Author : Sediq Sediqqi

Published on Aug 23, 2022 Updated 0 Hours ago

अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान द्वारा क़ब्ज़ा किये जाने की पहली बरसी पर, अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अफ़ग़ानिस्तान में सामने आ रहे मानवीय संकट से निपटने के लिए अपनी प्रतिबद्धता को मज़बूती से दोहराना चाहिए.

अफ़ग़ानिस्तान: तालिबान शासन के अधीन काबुल; वैश्विक अपयश की पहली बरसी!

एक दृढ़ राष्ट्र ने अपनी क़ुर्बानियों से 20 साल में जो कुछ हासिल किया, दोहा में हुई शांति वार्ताओं (जो अफ़ग़ानिस्तान से निकलने की अमेरिका की रणनीति का हिस्सा थीं) ने उन्हें उलट दिया. यह अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) के लिए दूसरे पतन जैसा है और हमें इस तथ्य की याद दिलाता है कि शीत युद्ध में सोवियत संघ को हराने में पश्चिम की मदद करने में अफ़ग़ानिस्तान की बेहद अहम भूमिका के बावजूद, उसे 1996 में तालिबान (Taliban) के रहमो-करम पर छोड़ दिया गया. तालिबान 1994 में पाकिस्तान की आईएसआई द्वारा बनाया गया एक नया समूह था, जो अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण करने के लिए था.

अफ़ग़ानों ने हमेशा से स्थायी और टिकाऊ शांति चाही है और इसे हासिल करने के लिए वे हरसंभव प्रयास करेंगे. अफ़ग़ानिस्तान महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता के लिए लगातार जंग का मैदान रहा है.

अफ़ग़ानों ने हमेशा से स्थायी और टिकाऊ शांति चाही है और इसे हासिल करने के लिए वे हरसंभव प्रयास करेंगे. अफ़ग़ानिस्तान महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता के लिए लगातार जंग का मैदान रहा है. 19वीं सदी में, इसने रूसियों को भारत की ओर बढ़ने से रोकने के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के वास्ते ‘बफ़र ज़ोन’ के रूप में काम किया, और हाल के समय में, यह सोवियतों के अफ़ग़ानिस्तान में आक्रमण के ख़िलाफ़ हथियारबंद विद्रोह का युद्धक्षेत्र था, जिसने न सिर्फ़ 20 लाख अफ़ग़ानों की जान ली, बल्कि देश को तहस-नहस कर दिया. 

सोवियतों को हराने में अफ़ग़ानिस्तान की भूमिका यूरोप और मध्य एशिया में करोड़ों लोगों के लिए आज़ादी लेकर आयी, लेकिन अपने ख़ुद के लोगों के लिए यह एक ऐसी अंतहीन पीड़ा, कष्ट और दुर्दशा का कारण बनी जिससे आज भी मुक्ति नहीं मिली है.

लोकतंत्र के दो दशक

2001 में, पश्चिम की भागीदारी ने अफ़ग़ानिस्तान और बाक़ी दुनिया के बीच संबंधों में एक नये अध्याय की शुरुआत की. अफ़ग़ानों को लगा कि उनकी दर्द भरी पुकार को सुना गया है और पश्चिम उनके देश को नये सिरे से निर्मित करने में उनकी मदद के लिए आया है. 2001 के बाद, अफ़ग़ानिस्तान में वैश्विक भागीदारी अभूतपूर्व रूप से उल्लेखनीय थी और अफ़ग़ान समाज के भीतर राजनीतिक और सामाजिक रूपांतरण लेकर आयी. इस रूपांतरण के तहत अति-रूढ़िवादी अफ़ग़ान समाज में अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा सार्वभौमिक मूल्यों का बीजारोपण, विकास के लिए खुले दिल से सहायता, लोकतंत्र का बीजारोपण, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, समाज के सभी पहलुओं में महिलाओं का समावेश, और अफ़ग़ानों के नज़रिये में बदलाव शामिल है. अफ़ग़ानिस्तान में पहली बार राजनीतिक सत्ता का लोकतांत्रिक हस्तांतरण हुआ. चुनाव में धांधली के दावों के बावजूद, अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास में पहली बार राष्ट्रपति और संसद के तीन बड़े चुनाव संपन्न हुए.

अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मदद से, राज्य और राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया पूरी रफ़्तार से चल रही थी, और निर्वाचित नेताओं द्वारा अफ़ग़ानिस्तान को चलाये जाने का विचार पूरी तरह स्वीकृत था. एक बेहतर स्वास्थ्य प्रणाली और लोकतांत्रिक मूल्यों में रचा-बसा एक बाक़ायदा अफ़ग़ान राष्ट्रीय रक्षा एवं सुरक्षा बल भी स्थापित हो गये थे. जब सिविल सोसाइटी फली-फूली और मानव पूंजी का भंडार बढ़ा, तो एक ऊर्जावान नौजवान पीढ़ी भी सामने आयी जो सकारात्मक बदलावों और राजनीतिक व सामाजिक जीवन में भागीदारी के लिए उत्साहित थी.

जब सिविल सोसाइटी फली-फूली और मानव पूंजी का भंडार बढ़ा, तो एक ऊर्जावान नौजवान पीढ़ी भी सामने आयी जो सकारात्मक बदलावों और राजनीतिक व सामाजिक जीवन में भागीदारी के लिए उत्साहित थी.

2021 तक, महिलाओं की हिस्सेदारी संसद के निचले सदन में 27 फ़ीसद, ऊपरी सदन में 22 फ़ीसद, सरकारी कर्मचारियों में 22 फ़ीसद (जिनमें से 9 फ़ीसद फ़ैसले लेने वालों पदों पर थीं), सिविल सेवकों में 22 फ़ीसद, सुरक्षा क्षेत्र में 5 फ़ीसद, और क़ानूनी व न्यायिक क्षेत्र में 10 फ़ीसद थी. महत्वपूर्ण कैबिनेट पदों में से चार महिलाओं के पास थे, और दो महिलाओं ने अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र में राजदूत के रूप में सेवा प्रदान की. 1.2 करोड़ छात्र (पहले दर्जे से लेकर 12वीं तक) स्कूल में थे, और उनमें से 40 फ़ीसद लड़कियां थीं.

तालिबान के युद्ध, जिसके साथ अफ़ग़ानों को जीना और जीतना पड़ा, के बावजूद, पश्चिम में कई लोग स्थिति जस की तस बने रहने के ख़िलाफ़ थे. तालिबान की हिंसा में बढ़ोतरी, आबादी वाले शहरों में रोज़मर्रा की बमबाज़ी, आम नागरिकों के बड़ी संख्या में हताहत होने, और आंतरिक राजनीतिक हो-हल्ले के चलते अंतरराष्ट्रीय समुदाय का धीरज जवाब दे गया और उसने तालिबान की बेरहम जंग ख़त्म करने के लिए दोहा शांति प्रक्रिया शुरू की. 

शुरुआती वर्षों में अफ़ग़ान युद्ध ने निश्चित रूप से कई पश्चिमी देशों की आंतरिक राजनीति की सेवा की और हावी नैरेटिव के अंग के बतौर तालिबान की हार व राष्ट्र-निर्माण के प्रयत्न के प्रचार के ज़रिये राजनीतिक अभियानों में जीत सुनिश्चित की. चूंकि अब यह ऐसा कोई हित नहीं साध रहा था, तो इसे त्याग दिया गया और दोहा के होटल के सभागारों तक समेट दिया गया.

दोहा शांति वार्ता

दोहा शांति प्रक्रिया का सबसे गौरतलब हिस्सा वह समझौता था जो अमेरिका के विशेष दूत, श्री ख़लीलज़ाद और तालिबान के बीच 2020 में हुआ. इस दौरान अफ़ग़ानों को बातचीत की मेज़ से पूरी तरह दूर रखा गया. वैध अफ़ग़ान सरकार को दरकिनार कर सीधे तालिबान से बातचीत पर बनी सहमति ने तालिबान को ज़्यादा मज़बूत स्थिति में ला खड़ा किया और उसे रूस, चीन वग़ैरह से बातचीत करने की अभूतपूर्व राजनीतिक स्वतंत्रता प्रदान की. जो तालिबान नेता तब तक अफ़ग़ानों के ख़िलाफ़ हिंसक हथियारबंद अभियान का नेतृत्व कर रहे थे, अब वे दोहा में विलासितापूर्ण रिहाइशगाहों में अंतरराष्ट्रीय गणमान्य लोगों से बातचीत कर रहे थे. 

रूस, पाकिस्तान, ईरान और चीन के समर्थन से, तालिबान ने वार्ताओं का इस्तेमाल अमेरिका को थकाने और अफ़ग़ानिस्तान में अंतरराष्ट्रीय शक्तियों पर अपनी जीत को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए किया. तालिबान ने समझौते का इस्तेमाल उन 5000 तालिबान क़ैदियों की रिहाई के वास्ते अफ़ग़ान सरकार को बाध्य करने के लिए किया, जिन्हें अफ़ग़ान राष्ट्रीय रक्षा एवं सुरक्षा बलों ने बीते वर्षों में गिरफ़्तार किया था. यह सब अफ़ग़ान सरकार के साथ आमने-सामने की किसी वार्ता के लिए पूर्व-शर्त के रूप में किया गया. पराजित मानसिकता, हताशा, परित्यक्त होने के एहसास, अफ़ग़ान सरकार के लिए समर्थन में गिरावट, और बार-बार अफ़ग़ानिस्तान से निकलने के एलानों ने तालिबान समझौते से पहले ही पश्चिम में कई विशेषज्ञों और अधिकारियों की धारणाओं को इसी रंग में रंग दिया. 

रूस, पाकिस्तान, ईरान और चीन के समर्थन से, तालिबान ने वार्ताओं का इस्तेमाल अमेरिका को थकाने और अफ़ग़ानिस्तान में अंतरराष्ट्रीय शक्तियों पर अपनी जीत को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए किया.

15 अगस्त 2022 को अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े की बरसी थी. उन्होंने 20 साल की हरेक उपलब्धि को उलट दिया. उन्होंने अलक़ायदा नेता को पनाह दी, लोगों का दमन किया, लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी और सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के लिए निषेध कर दिया, और ऐसे ही दूसरे हज़ारों दमनकारी नियम थोप दिये जिनके बारे में दुनिया पहले से जानती है.     

अफ़ग़ान लोग एक बेहतर ज़िंदगी तथा स्वतंत्र एवं समृद्ध समाज के हक़दार हैं, और अंतरराष्ट्रीय समुदाय का यह कर्तव्य है कि वह उन्हें इसे हासिल करने में मदद करे. अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए यह वक़्त है कि वह तालिबान से नाता तोड़े, यात्रा प्रतिबंध दोबारा लागू करे, और उन्हें उन अपराधों के लिए जवाबदेह ठहराये जो वे अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के ख़िलाफ़ करते हैं. 

अफ़ग़ान लोग एक बेहतर ज़िंदगी तथा स्वतंत्र एवं समृद्ध समाज के हक़दार हैं, और अंतरराष्ट्रीय समुदाय का यह कर्तव्य है कि वह उन्हें इसे हासिल करने में मदद करे.

अफ़ग़ानी कोषों के विदेशी परिसंपत्तियों के रूप में मौजूद 7 अरब अमेरिकी डॉलर जारी नहीं करने का अमेरिका का ताज़ा फैसला तालिबान को उनकी करतूतों और अफ़ग़ानिस्तान में नागरिकों के ख़िलाफ़ जारी हमलों के लिए ज़िम्मेदार ठहराने की दिशा में एक स्वागतयोग्य कदम है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अफ़ग़ानिस्तान में मानवीय संकट से निपटना चाहिए और तालिबान के साथ बिना सीधा जुड़ाव रखे अफ़ग़ानों की मदद जारी रखनी चाहिए. अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अफ़ग़ानिस्तान के लिए राजनीतिक विकल्प का मार्ग प्रशस्त करने के बारे में भी अवश्य सोचना चाहिए. बीते 20 सालों में बड़े पैमाने पर मानव पूंजी निर्मित हुई है, जो आत्मनिर्भरता की दिशा में अफ़ग़ानिस्तान का बेहतर नेतृत्व कर सकती है. अफ़ग़ानिस्तान की 2001 के बाद की पीढ़ी, जो देश की नौकरशाही का हिस्सा थी और जिसने अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया था, अफ़ग़ानिस्तान के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए एक भरोसेमंद राजनीतिक विकल्प है.

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