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इतिहास जब 2020 की समीक्षा करेगा तो कोरोना-काल में देशों द्वारा उठाए गए बचकाने तौर तरीकों को देख अवश्य हैरत में आएगा
कोविड-19 से त्रस्त संसार ने कई बदलाव देखे – वर्क फ्रॉम होम, कंपनियों के लंबी अवधि के प्लान का हिस्सा बन चुका है. कई ताक़तें जो दुनिया बदलने वाली जानी जाती थी — उनके दौर पर पर्दा पड़ता दीख रहा है.
देशों की अर्थव्यवस्था चरमरा गई, पर इस पूरी प्रक्रिया के दौरान कैप्टन अमेरिका लापता रहे.
नग़मा शहर और ओआरएफ़ के चेयरमैन संजय जोशी के साथ हुए इस परिचर्चा में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि किस तरह के बड़े बदलाव दुनिया ने पिछले एक साल में देखा है और आने वाले समय में इसका क्या असर पड़ेगा?
नग़मा सहर: विश्व व्यवस्था में क्या बदलाव आएगा?
संजय जोशी: यह सिर्फ़ एक वर्ष का अंत नहीं, बल्कि एक दशक का भी अंत है. मुश्किल से दो दशक पूर्व हर देश हर संस्था अपना अपना विज़न 2020 निकाल कर बैठी थी। आज 2020 के जाते जाते स्पष्ट है कि कितने सीमित होते हैं हमारे सारे आँकलन और हमारी सोच की लंबी छलांग।
कोविड-19 ने एक ऐसे विश्व व्यवस्था में दस्तक दी जिसका इम्यून सिस्टम पहले से ही कमज़ोर पड़ा हुआ था. आज हम बहुपक्षीयवाद की दुहाई देते हैं लेकिन वास्तव में इस बहुपक्षीय दुनिया का बिखराव 2020 के काफी पहले से ही होने लगा था. कोविड-19 ने तो बस एक उत्प्रेरक का काम किया.
विश्व व्यवस्था ऐसे मरीज की स्थिती में दिखी जैसे इस रोगी के सारे अंग पस्त पड़ चुके हों (multi-organ failure). कोविड-19 आने के पहले ही बहुपक्षीयवाद के ख़िलाफ आवाज़ उठानी शुरू हो गयी थी। पेरिस संधि पहले ही टूट चुकी थी. विश्व स्वास्थ्य संगठन चीन का पिछलग्गू प्रतीत हो रहा था, और संयुक्त राष्ट्र संघ जहां देश आपस में बैठ बातचीत करे सकें, वह तो इस पूरी प्रक्रिया से ही नदारद था। 2020 में विकसित दुनिया की व्यवस्थाएँ ऐसी बिखरी मानो सौ वर्ष के विकास को नकार व्यवस्थाएं 1920 में फैले स्पैनिश फ्लू के समान अस्त-व्यस्त हो गई हों.
आज अब तक लगभग 7.45 करोड़ लोग कोविड-19 से प्रभावित हो चुके हैं और 17 लाख लोग जान गाँव चुके हैं. पर संक्रमण थमने का नाम नहीं ले रहा. यूरोप और अमेरिका में इसकी दूसरा दौर आ रहा है. इस वजह से प्रश्न उठ रहा है कि आगे आने वाले दशक में इसका क्या प्रभाव रहेगा और देश इसका कैसे इस का सामना करेंगे?
नग़मा सहर: अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को जिस वजह से खड़ा किया गया था आज के समय में यह बुरी तरह से अपनी भूमिका निभाने में असफल रहे हैं. यह एक बड़ा प्रश्न बना हुआ है कि इनमें किस तरह के सुधार हो सकते हैं?
संजय जोशी:कोविड-19 को नियंत्रित करने में सबसे बड़ी कमी रही की कोई भी दो-चार देश इसे नियंत्रित या इसका सामना करने की संयुक्त रणनीति विकसित नहीं कर पाए। विश्व में नेतृत्व का अभाव देखा गया. अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं असफल दिखीं क्योंकि देशों के मध्य आपस में सहयोग ही नहीं रहा। हमने 2008 की आर्थिक मंदी देखी, SARS महामारी देखी. सभी हालातों में देशों ने योजनाबद्ध तरीके से इन चुनौतियों का सामना किया. मतभेद उस समय भी व्याप्त थे पर संकट की घड़ी में संस्थाएँ और देश आपस में जुड़े।
विश्व व्यवस्था की इस ढहती हुई इमारत के निर्माण के बारे में गंभीर रूप से फिर से सोचना पड़ेगा क्योंकि आगे आने वाले समय में चाहे कोविड-19 का संकट हो, तकनीकी दुनिया की चुनौती हो या पर्यावरण संकट हो, सभी में देशों को एक साथ रहकर मिलजुल कर काम करने के अलावा और कोई चारा नहीं है।
कोरोना के बाद विश्व व्यवस्था की इस ढहती हुई इमारत के निर्माण के बारे में गंभीर रूप से फिर से सोचना पड़ेगा क्योंकि आगे आने वाले समय में चाहे कोविड-19 का संकट हो, तकनीकी दुनिया की चुनौती हो या पर्यावरण संकट हो, सभी में देशों को एक साथ रहकर मिलजुल कर काम करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। इसी वजह से बहुपक्षीय संस्थाओं के पुन: निर्माण के बारे में सोचना बहुत ज़रूरी हो जाता है.
नग़मा सहर: आज इस सबसे मुश्किल घड़ी में जब दुनिया के देशों को सहयोग की ज़रूरत है तो वह ऐसी घड़ी में अंतर्मुखी होते जा रहे हैं. क्या यह एक तरह से विरोधाभास नज़र नहीं आ रहा है?
संजय जोशी: इतिहास जब 2020 की समीक्षा करेगा तो कोरोना-काल में देशों द्वारा उठाए गए बचकाने तौर तरीकों को देख अवश्य हैरत में आएगा। मानो होड़ लगी हुई है देशों के बीच कि कौन कितनी जल्दी अपने देश को वैक्सीनेट कर बचा सकता है। राष्ट्र अपनी सीमाओं पर पाबंदियां लगाने भर से इस महामारी को रोक नहीं सकते। हम पहचाने या न पहचाने, पर वायरस यह बात भली-भांति जानता है कि दुनिया एक है और वह इस दुनिया को संक्रमण द्वारा एक करके ही छोड़ेगा – बिना आपसी सहयोग के इसका ख़ात्मा नहीं किया जा सकता है. किसी के लिए भी यह सोचना कि वह अपने देश को बचा कर वायरस से बच जाएंगे, मूर्खता है. यह एक बड़ा सबक़ है जिसको आज की दुनिया सीखने के लिए तैयार नहीं है और इतिहास आश्चर्य करेगा कि उन्नत काही जाने वाली 21 वीं सदी के मानव को ये साधारण सी बात समझ में क्यों नहीं आई?
यह सोचना कि वह अपने देश को बचा कर वायरस से बच जाएंगे, मूर्खता है.
नग़मा सहर: इस संदर्भ में भारत की भूमिका विशेषकर इंडो-पैसिफिक में कैसी रही है?
संजय जोशी: भारत के दृष्टिकोण में बदलाव वास्तव में पड़ोसियों के कारण आए हैं. हिंद-प्रशांत क्षेत्र की भारतीय संरचना दूसरे देशों से इसलिए मेल नहीं खाती क्योंकि भारत सबक़े साथ मिलकर के काम करना चाहता है. उद्देश्य एक आइस व्यवस्था जिसमे देश नियमों के अंतर्गत कार्य करें और एकतरफ़ा निर्णय न करें। लेकिन हम देखते हैं कि चीन और अमेरिका एक दूसरे से वर्चस्व कायम करने की होड़ में लगे हुए हैं जिस वर्चस्व की होड़ में हमारे हित भी प्रभावित होते हैं। ऐसे में अपने हितों की सुरक्षा के लिए ज़रूर कुछ क़दम उठाने की आवश्यकता है।
नग़मा सहर: पिछले सात महीनों से चीन का लद्दाख क्षेत्र में भारत के साथ तनातनी बनी हुई है और चीन की आक्रामकता बढ़ती ही जा रही है. इस स्थिति को आप कैसे देखते हैं?
संजय जोशी: विश्व व्यवस्था का सबसे ज़्यादा फ़ायदा चीन ने ही उठाया है. अगर यह विश्व व्यवस्था नहीं होती तो चीन आज वहां नहीं होता जहां वह पहुंचा है. अकेले चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. चीन के लोगों के लिए यही हित में भी है की चीन नियम आधारित व्यवस्था का हिस्सा बन, अन्य देशों के साथ सामंजस्य बैठाकर काम करें. कोई भी देश आज इस स्थिति में नहीं है कि वो दूसरे के हितों के ख़िलाफ कार्य कर प्रगति कर सके।
विश्व व्यवस्था का सबसे ज़्यादा फ़ायदा चीन ने ही उठाया है. अगर यह विश्व व्यवस्था नहीं होती तो चीन आज वहां नहीं होता जहां वह पहुंचा है.
नग़मा सहर: विश्व व्यवस्था का भविष्य क्या होगा? क्या यह यूरोपियन यूनियन के संकट पर निर्भर करेगा? 2021 किस तरह से उम्मीद जगाता है और हमने इस वैश्विक महामारी से क्या सबक़ सिखा है?
संजय जोशी: कुछ सबक़ जल्द ही सीख ले जाते हैं लेकिन इस महामारी के सबक़ को सीखने में दुनिया को एक दशक तक लगेगा। लोग बार बार Big Reset की बात करते हैं – पर किसी के हाथ में कोई ऐसा स्विच नहीं है कि बटन दबा और बल्ब की रोशनी ऑन हो जाएगी. यह एक दीर्घकालिक और सतत प्रक्रिया है. कोविड-19 के बाद सबसे बड़ी चुनौती दुनिया के लिए सभी देशों की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था को समभालने की होगी, जिसके बारे में सभी देशों को आज फिर से नए ढंग से सोचने की जरूरत है. इन पुरानी व्यवस्थाओं और ढर्रे के चलते कोई भी देश आगे आने वाले समय में ऐसी महामारी का सामना नहीं कर सकता.
नई स्वास्थ्य व्यवस्था में टेक्नोलॉजी के माध्यम से क्या सुधार लाए सकते हैं? नई तकनीकों के प्रयोग के लिए स्वास्थ्य रक्षा से सम्बन्धित की सारे प्रोटोकॉल बदलने पड़ेंगे. बड़ी बड़ी दावा कंपनियों को भी यह सोचना पड़ेगा कि कैसे स्वास्थ्य व्यवस्था को और अधिक सक्षम और किफायती बनाए जाए जिस से वह हरेक के लिए समय पर उमलब्ध हो सके।
नई स्वास्थ्य व्यवस्था में टेक्नोलॉजी के माध्यम से क्या सुधार लाए सकते हैं? नई तकनीकों के प्रयोग के लिए स्वास्थ्य रक्षा से सम्बन्धित की सारे प्रोटोकॉल बदलने पड़ेंगे. बड़ी बड़ी दावा कंपनियों को भी यह सोचना पड़ेगा कि कैसे स्वास्थ्य व्यवस्था को और अधिक सक्षम और किफायती बनाए जाए जिस से वह हरेक के लिए समय पर उमलब्ध हो सके। . गत सदी के स्वास्थ्य उद्योग की अवधारणा कि मरीज़ सोने की अंडा देने वाली मुर्गी है, बदलने होंगे – यदि मुर्गी ही नहीं रहेगी तो अंडे कहां से आएंगे. इसके लिए बिग फार्मा को गहराई से आत्म चिंतन करना होगा. शोध से लेकर आविष्कार तक कैसे दवाओं और वैकसीन की कीमत कम हो ताकि हेल्थ टू ऑल के उद्देश्य की सही माने में पूर्ति हो सके और हम अपने मानवीय संसाधनों को सुरक्षित रख सकें.
वर्क फ्रॉम होम के कारण आवागमन और यात्रा में कमी आएगी, ग्लोबल वार्मिंग के लिए यह एक अच्छी ख़बर है. इन बदलावों के चलते यदि एक नई अर्थव्यवस्था कायम होती है तो यह एक बहुत बड़ा सबक होगा. यदि दुनिया साफ और स्वस्थ रह सके तो वास्तव में 10 साल की अवधि तो बहुत काम है.
यदि विश्व को आगे बढ़ना है तो ऐसे कई सबक़ कोविड-19 से सीखने ज़रूरी है।
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Sunjoy Joshi has a Master’s Degree in English Literature from Allahabad University, India, as well as in Development Studies from University of East Anglia, Norwich. ...
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