Author : Ayjaz Wani

Expert Speak India Matters
Published on Jun 26, 2024 Updated 0 Hours ago

कश्मीर में मतदान प्रतिशत में बढ़ोत्तरी से एक सवाल खड़ा होता है: क्या ये घाटी में हालात सामान्य होने का संकेत है? या फिर कहीं अधिक पेचीदा सच्चाई सामने रही है

कश्मीर में मतदान करने के लिए लगीं लंबी क़तारें

केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के पांच लोकसभा क्षेत्रों में इस बार 58 प्रतिशत के साथ भारी मतदान हुआ. ये पिछले 35 वर्षों में हुआ सबसे अधिक मतदान है. 2019 के चुनाव के मुक़ाबले इस बार मतदान में 30 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी देखी गई है. इस बार रिकॉर्ड तादाद में युवाओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया, जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में बढ़ते भरोसे का प्रतीक है.

 मतदान का प्रतिशत और चुनाव के नतीजे कश्मीर में उभर रही कहीं जटिल सच्चाई की तस्वीर पेश करते हैं, जिनके पीछे मोटे तौर पर आम जनता के जज़्बात और स्थानीय सामाजिक आर्थिक मसले हैं.

वोटिंग के लिए निकले लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी और युवाओं की सक्रिय भागीदारी को देखकर मुख्य चुनाव आयुक्त अब जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव कराने पर विचार कर रहे हैं. मतदान का प्रतिशत देखकर बहुत से लोग ये अंदाज़ा लगा रहे हैं कि कश्मीर घाटी में हालात सामान्य हो गए हैं. लेकिन, मतदान का प्रतिशत और चुनाव के नतीजे कश्मीर में उभर रही कहीं जटिल सच्चाई की तस्वीर पेश करते हैं, जिनके पीछे मोटे तौर पर आम जनता के जज़्बात और स्थानीय सामाजिक आर्थिक मसले हैं.

 

बहिष्कार से बैलट तक

 

2019 से पहले जम्मू कश्मीर में अलगाववादी मतदान के बहिष्कार की अपीलें जारी करते थे. अलगाववादियों और उनके समर्थकों (OGW) हिंसा और पत्थरबाज़ी के ख़ौफ़ के चलते ख़ाली मतदान केंद्र और वोटिंग का बहुत कम प्रतिशत एक आम बात हुआ करती थी. कश्मीर घाटी में हिंसा और आतंकवाद को पाकिस्तान का दबे छुपे समर्थन देना ऐतिहासिक रूप से कश्मीरी मतदाताओं को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से दूर रखता आया था. मिसाल के तौर पर 2017 में श्रीनगर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव के दौरान हिंसा की रिकॉर्ड 200 वारदातें दर्ज की गई थीं, जिसमें आठ लोग मारे गए थे. इसी वजह से उपचुनाव में सिर्फ़ सात प्रतिशत वोटिंग हुई थी, जो पिछले 30 वर्षों में मतदान का सबसे कम प्रतिशत रहा था. हिंसा के चलते ही अनंतनाग लोकसभा सीट पर उपचुनाव दो साल तक टलता रहा था. इसी तरह 2019 में कश्मीर घाटी की तीनों लोकसभा सीटों का मतदान प्रतिशत कुल मिलाकर केवल 19.6 फ़ीसद रहा था. तब सुरक्षाबलों और पत्थरबाज़ों के बीच टकराव की वजह से दक्षिणी कश्मीर के इलाक़ों के ज़्यादातर मतदान केंद्रों पर एक भी वोट नहीं पड़ा था.

 जम्मू क्षेत्र में हाल के दिनों में हुए आतंकवादी हमलों, और पीर पंजाल के दक्षिण में पिछले दो साल में हुई आतंकवादी घटनाओं ने सुरक्षा के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं. इसकी वजह से सुरक्षा बलों को पाकिस्तान प्रायोजित विदेशी आतंकवाद से निपटने पर अपना ध्यान ज़्यादा केंद्रित करना पड़ रहा है.

हालांकि, तब के मुक़ाबले अब कश्मीर घाटी के हालात में बहुत बदलाव गया है. जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित क्षेत्र के प्रशासन द्वारा किए गए सुरक्षा के नए उपायों की वजह से आतंकवाद और उससे जुड़ी हिंसा में काफ़ी कमी आई है. 2023 में केवल 20 युवा ही स्थानीय आतंकवादी समूहों में शामिल हुए. इस वजह से युवाओं के आतंकवाद का रास्ता पकड़ने की तादाद में 80 प्रतिशत की कमी आई है. हालांकि, जम्मू कश्मीर में लगभग 70-80 विदेशी आतंकवादी सक्रिय हैं और सुरक्षाबलों को आने वाले विधानसभा चुनावों से पहले आतंकवाद से निपटने के लिए एक नई रणनीति तैयार करनी होगी. जम्मू क्षेत्र में हाल के दिनों में हुए आतंकवादी हमलों, और पीर पंजाल के दक्षिण में पिछले दो साल में हुई आतंकवादी घटनाओं ने सुरक्षा के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं. इसकी वजह से सुरक्षा बलों को पाकिस्तान प्रायोजित विदेशी आतंकवाद से निपटने पर अपना ध्यान ज़्यादा केंद्रित करना पड़ रहा है.

 

इसके बावजूद, सुरक्षा के माहौल में ख़ास तौर से घाटी में काफ़ी सुधार आया है. पत्थरबाज़ी की घटनाओं और अलगाववादियों द्वारा हड़ताल की अपील होने से बंदूक के ऊपर बैलट की जीत का रास्ता खुला है. अलगाववादी विचारों के घटते असर और आतंकवाद निरोधक सख़्त क़ानूनों ने युवाओं को लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अहमियत का एहसास कराया है और उन्हें इस खालीपन को भरने के लिए ख़ुद के चुने हुए प्रतिनिधियों की ज़रूरत भी महसूस हुई है, जिनके ज़रिए वो अपनी मांग सरकार के सामने रख सकें. इसके अतिरिक्त कश्मीर घाटी के बाशिंदों को महसूस हुआ कि स्थानीय प्रशासन में भी उनकी कोई नुमाइंदगी नहीं है. क्योंकि जो अफ़सर सरकार चला रहे हैं, उनकी स्थानीय लोगों से कोई हमदर्दी नहीं रह गई है और वो बेहद ताक़तवर बन गए हैं. बहुत से लोगों का ये मानना है कि कश्मीर के लोगों ने मतदान के ज़रिए, 2019 के बाद केंद्र सरकार द्वारा उठाए जा रहे इकतरफ़ा क़दमों, ख़ास तौर से इस क्षेत्र के सामाजिक आर्थिक विकास की नीतियों के प्रति अपनी नाख़ुशी जताई है.

 

बारामुला, श्रीनगर और अनंतनाग-राजौरी के तीन संसदीय क्षेत्रों में 18 से 39 साल के मतदाताओं का वोटिंग प्रतिशत क्रमश: 56.02, 48.57, और 54.41 रहा. आतंकवाद के पिछले तीन दशकों के दौर में आख़िरकार युवाओं ने बेरोज़गारी का मुक़ाबला करने और नए अवसरों को बढ़ावा देने की तात्कालिक ज़रूरत को स्वीकार किया है. चुनाव के दौरान 18-39 साल उम्र के मतदाताओं ने चुनावी प्रक्रिया में बड़े उत्साह के साथ हिस्सा लिया और उन्होंने बीजेपी से जुड़े स्थानीय सियासी दलों के ख़िलाफ़ वोट दिया. अल्ताफ़ बुख़ारी की अपनी पार्टी और सज्जाद लोन की अगुवाई वाली पीपुल्स कांफ्रेंस को घाटी के ज़्यादातर लोग बीजेपी का मोहरा मानते हैं. 2019 में केंद्र सरकार द्वारा लिए गए अलोकप्रिय फ़ैसले, इस चुनाव अभियान के प्रमुख मुद्दे थे और इसी वजह से चुनाव में महिलाओं की भागीदारी में भी बढ़ोतरी देखी गई. इसके बावजूद, लोग घाटी में शांतिपूर्ण माहौल से संतुष्ट दिखे और उन्हें इस बात की काफ़ी उम्मीद है कि आगे भी हालात ऐसे ही बने रहेंगे.

 

जमात--इस्लामी से लेकर इंजीनियर राशिद की जीत तक

 

हाल के लोकसभा चुनावों के दौरान एक अच्छा बदलाव ये देखने को मिला कि प्रतिबंधित जमात--इस्लामी (JeI) के सदस्य घाटी के तीनों लोकसभा क्षेत्रों में मतदान की प्रक्रिया में बड़ी सक्रियता से भाग लेते नज़र आए. जमात--इस्लामी एक सामाजिक आर्थिक और धार्मिक संगठन है, जो अलगाववाद की वकालत करता है और भारत को खुली चुनौती देता है. ये संगठन पिछले कई वर्षों से कश्मीर के संघर्ष का केंद्र बिंदु रहा है. जमात--इस्लामी के नेताओं ने संकेत दिया कि अगर उनके ऊपर लगी पाबंदी हटा ली जाती है, तो वो आने वाले विधानसभा चुनावों में शिरकत करने के लिए तैयार हैं.

 

बारामुला संसदीय क्षेत्र के नतीजों ने मुख्यधारा की पार्टियों और केंद्र सरकार को चौंका दिया. इस सीट से अब्दुल राशिद शेख़ चुनाव जीत गए, जिन्हें लोग इंजीनियर राशिद के नाम से ज़्यादा जानते हैं. इंजीनियर राशिद पिछले पांच साल से UAPA के तहत आतंकवाद के आरोप में तिहाड़ जेल में बंद हैं. उन्हें लगभग चार लाख 70 हज़ार वोट मिले. उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को दो लाख से ज़्यादा वोटों से निर्णायक शिकस्त दी. कुछ पत्रकारों और उमर अब्दुल्ला के मुताबिक़, इंजीनियर राशिद की जीत से अलगाववादी ताक़तों को मज़बूती मिलेगी और अलगाववाद को बढ़ावा मिलेगा. हालांकि, ये माना जाता है कि इंजीनियर राशिद, हमदर्दी और मज़बूत इच्छाशक्ति की वजह से चुनाव जीते. राशिद का चुनाव अभियानजेल का बदला वोट सेके नारे के इर्द गिर्द चलाया गया था. बहुत से समर्थक ये मानते हैं कि इस जीत के बाद राशिद जेल से रिहा हो सकेंगे और संसद में अपने इलाक़े की जनता की वास्तविक चिंताओं की नुमाइंदगी कर सकेंगें.

 

2019 में बारामुला सीट से चुनाव जीतने वाले नेशनल कांफ्रेंस के नेता मोहम्मद अकबर लोन ने संसद में शायद ही कभी बेरोज़गारी, बिजली और मूलभूत ढांचे से जुड़े स्थानीय मसलों को उठाया हो. उमर अब्दुल्ला और चुनाव लड़ रहे अन्य उम्मीदवारों केवीआईपी कल्चरसे मोहभंग होने की वजह से भी मतदाताओं ने राशिद को वोट दिया. सबसे अहम बात ये कि बारामूला लोकसभा के अंतर्गत आने वाले इलाक़ों में, पिछले 12 साल में दक्षिणी कश्मीर और श्रीनगर के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा शांति रही है. इंजीनियर राशिद की रैलियों में उन इलाक़ों के युवाओं का समर्थन भी आकर्षित किया, जो चुनाव के बहिष्कार के लिए जाने जाते थे.

 घाटी के लोग बड़ी बेसब्री से हालात सामान्य होने, रोज़ी रोज़गार के मौक़ों में सुधार, और केंद्र शासित क्षेत्र के स्तर पर अधिक भागीदारी का उत्सुकता से इंतज़ार कर रहे हैं. केंद्र सरकार को चाहिए कि वो राजनीतिक संवाद के ज़रिए, लोगों की इन भावनाओं का लाभ उठाए.

कश्मीर घाटी के लोग बड़ी सक्रियता से पाकिस्तान के समर्थन वाले आतंकवाद, हिंसा और अलगाववाद का विरोध करते रहे हैं. हालांकि, नकारात्मक भावनाएं और केंद्र सरकार के प्रति निराशाजनक रवैया इस बार के चुनाव के मतदान प्रतिशत और नतीजों में ख़ास तौर से बारामुला की सीट पर देखने को मिला. इसके बावजूद, घाटी के लोग बड़ी बेसब्री से हालात सामान्य होने, रोज़ी रोज़गार के मौक़ों में सुधार, और केंद्र शासित क्षेत्र के स्तर पर अधिक भागीदारी का उत्सुकता से इंतज़ार कर रहे हैं. केंद्र सरकार को चाहिए कि वो राजनीतिक संवाद के ज़रिए, लोगों की इन भावनाओं का लाभ उठाए.

 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.