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Published on Jun 05, 2024 Updated 5 Hours ago

भारत ने बॉन चुनौती को पूरा करने का जो वादा किया था, उस दिशा में भारत ने सराहनीय काम किया है लेकिन अगर वो अपने इन प्रयासों में तकनीकी को भी शामिल करता है तो भारत द्वारा सुझाए गए समाधानों को प्रमाणित करने में मदद मिलेगी.

‘जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए जवाबदेह शासन आवश्यक’

यह लेख निबंध श्रृंखला ‘ये दुनिया का अंत नहीं है: विश्व पर्यावरण दिवस 2024’ का एक हिस्सा है.


वैश्विक जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से पैदा हुए बहुआयामी सामाजिक संकटों ने दुनियाभर में शासन की संरचना और व्यवस्था को घेर लिया है. ग्लोबल वॉर्मिंग में सबसे बड़ा योगदान मानवीय गतिविधियों का है. इसी की वजह से बड़ी प्राकृतिक आपदाएं, संकट, मौसम की चरम स्थिति जैसे कि बाढ़, सूखा और समुद्र के जल स्तर में वृद्धि जैसी मुश्किलें पैदा होती हैं. ऐसी अकास्मिक परिस्थितियां दुनिया में आबादी के एक बड़े हिस्से पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं. कई बार इनकी वजह से आधारभूत सरंचना और संसाधनों पर इतना बुरा असर पड़ता है कि उनकी भरपाई नहीं की जा सकती. 

लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की सरंचना ऐसी होती है कि यहां आपको विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व देखने को मिलता है और शासन व्यवस्था कानून के आधार पर चलती है. इसके अलावा विधायिका और न्यायपालिका जैसी मज़बूत संस्थाएं इसकी निगरानी करती हैं.

ग्लोबल वॉर्मिंग के नकारात्मक नतीजों से कृषि के काम में बड़े पैमाने पर व्यावधान पैदा हो जाता है, जिससे खाद्य सुरक्षा पर संकट खड़ा हो सकता है. इतना ही नहीं इससे मंदी, आर्थिक अस्थिरता और सामाजिक-आर्थिक असमानता में वृद्धि होने का भी ख़तरा रहता है. इसके अलावा इससे समाज में अशांति, संघर्ष, मानवीय विस्थापन और वैश्विक स्तर पर सामाजिक अस्थिरता की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है. इस तरह के अभूतपूर्व संकट से निपटने के लिए ये ज़रूरी हो जाता है कि प्रभावी और उत्तरदायी नीति बनाने के लिए अलग-अलग देशों की सरकारें और वहां की संस्थाएं इसमें हस्तक्षेप करें.

 

राजनीतिक जवाबदेही और जलवायु परिवर्तन  

 

जब हम उत्तरदायी और जवाबदेह शासन प्रणाली की बात करते हैं तो इसके लिए सबसे बेहतर व्यवस्था लोकतांत्रिक प्रणाली है. लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की सरंचना ऐसी होती है कि यहां आपको विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व देखने को मिलता है और शासन व्यवस्था कानून के आधार पर चलती है. इसके अलावा विधायिका और न्यायपालिका जैसी मज़बूत संस्थाएं इसकी निगरानी करती हैं. समय-समय पर होने वाले चुनाव नागरिकों को अपनी आवाज़ उठाने, अपनी चिंताओं को व्यक्त करने का मौका देते हैं. वो अपने नेताओं के सामने अपनी मांगें पेश कर सकते हैं. लोकतांत्रिक व्यवस्था में आपको कई राजनीतिक विकल्प हासिल होते हैं, जिससे आप उन नेताओं का चुनाव कर सकें, जिन्हें लेकर आपको लगता है कि वो आपकी इच्छाओं को सबसे बेहतर तरीके से पूरा कर सकते हैं और जिन्हें आप बेहतर प्रशासक मानते हैं. अब जलवायु परिवर्तन एक ऐसे मुद्दे के रूप में उभर रहा है जो वैश्विक स्तर पर विकास और शासन की संरचना को प्रभावित कर रहा है. इसलिए लोकतांत्रिक शासन व्यस्थाओं के लिए ये ज़रूरी हो जाता है कि वो इस संकट का दृढ़ता से सामना करें. हालांकि, जो लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था में सियासी लामबंदी को समझते हैं, वो ये जानते हैं कि रोज़गार, महंगाई, भ्रष्टाचार, पहचान की राजनीति, प्रवासन और अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों के इर्द-गिर्द ही राजनीतिक और चुनावी विमर्श होता है. हालांकि, जलवायु परिवर्तन की चुनौती बहुत गंभीर है. इसके दीर्घकालिक दुष्परिणाम होते हैं, लेकिन जनता और नेता इस पर कम ध्यान देते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये ऊपर बताए गए चुनावी मुद्दों की तुलना में कम ज़रूरी हैं. यही वजह है कि राजनीतिक और चुनावी बहस में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अब तक सीमित चर्चा ही हुई.

ये ग्रीन पार्टियां कट्टर सामाजिक आंदोलनों से उभरी हैं और अक्सर इनका नेतृत्व छात्र संगठन करते हैं. जैसे कि 1960 और 1970 के दशक में परमाणु हथियार विरोधी आंदोलन. 

 

ग्रीन पार्टियों का उदय

हालांकि, पिछले कुछ दशकों में लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में ऐसी समझ बन रही है, जो कह रही है कि जलवायु परिवर्तन के गंभीर दुष्परिणामों और उससे मानवीय जीवन पर पड़ने वाले असर की चर्चाओं को लेकर साफ झूठ बोल जा रहा है. बाढ़, सूखा, जंगलों में आग, अनाज के नष्ट होने जैसी आपदाओं में बढ़ोत्तरी ने दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन को लोगों की चिंता के केंद्र में ला दिया है. जलवायु परिवर्तन का अब लोगों पर सीधा प्रभाव पड़ रहा है. इसी वजह से यूरोप के कई देशों में ग्रीन पार्टियों का उदय हो रहा है. 

चूंकि अब जलवायु परिवर्तन और उससे पैदा होने वाली समस्याएं आम आदमी के रोज़मर्रा के जीवन पर असर डाल रही हैं, इसलिए अब ये तेज़ी से संस्थागत राजनीति में विमर्श का एक मुख्य मुद्दा बन गया है. 

ये ग्रीन पार्टियां कट्टर सामाजिक आंदोलनों से उभरी हैं और अक्सर इनका नेतृत्व छात्र संगठन करते हैं. जैसे कि 1960 और 1970 के दशक में परमाणु हथियार विरोधी आंदोलन. काउंसिल फॉर फॉरेन रिलेशन में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक ग्रीन पार्टियों को ऐसे संगठनों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो व्यापक सामजिक आंदोलनों के ज़रिये सभ्यताओं को उस दिशा में निर्देशित करने की मांग कर रही हैं, जो इनके मुताबिक ज़्यादा टिकाऊ और मानवीय हैं. इनके पास परमाणु हथियारों, जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण और खाद्य सुरक्षा समेत कुछ ऐसे ही मुद्दों के विरोध का एक व्यापाक जनादेश है. ग्लोबल ग्रीन नेटवर्क नाम के फोरम के मुताबिक दुनिया के अलग-अलग देशों में इस तरह की करीब 80 ग्रीन पार्टियां हैं. ये ग्रीन पार्टियां सामजिक और आर्थिक मुद्दों से जुड़े कई क्षेत्रों को कवर करती हैं. लेकिन मोटे तौर पर इन्हें चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है. पारिस्थितिकी स्थिरता, ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और अहिंसा.

 

शासकीय व्यवस्था में नई आवाज़

 

वर्तमान में यूरोप की मुख्यधारा की कई पार्टियां अलग-अलग कारणों से जनता की नाराज़गी का सामना कर रही हैं. ऐसे में सम-सामयिक मुद्दे उठाने और उन पर नया राजनीतिक नैरेटिव बनाने की वजह से ग्रीन पार्टियां चुनावी राजनीति में अपनी मौजूदगी बढ़ाती जा रही हैं. उदाहरण के लिए ऑस्ट्रिया में 2020 में ग्रीन पार्टी ने कंजर्वेशन पीपल्स पार्टी के साथ गठबंधन कर सत्ता हासिल की. 2004 में ग्रीन पार्टी के इंडलिस एमिसिस के रूप में लातविया को अपना पहला प्रधानमंत्री मिला. बेल्जियम, जर्मनी, फ्रांस, न्यूज़ीलैंड और इटली जैसे देशों में भी ग्रीन पार्टियां सरकार में शामिल हो रही हैं. यूरोप में ही नहीं हाल के वर्षों में अमेरिका में भी ग्रीन पार्टियों ने राज्य और स्थानीय स्तर पर चुनावों में अपनी अहम मौजूदगी दर्ज कराई है. अमेरिका में इस साल होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में भी ग्रीन पार्टी एक बड़ी ताकत के रूप में उभर रही है. लैटिन अमेरिका में ब्राज़ील, मैक्सिको और कोलंबिया जैसे देश ग्रीन पार्टियों के लिए खुद को मज़बूत बनाने और स्थानीय संस्थाओं के स्तर पर चुनावी राजनीति में उतरने का रास्ता बना सकते हैं. अफ्रीका में रवांडा ही इकलौता ऐसा देश है, जहां ग्रीन पार्टी का संसद में प्रतिनिधित्व है. बाकी दुनिया की बात करें तो वहां ग्रीन पार्टियों को अपनी जड़ें मज़बूत करने में वक्त लगेगा. ग्रीन पार्टियों के सामने एक असमंजस की स्थिति इस बात को लेकर है कि वो अपने राजनीतिक आंदोलन में अपनी कट्टरपंथी विचारधारा को लेकर चलें या फिर दुनिया के अलग-अलग देशों में मुख्यधारा की संस्थागत लोकतांत्रिक राजनीति में शामिल हो जाएं.

 

संस्थागत राजनीति से आगे...

 

ग्रीन पार्टियों के माध्यम से संस्थागत राजनीति में जवाबदेह शासन व्यवस्था पर तो विमर्श होने ही लगा है लेकिन अब डाउन-अप सामाजिक आंदोलन का भी उदय हो रहा है. इसका एक उदाहरण फ्राइडे फॉर फ्यूचर अभियान है. इस कैंपेन में स्कूली छात्र शुक्रवार को अपनी कक्षाओं में नहीं जाते बल्कि वो जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान पर ज़ोर देने के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते हैं. इस आंदोलन का एक कट्टरपंथी वर्जन एक्सटिंक्शन रिबेलियन यानी विलुप्ति के ख़िलाफ विद्रोह है. इस आंदोलन का ज़्यादा असर ब्रिटेन और जर्मनी जैसे देशों में दिख रहा है. इस आंदोलन में शामिल लोग कार्बन उत्सर्जन करने वाली अर्थव्यवस्था को फाइनेंस करने वाले बड़े बैंकों के ख़िलाफ़ ऋण हमला करते हैं. सिर्फ़ इस तरह के आंदोलन ही नहीं बल्कि अब कई देशों में न्यायपालिका भी जलवायु परिवर्तन की समस्या के समाधान में अपनी भूमिका निभा रही है. उदाहरण के लिए अप्रैल 2021 में जर्मनी की संवैधानिक अदालत ने कहा था कि भविष्य की स्थायी पर्यावरण नीति के लिए उस समय के प्रशासन ने जो पहल की थी, जो कदम उठाए थे, वो अपर्याप्त हैं. इसी का नतीजा रहा कि बाद में प्रशासन को अपने जलवायु कार्ययोजना के काम में तेज़ी लानी पड़ी. यूरोप और एशिया के कई देशों और ऑस्ट्रेलिया में ये देखा जा रहा है कि वहां की अदालतें जलवायु परिवर्तन पर एक्शन के लिए समय-समय पर ऐसे आदेश देती हैं, जो सबको दिखते हैं. इसकी वजह से इन देशों की सरकारों और संस्थाओं पर जलवायु परिवर्तन की दिशा काम करने का दबाव पड़ रहा है. 

 

जवाबदेह शासन की अनिवार्यता?

लोकतांत्रिक देशों में प्रतिनिधि शासन की कार्यप्रणाली अच्छी तरह से काम कर रही है. ये शासन व्यवस्था जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है. दुनियाभर में लोकतांत्रिक शासन से जुड़ी संस्थाएं जलवायु पर कार्रवाई को लेकर ज़्यादा रुचि दिखा रही हैं और वैश्विक स्तर पर वो एक समान लक्ष्य के लिए मिलकर काम कर रही हैं. चूंकि अब जलवायु परिवर्तन और उससे पैदा होने वाली समस्याएं आम आदमी के रोज़मर्रा के जीवन पर असर डाल रही हैं, इसलिए अब ये तेज़ी से संस्थागत राजनीति में विमर्श का एक मुख्य मुद्दा बन गया है. हालांकि, प्रतिनिधि शासन व्यवस्था और इसके काम करने का तरीका जलवायु परिवर्तन के चुनावी मुद्दा बनने की राह में एक चुनौती है लेकिन इसके बावजूद इस समस्या को लेकर दुनियाभर के लोकतांत्रिक देशों में चर्चा होने लगी है. लोकतांत्रिक संस्थाओं में विचार-विमर्श की गुंजाइश हमेशा होती है. यहां समाज आधारित पहल करने और आम राय बनाने की कोशिश की जाती है. इससे भविष्य को लेकर ये उम्मीद जगती है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर वो उत्तरदायी, कुशल और समावेशी नीतियां बनाएंगे.




अंबर कुमार घोष ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फैलो हैं.

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