Published on Sep 07, 2019 Updated 0 Hours ago

मई 2019 लोकसभा चुनाव में भारी जीत के बाद यह देखना होगा कि अगले पांच साल में सरकार सहकारी संघवाद के क्षेत्र में क्या एजेंडा तय करती है.

भारत में सहकारी संघवाद: सरकार को बहुत काम करना होगा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में कामकाज संभालने के बाद कहा था कि वह केंद्र और राज्यों के बीच की खाई को पाटना चाहते हैं. गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के दौरान के अपने तज़ुर्बे की ओर इशारा करते हुए उन्हें राज्यों से ऐसा ढांचा बनाने की अपील की थी, जिससे केंद्र और राज्य के बीच कम से कम टकराव हों. मोदी ने उनसे सहकारी या सहयोगात्मक, प्रतिस्पद्धी संघवाद (को-ऑपरेटिव, कॉम्पिटिटिव फेडरलिज्म) के ज़रिये प्रगति और समृद्धि की राह पर मिलकर चलने का आह्वान किया था. इस मामले में उनके पहले कार्यकाल का रिकॉर्ड कैसा रहा है, क्या मोदी इसकी मुख्य चुनौती को दूर कर पाए?

इस मामले में सरकार का पहला यादगार कदम योजना आयोग को 2014 में ख़त्म करने का फैसला था, जो सेंट्रलाइज्ड पॉलिसी बनाने में तब तक प्रमुख भूमिका निभाता आया था. प्रधानमंत्री ने इस सिलसिले में अपने भाषण में कहा था कि राज्यों को योजना आयोग से बहुत शिकायतें रही हैं. मोदी ने कहा था, ‘मुख्यमंत्री रहने के दौरान मुझे भी ऐसा ही एक्सपीरियंस हुआ था.’ इसके तुरंत बाद योजना आयोग की जगह सरकारी थिंकटैंक नीति आयोग का गठन हुआ और उसे केंद्रीय योजनाओं को लागू करने में राज्यों के साथ ‘तालमेल’ बनाने को कहा गया.

नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) सरकार का केंद्र और राज्यों के संबंधों को बेहतर बनाने की दिशा में दूसरा बड़ा कदम 14वें वित्त आयोग की सिफ़ारिशों को स्वीकार करना था, जिसमें राज्यों को केंद्र की तरफ से मिलने वाली रकम में भारी बढ़ोतरी की बात कही गई थी. इससे एक झटके में टैक्स से केंद्र को होने वाली आमदनी में राज्यों का हिस्सा 2015 में 32 से बढ़कर 42 प्रतिशत हो गया. सरकार ने केंद्र की फंडिंग से चलने वाली योजनाओं में भी कुछ बदलाव किए, जिससे राज्यों की इनके बजट को लेकर स्वायत्तता बढ़ी.

तीसरा और शायद सबसे निर्णायक कदम 2016 में गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) कानून को पास करना और अगले साल जुलाई में उसे लागू करना था. अप्रत्यक्ष कर के बंटवारे से जुड़े फैसले लेने के लिए जीएसटी काउंसिल बनाई गई, जो सहकारी संघवाद की एक और मिसाल थी. इसमें कोई शक नहीं है कि जीएसटी को कहीं बेहतर तरीके से लागू किया जा सकता था, लेकिन इसके बावजूद यह सही दिशा में उठाया गया एक बड़ा कदम था.

इन कदमों का देश के संघीय ढांचे को मजबूत बनाने पर सकारात्मक और टिकाऊ असर हुआ है. इनके ज़रिये राज्यों को मिलने वाले संसाधनों में बढ़ोतरी हुई, उन्हें अपनी सामाजिक-आर्थिक योजनाएं बनाने और उन्हें लागू करने की आज़ादी मिली. साथ ही, जीएसटी काउंसिल जैसा नया मंच भी मिला. इन सबके बावजूद मोदी सरकार के पहले पांच साल के कार्यकाल में कई क्षेत्रों में केंद्र के बढ़ते दखल के ट्रेंड भी दिखे.

  1. केंद्र सरकार के खज़ाने में आनी वाली रकम में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाने से केंद्र को फंड की कमी हो गई. इस मुश्किल से निपटने के लिए उसने कई सरचार्ज और सेस (उपकर) लगा दिए, जिससे मिलने वाली रकम को राज्यों के साथ साझा नहीं करना पड़ता. लिहाज़ा, टैक्स से मिलने वाली जिस रकम को केंद्र सरकार राज्यों के साथ बांटती है, उसमें कमी आई.
  2. एनडीए सरकार ने केंद्र की फंडिंग से चलने वाली कई बड़ी, फ्लैगशिप योजनाएं लागू कीं. यह उसके सत्ता के विकेंद्रीकरण के वादे से मेल नहीं खाता. इन योजनाओं के लक्ष्य तय करने और उन्हें तैयार करने में राज्यों की कोई भूमिका नहीं है. मिसाल के लिए, केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में ‘आयुष्मान भारत’ नाम की विशाल योजना शुरू की है, जिसे विपक्षी दलों के शासन वाले कई राज्य अपनी अधिकारक्षेत्र में दखल मानते हैं. ओडिशा, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना, कर्नाटक और दिल्ली ने इसे लागू करने से इनकार कर दिया था. केंद्र सरकार ने पीएम-किसान नाम की योजना के ज़रिये किसानों की वित्तीय मदद शुरू की है. इस पर भी राज्यों की राय नहीं ली गई. इस योजना को भी केंद्र के बढ़ते दखल का प्रतीक बताया जा रहा है. राज्यों के अधिकारक्षेत्र में आने वाले विषयों से जुड़ी योजनाओं पर केंद्र की फंडिंग पिछले पांच वर्षों में काफी तेजी से बढ़ी है और 2019-20 में इसके 12 प्रतिशत तक रहने का अनुमान है. एस्पिरेशनल डिस्ट्रिक्ट्स प्रोग्राम भी इसी दिशा में एक और कदम है, जिसमें देश के 115 सबसे पिछड़े जिलों को शामिल किया गया है. इस योजना को तैयार करने और उसके मुख्य लक्ष्य तय करने में भी राज्य सरकारों की बहुत कम या न के बराबर भूमिका है.
  3. योजना आयोग को ख़त्म करके केंद्र की मनमानी शक्तियों को कम करने की दिशा में बड़ी पहल हुई थी. इससे जो गैप बना, उसे भरने के लिए नीति आयोग का गठन किया गया. इसे केंद्र और राज्यों के बीच तालमेल बेहतर बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी. हालांकि इसकी अनदेखी हुई है और आयोग इस पैमाने पर असफल रहा है. उसका कामकाज पॉलिसी थिंकटैंक का रहा है और विकास योजनाओं के लिए फंड ट्रांसफर के लिए वह जवाबदेह नहीं है. इसलिए, विपक्षी दलों के कई मुख्यमंत्री नीति आयोग की बैठकों में शामिल होना भी जरूरी नहीं समझते.
  4. पिछले कुछ वर्षों में कई अन्य घटनाक्रम भी सामने आए हैं, जिनसे केंद्र का दखल ऐसे मामलों में बढ़ने का संकेत मिलता है. मिसाल के लिए, भारत जैसे विविधता भरे देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के मोदी सरकार के प्रस्ताव को कई राज्य चुनाव के ‘केंद्रीकरण’ के तौर पर देख रहे हैं. ‘एक देश, एक चुनाव’ हमारे संघीय ढांचे की भावना से मेल नहीं खाता क्योंकि इससे क्षेत्रीय पार्टियों की कीमत पर देश की बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को लाभ होगा. 15वें वित्त आयोग के गठन को लेकर भी एक बड़ा विवाद खड़ा हुआ. उसे 2011 की जनगणना के आधार पर राज्यों को संसाधनों के बंटवारे पर काम करने को कहा गया है, न कि 1971 की जनगणना के आधार पर. दक्षिण भारत के राज्यों ने इसका विरोध किया है. उनका मानना है कि इससे उत्तर भारतीय राज्यों को फायदा और उन्हें नुकसान होगा.

एनडीए सरकार के पहले पांच साल के कार्यकाल में सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ. राज्यों को अधिक संसाधन मिले और खर्च करने के मामले में भी उन्हें अधिक आज़ादी मिली. इसके साथ ही राज्यों के अधिकार में आने वाले क्षेत्रों में केंद्र का दखल भी बढ़ा है. मई 2019 लोकसभा चुनाव में भारी जीत के बाद यह देखना होगा कि अगले पांच साल में सरकार सहकारी संघवाद के क्षेत्र में क्या एजेंडा तय करती है. योजना आयोग के ख़त्म होने के बाद राज्यों के हाथ से वह संस्थागत मंच निकल गया है, जिसके ज़रिये वह केंद्र के ख़िलाफ़ अपनी शिकायतें या विरोध दर्ज़ कराते थे. ऐसे में केंद्र और राज्यों के बीच खाई पाटने के लिए और संस्थानों की ज़रुरत है. इसलिए सरकार को मरणासन्न पड़े ISC को पुनर्जीवित कर और उसे सशक्त बनाकर उसके ज़रिये सहकारी संघवाद को बढ़ावा देना चाहिए.था. ये इस कड़ी का तीसरा आर्टिकल है.

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