Author : Garima Mohan

Published on Mar 04, 2021 Updated 0 Hours ago

अभी जिन ट्रेंड्स में संभावना दिख रही है, यूरोप को उनका विस्तार करके जल्द अमल भी करना होगा

यूरोप की नवचेतना के बीच, ब्रसेल्स स्ट्रैटेजिक ऑटोनमी पर किया गया वादा निभाएगा या नहीं?

पिछले साल यूरोप ने अपनी विदेश नीति को लेकर काफी आत्मविश्लेषण किया. कोरोना वायरस संकट की वजह से चीन को लेकर यूरोप का नज़रिया बदला है और उसके साथ रिश्तों में उतार जारी है. यूं तो जो बाइडेन के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने से समूचे यूरोप ने राहत की सांस ली, लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति काल में रिश्तों को जो नुकसान पहुंचा था, उसे देखते हुए बहुत जल्द पहले जैसी गर्मजोशी की उम्मीद नहीं दिख रही. यूरोप में स्ट्रैटिजिक ऑटोनमी पर खूब बातचीत हो रही है और इसे समझने का प्रयास भी कि आख़िर इसका मतलब क्या है? यूरोप में कई यह बात समझ चुके हैं कि न सिर्फ़ उन्हें अपनी सुरक्षा की अधिक जिम्मेदारियां उठानी होंगी बल्कि पिछला साल जैसी चुनौतियां लेकर आया, उन्हें देखते हुए नई विदेश नीति भी बनानी होगी.

यूरोप को आगे चलकर सबसे अधिक दिक्कत चाइना पॉलिसी बनाने में होगी. आर्थिक मामलों को लेकर चीन के प्रति यूरोप में नज़रिया सख्त़ हो रहा है. दोनों के बीच लंबे समय के कई चीज़ों को लेकर विवाद रहा है. इनमें चीन में दी जा रही सरकारी सब्सिडी, इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी, चीन का स्ट्रैटिजिक इंफ्रास्ट्रक्चर को खरीदना, वहां मार्केट एक्सेस में आ रही गिरावट और यूरोप की कंपनियों को चीन की कंपनियों के साथ बराबरी का मुक़ाबला न करना जैसे मुद्दे शामिल हैं. कोरोना वायरस संकट और चीन की यूरोप में मास्क डिप्लोमेसी, हॉन्गकॉन्ग और शिंगजियांग में सख्त़ी, भारत के साथ सीमा-विवाद और हाल में ऑस्ट्रेलिया के साथ व्यापार युद्ध. इन्हें देखकर चीन के प्रति यूरोप आशंकित है. आज वह चीन के साथ समझौते को आसानी से राज़ी नहीं होने वाला.

यूरोप को आगे चलकर सबसे अधिक दिक्कत चाइना पॉलिसी बनाने में होगी. आर्थिक मामलों को लेकर चीन के प्रति यूरोप में नज़रिया सख्त़ हो रहा है. दोनों के बीच लंबे समय के कई चीज़ों को लेकर विवाद रहा है. 

अच्छी बात यह है कि यूरोप को इसका अहसास हो चुका है कि उसे चीन के साथ संबंधों को लेकर एक किस्म की आक्रामकता दिखानी होगी. उसने इस सिलसिले में बाइडेन सरकार को एक प्रस्ताव दिया है. इसमें चीन पर यूरोपियन यूनियन और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय संवाद की बात कही गई है. इसका मतलब यह है कि वह अमेरिका की नई सरकार के साथ मिलकर काम करने को तैयार है. जर्मनी सहित यूरोप के कई देश भी बाइडेन सरकार के साथ मिलकर काम करने को तैयार हैं और वे चीन के प्रति साझा रुख़ अपनाना चाहते हैं. कइयों को यह बात मालूम है कि डोनाल्ड ट्रंप की तुलना में बाइडेन का रुख़ नरम रह सकता है, लेकिन यह भी तय है कि सुरक्षा और अन्य मामलों में यूरोपीय देशों से अधिक संसाधन लगाने की मांग अमेरिका की नई सरकार भी करेगी.

चीन का विकल्प

एक और अच्छा संकेत मिला है. यूरोप को इस बात का अहसास हो चुका है कि चीन पर उसकी निर्भरता किस कदर बढ़ चुकी है और उसे इसे कम करने की ज़रूरत है. वह चीन से जो सामान खरीद रहा है, उनके लिए उसे दूसरे देशों में विकल्प तलाशने होंगे. उसे आर्थिक और राजनीतिक तौर पर इस जोख़िम को घटाना होगा. यह संयोग नहीं कि भारत-प्रशांत सहयोग को यूरोप में पसंद किया जा रहा है, जबकि इसके साथ-साथ वहां चीन की आलोचना भी तेज़ हो रही है.

चीन के साथ मजबूत आर्थिक रिश्ते रखने वाला जर्मनी अगर आज एशिया में पार्टनरशिप को चीन के साथ दूसरे देशों में बढ़ाने की पहल कर रहा है तो इसे मामूली बात समझना गलती होगी. उसने तो इस कॉन्सेप्ट के लिए डिटेल्ड गाइडलाइंस तक जारी की हैं. कई यूरोपीय देश इस विचार के भी समर्थक हैं कि चीन को लेकर जो जर्मनी ने किया है, वह समूचे यूरोपीय संघ को एक नीति के तहत करना चाहिए. उसे अपनी एशिया स्ट्रैटेजी को अपग्रेड करना चाहिए.

असल में आज इस क्षेत्र के देश जिन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, यूरोप को कल इनसे जूझना होगा. भारत-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक, सुरक्षा और तकनीक के मसले एक दूसरे से गूंथे हुए हैं और इस क्षेत्र में जो भी घटनाक्रम सामने आएगा, उसका यूरोप पर सीधा असर होगा. 

इस कदम की अहमियत इसमें नहीं है कि यूरोप इस सिलसिले में दिए गए नाम को अपनाता है. इससे बड़ी बात तो यह होगी कि कई यूरोपीय देशों को इसका अहसास हो कि चीन नीति पर बहस तब तक अधूरी रहेगी, जब तक यह न देखा जाए कि भारत-प्रशांत क्षेत्र में चीन का व्यवहार कैसा रहता है. असल में आज इस क्षेत्र के देश जिन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, यूरोप को कल इनसे जूझना होगा. भारत-प्रशांत क्षेत्र में आर्थिक, सुरक्षा और तकनीक के मसले एक दूसरे से गूंथे हुए हैं और इस क्षेत्र में जो भी घटनाक्रम सामने आएगा, उसका यूरोप पर सीधा असर होगा.

यूरोप को रणनीतिक स्वायत्तता (स्ट्रैटिजिक ऑटोनॉमी) पर अमल करने के लिए पहले तो इन ट्रेंड्स को लेकर सहमति बनानी होगी और फिर 2021 में उन पर जल्द अमल करना होगा. यूरोपियन यूनियन के ‘जियोपॉलिटिकल कमिशन’ का ध्यान अब तक यूरोपियन ग्रीन डील और इसकी डिजिटल स्ट्रैटिजी पर रहा है. लेकिन जब तक बेल्ड एंड रोड इनीशिएटिव दुनिया भर में एक मानक तय कर रहा है, तब तक उसके ये लक्ष्य हासिल नहीं होंगे. अगर यूरोप विदेश नीति में प्रभावशाली ताकत बनना चाहता है या वह अंदरूनी तौर पर भी लक्ष्य हासिल करना चाहता है तो उसे कई क्षेत्रों में चीन का विकल्प पेश करना होगा. इनमें कोरोना वायरस से उबरने और रिकवरी, इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश, तकनीक और सप्लाई चेन जैसी चीजें शामिल हैं. इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए उसे अमेरिका के साथ काम करने का रास्ता तलाशना होगा. साथ ही, ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत के साथ भारत-प्रशांत क्षेत्र में गठजोड़ भी स्थापित करना होगा.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.