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अगर अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच चल रहा वाकयुद्ध किसी सशस्त्र कार्रवाई में तबदील हुआ तो दक्षिण कोरिया भीषण तबाही के साथ इस लड़ाई में पिस जाएगा।
डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन और उत्तर कोरिया के बीच लगातार तीखे होते वाक्युद्ध ने दक्षिण कोरिया (कोरिया गणराज्य) के राष्ट्रपति मून जे-इन को गंभीर परेशानियों में डाल दिया है। इस महीने के पूर्वार्ध में, उत्तर कोरिया द्वारा कथित आइसीबीएम के परीक्षण के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ में अमेरिका के स्थायी प्रतिनिधि निक्की हाले ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को बतायाः दुनिया गौर कर रही हैः अमेरिका खुद को एवं अपने सहयोगियों की रक्षा करने के लिए अपनी पूरी क्षमताओं का उपयोग करने के लिए तैयार है। हमारी क्षमताओं में हमारी ठोस सैन्य शक्ति शामिल है। अगर ऐसी नौबत आई तो हम उनका उपयोग करने में हिचकेंगे नहीं, लेकिन हमारी कोशिश होगी कि हम उस दिशा में जाने से बचें।
अगर अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच चल रहा वाकयुद्ध किसी सशस्त्र कार्रवाई में तबदील हुआ तो दक्षिण कोरिया भीषण तबाही के साथ इस लड़ाई में पिस जाएगा। इसी दुविधा में फंसे दक्षिण कोरिया ने 09 जुलाई को उत्तर कोरिया के साथ सीधा संवाद करने की इच्छा जताई और उत्तर कोरिया के समक्ष सीमा के निकट भारी सैन्य मौजूदगी के साथ विद्वेषपूर्ण कार्रवाईयों से परहेज करने के लिए सैन्य बातचीत करने का प्रस्ताव रखा। यह प्रस्तावित वार्ता सीमा पर पानमुनजोम में की जानी थी जिसका उपयोग पहले भी दोनों कोरियाई देश आपसी बातचीत के लिए करते रहे हैं।
उत्तर कोरिया ने इस प्रस्ताव पर कोई उत्तर नहीं दिया लेकिन उत्तर कोरिया के आधिकारिक समाचार पत्र ‘रोडोंग सिनमुन’ में प्रकाशित एक लेख में इसने दक्षिण कोरिया को संकेत दिया कि युद्ध छिड़ने की स्थिति में दक्षिण कोरिया में मौजूद अमेरिका के अधिनायकवादी आक्रमणकारी कोरियन पीपुल्स आर्मी के मुख्य निशाना होंगे।
इसे अवश्य समझा जाना चाहिए कि कोरिया गणराज्य (आरओके) के प्रति अमेरिका की रक्षा बाध्यताएं 1950 के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के समझौते, जिसके अनुसार अमेरिका संयुक्त राष्ट्र कमान (यूएनसी) का नेतृत्व करता है और 1954 के आरओके/अमेरिका परस्पर सुरक्षा समझौते, जिसके अनुसार दोनों ही देश बाहरी ताकतों द्वारा किए गए आक्रमण की स्थिति में एक दूसरे की सहायता करेंगे, से उपजी हैं।
अमेरिका और कोरिया गणराज्य की सेनाओं के बीच मतभेद को बढ़ाने की कोशिश करते हुए लेख में यह भी आरोप लगाया गया कि “अमेरिका का कुटिल इरादा दक्षिण कोरिया की कठपुतली सेना को महज तोप-चारा या बलि का बकरा बनाने की भूमिका तक सीमित करने के द्वारा किसी भी सूरत में उत्तर कोरिया के खिलाफ युद्ध छेड़ना और उत्तर तथा दक्षिण कोरिया के बीच सैन्य संघर्ष को और हवा देने का है।”
कोरिया में अमेरिकी सेनाओं (यूएसएफके) का कमांडर संयुक्त राष्ट्र कमान तथा आईओके/अमेरिका संयुक्त बल कमान (सीएफसी) का भी प्रमुख कमांडर (कमांडर इन चीफ) होता है।
कोरियाई युद्ध (1950-53) के बाद से, एक लंबे समय तक आरओके सशस्त्र बल अमेरिकी कमान के अंतर्गत था। जब आरओके का आत्म-विश्वास बढ़ा, तो आरओके/अमेरिका संयुक्त बल कमान के लिए एक समेकित मुख्यालय की 1978 में स्थापना की गई, जो अब दक्षिण कोरिया की रक्षा के लिए जिम्मेदार है।
यूएसएफ के बड़े घटकों में आठवीं सेना, सातवीं वायु सेना और कोरिया में अमेरिकी नौ सेना बल शामिल हैं। यूएसएफ के आरओके में 85 से अधिक सक्रिय स्थानों पर नियंत्रण रखता है। दक्षिण कोरिया में लगभग 28,500 अमेरिकी सेना के जवान तैनात है। कोरियाई प्रायद्वीप में अमेरिकी युद्ध सामग्रियों में 140 एम1ए1 टैंक, 100 उन्नत फाइटर, 70 एफ-16, 70 एएच-64 हेलिकॉप्टर आदि शामिल हैं। कोई भी जरूरत पड़ने पर अमेरिका के 7वें बड़े, प्रशांत बेड़े एवं सातवीं वायु सेना कमान की मजबूत ताकत बेहद कम समय में अमेरिका की युद्ध क्षमता को बढ़ाने के लिए बिल्कुल निकट में तैयार रहती है।
जब समय गुजरने के साथ आरओके की सैन्य क्षमता बढ़ गई तो 1978 में सिओल स्थित सीएफसी मुख्यालय को पुनर्गठित किया गया ताकि अमेरिकी एवं कोरियाई दोनों ही बलों के अधिकारियों को उसमें शामिल किया।
सीएफसी का मिशन वक्तव्य है, “अमेरिका एवं आरओके के संयुक्त सैन्य प्रयासों द्वारा दक्षिण कोरिया के खिलाफ किसी भी बाहरी आक्रमण की विद्वेषपूर्ण कार्रवाई को रोकनाः और रोक पाने में विफलता की सूरत में आरओके के खिलाफ बाहरी सशस्त्र हमले को पराजित करना।” सीएफसी की कमान का नेतृत्व एक अमेरिकी जनरल करता है जो अमेरिका एवं आरओके दोनों के ही राष्ट्रीय कमानों को रिपोर्ट करता है।
सीएफसी का संचालनगत नियंत्रण (ओपीसीओएन) अब दोनों देशों की सभी सेनाओं के 600,000 सक्रिय ड्यूटी सैन्य जवानों पर है। युद्ध के समय आरओके के लगभग 35 लाख आरक्षित (रिजर्व-सैनिक) जवानों को भी बुलाया जा सकता है। गौरतलब है कि दक्षिण कोरिया के सभी पुरूषों के लिए दो वर्ष की सैन्य ड़यूटी अनिवार्य है।
कोरिया की सैन्य इकाइयां भर्ती, प्रशिक्षण एवं बजट के लिए स्वतंत्र हैं और शांति काल के समय वे आरओके जनरलों के कमान के अंतर्गत रहती हैं। केवल युद्ध के ही समय कोरिया की सैन्य इकाइयां सीएफसी के कमान के तहत आती हैं। दक्षिण कोरिया में वास्तविक लोकतंत्र के उदय के बाद 1994 में दक्षिण कोरिया को उसकी सेनाओं पर शांतिकाल के दौरान नियंत्रण का अधिकार लौटा दिया गया है।
राष्ट्रपति रो मू-ह्यून (2002-2007) के कार्यकाल के दौरान, दक्षिण कोरिया ने अमेरिका के साथ बातचीत की शुरूआत की थी कि युद्धकाल के समय भी दक्षिण कोरिया को अपनी सेनाओं पर पूर्ण संचालनगत नियंत्रण का अधिकार हस्तांतरित कर दिया जाए। 2008 में आखिरकार एक समझौता हुआ जिसमें दो पूरक समन्वित कमानों की स्थापना करने पर निर्णय हुआ। इसके तहत आरओके को ‘समर्थित राष्ट’ एवं अमेरिका को ‘समर्थक राष्ट्र’ माना गया। वामपंथी झुकाव वाले रो-मून-ह्यून प्रशासन ने अमेरिका के साथ एक अधिक स्वतंत्र सुरक्षा संबंधों की इच्छा जताई। इसका एक उद्देश्य उत्तर कोरिया से निपटने के लिए एक मजबूत समर्थन हासिल करना था। कमान के इस हस्तांतरण को पूरा करने के लिए 5 वर्षों की समय सीमा निर्धारित कर दी गई। बहरहाल, 2010 में हस्तांतरण के समय को बढ़ाकर 2015 कर दिया गया, जब उत्तर कोरिया पर दक्षिण कोरिया के एक युद्धपोत ‘शियोनान’ को नष्ट कर देने का आरोप लगाया गया।
2007 के चुनावों के बाद, 2016 तक दक्षिण कोरिया में लगातार दो दक्षिणपंथी संकीर्णवादी (कंजर्वेटिव) सरकारें सत्ता में आईं। पहली, राष्ट्रपति ली म्यूंग-बाक के नेतृत्व में एवं बाद में पार्क- गेयून-हई के संक्षिप्त कार्य काल के दौरान उनके शासन काल में, उत्तर कोरिया के साथ उनके संबंधों में बहुत अधिक गिरावट आई। उत्तर कोरिया ने भी नाभिकीयकरण (परमाणु ) तथा मिसाइल लांच करने के कार्यक्रमों को आक्रमक तरीके से बढ़ाना शुरू कर दिया जिससे कोरियाई प्रायद्वीप में तनाव बहुत ज्यादा बढ़ गया।
इन तनावपूर्ण परिस्थितियों में, दक्षिण कोरिया की कंजर्वेटिव सरकार ने अक्तूबर 2014 को यह उचित समझा कि फिलहाल, दक्षिण कोरियाई सेना के युद्धकाल नियंत्रण को अपने हाथ में ले लेना बुद्धिमानी नहीं होगी और इसमें अभी और देर करना उपयुक्त होगा। कमान के हस्तांतरण के लिए नई तारीख निर्धारित करने के बजाए दोनों पक्षों ने “यह सुनिश्चित करने के लिए कि संयुक्त रक्षा परिस्थिति मजबूत और सुगम बनी रहे” नियंत्रण के हस्तांतरण के लिए एक स्थिति आधारित दृष्टिकोण को अपनाना ज्यादा श्रेयस्कर समझा। जब राष्ट्रपति पार्क ग्यून-हई की उदारवादियों ने 2015 तक युद्धकाल नियंत्रण को वापस लेने के अपने चुनावी वायदे को तोड़ने पर आलोचना की तो उनके प्रवक्ता ने कहा, “हमें इस मुद्दे पर एक यथार्थवादी एवं ठंडे दिमाग से तथा राष्ट्रीय सुरक्षा पर विचार करते हुए ध्यान देना चाहिए।”
इसके बाद कमान हस्तांतरण को 2020 के दशक के मध्य तक टाल दिया गया। उम्मीद है कि तब तक दक्षिण कोरिया ऐसी क्षमता का निर्माण करने में सक्षम हो जाएगा कि वह उत्तर कोरिया द्वारा नाभिकीय हथियारों, प्रक्षेपास्त्रों एवं अग्रिम पंक्ति तोपों तथा रॉकेट बैटरियों को लांच करने की दिशा में उठाए गए किसी भी कदम का पता लगा सके और उसे नष्ट कर सके।
हाल में निर्वाचित (इंस्टॉल्ड) उदारवादी राष्ट्रपति मून जे-इन ने अपने चुनाव अभियान के दौरान संकल्प लिया था कि वह अपने कार्यकाल के दौरान ओपीसीओएन हस्तांतरण संपन्न कर लेंगे। राष्ट्रपति मून उदारवादी राष्ट्रपति रो मू-ह्यून के चीफ ऑफ स्टाफ थे एवं उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं। दक्षिण कोरिया का रक्षा मंत्रालय अब 2022 तक -राष्ट्रपति मून के कार्यकाल के खत्म होने से पहले ओपीसीओएन हस्तांतरण पूरा कर लेने पर कार्य कर रहा है। 19 जुलाई को जारी राष्ट्रपति परामर्शदात्री समिति द्वारा तैयार एक नीति रोडमैप में कहा गया कि सरकार जितनी जल्द संभव हो, युद्धकाल संचालन नियंत्रण का हस्तांतरण कर लेगी।
यह एक स्वयंसिद्ध सिद्धांत है कि एक संप्रभु सरकार के लिए इसका कोई अर्थ नहीं है कि किसी युद्धकाल की स्थिति में कोई देश अपने खुद के सैन्य बलों पर अपना नियंत्रण किसी दूसरे देश को सुपुर्द कर दे जबकि उसके देश के नागरिकों का जीवन दांव पर लगा हो। विश्लेषकों ने सही ही विचार व्यक्त किया है कि कोरियाई प्रायद्वीप में किसी युद्ध की स्थिति में अमेरिका को नियंत्रण सौंप देने का अर्थ यह हुआ कि अमेरिकी वैश्विक रणनीति अग्रणी भूमिका में होगी, जबकि दक्षिण कोरिया के हित अपेक्षाकृत गौण रहेंगे।
अब, व्हाइट हाउस में लगातार परेशानियों में घिरते जा रहे ट्रंप के साथ कोरिया प्रायद्वीप का भी तलवार की धार पर चलना अवश्यम्भावी सा प्रतीत हो रहा है। राष्ट्रपति मून जे-इन के लिए, सर्वोच्च प्राथमिकता किसी भी कीमत पर अमेरिका एवं उत्तर कोरिया के बीच किसी भी प्रकार के संघर्ष को टालने की होगी।
लेखक एक पूर्व आईएफएस अधिकारी हैं जो कोरिया गणराज्य में भारत के राजदूत थे।
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