Author : Raj Shukla

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jun 14, 2024 Updated 1 Hours ago

अमेरिका और चीन-रूस के गठबंधन के बीच मुक़ाबला तेज़ होता जा रहा है और इस टकराव के नए मोर्चे खुल रहे हैं. हालांकि, चीन और रूस को ये एहसास हो रहा है कि संघर्ष के इस नए दौर में उनका मुक़ाबला कहीं अधिक आक्रामक पश्चिमी देशों से है.

अमेरिकी प्रभुत्व को एक नई चुनौती










रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन हाल ही में चीन के दौरे पर गए थे. इसका मक़सद दोनों देशों के सामरिक समझौते को और मज़बूत बनाना था. इस दौरान जिन समझौतों पर दस्तख़त किए गए, उनसे चीन और रूस के रिश्तों के ‘एक नए युग’ का संकेत तो मिलता ही है. पर, इसका बड़ा इशारा अमेरिका के दबदबे को अभूतपूर्व चुनौती देना है. अमेरिका की ताक़त में गिरावट की आशंका ने चीन और रूस को इस उम्मीद में क़रीब ला दिया है कि इससे अमेरिका के पतन की रफ़्तार और तेज़ होगी. आज जब रूस, मौजूदा विश्व व्यवस्था को ढहाना चाहता है, तो वहीं चीन एक आकर्षक नई व्यवस्था का ख़्वाब दिखा रहा है. शीत युद्ध ख़त्म होने के तीन दशक बाद, हेनरी किसिंजर की सलाह के बिल्कुल उलट आज अमेरिका ख़ुद को रूस और चीन के ख़िलाफ़ एक विस्फोटक संघर्ष में उलझा हुआ पा रहा है. ये टकराव एक साथ और अचानक पैदा हुआ है. आज विश्व व्यवस्था इस क़दर निष्क्रिय हो गई है कि आने वाले समय में दुनिया के दो तरह के नियमों में विभाजित होने की तमाम संभावनाएं नज़र आ रही हैं. वैसे तो इसके पीछे बहुध्रुवीय दुनिया का नारा है. लेकिन, आपस में जुड़ने वाली अन्य साझेदारियों का इस्तेमाल एक व्यापक धुरी तैयार करने के लिए किया जा रहा है. जिसमें एक तरफ़ ईरान और उत्तर कोरिया, रूस की सेना को ताक़त देने के लिए हथियारों की आपूर्ति कर रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ़, पश्चिमी एशिया में रूस और चीन की मौजूदगी बढ़ रही है. इसके साथ साथ यूरेशिया में व्यापक समीकरण बनते दिख रहे हैं. दुनिया के अलग अलग इलाक़ों में स्थित शक्तियां, जैसे कि पश्चिमी प्रशांत में चीन, यूरोप में रूस और पश्चिमी एशिया में ईरान, अमेरिकी शक्ति के बुनियादी उसूल, यानी अमेरिकी सेना की पूरी दुनिया में घूमने की आज़ादी को मात दे रहे हैं. इन सभी मोर्चों पर एक साथ बढ़ता तनाव अमेरिकी शक्ति को खंड खंड कर रहा है और उसकी सामरिक सैन्य प्रतिक्रिया को जटिल बना रहा है: क्या अमेरिका इन तीनों मोर्चों पर संघर्ष करे या फिर सिर्फ़ एक में जीतने पर ध्यान केंद्रित करे?

आज विश्व व्यवस्था इस क़दर निष्क्रिय हो गई है कि आने वाले समय में दुनिया के दो तरह के नियमों में विभाजित होने की तमाम संभावनाएं नज़र आ रही हैं.

 

अमेरिका की अहमियत 

 

भय व्याप्त करने में अमेरिका की नाकामी (अफ़ग़ानिस्तान, यूक्रेन, पश्चिमी एशिया और संभावित रूप से ताइवान में) और उसकी छीजती हुई ताक़त बिल्कुल साफ़ नज़र आ रही है. हर बार जब भी अमेरिका मना करता है, तो रूस, इज़राइल, हूती, हिज़्बुल्लाह और ईरान इसके उलट बर्ताव करते हैं. अमेरिका हर साल एक ट्रिलियन डॉलर से ज़्यादा का क़र्ज़ चुकाता है, जो उसके रक्षा बजट से भी ज़्यादा है. ऐसे में अमेरिका के रक्षा उद्योग को दोबारा ताक़तवर बनाने की संभावनाएं मुश्किल नज़र आती हैं. अगले कुछ वर्षों में चीन, रूस, ईरान और उत्तर कोरिया के सामूहिक परमाणु हथियार मिलकर, अमेरिका के एटमी अस्त्रों से दोगुना अधिक हो जाएंगे. इस नई धुरी ने न केवल यूक्रेन और पश्चिमी एशिया के मोर्चों पर पश्चिमी देशों से बेहतर प्रदर्शन किया है. बल्कि, आज ब्रिक्स को सेवाएं देने का मंच बनाकर अब वो इस टकराव को ग्लोबल साउथ में प्रभाव, कारोबार और वाणिज्य बढ़ाने के संघर्ष के नए मोर्चे और की ओर भी ले जा रहे हैं. चीन के एक जानकार एरिक ली का दावा है कि चीन की ताक़त की तुलना में उसकी महत्वाकांक्षाएं बहुत मामूली हैं. वो कहते हैं कि, ‘दुनिया की तो बात छोड़िए, हम तो एशिया प्रशांत की कमान भी अकेले अपने हाथ में नहीं लेना चाहते हैं.’ एरिक ली ज़ोर देते हुए कहते हैं कि आक्रामकता और दादागीरी वाली महत्वाकांक्षाएं पालना तो चीन की संस्कृति ही नहीं है. वो कहते हैं कि, ‘हम तो बर्बर लोगों को अपने से दूर रखने के लिए महान दीवार बनाते हैं, न कि उनके ऊपर हमला करते हैं.’ चेयरमैन माओ ने 1944 में कहा था कि, ‘चीन को औद्योगीकरण करना होगा और ये काम तो स्वतंत्र उद्यमिता से ही हो सकता है. चीन और अमेरिका के हित आर्थिक और राजनीतिक रूप से एक दूसरे से मिलते जुलते हैं. अमेरिका को डरने की ज़रूरत नहीं है कि हम लोग सहयोगी नहीं होंगे. हम अमेरिका की बात काटने का जोखिम नहीं ले सकते; हम किसी तरह के संघर्ष का ख़तरा मोल नहीं ले सकते.’ लेकिन, माओ के वारिसों ने पहले तो बड़ी कामयाबी से अमेरिका को उसी के खेल यानी पूंजीवाद में हराया और अब वो अमेरिका की अगुवाई वाली विश्व व्यवस्था को चुनौती देने के लिए उसी के भयंकर शत्रु रूस के दोस्त बन गए हैं.

 अमेरिका आज भी दुनिया का सबसे ताक़तवर और दोबारा शक्तिशाली बन सकने की क्षमता रखने वाला देश है: 1980 में दुनिया की GDP में अमेरिका की हिस्सेदारी 25 प्रतिशत थी; आज भी है.

तो ये दोहरे नैरेटिव- यानी अमेरिका के पतन और चीन का उभार और ठहराव हमें किस दिशा में ले जाते हैं?

 

अमेरिका आज भी दुनिया का सबसे ताक़तवर और दोबारा शक्तिशाली बन सकने की क्षमता रखने वाला देश है: 1980 में दुनिया की GDP में अमेरिका की हिस्सेदारी 25 प्रतिशत थी; आज भी है. चीन की अर्थव्यवस्था ने अमेरिका नहीं, बल्कि यूरोप और अन्य देशों की क़ीमत पर विकास किया है. अमेरिका के पास, ईरान से कहीं ज़्यादा तेल के भंडार और क़तर से बड़े गैस के भंडार हैं; आबादी के लिहाज़ से अमेरिका बेहद ऊर्जावान है; दुनिया की सात सबसे बड़ी तकनीकी कंपनियां अमेरिका की हैं. अमेरिका दुनिया का इकलौता देश है, जिसकी सैन्य पहुंच पूरी दुनिया में है. अमेरिका के पास 800 सैनिक अड्डे, 11 एयरक्राफ्ट कैरियर और 950 अरब डॉलर की विशाल रक़म वाला रक्षा बजट है. 

 

वहीं दूसरी तरफ़ चीन की चमत्कारी तरक़्क़ी आज कई बीमारियों की शिकार है. सुस्त होती विकास दर का लंबा दौर, क़र्ज़ का बढ़ता बोझ (GDP का 287 प्रतिशत), बढ़ती बेरोज़गारी (50 प्रतिशत), बाज़ार और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच टकराव, बड़ी तकनीकी कंपनियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की चीन से भगदड़ और सेना में बार बार चलाए जाने वाले सफ़ाई अभियानों में चीन के पतन लक्षण दिख रहे हैं. चीन में बुज़ुर्गों की संख्या, अमेरिका की कुल आबादी से भी ज़्यादा है. आने वाले दशकों में चीन के एक आर्थिक महाशक्ति के बजाय एक नर्सिंग होम में तब्दील होने की आशंकाएं अधिक हैं.

 शायद चीन अमेरिका को दबे छुपे शब्दों में ये संदेश भी दे रहा है कि, ‘हम सोवियत संघ नहीं हैं. हमारी ताक़त देख लो और समझौता कर लो. तुम प्रशांत में अपने इलाक़े तक सीमित रहो और हम दोनों आपस में मिलकर दुनिया को बांट सकते हैं.

इसीलिए, चीन अपने सामरिक लक्ष्यों में बदलाव कर रहा है और अपने घरेलू और वैश्विक समीकरणों को भी संशोधित कर रहा है. चीन ‘छुपकर अपने वक़्त का इंतज़ार करने’ की रणनीति की तरफ़ तो नहीं लौट रहा है. बल्कि कुछ हद तक ‘ज़ोर शोर और गर्वोक्ति’ से पीछे हटने की कवायद में जुटा है. शी जिनपिंग की सबसे बड़ी प्राथमिकता तो भयानक पतन की लगातार की जाने वाली भविष्यवाणियों को ग़लत साबित करने के लिए दूरगामी आर्थिक तरक़्क़ी को दोबारा शुरू करने की है. सुधारों और ज़ोर शोर से बाज़ार की तरफ़ झुकाव रखने वाले मॉडल की जगह लेने के लिए विकास की एक नई परिकल्पना तैयार की गई है. अब एक अधिक सुरक्षित अर्थव्यवस्ता बनाने की ख़्वाहिश भी है. इसके अंतर्गत आर्थिक रूप से ज़ोर तो बाज़ार की अगुवाई में आगे बढ़ने पर होगा. लेकिन इस पर मज़बूत सियासी लगाम भी लगी होगी. तो निजी कंपनियों की भूमिका सीमित होगी और डेटा एवं सूचना के अहम प्रवाह, अलीबाबा या टेनसेंट जैसी निजी कंपनियों के बजाय चीन की सरकार के नियंत्रण में होंगे. आदेश दिया गया है कि चीन की कंपनियां और देश के युवाओं को विश्व स्तर के वीडियो गेम तैयार करने पर वक़्त देना कम करें. और, अधिक मज़बूत इरादों के साथ भविष्य की अहम सामरिक तकनीकों में नई नई उपलब्धियां हासिल करने पर अपना ध्यान अधिक लगाएं (टिकटॉक कम और क्वांटम एवं हाइपर सोनिक पर ज़्यादा ज़ोर). चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) को पता है कि उन सामरिक क्षेत्रों में अपनी कमज़ोरियां दूर करने की सख़्त ज़रूरत है, जो भूमंडलीकरण के दूसरे दौर (2.0) को आगे बढ़ाएंगी. यानी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (AI), सिंथेटिक बायोलॉजी, उन्नत चिप, क्वांटम इलेक्ट्रिक व्हीकल, अहम खनिज संसाधन वग़ैरह. चीन एक नया दांव भी चल रहा है- ‘छोटी छलांगें, बड़ी दुनिया पर जीत’. यानी भविष्य की अहम तकनीकों में अगुवा बनाना और फिर उनका पूरी दुनिया और विशेष रूप से ग्लोबल साउथ में लाभ उठाना अब चीन का नया नुस्खा बन गया है, जिसके ज़रिए वो पश्चिमी देशों के ‘छोटे क्षेत्र, ऊंची दीवार’ की रणनीति को जवाब दे रही है (इस रणनीति के तहत पश्चिमी देश विशेष तकनीकों को केवल गिने चुने देशों के बीच साझा करके उसका लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं).

 

आज जब जंग के नए नए मोर्चे खुल रहे हैं, तो ये टकराव और तेज़ होता जा रहा है. पिछले चरण (छुपकर बारी का इंतज़ार करो) के दौरान चीन आगे निकल गया, क्योंकि अमेरिका का ध्यान इस तरफ़ नहीं था. चीन को एहसास है कि इस नए संघर्ष में उसका मुक़ाबला एक जागरूक और कहीं ज़्यादा आक्रामक पश्चिमी देशों से है.

 

निष्कर्ष 

 

शी जिनपिंग कहा करते थे कि, ‘प्रशांत क्षेत्र इतना बड़ा है कि उसमें हम दोनों के लिए पर्याप्त गुंजाइश है’. सैन फ्रांसिस्को में जिनपिंग ने कहा था कि, ‘धरती इतनी विशाल है कि हम दोनों के लिए पर्याप्त है.’ चीन की महत्वाकाक्षाएं फैल रही हैं. अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बदलने की उसकी ख़्वाहिश भी ज़ोर पकड़ रही है. शायद चीन अमेरिका को दबे छुपे शब्दों में ये संदेश भी दे रहा है कि, ‘हम सोवियत संघ नहीं हैं. हमारी ताक़त देख लो और समझौता कर लो. तुम प्रशांत में अपने इलाक़े तक सीमित रहो और हम दोनों आपस में मिलकर दुनिया को बांट सकते हैं.’ आने वाले समय में इस संघर्ष के दो ही नतीजे निकल सकते हैं: व्यापक युद्ध या अस्थिर शांति. इसका सबसे बड़ा इम्तिहान शायद ताइवान होगा.

 

भारत को भी अपने प्रयासों में तेज़ी लानी होगी. अगर हम ऐसा नहीं करते, या दुनिया के व्यापक मंचों जैसे कि ब्रिक्स और ग्लोबल साउथ में अगर हम चीन को मात नहीं दे सकते, तो इसका नतीजा एकध्रुवीय एशिया के रूप में सामने आ सकता है.

 


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