Author : Hari Bansh Jha

Published on Feb 27, 2018 Updated 5 Days ago

नेपाल में पहली बार लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई वाम-मोर्चा सरकार जल्दी ही गठित होने जा रही है। इसे ले कर देश की जनता में काफी उम्मीदें हैं।  

भारी विजय के बाद क्या वाम दल नेपाल में बेहतर शासन दे पाएंगे?
फोटो: जिम होल्म्स /सीसी बीवाई 2.0

लगभग नौ महीने से, नेपाल चुनाव की गिरफ्त में रहा है। इसकी शुरुआत मई, 2017 में ही हो गई थी और यह 2018 के पहले सप्ताह तक चलता रहा। संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक यहां तीन स्तरीय चुनाव की व्यवस्था कायम है। ग्राम परिषद/नगर पालिका, राज्य विधानसभा और संघीय संसद। 14 मई, 28 जून और 18 सितंबर, 2017 को तीन चरण में ग्राम परिषद और नगर पालिकाओं की 753 इकाइयों के लिए चुनाव हुए। इसके तुरंत बाद संघीय संसद और राज्यों की विधानसभाओं के लिए चुनाव आयोजित किए गए, जो साथ-साथ 26 नवंबर और 7 दिसंबर को हुए। इसी तरह हाल ही में 7 फरवरी को संसद के ऊपरी सदन यानी राष्ट्रीय परिषद के भी चुनाव हो गए। अब देश को उम्मीद है कि पहली लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई वामपंथी मोर्चा की सरकार स्थापित होगी, जिसने ना सिर्फ संघीय संसद में बल्कि सात में से छह राज्यों की विधानसभाओं में भी अपना परचम लहरा दिया है।

स्थानीय स्तर के चुनाव

स्थानीय स्तर के चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल- यूनीफाइड मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट (सीपीएन-यूएमएल) नेपाल में एक मजबूत शक्ति के तौर पर उभरी। इसने ग्राम परिषद और नगर पालिकाओं के चेयरपरसन/मेयर की कुल 753 सीटों में से 39 फीसदी सीटें हासिल कीं। इसके बाद नेपाली कांग्रेस (एनसी) रहीं, जिसने 35 फीसदी सीटें जीतीं (टेबल नंबर- 1)। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल- माओइस्ट सेंटर (सीपीएन-एमसी) ने 14 प्रतिशत सीटें जीत कर खुद को तीसरी सबसे बड़ी शक्ति के तौर पर स्थापित किया। मधेश-आधारित दो प्रमुख पार्टियों फेडरल सोसलिस्ट फोरम नेपाल (एफएसएफएन) और राष्ट्रीय जनता पार्टी नेपाल (आरजेपीएन) ने कुल सीटों में से चार और तीन प्रतिशत सीटें हासिल कीं।

स्थानीय स्तर के चुनाव आयोजित होने से पहले, एफएसएफएन और आरजेपीएन दोनों ने ही देश में चुनाव का विरोध किया था। इनका कहना था कि नया विवादास्पद संविधान जिसे 20 सितंबर, 2015 को लागू किया गया था, वह मधेशियों, तारू और जनजातियों जैसे विभिन्न वंचित तबकों के मुद्दों का समाधान करने में नाकाम रहा है। बाद में संदिग्ध परिस्थितियों में उपेंद्र यादव के नेतृत्व वाले एफएसएफएन ने स्थानीय स्तर के चुनावों में भाग लेने का फैसला किया, जबकि मधेश-आधारित दूसरी पार्टियां इसके खिलाफ ही थीं। दूसरी तरफ महंत ठाकुर के नेतृत्व वाले आरजेपीएन ने स्थानीय चुनाव के पहले दो चरण के चुनावों का बहिष्कार किया। लेकिन बाद में इसने तीसरे चरण में भाग लेने का फैसला किया। इसे यह फैसला इसलिए करना पड़ा क्योंकि पार्टी कार्यकर्ताओं का मूड तेजी से बदल रहा था और साथ ही सरकार ने उनकी मांगों में से कुछ पूरी भी कर दी थीं।

पहले दो चुनाव, जिनमें एफएसएफएन ने स्थानीय चुनावों में भाग लिया था, पार्टी को लोगों ने उसी तरह ठुकरा दिया था, जैसे बाबूराम भट्टराई के नेतृत्व वाली नया शक्ति पार्टी को पहाड़ी और तराई दोनों इलाकों में नकार दिया गया था। लेकिन राज्य संख्या दो में स्थानीय स्तर के चुनावों में एफएसएफएन और आरजेपीएन दोनों ने ही काफी बढ़त हासिल की।

ध्यान देने की बात है कि स्थानीय चुनावों के नतीजों ने नेपाल की दोनों प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों सीपीएन-यूएमएल और सीपीएन-एमसी को यह संदेश दे दिया कि नेपाली राजनीति में वे अहम ताकत हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि दोनों पार्टियों ने मिल कर ग्राम पंचायत और नगर पालिकाओं के चेयरपरसन/मेयर के 53 फीसदी पद जीते थे।

सूबे और संसद स्तर के चुनाव

स्थानीय चुनाव के इस नतीजे से उत्साहित हो कर, दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों ने अक्तूबर, 2017 के पहले सप्ताह में चुनावी गठबंधन स्थापित कर लिया। इसके बाद सूबे और संघ के संसदीय चुनाव होने थे। उन्होंने यह फैसला भी किया कि वे एक साथ सीपीएन-यूएमएल के एक ही चुनाव चिह्न ‘सूर्य’ पर लड़ेंगे। इसके अलावा वे सूबे और संघ के संसदीय चुनाव पूरे हो जाने के बाद दोनों पार्टियों के विलय के लिए भी तैयार हो गए।

सीपीएन-एमसी ने सीपीएन-यूएमएल के साथ गठबंधन कर लिया, जबकि यह शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व वाली एनसी सरकार में भी गठबंधन में थी। इसलिए कुछ लोगों ने इसे ‘अपवित्र गठबंधन’ भी करार दिया। एक सामान्य धारणा यह भी थी कि दोनों प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच गठबंधन चीन की दिमाग की उपज था जो दोनों प्रतिद्वंद्वी कम्युनिस्ट पार्टियों की ताकत को एकजुट कर नेपाल में अपनी जड़ें गहरी करना चाहता था। [1]

कम्युनिस्ट गठबंधन के आकार लेने के तुरंत बाद, एनसी ने भी दो प्रमुख मधेसी पार्टियों एफएसएफएन और आरजेपीएन के साथ लोकतांत्रिक गठबंधन बनाने के लिए कदम उठाए। लेकिन जब सूबे और संघीय संसद के चुनाव हुए तो यह गठबंधन चल नहीं पाया। दूसरी तरफ, एफएसएफएन और आरजेपीएन जो स्थानीय चुनाव के दौरान एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोके खड़े थे, उन्हें जल्दी ही चुनावी गठबंधन की अहमियत समझ में आ गई थी।

आपसी सहमति के तहत एफएसएफएन और आरजेपीएन ने सूबे और संघीय संसद के चुनाव 50:50 के अनुपात में लड़े। ठीक उसी तरह जैसे कि सीपीएन-यूएमएल और सीपीएन-एमसी ने 60:40 के अनुपात में लड़े।

निम्न सारिणी दर्शाती है कि सीपीएन-यूएमएल देश में सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के तौर पर उभरी और संघीय संसद की कुल 165 सीटों में से 48 प्रतिशत जीतीं, जबकि उसके बाद रही सीपीएन-एमसी (22 प्रतिशत)। उधर, एनसी (14 प्रतिशत), आरजेपीएन (7 प्रतिशत), एफएसएफएन (6 प्रतिशत) और अन्य (3 प्रतिशत) कम ही सीट पा सके। सीपीएन-यूएमएल और सीपीएन-एमसी को मिला दिया जाए तो इन्होंने संघीय संसद में कुल 70 प्रतिशत सीटें हासिल कीं। सूबों की विधानसभाओं में भी सीपीएन-यूएमएल ने कुल 330 सीटों में 73 प्रतिशत सीटें हासिल कीं और उसके बाद सीपीएन-एमसी रही जिसने 22 प्रतिशत सीटें जीतीं। जबकि एनसी (12 प्रतिशत) और एफएसएफएन (7 प्रतिशत) और आरजेपीएन (5 प्रतिशत) सीटों पर रहीं।

* अन्य में शामिल हैं आरपीपी, नया शक्ति, जनमोर्चा, नेपाल मजदूर किसान और स्वतंत्र उम्मीदवार

एफपीटीपी और पीआर व्यवस्था पर आधारित संघीय संसद के नतीजे 

संघीय संसद में सीपीएन-यूएमएल एफपीटीपी और पीआर व्यवस्था दोनों को मिला कर कुल 275 सीटों में से 44 फीसदी हासिल कर के सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी, जबकि एनसी को 23 प्रतिशत सीटें मिलीं। सीपीएन-एमसी (19 प्रतिशत) और आरजेपीएन (6 प्रतिशत) पर रहे (टेबल संख्या 3)।

* अन्य में शामिल हैं आरपीपी, नया शक्ति, जनमोर्चा, नेपाल मजदूर किसान और स्वतंत्र उम्मीदवार।

एफपीटीपी और पीआर व्यवस्था पर आधारित सूबों की विधानसभाओं के नतीजे 

सूबों की विधानसभाओं में एफपीटीपी के तहत 330 सीटें और पीआर सिस्टम के तहत बाकी की 220 सीटें घोषित की गई थीं। इसी तरह सात सूबों में एफपीटीपी और पीआर दोनों व्यवस्थाओं में सीपीएन-यूएमएल ने 44 फीसदी सीटें जीतीं, जबकि एनसी (21 प्रतिशत) दूसरे स्थान पर रही। इसी तरह सीपीएन-एमसी (20 प्रतिशत), एफएसएफएन (7 प्रतिशत), आरजेपीन (5 प्रतिशत) और अन्य (3 प्रतिशत) की स्थिति रही (टेबल संख्या 4)। इस तरह सीपीएन-यूएमएल और सीपीएन-एमसी का वाम मोर्चा 64 प्रतिशत सीटों पर कामयाब रहा। एनसी (21 प्रतिशत), एफएसएफएन और आरजेपीएन (12 प्रतिशत) उसके बाद की स्थित पर रहे।

*अन्य में शामिल हैं बिबेकशील सझा पार्टी, आरपीपी, नया शक्ति पार्टी, राष्ट्रीय जनमोर्चा, नेपाल मजदूर किसान पार्टी, राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी (डेमोक्रेटिक), नेपाल संघीय समाजवादी पार्टी, संघीय लोकतांत्रिक राष्ट्रीय मंच और स्वतंत्र उम्मीदवार। 

एफपीटीपी और पीआर व्यवस्था में सूबे-वार स्थिति

निम्न टेबल दिखाती है कि सीपीएन-यूएमएल और सीपीएन-एमसी को साथ मिला कर राज्य 1 में 71 प्रतिशत सीटें मिलीं, जबकि राज्य 3 में उन्हें 74 प्रतिशत सीटें मिलीं। इसी तरह राज्य 4, 5, 6 और 7 में उन्हें क्रमशः 66 प्रतिशत, 70 प्रतिशत, 85 प्रतिशत और 73 प्रतिशत सीटें मिलीं। राज्य संख्या 2 में एफएसएफएन और आरजेपीएन के गठबंधन को साधारण बहुमत मिला और 51 प्रतिशत सीटें हासिल हुईं।

राष्ट्रीय परिषद का चुनाव

नेपाली संविधान के प्रावधानों के मुताबिक नेपाल में संसद के ऊपरी सदन के तौर पर 59 सदस्यों वाली राष्ट्रीय परिषद या नेशनल एसेंबली की व्यवस्था की गई है। इस सदन में 56 सदस्य एलेक्टोरल कॉलेज की ओर से चुने जाते हैं, जिनमें राज्यों की विधानसभा के सदस्य, ग्राम परिषद और नगर निगमों के प्रमुख और उप-प्रमुख होते हैं। बाकी के तीन सदस्य राष्ट्रपति की ओर से नामित किए जाते हैं, जिनकी सिफारिश सरकार करती है। सभी सातों राज्य चाहे वे आबादी के मामले में कितने भी बड़े और छोटे हों वे राष्ट्रीय परिषद में आठ-आठ सदस्य चुन कर भेजते हैं।

7 फरवरी, 2018 को राष्ट्रीय परिषद का चुनाव हुआ, जिसमें सीपीएन-यूएमएल ने 48 प्रतिशत सीटें जीतीं, इसके बाद एनसी रही (13 प्रतिशत)। सीपीएन-एमसी को 21 प्रतिशत सीटें मिलीं (टेबल संख्या 6)। आरजेपीएन और एफएसएफएन को चार-चार प्रतिशत सीटें मिलीं। कुल मिला कर वाम गठबंधन को राष्ट्रीय परिषद में 69 प्रतिशत सीटें हासिल हुईं।

सारांश

स्थानीय, विधानसभा और संसद के तीनों स्तर के चुनावों के पूरा हो जाने के बाद ऐसा लगता है कि आखिरकार देश संविधान को लागू करने के लिए पूरी तरह तैयार हो गया है। जहां स्थानीय सरकारें स्थापित हो चुकी हैं, राज्यों और केंद्र की सरकार भी अगले कुछ दिनों में आकार ले लेंगी, ऐसी उम्मीद है। इन घटनाक्रम को देखते हुए यह उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में देश में वाम मोर्चा के नेतृत्व में एक स्थायी सरकार होगी।

हालांकि वाम मोर्चा की अपनी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह सरकार में कैसा प्रदर्शन करता है। अगर यह तार्किक तौर पर पेश आता है और भौगोलिक-राजनीति में संतुलन का ध्यान रखता है, खास कर भारत और चीन के बीच, तो यह सफल हो सकता है। लेकिन अगर यह इस लक्ष्य में नाकाम रहता है, तो यह बहुत नुकसानदेह साबित हो सकता है। इससे पहले राजशाही के अलावा भी कुछ नेता सिर्फ इसलिए नाकाम साबित हुए, क्योंकि वे इस संतुलन को कायम नहीं कर पाए।

वाम मोर्चा को दूसरा खतरा उन्हीं लोगों से हो सकता है जन्होंने उन्हें भारी बहुमत दे कर सत्ता में पहुंचाया है। जोर्ज ओरवेल ने एक बार कहा था, ‘शक्ति भ्रष्ट करती है और संपूर्ण शक्ति पूरी तरह से भ्रष्ट कर देती है।’ बहुत से वामपंथी नेताओं की छवि साफ-सुथरे नेता की नहीं है और इस हकीकत को देखते हुए वे भ्रष्ट गतिविधियों में शामिल हो सकते हैं। अगर ऐसी स्थिति बनी तो एनसी, आरजेपीएन और एफएसएफएन के नेतृत्व में लोकतांत्रिक शक्तियां वाम मोर्चे को बेनकाब करने के मौके छोड़ेंगी नहीं।

एफएसएफएन और आरजेपीएन जैसे मधेश-आधारित राजनीतिक दल ने पहले से ही वाम मोर्चा पर दबाव बढ़ाना शुरू कर दिया है। 2015-16 के मधेश आंदोलन के दौरान उनकी जो मांगे पूरी नहीं हुईं, उनको पूरा करने का दबाव बनाया जा रहा है। दरअसल, ये पार्टियां इस वादे पर ही जीती हैं कि वे राज्यों की सीमा में बदलाव लाएंगी और संविधान में जरूरी बदलाव करेंगी ताकि लंबे समय से उनके साथ हो रहा अन्याय समाप्त हो सके। अगर वाम मोर्चा इन ताकतों के साथ तालमेल नहीं बना सका तो जल्दी ही राजनीतिक उथल-पुथल शुरू हो सकती है। इसलिए अब समय है कि वाम मोर्चा गंभीरता से विकास पर ध्यान दे कर काम करे और भौगोलिक-राजनीति में संतुलन कायम रखे।

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