश में जातीय और सांप्रदायिक बंटवारे की स्थिति और भी ख़राब कर दी है. इसका नतीजा ये निकला है कि अफ़ग़ानिस्तान का संघर्ष ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है और अब इसने एक नया रूप अख्त़ियार कर लिया है. जब तालिबान एक छापेमार गुट से बदलकर एक वैध सरकार में परिवर्तित हो गया है, उस वक़्त विरोधी गुट तालिबान के ख़िलाफ़ हमले के ज़रिए अपनी मौजूदगी का एहसास करा रहे हैं. 

नई तालिबान विरोधी ताक़तें

लड़ाई के नये दौर के बीच क़रीब आधा दर्जन तालिबान विरोधी गुटों ने मार्च/अप्रैल 2022 के दौरान अपनी मौजूदगी का एहसास कराया. उनकी मौजूदगी का एलान इस बात का संकेत है कि वो सोचते हैं कि ज़मीनी हालात तालिबान के ख़िलाफ़ पूरी तरह से हमले के लिए उपयुक्त हैं. हालांकि कई गुटों ने सोशल मीडिया पर छोटे-छोटे वीडियो डालकर अपने वजूद के बारे में एलान किया. उनके संगठन के बारे में और उनकी ताक़त को लेकर बहुत कम जानकारी है. अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद की अगुवाई वाला नेशनल रेज़िस्टेंस फ्रंट ऑफ अफ़ग़ानिस्तान (एनआरएफ) सबसे प्रमुख तालिबान विरोधी विद्रोही गुट है. एनआरएफ दावा करता है कि उसके साथ कई हज़ार हथियारबंद लड़ाके हैं. ऐतिहासिक रूप से एनआरएफ पंजशीर और अंदराब घाटी में तालिबान का मुख्य विरोधी रहा है. पंजशीर घाटी कई दशकों से विद्रोह की जगह रही है. पंजशीर घाटी ने पहले 80 के दशक में सोवियत सेना का विरोध किया और फिर 90 के दशक में तालिबान का. एनआरएफ़ अपनी एक ऐसी छवि दुनिया के सामने रखना चाहता है कि उसने सोवियत सेना के ख़िलाफ़ जो सफलता हासिल की थी, वैसी ही सफलता दोहरा सकता है. हालांकि सोवियत सेना के ख़िलाफ़ उसको बाहरी समर्थन की वजह से कामयाबी मिल सकी थी. एनआरएफ दावे के साथ कह रहा है कि उसने 2021 में अपने विरोध की शुरुआत के समय से अब तक काफ़ी बढ़त हासिल की है. इसके लिए उसने 90 के दशक की ग़ैर-परंपरागत और गुरिल्ला स्टाइल रणनीति को अपनाया है. एनआरएफ ज़ोर देकर कहता है कि वसंत के महीने में उसके हमले सफल रहे हैं और वो शेख़ी बघारता है कि 12 प्रांतों- जिनमें बाग़लान, परवान, पंजशीर, काबुल, कपिसा, बदख़्शख़ान और ताखर शामिल हैं- में उसका अभियान चल रहा है. 

तालिबान की पीछे की ओर ले जाने वाली और एक धर्म-संप्रदाय की नीतियों ने देश में जातीय और सांप्रदायिक बंटवारे की स्थिति और भी ख़राब कर दी है. इसका नतीजा ये निकला है कि अफ़ग़ानिस्तान का संघर्ष ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा है और अब इसने एक नया रूप अख्त़ियार कर लिया है.

अफ़ग़ानिस्तान फ्रीडम फ्रंट की मौजूदगी मार्च 2022 में उस वक़्त बढ़ी जब इसने सोशल मीडिया पर अपने गठन का एलान किया. वैसे तो इस संगठन ने अपने नेता की जानकारी नहीं दी है लेकिन ख़बरों के मुताबिक़ पूर्व रक्षा मंत्री और सेना के प्रमुख रहे जनरल यासीन ज़िया इसका नेतृत्व कर रहे हैं. इस गुट ने बदख़्शख़ान से लेकर कंधार तक कई प्रांतों में तालिबान के ख़िलाफ़ कुछ हमलों की ज़िम्मेदारी ली है. जानकारों के मुताबिक़ अफ़ग़ानिस्तान इस्लामिक नेशनल एंड लिबरेशन मूवमेंट इकलौता बड़ा पश्तून गुट है. इसका नेतृत्व अब्दुल मतीन सुलेमानखैल के हाथों में है जो अफ़ग़ान सेना के विशेष बल के कमांडर रह चुके हैं. इस गुट का गठन तालिबान के द्वारा पूर्व सैनिकों की कथित हत्या के जवाब में फरवरी 2022 में हुआ था. कुछ और विरोधी गुट जिन्होंने हाल के दिनों में अपनी मौजूदगी का एहसास कराया है उनमें फ्रीडम एंड डेमोक्रेसी फ्रंट, सोल्जर्स ऑफ हज़ारिस्तान और फ्रीडम कॉर्प्स एंड लिबरेशन फ्रंट ऑफ अफ़ग़ानिस्तान शामिल हैं. लेकिन इन गुटों के नेतृत्व, काम करने के तरीक़ों और क्षमता के बारे में अभी ज़्यादा जानकारी नहीं मिल पाई है. 

लगभग 40 अफ़ग़ान सेनापति और निर्वासित राजनेता अंकारा में जमा हुए और उन्होंने मई 2022 में हाई काउंसिल ऑफ नेशनल रेज़िस्टेंस का गठन किया. इसका मक़सद ये दिखाना था कि  तालिबान को लेकर उनके विरोध के कुछ कूटनीतिक मायने भी हैं. हाई काउंसिल ऑफ नेशनल रेज़िस्टेंस के सदस्यों में बल्ख प्रांत के पूर्व गवर्नर अता मोहम्मद नूर, एनआरएफ के सदस्य अहमद वली मसूद और शिया नेता मोहम्मद मोहाक़िक़ शामिल हैं. इन्होंने तालिबान से अनुरोध किया है कि वो अपने अतीत के अनुभवों से सबक़ सीखे कि सभी लोगों को शामिल किए बिना प्रशासन चलाने से देश में एक और गृह युद्ध शुरू हो जाएगा. इन नेताओं ने तालिबान को मेल-मिलाप की एक ईमानदार प्रक्रिया शुरू करने के लिए भी कहा है जिसमें अलग-अलग हिस्सेदारों को शामिल किया जाए. 

अफ़ग़ानिस्तान फ्रीडम फ्रंट की मौजूदगी मार्च 2022 में उस वक़्त बढ़ी जब इसने सोशल मीडिया पर अपने गठन का एलान किया. वैसे तो इस संगठन ने अपने नेता की जानकारी नहीं दी है लेकिन ख़बरों के मुताबिक़ पूर्व रक्षा मंत्री और सेना के प्रमुख रहे जनरल यासीन ज़िया इसका नेतृत्व कर रहे हैं.

सफल विद्रोह के लिए ज़रूरी चीज़ें

तालिबान विरोधी इन गुटों की सफलता या असफ़लता दो चीज़ों से तय होगी: दूसरे देशों से इन्हें किस हद तक समर्थन मिलता है और एक छतरी के नीचे एकजुट होने की इनकी क्षमता कितनी है. 90 के दशक में रूस, ईरान और भारत ने तालिबान के ख़िलाफ़ लड़ाई में नॉर्दर्न एलायंस का समर्थन किया था लेकिन इस बार इन देशों ने उसी तरह का समर्थन नहीं मुहैया कराया है. ताजिकिस्तान मध्य एशिया का इकलौता देश है जिसने खुलकर तालिबान का विरोध किया है और निर्वासित अफ़ग़ान नेताओं को पनाह दी है. लेकिन ये साफ़ नहीं है कि पनाह देने और उनके मक़सद के लिए शाब्दिक समर्थन के अलावा ताज़िकिस्तान तालिबान विरोधी इन गुटों को वित्तीय और सैन्य मदद मुहैया करा रहा है या नहीं. अफ़ग़ानिस्तान मामलों के विशेषज्ञ कबीर तनेजा की दलील है कि बाहरी देशों से छोटी सी मदद नहीं मिलने से किसी विद्रोही गुट के द्वारा सफल अभियान चलाने की क्षमता कमज़ोर हो सकती है (हालांकि इस तरह का समर्थन नहीं होने से ये अपने आप पूरी तरह से नाकामी की ओर नहीं ले जाता है). इसके अलावा, स्वतंत्र रूप से इस बात की पुष्टि करना मुश्किल है कि तालिबान विरोधी इन गुटों का वजूद किस हद तक है, क्या इन गुटों के द्वारा हमलों की ज़िम्मेदारी लेने का दावा झूठा है, वो किस हद तक लड़ रहे हैं और लड़ाई में हताहत होने वाले उनके सदस्यों की संख्या कितनी सटीक है. वैसे, तो तालिबान अपने सदस्यों के मारे जाने की संख्या को कम करके बताता है लेकिन ये भी हो सकता है कि तालिबान विरोधी गुट प्रोपेगैंडा चलाने के लिए अपनी क्षमता के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं. 

वैसे तो तालिबान विरोधी सभी गुटों का एक साझा मक़सद है- तालिबान को सत्ता से बाहर करना लेकिन उनके भीतर एक छतरी के नीचे इकट्ठा होकर एकजुटता और तालमेल की भावना नहीं है. इनमें से कई विरोधी गुटों को इस बात का ग़ुरूर है कि पूर्व सुरक्षा बलों से जुड़े जवानों को शामिल करने और तालिबान के ख़िलाफ़ हमले की तीव्रता के मामले में वो बेहद सक्षम हैं. ये गुट अपनी ऐसी छवि भी पेश कर रहे हैं कि तालिबान विरोधी आंदोलन की अगुवाई वो कर रहे हैं और इस कोशिश में वो दूसरे गुटों के द्वारा जारी बयानों को खारिज कर रहे हैं. ये देखा जाना बाक़ी है कि इससे उनके सीमित संसाधनों को तालिबान के ख़िलाफ़ एक व्यापक गठबंधन बनाने में साथ लाया जा सकता है या नहीं, ऐसा गठबंधन जिसको आम लोग स्वीकार करें और समर्थन दें. 

गुरिल्ला अंदाज़ में उनका विरोध उसी तरह का हो सकता है जैसा 2021 में सत्ता पर कब्ज़े से पहले तालिबान का था. वैसे ये गुट तालिबान के द्वारा शांति और स्थिरता लाने की कोशिशों में रुकावट बन सकते हैं लेकिन इनके द्वारा तालिबान की शासन व्यवस्था के वजूद पर ख़तरा बनने जैसी बात नहीं लगती.

बहुत अच्छी स्थिति में भी औसत समय में तालिबान विरोधी ये गुट बेहतर हथियारों से लैस और ज़्यादा संख्या वाले तालिबान के ख़िलाफ़ छोटे स्तर का ही ख़तरा बन सकते हैं. उनके पास तालिबान के सैनिकों पर घात लगाकर हमला करने और उनकी हत्या की क्षमता है और 2022 में ऐसे हमलों की संख्या में बढ़ोतरी हो सकती है. गुरिल्ला अंदाज़ में उनका विरोध उसी तरह का हो सकता है जैसा 2021 में सत्ता पर कब्ज़े से पहले तालिबान का था. वैसे ये गुट तालिबान के द्वारा शांति और स्थिरता लाने की कोशिशों में रुकावट बन सकते हैं लेकिन इनके द्वारा तालिबान की शासन व्यवस्था के वजूद पर ख़तरा बनने जैसी बात नहीं लगती. लंबे समय में कई बातें इन विद्रोही गुटों के पक्ष में पलड़ा भारी कर सकती हैं जिनमें एक छतरी के नीचे एकजुट होना, ज़्यादा बाहरी समर्थन, बड़ी संख्या में लड़ाकों की भर्ती और तालिबान के ख़िलाफ़ असंतोष की वजह से आम जनता का समर्थन हासिल होना शामिल हैं. 

निष्कर्ष 

अफ़ग़ानिस्तान की हुकूमत को चलाने का तालिबान का दूसरा अनुभव भी पहले कार्यकाल की तरह ही अराजक और मुश्किल दिख रहा है. इसकी वजह अंतर्राष्ट्रीय एवं घरेलू मान्यता हासिल करने की चुनौती, बिगड़ता आर्थिक एवं मानवीय संकट और अलग-अलग गुटों का विरोध है. ज़्यादातर महिलाओं को पढ़ाई से दूर रखने, लगभग सभी महिलाओं के लिए बुर्क़ा पहनना अनिवार्य करने और ज़रूरी हालात को छोड़ उन्हें घर में ही बने रहने के लिए अनुरोध करने जैसी दमनकारी नीतियों को लागू करने से तालिबान के ख़िलाफ़ लोगों का ग़ुस्सा और बढ़ेगा. तालिबान को इस्लामिक स्टेट ऑफ खोरासान प्रॉविंस (आईएसकेपी) से भी विरोध का सामना करना पड़ रहा है जो अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान के अलावा ईरान और भारत के कुछ हिस्सों में ख़िलाफ़त की स्थापना करना चाहता है. 

ताज़िकिस्तान इस क्षेत्र में इकलौता ऐसा देश है जिसने तालिबान के सत्ता पर काबिज़ होने और पंजशीर घाटी में कथित मानवाधिकार उल्लंघन की सार्वजनिक रूप से आलोचना की है. 

द्विपक्षीय स्तर पर अफ़ग़ानिस्तान और ताज़िकिस्तान के बीच संबंध बिगड़ सकते हैं क्योंकि ताज़िकिस्तान पर आरोप लगते हैं कि उसने कुछ निर्वासित अफ़ग़ान राजनेताओं और एनआरएफ के सदस्यों को पनाह मुहैया कराना जारी रखा है. ताज़िकिस्तान इस क्षेत्र में इकलौता ऐसा देश है जिसने तालिबान के सत्ता पर काबिज़ होने और पंजशीर घाटी में कथित मानवाधिकार उल्लंघन की सार्वजनिक रूप से आलोचना की है. वैसे ताजिकिस्तान की कमज़ोरी भी सामने है क्योंकि उसके यहां के उग्रवादियों के तालिबान में शामिल होने का ख़तरा है. वो तालिबान से ट्रेनिंग हासिल करके ताजिकिस्तान में सरकार विरोधी हमलों को अंजाम दे सकते हैं. मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाले रूस ने दोनों पक्षों से ऐसे क़दम उठाने का अनुरोध किया है जिससे कि उनकी सीमा पर बढ़ता तनाव कम किया जा सके क्योंकि ऐसी ख़बरें आ रही हैं कि दोनों देश सीमा पर सेना को इकट्ठा कर रहे हैं. वैसे तालिबान ताजिकिस्तान के समर्थन में रूस के दखल का ख़तरा नहीं उठा सकता है.  

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